________________ (262) (263) कथा देखो आदिनाथजीके दस परजाय, वृत संघ निकीडत चंद्रामन भेव है। गनती अनंत विरलन देय औ सलाक, दीपोदधि नाम गिनी आवै नाहिं, छेव है। जीव कर्म दर्व तत्त्व ग्यान पूजा ठानी लोक, सबै बहु भेद भाख तीर्थकर देव है। भोग चक्रवर्तिजीकै समोसनकी विभूति, जैनधर्मके समान जैनधर्म एव है // 51 // बुद्धिका निवास होय सुद्धता प्रकास होय, मुद्धता विनास होय उद्धता प्रभावना। दानकी पिछान होय ग्यानका निदान होय, ध्यानका विग्यान होय मानका मिटावना // इंद्री सव जेर होय मन जैसे मेर होय, मोहका अंधेर खोय जोतिका जगावना। जगतै निकास लेह मोख माहिं करै गेह, धरमविलास ग्रंथ आगमकी भावना // 52 // छप्पय / सावन जल विन दियें, मैल गुनका सब खोवै / जाका डर अवधार, कवित निरदूखन होवै॥ जो दुख देय न सोय, कौन सम ताकौं जानौ। दोष विराने चूरि, आपने सिरपै ठानौ // यह दुष्ट पुरुष जैवंत जग, चार बड़े उपगार हैं। दुरजनकौं सज्जन सम लखें, ते ग्याता सिरदार हैं 53 अच्छरसेती तुक भई, तुकसो हुए छंद / छंदनसी आगम भयो, आगम अरथ मुछेद / / आगम अरथ सुछंद, हमीने यह नहिं कीना / गंगाका जल लेय, अरघ गंगाकी दीना / / सबद अनादि अनंत, ग्यान कारन विन मच्छर / मैं सबसेती भिन्न, ग्यानमय चेतन अच्छर // 54 // छप्पय / धन धन सी जिनराज, काज सब जियके सारी। धन धन सिद्ध प्रसिद्ध, रिद्ध सब विध विसतारौ // धन धन हो तुम सुर, सूर दुखको निरवारौ। धन धन हौ उवझाय, लाय अंमृत विष डारौ / जग धन्न धन्न सब साधु तुम, वकता स्रोता सुख करो। द्यानत हे माता सरसुती, तुम प्रसाद सब नर तरी // 55 // इति पूरण पंचातिका। श्री जिनराज रिद्ध सत्रु विनरवारौ ! धन धन सिद्धप्रामुर, सूर अमृत विपातामुख कर समाप्त। Scanned with CamScanner