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________________ (196) निपाली जी। भालौजी॥१२॥ राखौ सम्यक सात विसन तजि, आठ मूल गुन पाली लगन लगाय प्रथम प्रतिमासों, बारै वरत संभाला वह मन महा चपल थिर कीजै, सामायिक रस पीजे सिव अभिलाख धरौपोसहव्रत,भोजन सचित न कीजैली निसभोजन नारी संगत, तजिक सील संभारी जी सव आरंभ परिग्रह भाई, अघ उपदेस संभारौ जी // 13 // हरिममता सब धन परिजनकी, करि निरभै भुव वासा लेह अहार उदंड-विहारी, तजि कायाकी आसा जी छिन छिन आतम आतम पर पर, यही भावना भाऊंनी बावन अच्छर पढ़ों अर्थसों, अथवा मौन लगाऊंजी // 14 // सुद्ध असुद्ध भाव दो तेरे, सुभ अरु असुभ असुद्धं जी। असुभ भाव सरवथा विनासौ, सुभमें हो प्रतिबुद्धं जी. सुद्ध भाव जिह बिध बनि आवै, सोई कारज धारोह द्यानत जीवन निपट सहल है, जगतैं आप निकारौ जी॥१५॥ इति अक्षरवावनी। (197) नेमिनाथ-बहत्तरी। अडिल्ल / वंदों नेमि जिनंद, चंद निरधार हैं। वचन किरन करि, भ्रम तम नासनिहार हैं। भवि चकोर वुध कुमुद, नखत मुनि सुक्खदा / ग्यान-सुधा भी-तपत, नास पूरन सदा // 1 // मथुरामैं हरि कंस, विधंस किया जव। . समुदविजै दस भ्रात, किस्न हलधर सबै // जरासिंधसौं डरि, सौरीपुरकौं चले। आए सागर तीर, चतुर सव ही मिले // 2 // होनहार श्रीनेम, जिनंद प्रभावतें। नारायनको पुन्य, हली लखि चावतें // : आयौ देव तुरंत, द्वारिका पुर किया। महावली लखि राज, किस्नजीकौं दिया // 3 // गरभ छमास अगाऊ, धनपति आइयौ।। जनक भवन तिहुँ काल, रतन बरसाइयौ // कनक रतनमै, अति सोभा पुरकी करी।। मात सिवादेवी सोई, बहु सुख भरी // 4 // सोलै सुपने देखे, पच्छिम रातमैं / गज पावक अभिराम, उठी सो प्रातमैं // समुदविजै पैजाय, सुपन फल सुन लिया। तिहुजगपति सुत होसी, अति आनंद किया // 5 // Scanned with CamScanner
SR No.035338
Book TitleDhamvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDyantrai Kavi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size61 MB
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