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________________ तिय भेजी प्रभु पाहीं। मचावें // 23 // बड भागी॥२४॥ बी ए बानी // 25 // लावी॥२६॥ (200) क्रीडा बह करि वनाहीं, हरि तिय भेजी पर सब नाचें गाय बजावे, होली सम ख्याल मचावें। बोली जंबवंती नारी, तुम व्याह करौ सुखकारी। प्रभ रंच भए न सरागी, सुचि जल न्हाए बड़ भागी। यह धोती धोय हमारी, सुनि जंववती रिस धारी। मैं कृस्तनी पटरानी, तिन हू न कही ए बानी॥ जिन संख धनुष फनि साधे, ए काम कठिन आराखी जब तुम तीनों करि आवौ, तव धोती वात चलावी सुनि वोली रुकमनी रानी, सो दिन तू क्यों विसराती प्रभु कृस्न उठाय फिरायो, तब धोती धो गुन गायौ। जब नेमीस्वर मन आई, जल रेखा सम गरमाई। अहिसेजा धनुष चढ़ायौ, नासासौं संख वजायौ // 28 // सुर असुरन अचिरजकारी, अदभुत धुनि सुनि नर नारी भई धूम देसमें भारी, डरि कंपन लाग्यो मुरारी // 20 // जांववंती विध सुनि आयौ, प्रभुकों हरि सीस नवायो। तुम सम तिहु जग बल नाहीं, जिन खुसी गए घरमाहीं // 30 // चौपई। तब हरि उग्रसैनसौं भाखी, राजमती कन्या अभिलाखी। उत्तम नेमि कुमर वर दीजै, समदविजै नृपसमदी कीजै३१॥ उग्रसैन नृप सुनि हरखाया, नेमिकुमार जमाई पाया। छठे सुकल सावन ठहराया, ब्याह लगन नृप भौन पठाया 32 कुल आचार दुहूं घर कीने, मंगल कारज आनंद भीने। दान अनेक सवनि सुखदानी, बहु ज्यौनार बहुत विध ठानी॥ (201) चली वरात विविध विसतारी, गान नृत्य वादित्र अपारी। जादी छप्पन कोड़ि तयारी, और भूप बहुविध असवारी 34 रथ ऊपर श्रीनेमि विराज, छत्र चमर सिंघासन छाज। देवपुनीत दरव सव सोहैं, सुर नर नारिनके मन मोह // 35 // पसु पंखी घेरे वन माहीं, सबनि पुकार करी इक टाहीं। तुम प्रभु दीनदयाल कहाऔ, कारन कौन हमैं मरवाऔ 36 // यह दुख-धुनि सुनि नेमिकुमारं, सारथिसौं पूछी तिह वारं। प्रभु तुम व्याह निमित सब घेरे, संग मलेच्छ भूप बहुतेरे 37 // कंटक-भै पेनही पग माहीं, जीवसमूह हनें डर नाहीं।। पर माननि करि प्रान भरें हैं, प्रानी दुरगति माहिं परें हैं // 38 // धिग यह व्याह नरकदुखदानी,ततछिन छोड़ि दिये सब प्रानी खुसी सरव निज थान सिधारे, प्रभु तुम वंदी छोर हमारे३९।। कुल हरिवंस पुनीत विराजै, यह विपरीत तहां क्यों छाजे। राज-काज हरि यह विधि ठानी,प्रभु मनमैं बातें सव जानी४० चौपई, दूजी ढाल। * प्रभु भावें भावन निहपाप, भवतनभोग अथिर थिर आप / चहु गति सव असरन सिव सर्न, सिद्ध अमर जग जंमन मर्न। एक सदा कोई संग नाहिं, निह● भिन्न रहै तन माहिं / देह असुच सुच आतम पर्म,नाव छेक जल आस्रव कर्म॥४२॥ संवर दिढ वैराग उपाय, तप निर्जरा अवंछक भाव / लोक छदरव अनादि अनंत,ग्यान भान भ्रम तिमर हनंत४३ काम भोग सब सुख लभ लोय, एक सुद्ध पद दुरलभ सोय। लोकांतिक आए तिह घरी, कुसुमांजली दे वहु थुति करी४४॥ 1 देवोपनीत-दिव्य / 2 जूतियाँ। ... कल हरिवहविायनी डाल / Scanned with CamScanner
SR No.035338
Book TitleDhamvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDyantrai Kavi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size61 MB
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