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________________ HTARNAKERww.. 1 संसार। देखि निहार // r m तिल मंदिर नाशि - - - - नरक मझार 49 वह वस्तु अपार। सिंहासन सार॥ - - 8.126) सास्त्र अभै आहार ओषधी, चारों दान बड़े संसार निहवे सुरग मुकतिके दाता, दाता भुगता देखिल गो गजराज वाजि दासी रथ, कनक भूमि तिल मंदिर दसौं कुदान पापके कारन, देत लेत सो नरक जो दीजै चैत्याले कारन, भूमि आदि बहु वस्तु अ तामें श्रीजिनविंव विराजै, चमर छत्र सिंहासन से पूजा करें पढ़ें जिनवानी, चारों संघ मिलें निरधार बहत काललों बढ़े जैनमत, धरम मूल पर-भौ-सुखकर दान वखान किया हमनें यह, कृपन दुःख सवकों म पाय चमेली अलिगन गुंजै, काग न जाने गुन समुदाय चंद किरनित कुमुदनि विकसै, पाथर कौन भांति हरखा भान तेज दसदिसि उजियारो, एक उलू दुख नाहिं उपाय रतनत्रै आभरन विराजै, वीरनंदि गुरु गुनसमुदाय। तिनकै चरन कमल जुग सुमिरत,भयो प्रभावग्यानअधिकाया तव श्रीपद्मनंदिनै की , दान प्रकास काव्य सुखदाय। पद्मनंदिपद बंदि बनाई, दानवावनी द्यानतराय // 52 // कार/५० - सवकों सुखदाय। ( 127) चारसौ छह जीवसमास। दोहा। नेमि जिनंद पद, सव जीवन सुखदाय / ब्रह्मचारी भए, पसुगनबंध छुड़ाय // 1 // समास अनेक विध, भाखे गोमटसार / समिचंद गुरु वंदिके, कहूं एक अधिकार // 2 // चौपाई। सीकाय दुभेद वखान, कोमल माटी कठिन पखान / पावक पौन विचार, नित्य इतर साधारन धार // 3 // "तों सूच्छम सातौं थूल, इनकै चौदै भेद कबूल / प्रतेककाय दो जात, परतिष्ठत अप्रतिष्ठत भ्रात // 4 // दोहा। दव बेलि छोटा विरख, वड़ा विरख अरु कंद / पंच भेद परतेकके, लखत नाहिं मतिमंद // 5 // जब इनमाहिं निगोद हैं, तव परतिष्ठत जान / जब निगोद नहिं पाइए, अपरतिष्ठ तव मान // 6 // जाति दसौं परतेककी, वे चौदह चौवीस / परज अपरज अलब्धसौं, भेद बहत्तरि दीस // 7 // वे ते चौ इंद्री त्रिविध, परज अपरज अलब्ध / विकलनकै भेद नव, हिंसा करै निषिद्ध // 8 // चौपाई। करम भूमि तिरजंच विख्यात, गर्भज सनमूर्छन दो जात // गरभज परज अपरज प्रवीन, अलवध हू सनमूर्छन तीन॥९॥ इति दानवावनी / -armiri Scanned with CamScanner
SR No.035338
Book TitleDhamvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDyantrai Kavi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size61 MB
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