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________________ जप मुखकार / परममाकासार।।१९।। विध प्रकार। जहिय सार // रगति दुःख अपार। अति कर लगार२० मिटी कपाय। (120) तीनजगत यस करन हरन दुख, धरम मंत्र न जप 'बहते पानी हाय नधोई,फिरि पछिताय होय का पात्रदानमैं जो धन खरच, इह पर भी सुख विविध आप देस परदेस भोगवे, राजलच्छमी कहिये दान विना इह भीम दारिद, पर भौ दुरगति दुःख दान समान न आन पुन्य कछु, देहि ढील मति कर काय पायकै व्रत नहिं कीन, आगम पढ़ि नहिं मिटी धनकौं जोरि दान नहिं दीनी, कहा काम कीनों इह में लीनों जनम मरनकै कारन, रतन हाथसौं चला गमा तीनों वात फेरि कब पात्र, सास्त्रग्यान धन नर-परजाय सर्वया इकतीसा ( मनहर)। पापको इलाज त्याज पुन्य काजके समाज, खात है परायो नाज आनँदको खेत है। ग्यानकों जगावत है मानकों भगार्वत है, पारको लगावत है, जैनधर्म केत है // मानुप जनम पाय, तप कीजै मन लाय, भीसागर सुखसेती, तरित्रकों सेत है। वुरौ धन घरमाहिं, पूजा दान वनै नाहि, दुर्गतिके दुख होहिं तासों कहा हेत है // 22 // अडिल ( 21 मात्रा)। श्रीजिनचरनकमलकी पूजा ना करी / देखि संयमी दान भगति नहिं आदरी // ... धाममाहिं वसि काम, कहा तेने किया। गहरे जलमें, नरमौकों पानी दिया // 23 // (121) जो सागरमें भमत, कठिन नरभी लहै / तन-भोग विराग, धन्य जो तप गहै // सीन वनै ती घरमै, अनुव्रत पालियै / पात्रदानविधि, दिन दिन अधिक संभालियै // 24 // चल्यौ धामतें गाम, बहुत तोसा लिया। राहमाहि दुख नाहि, सदा सुख तिन किया // भवते पर-भव जात, दान व्रत जो धरै। अद्भुत पुन्य उपाय, साहवी सो करै // 25 // सबैया तेईसा ( मत्तगयन्द)। में नर भोग विथारन, कीरत कारन काम वनाचै / उदैमहिंजोग वनैं नहिं, आपकौं दुःखकी वेलि बढ़ावै // के भाव सदा अति उत्तम, दान दिय बहु-पुन्य कमावै / टानकौं देत है भाव समेत है, सो जगमैं जनम्यौ कहलावै 26 गीता। निज सत्रु जो घरमाहिं आवै, मान ताकौ कीजियै / अति ऊंच आसन मधुर वानी, वोलिकै जस लीजियै / / भगवान सुगुन-निधान मुनिवर, देखि क्यौं नहिं हरखियै / पड़गाहि लीजै दान दीजै, भगति वरखा वरखियै // 27 // ___कुंडलिया। / दान देत है साधकों, नित प्रति प्रीति लगाय / जा दिन मुनि आवें नहीं, दुख मानै अधिकाय // दुख मानै अधिकाय, पुत्र मृतु अति भारी / अहो कर्म दुर्भाग्य, वात तें कहा विचारी। विफल आज दिन गयौ, भयौ नहिं धर्महेत है। *चित उदार तजि लोभ, साधकों दान देत है // 28 // Scanned with CamScanner
SR No.035338
Book TitleDhamvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDyantrai Kavi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size61 MB
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