________________ (182) समरस-धाम अभिराम साध राजत है, ऐसे कव होहिं हम ऐसौ मन करखी है // 6 // विवहारमाहिं तत्त्व वैनदार आवत है, निहचै विसुद्धरूप न्यारौ है उपाधसौं। चिदानंद जोतको उदोत अंतरंग भयौ, ताहीमैं मगन सदा भीजै है समाधसौं // सोई धन सोई धाम सोई सोभ सोई काम, सोई प्रीत सोई सुख सिद्धता अराधसौं। ऐसे मुनिराज मम काज करौ दोप हरौ, निज मुद्रा देहु हम छूटें आध व्याधसौं // 7 // पाप-अरि-हार चक्र सक्र सिव-सुखकार, धीरज व अपार वंछित दातार जी। भारौं भोग कारे नाग प्रगटै महा विराग, साधभावनाअष्टक पढ़ौ तिहुं वार जी // चिदानंद भावमैं पदमनंद राजत हैं, भक्तिवस भव्यनको कीनौ उपगारजी। भूल चूक सोधि लेहु हमें मति दोप देह, द्यानत या मिससेती लीनौं नाम सार जी // ___ दोहा। द्यानत जिनके नामतें, पाप धूरि हो दरि। तिन साधनकी भावना, क्यों न लहै सुख भूरि // 9 // इति यतिभावनाष्टक / (183) सज्जनगुणदशक / सर्वया इकतीसा। तरौंकी कलम सिंधु स्याही भूमि कागदप, सारदा सहस कर सदा लिख नाथ जी। तम गुनको न पार ग्यानादि अनंत सार, कर्म धन हान निरावर्ण भान आथ (?) जी॥ तिनमैं को कोई एक गुनहूको कोई अंस, हमैं देहु सज्जन कहावै संत साथ जी। तुम हो कृपाल प्रतिपाल दीनके दयाल, . द्यानत सेवक वंदै हाथ लाय माथ जी // 1 // धन तौ तनक पाय दानको पन न जाय, काय है निवल व्रत धीरजसौं धरै हैं। वुद्धि थोरी जिय माहिं पै अभ्यास किये जाहिं, वात नाहिं कहैं जो पै कहैं सोई करें हैं / कैसे किन कष्ट परै सज्जनतासौं न टरें, ग्रीपममैं चंद किरन अमृत ही झरै हैं। साहवसेती हजूर भोगनसौं रहैं दूर, सुख भरपूर लहैं दुःखमूर हरैं हैं // 2 // बात कहा दुष्टनिकी सांपकौ सुभाव लियें, गुन दूध दिय विष औगुन धरत हैं। ऐसे बहु जीव गुन दोप गुन दोप करें, गालागाली मुजरेसौं मुजरा करत हैं // धनि आम ईखसे हैं मारै फल पीडै रस,. चंद जैसे जनदुख-तापकौं हरत हैं। 1 यह पद्मनन्दि आचार्यकी पद्मनन्दिपंचविंशतिकाके एक अष्टकका अनुवाद है। Scanned with CamScanner