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________________ (59) सम्यकदरसन ग्यान, चारित सिक्कारन कहे / नय व्यवहार प्रमान, निह. तिहुमैं आतमा // 76 // लाख वातकी वात, कोटि ग्रंथको सार है। जो सुख चाहौ भ्रात, तो आतम अनुभौ करौ // 7 // लीजौ पंच सुधारि, अरथ छंद अच्छर अमिल / मो मति तुच्छ निहारि, छिमा धारियौ उरविर्षे / / 78 // द्यानत तत्त्व जु सात, सार सकलमैं आतमा / ग्रंथ अर्थ यह भ्रात, देखौ जानौ अनुभवौ // 79 // इति तत्त्वसार। जैसे भूप नसे सव सैन, भाग जाइ न दिखावै नैन / तैसे मोह नास जव होय, कर्मघातिया रहै न कोय // 6 // कीने चारिघातिया हान, उपजै निरमल केवलग्यान।" लोकालोक त्रिकाल प्रकास, एक समॆमें सुखकी रास // 67 // त्रिभुवन इंद्र नमैं कर जोर, भाजै दोषचोर लखि भोर / आजु नाम गोत वेदनी, नासि भय नूतन सिवधनी // 6 // आवागमनरहित निरवंध, अरस अरूप अफास अगंध / अचल अबाधित सुख विलसंत,सम्यकआदि अष्टगुणवंत 69 मूरतिवंत अमूरतिवंत, गुण अनंत परजाय अनंत / लोक अलोक त्रिकाल विथार, देखै जानै एकहि वार // 7 // - सोरठा। लोकसिखर तनुवात, कालअनंत तहां बसे / धरमद्रव्य विख्यात, जहां तहां लौं थिर रहै // 71 // ऊरधगमन सुभाव, तातै वंक चलै नहीं। लोकअंत ठहराव, आगें धर्मदरव नहीं // 72 // रहित जन्म मृति एह, चरमदेहत कछु कमी। जीव अनंत विदेह, सिद्ध सकल वंदौं सदा // 73 // . ते हैं भव्य सहाय, जे दुस्तर भवदधि तरें। तत्त्वसार यह गाय, जैवंतौ प्रगटौ सदा // 74 // देवसेन मुनिराज, तत्त्वसार आगम कह्यौ / जो ध्यावै हितकाज, सो ग्याता सिवसुख लहै // 75 // 1 राजाके मर जानेपर / 2 आयुःकर्म / 3 अनंतज्ञान वीर्य सुख दर्शन सूक्ष्म अव्यावाध अवगाहन अगुरुलघु / 4 अन्तिम शरीरसे / 5 शरीररहित / 6 मूलग्रन्थ (74 गाथा) देवसेनसूरिका प्राकृतमें है, उसका यह अनुवाद है। Scanned with CamScanner
SR No.035338
Book TitleDhamvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDyantrai Kavi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size61 MB
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