________________ (150) - (151) आरती० // 2 // // आरती०॥४॥ आरती० // 5 // पंच महाव्रत दुद्धर धारें। राग दोष परनाम विडारें // आरती भवभयभीत सरन जे आए। ते परमारथ पंथ लगाए // आरती०॥ जो तुम नाम जपै मन माहीं।। जनम मरन भय ताकौ नाहीं॥ आरती समोसरन संपूरन सोभा। जीते क्रोध मान छल लोभा // आरती०॥ तुम गुन हम कैसे करि गावें। गनधर कहत पार नहिं पावें // आरती० करुनासागर करुना कीजै। द्यानत सेवककों सुख दीजै // आरती० // 7 // मुनिराज-आरती। आरती कीजै श्रीमुनिराजकी। अधम उधारन आतम काजकी // टेक // जा लच्छीके सव अभिलाखी। सो साधनि कर्दम वत नाखी // आरती० // 1 // सब जग जीति लियौ जिन नारी। सो साधनि नागिन वत छारी // आरती० // 2 // विषयन सब जग वौरे कीनैं। ते साधनि विष वत तजि दीनें // आरती०॥३॥ भूको राज चहत सब प्रानी। जीरन तृन वत त्यागत ध्यानी // आरती० // 4 // 1 बावरे (पागल)। सत्रु मित्र दुख सुख सम मानें। लाभ अलाभ वरावर जानें // आरती० // 5 // छहौं काय पीहर व्रत धारें। बकौं आप समान निहारें // आरती०॥६॥. यह आरती पढ़े जो गावै। द्यानत मनवांछित फल पावै // आरती० // 7 // नेमिनाथ तीर्थकरकी आरती। किह विध आरति करौं प्रभु तेरी। अगम अकथ जस बुधि नहिं मेरी / / टेक०॥ समुदविजै सुत रजमति छोरी। यौं कहि थुति नहिं होय तुम्हारी // किह० // 1 // कोट खंभ वेदी छवि सारी। समोसरन थुति तुमते न्यारी // किह० // 2 // चारग्यानजुत तिनके स्वामी। सेवकके प्रभु यह वच खामी // किह०॥३॥ सुनके वचन भविक सिव जाहीं। सो पुदगलमें तुम गुन नाहीं // किह०॥४॥ आतम जोति समान वताऊं। रवि ससि दीपक मूढ़ कहाऊं // किह० // 5 // . नमत त्रिजगपति सोभा उनकी / तुम सोभा तुममैं निज गुनकी // किह० // 6 // मानसिंघ महाराजा गावै / तुम महिमा तुम ही बनि आवै // किह० // 7 // 1 पीड़ानाशक (अहिंसाव्रत)। Scanned with CamScanner