________________ (28) भर्मभाव भानिकै सुभावकों पिछानिकै, सुध्यानमाहिं आनिकै सु आन-बुद्धि खै गई / धर्मकों वखानिकै सुधासुभाव पानिक, सुप्रानभाव जानिकै सुजान चेतनामई // सुद्धभाव ठानिकै सुवानिकौं प्रवानकै, सुरूप सुद्ध मानिकै सु मान सुद्धता नई। अष्टकर्म हानिकै सुदिष्टिकौं प्रधानकै, सुग्यानमाहिं आनिकै अग्यानकौं बिदा दई // 8 // चेतना सरूप जीव ज्ञानदृष्टिमैं सदीव, कुंभ आन आन घीव त्यौं सरीरसौं जुदा / तीनलोकमाहिं सार सास्वतो अखंडधार, मूरतीककौं निहार नीरको बुदैबुदा // सुद्धरूप बुद्धरूप एकरूप आपभूप, आतमा यही अनूप पर्मजोतिको उदा। स्वच्छ आपने प्रमानि रागदोष मोह भानि, ' भव्यजीव ताहि जानि छोड़ि शोक औ मुंदा // 81 // सुद्ध आतमा निहारि राग दोष मोह टारि, क्रोध मान वंक गारि लोभ भाव भानु रे / पापपुन्यकों विडारि सुद्धभावकौं सँभारि, भर्मभावकों विसारि पर्मभाव आनु रे // चर्मदृष्टि ताहि जारि सुद्धदृष्टिकों पसारि, देहनेहकौं निवारि सेतध्यान ठानु रे / पबुद्धि / 2 सम्यग्दर्शन / 3 बुदबुदा। 4 मोद, हर्ष / 5 नष्टकर / 6 शुक्लध्यान / (29) जागि जागि सैन छार भव्य मोखकौं विहार, एक वारके कहे हजार बार जानु रे // 82 // छप्पय / जीव चेतनासहित, आपगुन परगुन जाने / पुग्गलद्रव्य अचेत, आप पर कछु न पिछाने / जीव अमूरतिवंत, मूरती पुग्गल कहिये। ....जीव ज्ञानमयभाव, भाव जड़ पुग्गल लहियै // यह भेद ज्ञान परगट भयो, जो पर तजि अनुभौ करै। सोपरम अतिंद्री सुखै सुधा, भुंजत भौसागर तिरै // 8 // यह असुद्ध मैं सुद्ध, देह परमान अखंडित / असंख्यातपरदेस, नित्य निरभै मैं पंडित // एक अमूरति निर उपाधि, मेरो छेय नाहीं। 1. गुनअनंतज्ञानादि, सर्व ते हैं मुझमाहीं // मैं अतुल अचल चेतन विमल, सुखअनंत मोमैं लसैं / ...जब इस प्रकार भावत निपुन, सिद्धखेत सहजै बसैं॥८॥ ....... सबैया तेईसा। केवलग्यानमई परमातम, सिद्धसरूप लसै सिवठाहीं। ग्यायकरूप अखंड प्रदेस, लसै जगमैं जग सौ वह नाहीं॥ चेतन अंके लिय चिनमूरति,ध्यान धरौ तिसकौ निजमाहीं। राग विरोध निरोध सदा,जिम होइ वही तजिकै विधि-छाहीं॥ राग विरोध नहीं उरअंतर, आप निरंतर आतम जानै / भोगसँयोगवियोगवि, ममता न करै समता परवानै // 1 सोना छोड़। 2 सुखरूपी अमृत / 3 पुद्गलद्रव्य / 4 नाश / 5 चिह्न / 6 द्वेष / काँकी छाया। Scanned with CamScanner