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________________ (52) तत्त्वसार भाषा। दोहा / आदिसुखी अंतःसुखी, सिद्ध सिद्ध भगवान / निज प्रताप परताप विन, जगदर्पन जग आन // 1 // ध्यान दहन विधि-काठ दहि, अमल सुद्ध लहि भाव। परम जोतिपद वंदिकै, कहूं तत्त्वको राव // 2 // चौपाई। तत्त्व कहे नाना परकार, आचारज इस लोकमँझार। भविक जीव प्रतिबोधन काज, धर्मप्रवर्तन श्रीजिनराज // 3 आतमतत्त्व कह्यौ गणधार, स्वपरभेदतें दोइ प्रकार। अपनौ जीव सुतत्त्व वखानि, पर अरहंत आदि जिय जानि अरहंतादिक अच्छर जेह, अरथ सहित ध्यावै धरि नेह। विविध प्रकार पुन्य उपजाय, परंपराय होय सिवराय॥५ आतमतत्त्वतने द्वै भेद, निरविकलप सविकलप निवेद। निरविकलप संवरको मूल, विकलप आस्रव यह जिय भूल 6 जहांन व्यापै विषय विकार, है मन अचल चपलता डार। सो अविकल्प कहावै तत्त, सोई आपरूप है सत्त // 7 // मन थिर होत विकल्पसमूह, नास होत न रहै कछु रूह / सुद्ध सुभाववि द्वै लीन, सो अविकल्प अचल परवीन // 8 सुद्धभाव आतम दृग ग्यान, चारित सुद्ध चेतनावान / इन्हें आदि एकारथ वाच, इनमैं मगन होइकै राच // 9 // परिग्रह त्याग होय निरग्रंथ,भजि अविकल्प तत्त्व सिवपंथ। सार यही है और न कोय, जानै सुद्ध सुद्ध सो होय // 10 (53) अंतर वाहिर परिग्रह जेह, मनवच तनसौं छांडे नेह / सुद्धभाव धारक जब होय, यथा ग्यान मुनिपद है सोय११ जीवन मरन लाभ अरु हान, सुखद मित्र रिपु गनै समान। राग न रोष करै परकाज, ध्यान जोगसोई मुनिराज॥१२॥ काललब्धिवल सम्यक वरै, नूतन बंध न कारज करै। पूरव उदै देह खिरि जाहि,जीवन मुकत भविक जगमाहि / / जैसै चरनरहित नर पंग, चढ़न सकत गिरि मेरु उतंग। त्यौं विन साध ध्यान अभ्यास, चाहै करौ करमको नास१४ संकितचित्त सुमारग नाहि, विषैलीन वांछा उरमाहिं / ऐसे आप्त कहैं निरवान, पंचमकाल विर्षे नहिं जान // 15 // आत्मग्यान देग चारितवान, आतम ध्याय लहै सुरथान / मनुज होय पावै निरवान, तातें यहां मुकति मग जान 16 यह उपदेस जानि रे जीव, करि इतनौ अभ्यास सदीव / रागादिक तजि आतम ध्याय, अटल होय सुख दुख मिटि जाय // 17 // आप प्रमान प्रकास प्रमान, लोक प्रमान, सरीर समान / दरसन ग्यानवान परधान, परतें आन आतमा जान 18 राग विरोध मोह तजिवीर, तजि विकलप मन वचन सरीर। कै निचिंत चिंता सव हारि, सुद्ध निरंजन आप निहारि॥१९ क्रोध मान माया नहिं लोभ, लेस्या सल्य जहां नहिं सोभ। जन्म जरा मृतुको नहिं लेस, सो मैं सुद्ध निरंजन भेस 20 बंध उदै हिय लबधि न कोय, जीवथान संठान न होय / चौदह मारगना गुनथान, काल न कोय चेतना ठान 21 1 सम्यग्दर्शन। Scanned with CamScanner
SR No.035338
Book TitleDhamvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDyantrai Kavi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size61 MB
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