________________ (11) कायकै उद्यम कीना हाट बनायक बाट लगायके, टाट बिछायकै उस लैनकौं बाढ़ सु दैनकौं घाट, सुबाँटनि फेरि ठगे। ताहमैं दानको भाव न रंचक, पाथरकी कहूँ नाव नाव तरी ना। ना४ यानत याहीतै नर्कमैं वेदनि, कोर किरोरन ओर सही स्वानका नहीं उर, पाठ पढ़े हैं४२ सुबाँटनि फेरि ठगे बहु दी। त आय बड़ा कुल पाय, हुए भुवि राय सदा सुख कीर्ने / जोगनि जाचक लोगनि, दान सबै मनवंछित दीन / माग मौन भये सिव सौन, करै थुति कौन महा रसभीन। तर ध्यानकौं कातर, मान महातहार चढे धके पायनमें सिर नाय, कहैं जस होत हैं पापत हीन।।४७ साधुके अष्टगुण। दैनकौं आरस लैन महा रस, वैन कहा रस रीति गरे। / भमि समान छमा गुनवान, अकास सरूप अलेप रहे हैं। काम अनाहक दामके गाहक, राम अचाहक चाह है। निर्मल ज्यौं जल आगज्यों तेज, सदा फलदायक वृच्छ गहे हैं।। द्यानत या कलिकालके पंडित, ग्यान नहीं उर, पार . उपदेश। पापमहातमनासक सूरज, आनंददायक चंद लहे हैं। क्रोध फसे गति नर्क वसे दुख, नाग डसे फिर कोप कला है। मेघ समान सबै विध पोषक, आठ महा गुण साध कहे हैं४८ जो दुख देख विसेख दुखी जन, तामहिं धीरजसौं थिर ठाढ़े। माया लए तिरजंच गए बहु, कष्ट सए फिर माया बला द्यानत कामके भावनि भाव, निबाह नहोय कुलोभ जला ग्रीषम सैल सिला तरु पावस, सीतमैं चौपथभावनि गाढ़े // त्यागिकपाय छिमा सुखदाय,सुनाय कहू अव दाव भलारे वन परै न समाधि टरै निज, आतम लौ रत आनँद वाढ़े। नर्कनिमाहिं कहे नहिं जाहिं, सहे दुख जे जब जानत नाही द्यानत साधनकौ जस को कहि, बंदत पाप महा वन दाढ़े 49 गर्भमझार कलेस अपार, तले सिर था तब जानत नाही एककौं देखनि जात सबै जग, केई देखें केई देख न पावें। धूलके वीचमैं कीच नगीचमैं, नीच क्रिया सव जानत नाहीं एक फिरै नित पेटके काज, मिलै नहिं नाजदुखी विललावें॥ द्यानत दाव उपाव करौ जम, आवहिगी अब जानत नाहीं सो यह पुन्यरु पाप प्रतच्छ, न राग विरोध सुधी सम भावें। द्यानत आतम काज इलाज, सुखी जनमाहिं सुखी कहला अंबर डार अडवर टार, दिगंवर धार सु संवर कीना। वैठि सभा रस रीति सुनाय, कला कवि गायकै मूढ़ रिझावें / मंगल आस उदंगल नास, सु जंगल वास सुधातम भीना॥ ऐसे अनेक भरे भुवि लोकमैं, आपनि डूवत और डुवावें // कोह निवारिक लोह बिडारिक, मोह विदारिके आपप्रवीना। ते धनि जे परमातम ग्यान, वखान सुमारगमाहिं लगावें। कर्मकौं भेदिकै पर्मकों वेदिकै,द्यानत मोखविर्षेचित दीना४५ द्यानत ते बिरले इस कालमें, आपमें आप जथारथ ध्या५१ निंदक नाहिं छमाउरमाहिं, दुखी लखि भाव दयाल करें हैं। धर्म पचास कवित्त उभैजुत, भक्ति विराग सुग्यान कथा है। जीवको घात न झूठकी वात न, लैंहि अदात न सील धरै हैं॥ | आपनि औरनिकों हितकार, पढ़ौ नर नारि सुभाव तथा है॥ गर्व गयो गल नाहिं कहूं छल, मोम सुभावसौं जोम हरे हैं। / अच्छर अर्थकी भूल परी जहाँ, सोध तहां उपकार जथा है। देहसौं छीन हैं ग्यानमैं लीन हैं,द्यानत ते सिवनारि वरै हैं४६ द्यानत सजन आपविषैरत, हो यह वारिधि शब्द मथा है 52 इति धर्मरहस्यवावनी। उद्यम / Scanned with CamScanner