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________________ (112) अद्धम जी रुजगार बखानत, ठानत पेटमें आगिवली अद्धमअद्धम पाप उपाजेत,गाज उठे मुखवात चलीत॥३. भावनाचतुष्क। धावर जंगम जीव सवै, समता धरि आप समान वखाने। दर्सन ग्यान चरित्त गुनाधिक, देख विसेख विनै अतिठा भूख त्रषादि महा दुखवंतनि, संत भयौ करुना मन आने साम्य दसा विपरीतनसौं बुध, द्यानत चार विचच्छन। ज्ञाताको उपदेश। मैल भरयौ दुरगंध महाजल, गंग सुगंग प्रसंग हुएते। कांठ अपार निहारि भयौ दव, लागत नैकसी आग फुएते। द्यानत क्यों नहिं देखहु वारिधि, वारिदकौ जल बूँद चुएते। आतमतें परमातम होत है, वाती उदोत है दीप वुएते॥३२॥ जाहीकौं ध्यावत ध्यान लगावत, पावत हैं रिसि पर्म पदीकों। जाथुति इंद फनिंद नरिंद, गनेस करैं सब छांडि मदीकौं // जाहीकों वेद पुरान वतावत, धारि हरै जमराज वदीकौं। द्यानत सो घट माहिं लखौ नित, त्यागअनेक विकल्प नदीकौं ज्ञातादशा। धातनके घर नीव महा वर, सोच नहीं छिनमै ढहिजाते। पुत्र पवित्रसु मित्र विचित्र न, चित्र जहां लखिए जम खाते॥ द्यानत इंद फनिंद नरिंदकी, संपत कंपत काल-कलाते। हांननदीननकै सुख कौंन, प्रवीन कहा विषयारस रातें ? / 34 // -सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् / माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव // -अमितगतिसूरि। (113) बात कहैं न गहैं हट रचक, वाद विवाद मिटै सव यात। कान सुनैं वहु वान मुर्ने लह, हंस सुभाव सुकारज रातें। बोलत डोलत पापनि छोलत, खोलत मोख किवार धकातें। द्यानत संतनकी यह रीत, दया रस पीत अनीतनियात।३५। मूढदशा। पापकी बातनि प्रातकी प्रातलौं, जापकी वात न एक घरी है। खानकौं आपसु बाप सुता सुत, दानके भाव न नैंक लरी हू॥ भौन चुनावनकौं गहना धरि, जैनके भौन न ईट परी हूँ। ता पर चाहत हौसुख द्यानत,जानत मोहिन मौति मरी हू॥ भूख गई घटि, कूख गई लटि, सूख गई कटि, खाट पस्यौ है। वैन चलाचल नैन टलावल, चैन नहीं पल, व्याधि भयौ है। अंग उपंग थके सरवंग, प्रसंग किए जन ना द्यानत मोह चरित्र विचित्र, गई सव सोभ न लोभ टस्यौ है। बालक बालखियालिनि ख्याल,जुवानि त्रियान गुमान भुलानें मे घरवार सबै परिवार, सरीर सिंगार निहार वृद्ध भए तन वृद्धि गए खसि, सिद्धत काम नखाट तुला. (?) / द्यानत काय अमोलक पाय, न मोख दुवार किवार खुलानें // प्रात उठे सुमथें विकथा रस, कै जल छान तमाखु भरावें। रात ही जात तगाद उगाहनि, भोजन त्यार भए हिंग खावै॥ सोच करें रुजगारके कारन, काम कहा किहके घर जावै / संकट चूरत मंगल मूरत, द्यानत पारसनाथ न गावँ 39 जामहिं खाध किधौं विटिता, सठ ता रुजगार लगोई रहै है / जामहिं नित्त नफा सब जानत, ताहि लग्यौ यह नाहिं कहै है // स्वारथ देस विदेस भमै धन, कर्मवसात लहै न लहै है। यानत आतम स्वारथ है ढिग,आलस त्याग करौ न चहै है४० घ. वि. 8 Scanned with CamScanner
SR No.035338
Book TitleDhamvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDyantrai Kavi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size61 MB
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