________________ (158) नमो अरहताना, नौं उबजी / शारा। गि प्यारा॥ // 1 // गहियौ // 7 // नी, घर बैठे इक जागै, कुछ भोजन कुछ जारी कमक्रम तजिक, छाछि अहार पहै लै / त्यागिक पानी राखै, पानी तजि संथारा। भमिमाहिं थिर आसन मांडे, साधरमी ढिग प्यार जतम जानौ यह न जपै है, तब जिनवानी कहिन यौं कहि मौन लियौ सन्यासी, पंच परमपद गहियो। च्यारों आराधन मन ध्यावै, बारै भावन भावै। दस लच्छन मुनिधर्म विचार, रत्नत्रय मन लावै॥ पैंतिस सोलै पट पन चारौं, दो इक वरन विचारै। काया तेरी दुखकी ढेरी, ग्यानमई तू सारै // 8 // अजर अमर निज गुनगन पूरी, परमानंद सुभावै। आनंदकंद चिदानंद साहब, तीन जगतपति ध्यावै॥ छधा तृषादिक होहिं परीपह, सहै भाव सम राखे। अतीचार पांचौं सब त्यागै, ग्यानसुधारस चाखै // 9 // हाड़ चाम रहि सूकि जाय सब, धरमलीन तन त्याग। अदभुत पुंन उपाय सुरगमैं, सेज उठै ज्यौं जागै॥ तहाँसौं आवै सिवपद पावै, विलसै सुक्ख अनंता। द्यानत यह गति होहि हमारी, जैनधर्म जैवंता // 10 // इति समाधिमरण / (169) आलोचनापाट। प्रथम नमौं अरहतानं, दुतिय नमों सिद्धानं जी। त्रितिय नमों आइरियानं, नमों उवज्झायानं जी // पंच नमों लोए सव्य, साहूनं गुन गाऊं जी। चारों मंगल अरहंत, सिद्ध साधु धर्म ध्याऊं जी // 1 // चारों उत्तम लोकमैं, जिन सिद्ध साधु सुधर्म जी। चारौं सरन गहौ जिनवर, सिद्ध साध धर्म पम जी // वृपभ चंदप्रभ सांतजिनं, वर्धमान मन वंदों जी। हुई होहिंगी चौवीसी, सब नमि पाप निकंदों जी // 2 // श्रीजिनवचन सुहावने, स्याद्वाद अविरुद्धं जी। तीन भवनमें दीपक बंदों, त्रिकरण सुद्धं जी // प्रतिमा श्रीभगवंतकी, स्वर्ग मर्त्य पातालं जी। कृत्य अकृत्य दुभेदसौं, चंदन करौं त्रिकालं जी / / 3 // पूरव पाप जु मैं कियौ, कृत कारन अनुमोदं जी। मन वच काय त्रिभेदसौं, सब मिथ्या होदं (2) जी॥ आगें पाप जु होयगौ, उनचास विध नासौं जी। वर्तमान अघ छै करौ, तुम आगें परकासौं जी // 4 // सर्व जीवसौं मित्रता, गुनी देखि हरखाऊं जी। दीन दया सठसौं समता, चारौं भावन भाऊ जी। प्रभु पूजूं जुग भेदसौं, गुरुपदपंकज सेऊं जी। आगम अभ्यासों सदा, रतनत्रै नित बेऊं जी // 5 // अच्छर मात्र अरथ अनमिल, भूलि कह्यौ सु खिमाऊं जी। प्रात दोपहर सांझकों, अर्ध रात्रमैं भाऊ जी // द्यानत दीनदयालनी, भौ भौ भगति सु दीजै जी।। अंत समाधिमरन करों, राग विरोध हरीजै जी // 6 // / इति आलोचनापाठ। Scanned with CamScanner