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________________ (22) व्यवहारसम्यक्त्व तथा निभयसम्यक्त्व, छप्पय / नमौं देव अरहंत, अष्टदश दोष रहित हैं। वंदौं गुरु निरग्रंथ, ग्रंथ ते नाहिं गहत हैं। वंदौं करनाधर्म, पापगिरि दलन वज्र वर। बंदौं श्रीजिनवचन, स्यादवादांक सुधाकर // सरधान द्रव्य छह तत्त्वको, यह सम्यक विवहार मत / निह. विसुद्ध आतम दरब, देव धरम गुरु ग्रंथ नुत॥६२॥ ___ सोचके छोड़नेका वर्णन, सवैया तेईसा। काहेकौं सोच करै मन मूरख, सोच करैं कछु हाथ न ऐ है। पूरव कर्म सुभासुभ संचित, सो निह● अपनो रस दै है।। ताहि निवारन को बलवंत, तिहूं जगमाहिं न कोइ लसै है। तातें हि सोच तजौ समता गहि, ज्यौं सुख होइ जिनंद कहै है। उद्यम वर्णन, सवैया इकतीसा / रोजगार विना यार यारसौं न करै प्यार, रोजगार विना नार नाहर ज्यों घूरै है। रोजगार विना सब गुण तौ बिलाय जाय, एक रोजगार सब औगुनकौं चूरै है // रोजगार विना कछू बात वनि आवै नाहिं, विना दाम आठौं जाम वैठो धाम झूरै है। रोजगार वनै नाहिं रोज रोज गारी खाहिं, ऐसौ रोजगार एक धर्म कीये पूरै है // 64 // ज्ञानीचिन्तवन, सवैया तेईसा। कर्म सुभासुभ जो उदयोगत, आवत हैं जब जानत ज्ञाता। पूरव भ्रामक भाव किये बहु, सो फल मोहि भयौ दुखदाता॥ ( 23 ) सो जड़रूप सरूप नहीं मम, मैं निज सुद्ध सुभावहि राता। नास करौं पलमैं सवकों अब,जाय वसौं सिवखेत विख्याता॥ सिद्ध हुए अव होइ जु होइगे, ते सब ही अनुभौगुनसेती। ताविन एक न जीव लहै सिव, घोर करौ किरिया बहु केती॥ ज्यौं तुपमाहिं नहीं कनलाभ, किये नित उद्यमकी विधिजेती। यौं लखि आदरिये निजभाव, विभाव विनास कला सुभ एती, ज्ञानीका बलवर्णन, छप्पय / धाम तजत धन तजत, तजत गज वर तुरंग रथ। नारि तजत नर तजत, तजत भुवपति प्रमादपथ // आप भजत अघ भेजत, भजत सब दोप भयंकर / मोह तजत मन तजत, सजत दल कर्म सत्रुपर // अरि चट्टचट्ट सव कट्टकरि, पट्टेपट्ट महि पैट्ट किय / करि अह नह भंवकह दहि, सट्ट सट्ट सिव सट्ट लिय॥६७॥ तजत अंग अरधंग, करत थिर अंग पंग मन / लखि अभंग सरवंग, तजत वचननि तरंग मन // जित अनंग थिति सैलसिंग, गहि भावलिंग वर / तप तुरंग चढ़ि समर रंग रचि, करम जंग करि॥ अरि झट्ट झट्ट मद हट्ट करि, सट्ट सट्ट चौपट्ट किय / करि अट्ट नह भव कठ्ठ दहि, सट्ट सट्टसिव सट्ट लिय।।६८॥ भरम नष्ट भय नष्ट, कष्ट तन सहत धीर धर। वचन मिष्ट गहि रहत, लहत निज धाम पुष्टकर // 1 मैं अपने शुद्ध खभावमें रक्त हूं। 2 भागते हैं। 3 चटाचट, चटपट / 4 काटकरके। 5 पटापट। 6 पृथ्वीपर। 7 पछाड़ दिये। 8 नष्ट / 9 भवकष्ट / 10 पा लिया। 11 शैलशृंग, पर्वतका शिखर / 2. Scanned with CamScanner
SR No.035338
Book TitleDhamvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDyantrai Kavi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size61 MB
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