________________ ( 63 ) दर्सनदसक कवित्त, चित्तौं पटै त्रिकालं। प्रतिमा सनमुख होय, खोय चिंता गृहजालं // सुखमैं निसिदिन जाय, अंत सुरराय कहावै। सुर कहाय सिवपाय, जनम मृति जरा मिटावै // धनि जैनधर्म दीपक प्रगट, पापतिमिर छयकार है / लखि साहिवराय सु आँखिसौं, सरधा तारनहार है // 11 // इति दर्शनदशक / (62) जै जै श्रीजिनदेव प्रभु, हेय करमरिपु दलनकौं। . दाय संघरायजी, हम तयार सिंवचलनको // 7 // जै जिनंद आनंदकंद, सुरवृंदवंद पद। ग्यानवान सब जान, सुगुन-मनि-खान आन पद (1) दीनदयाल कृपाल, भविक भौजाल निकालक। आप बूझ सब सूझ, गूझ नहिं बहुजन पालक / प्रभु दीनबंधु करुनामई, जगउधरन तारन तरन। दुखरास निकास स्वदासकौ, हमें एक तुम ही सरन // देखनीक लखि रूप, बंदि करि वंदनीक हुव / पूजनीक पद पूज, ध्यान करि ध्यावनीक धुव // हरष बढ़ाय बजाय, गाय जस अंतरजामी। दरव चढ़ाय अघाय, पाय संपति निधि स्वामी // तुम गुण अनेक मुख एकसौं, कौंन भाँति बरनन करौं / मन वचन काय बहु प्रीतिसौं, एक नामहीसौं तरौं // 9 // चैत्यालय जो करै, धन्य सो श्रावक कहिए। तामैं प्रतिमा धरै, धन्य सो भी सरदहिए // जो दोनों विसतरै, संघनायक ही जानौ। बहुत जीवकों धर्म,-मूल कारन सरधानौ // इस दुखमकाल विकराल मैं, तेरौ धर्म जहां चलै / हे नाथ काल चौथौ तहां, ईति भीति सब ही टलै॥१०॥ CERAM 1 गद ऐसा भी पाठ है। 2 संदेह / 3 देखनेलायक / 4 अतिवृष्टि अनावृष्टि आदि सात / 5 इहलोक परलोक भय आदि सात। Scanned with CamScanner