________________ (50) चंद विना निसि गज बिन दंत, जैसे तरुण नारि विन कंत। धर्म बिना त्यौं मानुष देह, तातें करियै धर्म सनेह // 11 // हय गय रथ बहु पायक भोग, सुभट बहुत दल चमर मनोग। ध्वजा आदि राजा विन जानि,धर्म बिना त्यौं नरभौमानि१२ जैसे गंध विना है फूल, नीर विहीन सरोवर धूल। ज्यौंधन विन सोभित नहिं भौन, धर्म विना त्यौं नर चिंतौन॥ अरचैसदा देव अरहंत, चरचै गुरुपद करुनावंत / " खरचै दाम, धर्मसौं प्रेम, न रचै विषै सफल नर एम॥१४॥ कमला चपल रहै थिर नाहि, जोवन कांति जरा लपटाहि / सुत मित नारि नावसंजोग, यह संसार सुपनकालोग॥१५॥ यह लखि चित धरि सुद्ध सुभाव, कीजै श्रीजिनधर्म उपाव / यथा भाव जैसी मति गहै, तैसी गति तैसा सुख लहै // 16 // जो मूरख धिपनाकरि हीन, विषै-ग्रंथ-रत व्रत नहिं कीन। श्रीजिनभाषित धर्म नगहै, सो निगोदको मारग लहै // 17 // आलस मंदबुद्धि है जास, कपटी विषमगन सठ तास / कायरता मद परगुण ढकै, सो तिरजंच जोनि लहि सकै 18 . आरत रौद्र ध्यान नित करे, क्रोध आदि मच्छरता धरै / हिंसक वैरभाव अनुसरै, सो पापिष्ट नरकगति परै॥१९॥ कपटहीन करुणाचितमाहि, हेय उपादे भूलै नाहिं / भक्तिवंत गुणवंत जु कोय, सरलभाषि सोमानुष होय॥२०॥ श्रीजिनवचनमगन तपवान, जिन पूजै दे पात्रहिं दान // रहै निरंतर विषय उदास, सोई लहै सुरग आवास // 21 // . 1 हिताहित बुद्धिसे / 2 पारमहमें / ( 51 ) मानुषजोनि अंतकी पाय, सुनि जिनवचन विपै विसराय। गहै महाव्रत दुद्धर वीर, सुकलध्यान थिर लहि सिव धीर२२ धरम करत सुख होय अपार, पाप करत दुख विविधप्रकार। वाल गपाल कहैं सब नारि, इष्ट होय सोई अवधारि // 23 // श्रीजिनधर्म मुकतिदातार, हिंसाधरम करत संसार / यह उपदेश जानि वड़ भाग, एक धर्मसौं करि अनुराग 24 व्रत संयम जिनपद थुति सार, निर्मल सम्यक भावन वार। अंत कषाय विषय कृश करौ,ज्यों तुम मुकतिकामिनी वरी२५ दोहा। वुधकुमुदनि ससि सुख करन, भवदुख सागर जान / कहै ब्रह्म जिनदास यह, ग्रंथ धर्मकी खान // 26 // द्यानत जे वाँचें सुनें, मनमें करें उछाह / ते पावें फल सासतौ, मनवांछित फल-लाह // 27 // इति धर्मपच्चीसी। KAROKAR TAMAN .1 यान-जहाज .. . Scanned with CamScanner