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________________ / 84 ) - AELismentations सोय॥९॥ और लैन आयौ कहि हमकी, दीजै इसते अधिका हो ऐसौ मद को गहै विचच्छन, भांग खाय नहिं उत्तम सोय। वेश्या-व्यसन / मत्तगयन्द सर्वया / माँसकौं खात सुहात सदा मंद, वात मृपा तन नीचनि भी कीरत दाहक जी रत चाहक, दामकी गाहक ज्यों गुर-ची। कर सुभाव उपाव विना नर, अंबर छ्वत लत हैं / नर्कसखी लख आन मिल, गनिका कहँ जेम कुहारीको / ... शिकार-व्यसन / सबैया इकतीसा। दर्व नाहिं हर पर नरसौं न बात करे, वेश्या मदको न काज जूवा नाहिं जानती। पंज ऐब सरै विना सदा दाँत धरै तिना, पुरसौं दई निकास वनवास ठानती // कछू नहीं पास भय-त्रास रच्छासौं निरास सवको सहाय दिल्लीपति तोहि मानती। साहनिका साह पातसाह महंमदसाह साहवसौं मृगी दीन वीनती वखानती // 11 // राजमल जैन बी.ए. (85) दर्व लैन काज प्रान दैन जात रनमाहिं, याकी नाव जीतवसौं जीतव रहत हैं। प्रान हरॆ एक नास दर्वसौं कुटंब त्रास, प्रानसेती दर्व-दुःख अति ही महत हैं। यातें चोर भाव निरवार है द्यानतदार सत्तकी पदवी सार सज्जन लहत हैं // 12 // परस्त्रीव्यसन / साधनि. त्रिया जात लखी सुता सुसौ मात ही सक्त सवै छोड़ि व्याही एक वरी है। रावनकों देखौ सब परनारि सेई कव, अवलौं अकीरति दसौं दिसामैं भरी है // चोरी दोप जिहमाहिं संतान रहत नाहि, हाकिमकी दंड पंच फिटकार परी है। एते दुःख इहां आगें पूतली नरक जहां, कच्छ-लंपटी है कौंन जाकी बुद्धि खरी है // 13 // सातों व्यसन जूआसे उत्पन्न होते हैं ? * कंथो यह स्वामी? नहीं सफरी गहन जाल खेलत सिकार? कभी मांस चाह भएतें / चोरी-व्यसन / भावो कोई दर्व हरौ भावी कोई प्रान हरी, * दोऊ हैं समान केई मूढ़ यों कहत हैं / १शराव / 2 झूठ। 3 छुआ हुआ। 4 मनमें संभोग चाहनेवाली / 5 जैसे गुड्पर चींटे आ लगते हैं। 6 यदि किसीने वेश्या का वस्त्र छू जावे, तो उसे छींटा लेने पड़ते हैं-स्नान करना पड़ते हैं। 7 कुल्हाडीमें जो लकड़ी पोई जाती है, उसे बीटा या बेंट कहते हैं। 8 चाहे। ' 1 दयानतदार अर्थात् ईमानदार। 2 पुत्री। 3 बहिन। 4 हीनशक्ति होनेके कारण-ब्रह्मचर्यकी सामर्थ्य न होनेके कारण / 5 कथरी।६ मछली पकड़नेका जाल। * एक राजाको जूआ खेलनेकी आदत पड़ गई थी। उसे छुड़ानेके लिए उसका मंत्री साधूका वेप धरकर आया / साधूका जव राजा भक्त हो गया, तब एक दिन राजाने उससे जो प्रश्न किये और उनके जो उत्तर पाये, वे सय इस कवित्तमें वर्णित हैं। Scanned with CamScanner
SR No.035338
Book TitleDhamvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDyantrai Kavi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size61 MB
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