SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्यानरूप निज आतमा, जड़सरूप पर मान / जड़तजि चेतन ध्याइये, सुद्धभाव सुखदान // 44 // निरमल रलत्रय धरै, सहित भाव वैराग। चेतन लखि अनुभौ करें, वीतरागपद जाग // 45 // निरमल रलनय तहां, जहां न पुन्य न पाप // 46 // थिर समाधि वैरागजुत, होय न ध्यावै आप। भागहीन कैसे करै, रतन विसुद्ध मिलाप // 47 // विषयसुखनमैं मगन जो. लहै न सुद्ध विचार / ध्यानवान विषयनि तजै, लहै तत्त्व अविकार // 48 // अधिर अचेतन जड़मई, देह महादुखदान / जो यासौं ममता करै, सो बहिरातम जान // 49 // सरै परै आमय धरै, जरै मरै तन एह / हरि ममता समता करै, सो न वरै पन-देह // 50 // पापउदैको साधि, तप, करै विविध परकार / सो आवै जो सहज ही, बड़ौ लाभ है सार // 51 // करमउदय फल भोगते, करै न राग विरोध / सो नासै पूरव करम, आगें करै निरोधै // 52 // चौपाई (15 मात्रा) कर्मउदै सुख दुख संजोग, भोगत करें सुभासुभ लोग। ताते बांधै करम अपार, ग्यानावरनादिक अनिवार॥ 53 // जबलौं परमानूसम राग, तबलौ करम सकें नहिं त्याग / परमारथ ग्यायक मुनि सोय, रागत विनु काज न होय 54 १पर अर्थात् शरीरादि पुद्गल / 2 रोग। 3 संवर। . (57) सुख दुख सहै करम बस साध, करै नरागविरोध उपाध। ग्यानध्यानमैं थिर तपवंत, सो मुनि करै कर्मको अंत // 55 गहै नहीं पर तजै न आप, करै निरंतर आतमजाप / ताकै संवर निर्जर होय, आस्रव वंध विनासै सोय // 56 // तजि परभाव चित्त थिर कीन, आप-स्वभावविर्षे है लीन। सोई ग्यानवान दृगवान, सोई चारितवान प्रधान // 57 // आतमचारित दरसन ग्यान, सुद्धचेतना विमल सुजान। कथन भेद है वस्तु अभेद, सुखी अभेद भेदमैं खेद // 58 // जो मुनि थिर करि मनवचकाय, त्यागै राग दोष समुदाय / धरै ध्यान निज सुद्धसरूप, बिलसै परमानंद अनूप // 59 // जिह जोगी मन थिर नहिं कीन, जाकी सकति करम आधीन। करइ कहा न फुरै बल तास, लहै न चेतन सुखकी रास // 60 जोग दियौ मुनि मनवचकाय, मन किंचित चलि वाहिर जाय। परमानंद परम सुखकंद, प्रगट न होय घटोमैं चंद // 61 // सव संकल्प विकल्प विहंड, प्रगटै आतमजोति अखंड / अविनासी सिवको अंकूर, सो लखि सांध करमदल चूर॥६२ विषय कषाय भाव करि नास, सुद्धसुभाव देखि जिनपास। ताहि जानि परसौं तजि काज, तहां लीन हूजै मुनिराज // 63 विषय भोगसेती उचटाइ, शुद्धतत्त्वमै चित्त लगाइ / होय निरास आस सव हरै, एक ध्यानअसिसौं मन मरै // 64 मरै न मन जो जीवै मोह, मोह मरै मन जनम न होय। ज्ञानदर्शआवर्ने पलाय, अंतरायकी सत्ता जाय // 65 // / 1 बादलोंकी घटामें / 2 परसौं-परपदााँसे / 3 ध्यानरूपी तलवारसे / Scanned with CamScanner
SR No.035338
Book TitleDhamvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDyantrai Kavi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size61 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy