________________ (240) सोया इकतीसा / सब रोमकौं फलाय एक एक न्यारी करी, असंख्यात कोड़ि वर्षके समै फलाइए। एती एती रोम एक एक रोम पर राखौ, सबकी गनतीकै उधार पल्ल गाइए॥ कोड़ा कोड़ी पच्चीसके दीपोदधि राजू माहिं, उद्धार रोम सौ सौ वरसमें गिनाइए / सोई अद्धापल्ल दस कोड़ा कोड़ीके सागर, ऐसी थिति भोगिकै कपाय न घटाइए? // 20 // चौपई। चहुगति माहिं रुला तू जीव, अधापल्ल थिति लही सदीय / तेतिस सागर नरक मझार, इकतिस सागर प्रैवक धार // 21 // जगमें दुख सुख लहे अनेक, पायौ नाहीं ग्यान विवेक। सवमैं दुल्लभ नर अवतार, आय सुघाट चलै मतिहार // 22 // दोहा। इस गिनतीका हेत यह, जानि होय वैराग। जो सुनिकै समझे नहीं, ताके बड़े अभाग // 23 // कही सुनी भोगी लखी, जिन यह थिति बहु भाय। सो हम जान्यौ आतमा, रहूं तास ली लाय // 24 // गोमटसार निहारिक, भापी द्यानत सार / भूलचूक यामैं कह्यौ, लीजो संत सुधार // 25 // इति पल्लपचीसी। ( 241) पटगुणी-हानि-वृद्धि-वीसी। दोहा। संख असंख अनंत गुन, भए वृद्धि पट हान / सुद्ध अगुरुलघु गुनसहित, नमों सिद्ध भगवान // 1 // पुग्गल धर्म अधर्म नभ, काल पंच जड़रूप / छहाँ दरव ग्यायक सदा, नमी सिद्ध चिद्रुप // 2 // सबैया इकतीसा। धर्म अधरम नभ एक एक दर्व सब, काल असंख्यात दर्व चेतन अनंत हैं। पुग्गल अनंतानंत काहूकी न आदि अंत, परजै उतपात वै गुन धुववंत हैं। जीव दर्व ग्यायक सरीर आदि पुग्गल है, धर्माधर्म दर्व गति थिति हेत तंत हैं। व्योम ठौर देत काल नौ'-जीरन भाव हेत, ऐसी सरधासौं संत भौ-जल तरंत हैं // 3 // दर्व ग्यायकति हेत तत देत, एक एक दरव, अनंत अनंत गुन, . अनंत अनंत परजाय पेखियत है। एक एक गुन माहिं अनंत अनंत भेद, एक एक भेद न्यारे न्यारे देखियत है / केई भेद काहू समै वृद्धिरूप परनमैं, केई भेद काहू समै हानि लेखियत है। अद्भुत तमासा ग्यान आरसीमैं प्रतिभासा, दर्वित अलेख कर्मसेती भाखियत है // 4 // 1 नवीन तथा जीर्ण (पुराना) करनेका कारण है। ध. वि 16 Scanned with CamScanner