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________________ (172) एथतिवचन सु पुदगलरूप, नहिं व्यानी नापि भगति सुधा जोगह, मनवांछित पर अगदोष बिन परम उदास, चाहरहित अर भवनतिलक तुम ढिग रिपुनर्स,यहमभुता कति जस गावै सुरनारि अपार, ग्यानरूप ग्यायक द्वादसांग पढ़ि मोह न रहे, थुति करि सुगमपंथ अनँतचतुष्टयरूप निहाल, ध्यावै मन रुचि सहित पुन्यवान सुभ मारग होइ, तीर्थकर पद विलसी इंद्र सेव करि पार न लहैं, गनधरादि सव गन हम मति तनक कियौ कछु एहु, भगतनि सिवस दोहा। सबद काव्य हित तर्कमैं, वादिराज सिरताज। एकीभाव प्रगट कियौ, द्यानत भगति जहाज॥ इति एकीभावस्तोत्र। तम गुन चिद्रूप। लसुरतरु लद्द२१ सब जग दास। आननलस। कि संसार। सिव लहै२३ हित त्रिकाल / मै सोइ // 24 // सब गुन नहिं कहें। सिव सुरतरु समदेह (173) स्वयंभृस्तोत्र। चौपई / विर्षे जुगलन सुख किया,राज त्याज भवि सिवपद दिया। यंवोध स्वंभू भगवान, बंदों आदिनाथ गुनखान // 1 // छीरसागर जल लाय, मेर न्हुलाए गाय बजाय / नविनासक सुखकरतार, वंदों अजित अजितपदधार 2 ध्यान करिकरम विनास,घाति अघाति सकल दुखरास जो मुकतिपद सुख अविकार, बंदों संभव भवदुखटार 3 माता पच्छिम रैन मझार, सुपनै सोलै देखे सार / ॐ पूछि फल सुन हरखाय, बंदों अभिनंदन मन लाय 4 सब कुवादवादी सिरदार, जीते स्यादवाद धुनि धार / जैनधरमपरकासक स्वाम, सुमतिदेव पद करौं प्रनाम 5 गरभ अगाऊ धनपति आय, करी नगरसोभा अधिकाय। बरखे रतन पंदरै मास, नमों पदमप्रभु सुखकी रास // 6 // इंद्र फनिंद्र नरिंद्र त्रिकाल, वानी सुनि सुनि हाँहिं खुस्याल / बारै सभा ग्यानदातार, नमों सुपारसनाथ निहार // 7 // सुगुन छियालिस हैं तुम माहिं, दोप अठारै कोऊ नाहिं / मोह महातमनासक दीप, नमों चंदप्रभु राख समीप // 8 // बारै विध तप करम विनास, तेरै भेद चरित परकास। निज अनिच्छ भवि इच्छकदान, बंदोपहुपदंत मन आन९ भवि सुखदाय सुरगतै आय, दसविध धर्म कह्यौ जिनराय / आप समान सवनि सुख देह, बंदौं सीतल धरि मन नेह 10 समता सुधा कोपविपनास, द्वादसांग बानी परकास / चारि संघ आनँददातार, नमों स्रिअंसजिनेसुरसार 11 रतनत्रय सिर मुकुट विसाल, सोभै कंठ सुगुनमनिमाल / मुकत-नारि-भरता भगवान, वासुपूज्य वंदों धरि ध्यान 12 राजमल जैन जी. ए. वी.. Scanned with CamScanner
SR No.035338
Book TitleDhamvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDyantrai Kavi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size61 MB
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