Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashantar
Author(s): Manikmuni
Publisher: Sobhagmal Harkavat Ajmer
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माछा ananmmmm mmmnaDUR Die Vlugu * अईन * पूनमचंद वृद्धिचंद ढहा हिन्दी जैन ग्रंथ. माला सं० १. - श्री कल्पसूत्र मूल और हिन्दी भाषान्तर. wwsexsavwnewsewwwRrwwwsangsana AANEL पूर्वाचार्यों की टीकानुसार. अनुवादक- श्रीमान् माणिक मुनिजी महाराज. VVV Levonovo volvo मकाशकyon सोभागमल हरकावत-व्यवस्थापक. अजमेर सुखदेवसहाय जैन प्रिंटिंग प्रेस, अजमेर में. पार दुर्गाप्रसाद के प्रबन्ध से मुद्रित. - वीर सम्बत २४४२ विक्रम सं० १९७३. - - सर्व हक स्वाधीन रक्खा है. मूल्य रु० १॥ (डाक व्यय पृथक w MBene vvvvvvvvvvvoolu Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ कल्पसूत्र की प्रस्तावना ॥ कल्पमत्र के बारे में ग्रन्थ के पहिले उसका कुछ वर्णन कर दिया है ना भी जेनेतर वा जनमूत्र के गृह शब्दों से अपरिचित जनों के लिये अथवा सम्पदायिक झगड़े वालों के हितार्थ थोडासा लिखना योग्य है. जैनों में नीर्थकर एक सर्वोत्तम पुण्यवान पुरुष को माना जाता है, ऐसे २४ पुरुष इस जमाने में हुए हैं उन नीर्थंकरों के उपदेश से अन्य जीव धर्म पान है धर्म के जरिये इस दुनिया में नीति में चलकर स्वपर का हित करसक्त हैं और मरने के बाद कर्मबन्धन मर्वथा छूट जाने से मुक्ति होनी है और पीछ जन्म मर्ण होता नहीं क्योंकि जैन मंतव्य में एसा ईश्वर नहीं माना है कि जो अपनी इच्छा सं अमुक समय बाद मुक्षिक जीवों को भी मुक्ति से हटाकर संसार में घुमावे. जना में ऐसा भी ईश्वर नहीं माना है कि अन्यायी पुरुषों को दंड देने को वा भक्त पुरुषों को धनादि देने को रूप बदल कर ग्रावे अथवा उनकी प्रार्थना से उनका पुत्र होकर संसार की लीला बनाकर आप सीधा मोक्ष में पीछा जावे. किन्तु जनान ऐसा माना है कि प्रत्येक जीव अपने शरीर बन्धन में पड़ा है और जहां नक उसका ऐसा ज्ञान नहीं होगा कि मैं एक बन्धन में पड़ा हूं वहां तक वह विचाग वालक पशु की तरह गरीर को ही आत्मा मानकर उस शरीर की पुष्टि गोभा रक्षा के खातर ही उद्यम करेगा और उस पुराणे गरीर को छोड़ नये शरीर को धारण कर देव, मनुष्य, नरक, तिर्यच, में घुमना ही रहेगा और पुण्य पापानुसार अपने मुख दुःख भोगना ही रहेगा. जिम आदमी के जीव का ऐमा जान होगा कि मैं शरीर से भिन्न सचेतन हूं, मेरा लक्षण शरीर से भिन्न हैं मैं व्यर्थ उसपर मोह करताहूं मैं मृर्खना से अाज तक दुःख पारहा हूं, मेरा कोई शत्रु नहीं है, मुझे अब वो शरीर का बंधन तोड़न का उद्यम करना चाहिए, वो ही मनुष्य धर्म में-उद्यत होकर धर्मात्मा साधु होता है. और आत्म रमणता में आनन्द मानकर दुःख सुख हर्ष गोक में समता - रखता है, वो ही केवलज्ञान पाकर सर्वत्र होता है और कृत कृतार्थ होने पर भी "परोपकागयसतां विभूतिः " मानकर सर्वत्र फिरकर सूर्य, चंद्र, वृक्ष, मेघ के उपकार की नरद्द सबाघ द्वारा जीवों को दुःख से बचाता है उन सब मर्वद्रों Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) में अधिक पुण्य प्रकृति राजाओं में चक्रवर्ती के समान तीर्थकर की हों होती है और वे आयुष पूर्ण होने तक उपदेश देने को फिरते रहते हैं. महावीर प्रभु अंतिम तीर्थकर इस जमाने में हुवे है और हमारे उपर उन का ही उपकार है दिवाली पर्व उनके निर्वाण ( मोक्ष ) काल से शरू हुवा है इसलिये उन्ह का चरित्र विस्तार से दिया है बाद में उनसे पहिले पार्श्वनाथ और उनके पहिले नेमिनाथ चरित्र और २० तीर्थंकरों का चरित्र ग्रंथ वढने के भय से समयान्तर बताकर इस जमाने में व्यवहार बताने वाले प्रथम धर्मोपदेष्टा ऋषभदेव प्रभु का चरित्र दिया है क्योंकि सब कलायें हुन्नर राज्य रीति साधुता धर्मोपदेश वगैरः सब उन्होंने प्रथम बताये हैं. इस कल्प सूत्र के नव विभाग किये हैं जिससे वांचने वाले वा सुनने वालों को सुगमता होती है, अन्याचार्य ज्यादा विभाग भी करते हैं मुझे जिसका ज्यादा परिचय है वो सुवोधिका टीका विनय विजय महाराज की है ऐसी अनेक टीकाएं संस्कृत गुजराती प्रचलित है जिससे कल्प सूत्र का गहन अर्थ समझ में आवे, मैं निःगंक पणे कह सकता हूं कि यह कार्य एक महान संस्कृतज्ञ हिंदी भाषा जानने वाले का था किंतु ऐसे संयोग शोधने पर भी तीन वर्ष तक राह देखी तो भी कोई ने उद्यम पूरा न किया जिससे मैंने यह किया है और उसमें श्रावकों की मदत बहुत ली है और अजमेर के श्रावक समाज इसके लिये धन्यवाद के योग्य है किंतु कोई भी त्रुटी रही हो तो उनका दोष नहीं है किंतु मेरी गुजराती भाषा, संस्कृत का कम ज्ञान और दूसरे पंडित वा साधुओं की मदद कम मिली है ये ही मुख्य कारण है कारण पड़ने पर लक्ष्मी वल्लभी कल्प किरणावलि और कच्छी संघ का छपाए हुए गुजराती भाषांतर की मददली है. .. कागज का भाव वढने से और जैनों में ज्ञान तरफ भाव मंद होने से पूरी मदद की बेटी से और लेने वालों की आर्थिक स्थिति विचार कर थोड़े में ग्रंथ को समाप्त किया है तो भी मूल सूत्र साथ होने से विद्वान को वा विद्वान की रक्षा में रहकर पढने वालों को इच्छित लाभ मिलेगा. हिन्दी भाषा सार्व देशिक होने से जैनों को अपने ग्रन्थ सरल हिन्दी भाषा में छपवाकर सर्वत्र प्रचार करना चाहिये इस हेतु को ध्यान में रखकर मेरे उपदेश से विद्वान् और धर्म रक्त सोभागमलजी हरकावत ने यह बात अत्युत्तम जानकर परोपकारार्थ अपने सम्बन्धी वृद्धिचन्दजी ढट्टा जो एक धर्मास्मा पुरुष थे उन्हीं के मरने के समय पर धर्मार्थ रकम जो उनकी ज्ञानवान स्त्री Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) द्वारा करदी गई थी उममें से ज्ञानवृद्धि के लिये जो रकम निकाली थी उम रकम को उनकी भार्या सिग्हकुंचर और उनकी भातृजा सिरह बाई दोनों वाई विधवा मोजद हैं उनकी भाजप लेकर ५०१) रुपये उसमें मढ़ देकर उन सोभागमलजा ने छपवाया है और जो कल्पमृत्र अधिक लाभदायी लोगों को मालम होगा नो उसी द्रव्य से और ग्रन्य भी वे छपवाकर प्रसिद्ध करेंगे. ___ कल्पमूत्र में २४ तीर्थंकरों के चरित्र है नथा बड़े साधू जो गणधर स्थविर नाम से प्रसिद्ध है उनका किंचिन् वर्णन है तथा और भी साधुओं के चरित्र है उनके गुणों को ज नने के लिये और इतिहासिक शोध के लिय यह ग्रन्थ एक अन्युत्तम मायन है. इस ग्रन्य की मूल भाषा मागधी प्रायः २२०० वर्ष की पुराणी हैं. उमकं रचयिता भद्रबाहु स्वामी होने से उनका कुछ वर्णन यहां करदेते है. पंचम गणधर मुधर्मा स्वामी भगवान महावीर के निर्वाण से १२ वर्ष बाद छमस्त साधु और ८ वर्ष केवल जान पर्याय पालकर १०० वर्ष की उम्र में भगवान महावीर से २० वें वर्ष के बाद मुक्ति गये आज उनको मोक्ष जाने को २४२२ वर्ष हुए है उनके शिष्य जंबू स्वामी महावीर निर्वाण से ६४ वर्ष बाद मुक्ति गंय उस वक्त दश वस्तु का विच्छट हुआ. १ मनपर्यवज्ञान, २ परमावधिन्नान, ३ पुलाकलब्धि, ४ आहारकलब्धि, ५ अपक, ६ उपशम श्रेणी, ७ जिनकल्प, ८ पिछले नीन चारित्र, केवलज्ञान और १० मुक्ति, और जब जंयूस्वामी के शिष्य प्रभवास्वामी, उनके शिष्य शय्यंभवमरी, उनके यशोभद्र, जिसके संभूनि विजय और भद्रवाह हुए हैं. भद्रवाह प्रतिष्ठानपुर नगर के रहने वाले थे और उनके भाई वराह मिहिर के साथ उन्होंने दीक्षा ली दोनों शास्त्रन्न होने पर स्थिरता वगैरह भद्रबाहु में अधिक देखकर गुरु ने उनका आचार्य पदवी दी वराह मिहिर नाराज होकर साधुपना छोड़ वाराही संहिता बनाकर ज्योतिष द्वारा लोगों में प्रसिद्ध हुआ गज्य सभा में ज्योनिप की चर्चा में वराह मिहिर भद्रबाहु से हारगया जिससे उपको न्वेद हुआ और परकर व्यंतर देव होकर जनों को दुःख देने लगा जिसमे ययावामीन 'ग्यसगहरंस्तान बनाकर जैनों को दिया सर्वत्र गांति होगई उस भद्रबाहु सापी ने सामान्य साधु को भी अधिक उपकारी होनेवाला कल्प मृत्र बनाया है अर्थात् सिद्धांत समुद्र से ग्ल ममान थोड में सार बताया हैं माधु समाचार्ग चायाम के लिये जा बनाई है वो दंग्वन में मालूम होजावंगा; Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) भद्रवाह के समय में नत्रमानंद पटणा में राज्य करता था, उनका शिष्य नन्द राजा का प्रधान का पुत्र स्थूलभद्रजी है जो कि यद्यपि कल्प सूत्र उनका रचा हुआ है तो भी २४ तीर्थंकरों के चरित्र के बाद स्थविरावली है वह देवर्द्धि क्षमा श्रमण तक की है तो देवर्द्धि क्षमा श्रमण के शिष्य की रची हुई हैं ऐसा संभव होता है जिस समय कि सूत्र सब लिखे गये उससे पहिले सिर्फ मुंह- पाठ करके साधू साध्वी उसका लाभ लेते थे. समाचारी को अंत में रखने का कारण यह हैं कि चरित्रों में विधि मार्ग व्याघात रूप न होने. ज्ञान की मंदता से आज से १००० वर्ष पूर्व के आचार्यों ने अपना गच्छ का मंतव्य मुकर्रर कर युक्ति को मंतव्य में खेचकर जैन समाज में लाभ के घले कुछ हानि का संभव (गच्छकदाग्रह) भी खड़ा किया है आनंदघनजी महाराज ने २५० वर्ष पहिले १४ व तीर्थकर के स्तवन में बताया हैं कि " गच्छना भेद बहुनयण निहालतां तत्वनी वात करतां न लाजे " इसलिये भव्यात्मा मुमुक्षुओं से प्रार्थना है कि कोई भी गच्छ का क्लेश छोड़ सिर्फ साधू के क्षमा, कोमलता, सरलता, निर्लोभतादि दश उत्तम गुणों को धारण कर अपनी परम्परा से चली हुई विधि अनुसार दूसरों की निंदा किये बिना मध्यस्थ भाव में रहकर कल्प सूत्र के कल्पानुसार श्रात्मा निर्मल करना, पूर्व कर्मों को समता से सुख दुःख में धीरता रखकर भोगना दूसरे जीवों को समाधि उत्पन्न कराना अपनी युक्ति, बुद्धि का ऐसा उपयोग करना कि अन्य पुरुषों को अपनी परमार्थ वृत्ति ही नजर आवे. पहिला व्याख्यान में नवकल्पों का वर्णन और महावीर प्रभुका चरित्र की शरुआत होती है, और महावीर प्रभु को देवा नंदाकी कुक्षिमें देख कर सौधर्म इंद्र देवलोक में जो बैठा है उसने प्रभु को नमस्कार किया. और नमुत्थुणं का पाठ पढा. दूसरे व्याख्यान में प्रभु की ब्राह्मणी की कुक्षि में देखकर क्षत्रि राजवंशी कुल में प्रभु को बदलने का विचार किया और ऐसे दश आचर्य बताकर प्रभु के २७ भवों का वर्णन बताया और त्रिशला देवी की कुक्षि में बदलने पर उसने १४ स्त्रम देखे. उनमें से ४ स्वप्नों तक का वर्णन है. तीसरे व्याख्यान में बाकी के दश स्मों का वर्णन और त्रिशला राखी का · Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) मागृत होकर राजा के पास जाना और राजाने जागृत होकर सब सुनकर प्रभात में जोतिपिओं को बुलाकर हाल सुनाना... चोय व्याख्यान में माता के दोहद और प्रभुका जन्म होना बताया. पांचवे में दीक्षा तक का चरित्र है छ8 में साधू का उत्तम आचरण पालना परिसइ सहना केवल ज्ञान और मुक्ति संपदा का वर्णन है. सातवे व्याख्यान में पार्श्वनाथ नेमिनाथ चरित्र और २० तीर्थंकरों का अंतर है ऋषभदेव का चरित्र है. आठवे व्याख्यान में स्थविगवली है. . नवमें व्याख्यान में साधुओं की चोमासो की विशेष समाचारी है. मरौ भूमा श्रेष्ठ, नगर मजमेरं प्रशमदं । स्थितोई श्राद्धानां गुण रुचित्रतां ज्ञान रतये ।। व्यधायि व्याख्यानं सुगुरु कृपया कल्प कथनं । पुरा पुण्याद्वन्धा ! पटतु च भवान्मोच जनकं ।। २ ॥ वंशाखे शनिवासरे शुभ तिथौ युग्माधि वेढाक्षिके । पञ्चम्यां लिखितः समाधि जनकः पने च शुक्ने तरे ।। ट्ठा वृद्धि शशी सुधी निजयनं धर्मार्थ माशंसत । तत्सौभाग्यमलेन पुण्यमतिना दत्तं यतो मुद्रणे ।। ३ ॥ ता. १८ जून १९१६. 1 लाखन कोटड़ी अजमेर. मुनि माणक्य. ५१) रुपये वीजराजजी कोटारी मिर्जापुर वाले. ३१) रुपये श्रीरामजी देहली नवघरे वाले ने प्रथम देकर बड़ी सहायता की है और जिन्होंने पहिले रकम देकर अथवा पहिला नाम नोंघाकर ग्रंय की फदर की है उन सब को इस जगह धन्यवाद देने योग्य हैं. प्रकाशक-सोभागमल हरकावत. •e+ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अन् * t || शासन नायक महावीर प्रभु और सद्बोध दाता परम गुरु महाराज पन्यासजी श्री हर्ष मुनिजी आदि पूज्य पुरुषों को नमस्कार करके कल्पसूत्र का हिन्दी भाषान्तर हिन्दी जानने वालों के लिये मूल सूत्र के साथ लिखता हूं: कल्प सूत्र । कल्प शब्द से साधु का मोक्ष मार्ग आराधन के लिये श्राचार जाननाः और उन आचारों को सूचित करना वो कल्प सूत्र है अर्थात् कल्प सूत्र में साधुओं का चार (कर्त्तव्य वर्तन ) बताया है । जैनियों में सब पत्रों में पर्युषण पर्व मुख्य है । प्रथम कल्पसूत्र के बांचने और पठन पाठन के अधिकारी साधू ही थे, परन्तु आनन्दपुर नगर में ध्रुव सेन राजा के पुत्र के शोक निवारणार्थ राज सभा में उक्त सूत्र को सुनाया उस दिन से चतुर्विध संघ साधू, साध्वी, श्रावक, श्राविका, पठन पाठन और श्रवण फरने के अधिकारी हुये और प्रायः सर्वत्र साधू, साध्वी, श्रावक, श्राविका, सुनते हैं। साधू साध्वी की पठन पाठन की विधि टीकाओं से जान लेनी । कल्प (चार वर्तन ) · साधुओं का आचार दस प्रकार का है ( १ ) जीर्ण वस्त्र ( २ ) निर्दोष आहार ( ३ ) घर देने वाले का आहार आदि न लेना ( ४ ) राजाओं का आहार आदि न लेना ( ५ ) बड़े साधू को बंदन करना ( ६ ) पांच महाव्रत को पालना ( ७ ) बड़ी दीक्षा से चारित्र पर्याय जालना ( ८ ) देवसी, राई, पक्खी, चौमासी, सम्वत्सरी प्रतिक्रमण विधि अनुसार करना ( 8 ) आठ मास ग्राम ग्राम विहार करना (१०) वर्षा ऋतु में एक जगह पर रहना । साधू के चार में और तीर्थंकरों के आचार में क्या भेद है अथवा चौवीस तीर्थंकरों के साधुओं में क्या भेद है वो ग्रन्थान्तर से जान लेना । यहां पर थोड़ासा बताते हैं: दश कल्पों की गाथा. श्राचलक्कुद्देसिय, सिज्जायर रायपिंड किकम्मे; य जिठ्ठपढिक्कम, मासं पज्जोसस कप्पे । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) तीर्थकरा के लिये प्रथम कल्प ऐसा है कि वे इन्द्र का दिया हुआ देव दुप्य वन दीक्षा के समय कंधे पर डालने है वो गिर जाव तो पीछे पहला और अंतिम तीयतर अचेलक ही रहते हैं उनके पुग्य तंज से दूमरे को नन्न नहीं दीखते और २२ तथिकरों को निरंतर उस्न रहता है और कल्पों में तर्थिकरों का विशप वर्णन देखन में नहीं आया इसलिय सिर्फ २४ तथिकर के साधुओं का ही भेद बताते हैं. साधुओं के कल्पों का भंद, मान के अभिलाण माधुश्रा के कल्पा में भेद होने का कारण सिर्फ कालानुसार उन श्री बुद्धि का भेद है. ऋषभदेव के मधू प्राय: ऋजु जड होने से उनकी समझ में खामी थी और अनजान में अधिक दोप न लगाव इसलिये दश कल यथा विधि पालना एक फर्ज रूप है. महावीर प्रभु के साथ वजड होने से उनको समझ में कम पावे और वक्र हाने में उत्तर भी मीधा नहीं देव इम लय उनको दोप विशेप नहीं लगे इसलिय दशी ही कल्प पालना आवश्यक बताया है. अजित प्रभु से लेकर पार्श्वनाथ तक के साधु ऋजु प्रन्न होने से उनको समझ में शीव आत्र और निष्कपट होने से अधिक दीप का संभव नहीं और अल्प दोप आव तो शीघ्र गुरु को सत्त्र कहकर निर्मल होजावे, इसलिये उनके दृष्टांत बताये हैं. ___एक नाटक ऋपभदेव महावीर और बांच के २२. तीर्थकरों के साधुओं ने देखा और देर म प्राय गुरु के पूछने पर अपभदेव के साधुओंने सरल गुण सं नव कहा. गुमने कहा कि अापको ऐसा नाटक देखना नहीं चाहिये. इमरी वक्त फिर नाटक दंग्या श्रार देर से पाये गुरु के पूछने पर सत्य कहा, गुरुने कहा कि श्रापको नाटक की मना की थी फिर क्या देखा? वो वाल, महाराज !हमने पूर्व में पुम्य का नाटक देवा अाज तान्त्री का देखा है. गुरुने कहा कि ऐसा नाटक स्त्रियों का अधिक मोहक होन से साधुओं को त्याज्य है अब नहीं देखना, यह दृष्टांत से मालूम होता है कि उनकी बुद्धि जढतासे विशप नहीं पहुंच सकी के स्त्री का नाटक नहीं देखना. महावीर के माधुश्रान वक्रता से उत्तर भी सीधा न दिया, धमकाने पर सत्य कहा. गुरुने मना किया, परन्तु दूमरी वक्त भी देखा और गुरुने फिर धमकाये तो सत्य बोलकर वझना से बाल कि ऐसा था तो आपने पुरुष के नाटक के साथ श्री का नाटक मी क्यों निषेध न करा? Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) और २२ तीर्थंकरों के साधु तो नाटक देखै नहीं, देखै तो सत्य कहै और दूसरी वक्त ससझ नावें कि पुरुष से स्त्री अधिक मोहक है इसलिये देखने खड़े न रहे. इसलिये २२ तीर्थकरो के साधुओं को १० कल्प में कुछ नियत कुछ अनियत हैं. (१) अचेलक पणा का नियम नहीं, चाहे जीर्ण अल्प मूल्य का अथवा पंच रंगी वहु मूल्य का वस्त्र पहरे उनको दोप न लगे ऐसा वर्तन रखे अर्थात् २२ तीर्थकरो के साधुओं को यह कल्प अनियत है. दो तीर्थंकरो के साधुओं को नियत है कि अल्प मूल्य के वस्त्र पहरे. (२) दूसरा कल्प नियतं है अपने निमित्त किया हुआ आहारादि न लेवे अर्थात् साधु के निमित्त आहारादि वनावे तो साधु न लेवे परन्तु २२ तीर्थकरो के साधुओं को विशेष यह है कि जिसके निमित्त हो उस साधु को न कल्पे दूसरों को कल्पे और ऋपम महावीर के साधुओ को वो आहार जिस साधु के निमित्त बनाया हो वो आहारादि सब साधुओं को न कल्पे सिर्फ गृहस्थोंने अपने लिये ही वनाया हो वो साधुओं को कल्प सकता है वोही ले सकें. (३) जिस गृहस्थ के मकान मे ठहर उसका आहारादि कोई भी साधु को न लेना चाहिये. १ अशन २ पान ३ खादिम ४ स्वादिम चार प्रकार का आहार न कल्पे. ५ वस्न ६पात्र ७ कंवल ८ रजोहरण है सूई १० पिष्फलक ११ नख कतरणी १२ कर्ण शोधन शली यह १२ वस्तु न कल्पे, दोष का संभव और वस्ती का अभाव न होवे इसलिये मना की है परन्तु रात्रि को जागृत रहकर प्रभात का प्रतिक्रमण अन्यत्र करे तो जहां प्रतिक्रमण किया उसका घर शय्यातर होवे यदि जो रात को नीद वहां ही लेवे और दूसरी जगह प्रभात का प्रतिक्रमण करे तो दोनों ही घर शय्यातर होवें. इतनी चीन शय्यातर की काम लगे. तृण डगल भस्म (राखोड़ी) मल्लक पीठ फलग शय्या संथारो लेपादि वस्तु और उसका घर का लड़का दीक्षा लेवे तो सब उपकरण सहित लेना कल्पे (वो साधु लेसकते हैं ). (४) राजपिंड २२ तीर्थंकरो के साधुओं को कल्पे क्योकि वो समयज्ञ होने से निंदा नहीं कराते न उनको कोई अपमान करसकते वो राजा सेनापति पुरोहित नगर सेठ अमात्य और सार्थवाह युक्त राज्याभिषेक से भूपित होना चाहिये, Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) (५) कृति कर्म-यह कल्प नियत है वह साधुओं को छोटे साधु अनुक्रम से वंदन करें २१ तीर्थंकरों के साधु इस तरह बंदन करत इ. साध्वी बड़ी होवे तो भी छोटे साधु को वंदन करे, (६) व्रत-२४ तीर्थंकरों के साधुओं के व्रत में मुख्य पांच होने पर भी प्रथम अंतिम तीर्थंकरों के साधुओं को पांच व्रत से रात्रि भोजन विरमण व्रत अलग बताया जो हिंसादि टोपों का पोषक है और २२ तीर्थकरों के साधु समयज्ञ होने से जीव रक्षा, सत्य वचन, चारी त्याग, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग बह पांच में से स्त्री को परिग्रह रूप मान कर ब्रह्मचर्य को परिग्रह त्याग में मानते हैं इसलिय चार व्रत उनके गिनते हैं. (७) ज्येष्ठ पद-माध दीक्षा लेने उसको जडवा से दोप होने का संभव होने से दूसरी दीक्षा देते हैं वो दीक्षा से चारित्र का समय गिनते हैं और जिसकी वढी दीक्षा प्रथम हुई वो ही वहा गिना जाता है. ऋयम महावीर के साधुओं को दो दीक्षाएँ होती हैं किन्तु २२ तीर्थकरों के साधुओं को एक ही दीक्षा होती है और वहां से चारित्र समय गिना जाता है. (८) प्रतिक्रमण कल्म अनियत है-दाप हावे तो २२ तीर्थंकरों के साधु प्रतिक. मण देवसी राई करें अन्यथा नहीं किन्तु ऋपम महावीर के साधुओं को देवसी राई पक्खी चौमासी संवत्सरी प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिये. (१)माम करव-यपी अनु अगाव मुद 1४ से कार्तिक मुट 1४ तक एक जगह रहे पाठ मास फिरते हैं और एक मास मे विना कारण अधिक न रहें वो मास कल्प २२ तीर्थंकरों के माधुयों को अनियत है चाई दोष लगे तो एक दिन में भी विहार करें दाप न लगे तो वर्षों में भी विहार न करें निर्मल चारित्र पालें. (10) पर्युषण कन्य-चार माय एक नगा रहकर वर्षा ऋतु निर्वाह करना यह कत्ल प्रनियन है नायकों के माधु वा हो तो व्हर नहीं तो विहार करें प्रथम चार अंतिम तीर्थकर के साधुओं को वर्षों हो चाहे न हो किन्तु रहना ही चाहिये तोमी दुकाल और रोग उपद्रव के कारण विहार करपक्त है. वर्षा के कारण इनास नी एक जगह रहसकते हैं. यह यय वान साधु माध्चीयों का निर्मल चारित्र रहे और वे निर्मल वतन वाले रहकर लो. गों को धर्म बताकर नमार्ग में चला और मोक्ष मार्ग के श्रीवकारी श्राप बनें दूसरों को बनायें इस हेनु मे कल्य नियत अनियत है दमका विशेष हाल गुरु मुन्व मे जान मत है क्योंकि समयानुसार योग्य फेरफार करने का अधिकार गीतायों को दिया गया है जैसे कि यनि साधु एक होने पर भी इन्य मंग्रही बतियों से माधुयों को मिन्न बताने को पीत वस्त्र धारण करने की मथा मात्र विजय पन्यास के समय से शुरु है ।। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) पर्युषण पर्व। चार मास एक जगह रहने के लिये क्षेत्रादि के तरह गुण देखना चाहिये (१) जहां मिट्टी से विशेष कीचड़ न हो (२) जहां समुर्छिम जंतु की उत्पत्ति कम हो ( ३ ) जहां थंडिल मात्रा की जगह निर्दोष हो (४) रहने का मकान ऐसा हो कि जिस में ब्रह्मचर्य की रक्षा होती हो ( ५ ) कारण पड़ने पर दूध दही मिल सका हो ( ६) जहां के पुरुष गुणानुरागी और भद्रक हों (७) नहां निपुण भद्रक वैद्य हो (८) औषधि शीघ्रता से योग्य समय पर मिल सती हो (8) गृहस्थी धन धान्य और मनुष्यों से सुखी हों (१०) राजा साधू का रागी हो (११) जैनेतर ( ब्राह्मणादि ) से साधू वर्ग को पीड़ा न हो (१२) समय पर गोचरी मिलती हो (१३) पठन पाठन उत्तम प्रकार से होना हो। जघन्य गुण । जो तेरह गुण वाला क्षेत्र न मिले तो चार गुण तो अवश्य ही शोधना (१) विहार भूमि (जिन मंदिर) नजदीक हो (२) थंडिल की जगह नजदीक हो (३) पठन पाठन अच्छा होता हो (४) भिक्षा अनुकूल मिलती हो । कम से कम ये चार गुण अवश्य शोधना चाहिये । पयूषण पर्व में कल्प सूत्र सुनने का लाभ । दोष के अभाव में चारित्र की निर्मलता रक्सै, ज्ञान की वृद्धि होवे और सम्य दर्शन की स्थिरता होवे और मंद बुद्धि वा अजाण पणे में जो दोप लगे हों वे दूर होजावें क्योंकि कल्प सूत्र में सम्पूर्ण आवारों के पालने वाले तीर्थकर, गणघर, और प्राचार्यों के चरित्र हैं और चौमासे के जो विशेष श्राचार हैं वो इसमें बताये हैं क्योंकि आचार की शुद्धि से सर्व कर्मों की निर्जरा होती है, शुभ भावना होती है, इसलिये इस लोक में पाप से बचाने वाला और परलोक में सुगति देने वाला कल्पसूत्र प्रत्येक पुरुष स्त्री को लाभ दाई है इसलिये उसको सम्यक् प्रकार से सुनना चाहिये । पर्युषण पर्व में आवश्यक कर्त्तव्य । (१) जिन मंदिरों का दर्शन, पूजन, बहुमानता (२) अहम तप करना (३) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) स्वामी वात्सल्य करना ( ४ ) परस्पर वैर विरोध प्रतिक्रमण से दूर करना ( ५ ) जीव रक्षा के योग्य उपाय करना ( ६ ) अर्थात् पर्व के दिनों में तन मन धन से जैन धर्म की उन्नति करना । कल्पसूत्र के उद्धारक ( रचयिता ) सिद्धांत में से अमृत समान थोड़े सूत्रों में अधिक रहस्य बताने वाले भद्रबाहू स्वामी चौदह पूर्व के पारगामी थ उन्होंने दशाश्रुत स्कंध और नवमा पूर्व से उद्धार किया है । पूर्व । जैन शास्त्रों में अंग उपांग कालिक उत्कालिक इत्यादि अनेक भेद हैं जिन में पूर्व बारहवां अंग में है बारहवां अंग दृष्टिवाद है उस अंग का विषय रहस्य बहुत बड़ा है और पूर्व का लिखना अशक्य है वाल जीवों को समझाने के लिये कहा हैं कि पहले पूर्व का रहस्य लिखने के लिये एक हाथी जितना ऊंचा शाही का ढेर चाहिये और प्रत्येक को दुष्ट गिनने से चौद्रवां पूर्व आठ हजार एक मोबाएं हाथी जितना शाही का ढेर चाहिये सब पूर्वी का हिसाब गिनती में १-२-४-८-१६-३२-६४-१२८-२५६-५१२-१०२४- २०४८ ४०६६ - ८१६२ सव मिलके १६३८३ होते हैं इतना रहस्य समझने वाले भद्र बाहू स्वामी ने इस ग्रंथ की रचना की है इसलिये कल्पसूत्र माननीय है और उस सूत्र का अर्थ भी बहुत गंभीर है इस कल्पसूत्र के रहस्य में कुछ लिखते है । अट्टम (तीन उपवास ) तप की महिमा | चंद्रकान्त नाम की नगरी, विजयसेन राजा, श्रीकान्त नाम का सेठ, श्री सखी नाम की भार्या पृथ्वी ऊपर भूषण रूप थे. यथा विधि धर्म ध्यान करने से श्रीकान्त के पुत्र रत्न हुवा. पर्यपण में अन तप करने की बात दूसरों के मुंह से सुनी, सुनते ही बालक को पूर्व भव का ज्ञान हुवा और बालकने अहम तप किया, कोमल वय और दूध नहीं पीने से वो अशक्त और मरने समान होगया, माता पिताने उपचार किया परन्तु वालक तो कुछ भी औषधि न लेने से मृत समान होगया उसको मरा हुवा देखके ( समझ के ) जमीन में गाड दिया. पुत्र के शोक से विद्दल होकर उसके माता और पिताने भी प्राण छोड़ दिये. राजाने सेठ के सपरिवार मृत्यु होने के समाचार सुनकर उसका धन लेने का अपने नोकर भेजे. श्रम तप के प्रभाव मे धरणेन्द्र का आसन कला Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । (७) यमान हुवा वो अवधि ज्ञान द्वारा सर्व वार्ता को जानकर ब्राह्मण के स्वरूप में आकर सेठ के धन और घर की रक्षा करने लगा और राजा के सेवों को पाल नहीं ले जाने दिया. ये समाचार नोकरों द्वारा राजा सुनकर स्वयं वहां आया और हाथ जोड़ कर कहने लगा कि हे भूदेव ! इस में आप क्यों विघ्न डालते हो? ब्राह्मण ( इन्द्र ) ने उत्तर दिया, कि इस संपत्ति का मालिक जिन्दा है और उसी समय जमीन से उस बालक को निकाल और अमृत छांट कर जागृत किया और राजा से कहा कि हे राजन ! इस बालक की रक्षा करने से आपको बहुत लाभ होवेगा. राजाने हाथ जोड़कर पूछा, हे भूदेव ! कृपाकर अपना परिचय दीजिये. तब इन्द्र ने अपना साक्षात् रूप प्रकट करके कहाँ कि इस बालक के तप के प्रभाव से मेरा आसन कम्पायमान हुवा, तो मैंने अवधि ज्ञान द्वारा सर्व रहस्य जानकर इस बालक की सेवा के लिये यहां आया हूं। यह वालक पूर्व भव में बहुत दुःखी था और एक समय अपने मित्र से अपनी दुःख की कथा कही तो मित्रने अहम तप का रहस्य समझाकर इसे अहम तप करने के लिये कहा. बालक ने पर्युषण पर्व में इस तप को करने का विचार कर शान्ति से निद्रा ली परन्तु सोत माताने इसे सोता देख अपनी देष बुद्धि से उस झोंपड़े ( मकान ) में आग लगादी, जिसके द्वारा इस की मृत्यु होगई, परन्तु उस समय के अहम तप के शुभ भाव से इस का जन्म यहां हुवा और पर्युषण पर्व में अहम तप करने की बात सुनकर इस वालक को जाति स्पर्ण ज्ञान प्राप्त हुवा, जिस के द्वारा अपने पूर्व भव में किये हुवे विचार के स्मर्ण होने से इसी लघुवय में ही यह अहम तप किया, इस कारण से इसने माता का दूध न पीया । इन सर्व भेदों से अनजान होने के कारण माता पिताने बालक को किसी प्रकार का रोग हुवा समझकर औषधि का उपचार ( उपाय) करना चाहा परन्तु बालकने तप में पक्का होने से कोई दवा न पी. लघुवय के कारण अचेत होगया, परन्तु सर्व लोकों ने उसे मरा हुवा ममझकर जमीन में गाड़ दिया और इसके माता पिताने भी शोक से विह्वल हो प्राण त्याग दिये। इस प्रकार से राजा को समझाकर इन्द्र महाराज ने कहा, कि हे राजन! अब इस बालक की आप रक्षा करें और इस बालक द्वारा आपका बहुत भला होगा। यह बचन सुनकर तथा इन्द्र महाराज को पहिचान कर राजा हाथ जोड़ कर खड़ा हुवा और सविनय कहने लगा कि आप की आज्ञा शिरोधार्य है, इन्द्र तो अपने स्थान को सिधाये और राजा बालक को पुत्रवत् पालन करने लगा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (=) और नाम संस्कार के समय नागकेतु नाम स्थापित किया. विद्या पढकर व धर्म की उत्तम शिक्षा पाकर वह बालक अर्थात नागकेतु नित्य सामायिक देव पूजन प्रतिक्रमण इत्यादि शुभ क्रियाओं को करना हुवा समय बिताने लगा । परोपकार तन, मन, और घन तीनों से करने लगा और सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र को मुख्य मानकर यथाशक्ति समय पर पीपत्र इत्यादि करता हुवा अर्थात् एक धर्मात्मा पुरुष तरीके अपना जीवन (आयु) निर्वाह करने लगा | एक समय राजाने एक मनुष्य की चोरी के अपराध में चोर नहीं होते हुए भी शक से शिक्षा के हेतु फांसी की आज्ञा दी, मर्ती समय शुभ परिणाम के रहने से वो मनुष्य व्यंतर देव हुवा, अवधि ज्ञान द्वारा राजा को पूर्व भव में फांसी की आज्ञा देने वाला जानकर उसको द्वेष बुद्धि उत्पन्न हुई और अपनी शक्ति द्वारा राजा को सिंहासन से नीचे गिरा दिया और उस सर्व नगरी का नाश करने के हेतु एक नगर के समान लम्बी चौड़ी पत्थर की शिला नगर पर छोड़ दी, नागकेतु ने सर्व जीवों के प्राणों को बचाने और जिन मंदिरों की रक्षा करने के हेतु एक मंदिर के शिखर की चोटी पर चढकर और पञ्च परमेष्ठि मंत्र का जाप कर उस महान् शिला को अपनी ऊंगली पर रोकली, देवता भी उसके तेज से घबरा गया तत्र नागकंतु ने देवता को सदुपदेश दिया जिससे उसने शिला पीटी हटाई. राजा को भी अच्छा किया सर्व नग्र के लोक नागकेतु की स्तुति करने लगे । एक समय नागकेतु जिनेश्वर भगवान् की पूजा कर रहा था उस समय एक तंबोलिया सर्प ने नागकेतु को डसा, परन्तु उस महान परोपकारी पुरुष को जग भी द्वेष उत्पन्न न हुत्रा अपने पूर्व कमों का फल समझकर जिनराज के ध्यान में लीन हुवा उसी समय उसे केवल ज्ञान उत्पन्न हुवा और वहीं देवनाथों ने इसके उपलक्ष्य में पुष्पों की वर्षा की और साधू वेप लाकर उसे दिया जिसे धारण कर अनेक भव्य जीवों को सदुपदेश द्वारा तारने हुए इस प्रसार संसार को त्याग मोक्ष पुरी को सिवायें । हे भव्य जीत्रों ! आप लोग भी इसी प्रकार पर्युषण पर्व में यथाशक्ति तपस्या करें, जिनमंदिर में दर्शन पूजन करें, साधु वंदन, संवत्सरी प्रतिक्रमण इत्यादि धर्म क्रिया करते रहे, चौरासी लाख जीत्र योनी से परस्पर अपराध चपावें और जीव रक्षादि परोपकार से स्वपर को शांति दें । -:-0-0- Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - . Seth Bridhi Chand Daddha. सेठ वृद्धिचंद डड्डा. 2 TE. Ridd लक्ष्मी नार्ट, भायखळा, बम्बई .. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .। Page #18 --------------------------------------------------------------------------  Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशाश्रुतस्कन्धे, श्रीपर्युषण कल्पाख्यं स्वामिश्रीभद्रबाहुविरचितम् - श्रीकल्पसूत्रम्.. * मंगलाचरण नवकार मंत्र : सूत्र ( १ ) ॐ श्रीवर्द्धमानाय नमः ॥ ॐ ॥ ई ॥ नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं || एसो पंचनंमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो, मंगलायं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥ १ ॥ F पहिले तीर्थंकर श्री ऋषभदेवजी का और अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी का अर्थात् दोनों तीर्थंकरों का प्रचार एकसा है और इस समय के साधुओं को श्री महावीर स्वामी का आचार अधिक उपकारी है. इस सूत्र में तीर्थंकर गणधर सर्व का चरित्र और महान आचार्यों की पट्टावली दी है, इस वास्ते ये ग्रंथ सुनने वाले तथा सुनाने वाले को अधिक लाभ देने वाला है, * महावीर चरित्र मूल सूत्र ( २ ) तेणं कालेणं तेणं समरणं समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे हुत्था, तंजा, हत्थुत्तराहिं चुए - चइत्ता गन्भं वर्कते ? १ सूत्रद्वयमेतदीय संख्यातम् Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) हत्थुत्तराहिं गन्मायो गन्मं साहरिए २ हत्थुत्तराहिं जाए ३ हत्थु राहिं मुंडे भविता श्रगारा अणगारिथं पव्वइए ४ पडिपुन्न केवलवर नाणं दंसणे समुपपन्ने ५ साइया परिनिब्बुए भयव ६ ।। २ ।। इस सूत्र में श्रीमन् महावीर प्रभु को उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में पांच बातें हुई हैं वे बताई है. माता के उदर (पेट) में आना वो च्यवन, एक स्थान से दूसरे स्थान में गर्भ ले जाना वो गर्भसाहरण, जन्म, दीक्षा, ( साधूपण लेना ) केवल ज्ञान और मोन्. इन है बार्तो में प्रथम की पांच उत्तरा फाल्गुनी नचत्र में और छठ्ठी मोक्ष स्वाति नक्षत्र में हुआ. कल्याणकः - तीर्थकरों का माता के गर्भ में थाना, जन्म लेना, दीक्षा लेना, केवल ज्ञान प्राप्त करना, और मोक्ष में जाना भव्य आत्माओं को कल्याणकारी होने से ये प्रत्येक तीर्थकर के ५ कल्याणक माने जाते हैं. अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर प्रभु को गर्भपहार अधिक हुवा उसे भी कितने ही आचार्य कल्याएक मानते है और कितने ही नहीं मानने अपेक्षा पूर्वक तत्वज्ञानी गम्य हैं. * श्रीमन महावीर प्रभु की कल्याणक तिथियें सूत्र ( ३ ) ते कालेणं तेणं समरणं समये भगवं महावीरे जे से गिम्हाणं उत्थे मासे अट्टमे पक्खे प्रासादसुद्धे तस्सणं यासांडसुद्धस्स छट्ठीपक्खेणं महाविजयपुप्फुत्तरपवरपुंडरीयाश्रो महाविमाणाय वीसंसागरोवमट्ठिड्यायो घाउक्खएणं भवक्खणं ठिक्खणं अतरं चयं चत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्ढर्भरहे इमीसे ग्रोसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए विइताए १ सुसमाए समाए विताए २ सुसमदुसमाए समाए विताए ३ दुसमसुसमाए समाए बहुवि - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) इकताए - सागरोवमकोडाकोडीए बायाली सेवा ससहस्सेहिं ऊfree पंचहत्तरिवासेहिं श्रद्धनवमेहि य मासेहिं से सेहिं - इ - कवीसाए तित्थयरेहिं इक्खागकुलसमुपपन्नहिं कासवगुत्तहिं, दोहि य हरिवंसकुलसमुपपन्नहिं गोमसगुत्तेहिं, तेवीसाए तित्थयरेहिं विज्ञकतेहिं, समणे भगवं महावीरे चरमतित्थयरे पुव्वतित्थयरनिद्दिट्ठे, माहाकुंडग्गामे नयरे उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालगुत्तस्स भारियाए देवाणंदार माहणीए जालंधरसगुत्ताए पुव्वरत्तावर त्तकालसमयंसि हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागणं आहारवतीए भववक्कतीए सरीरवकंतीए कुच्छि - सि गन्भत्ता वक्कते ॥ ३ ॥ आज से २४४२ वर्ष पहले महावीर प्रभु का निर्वाण हुवा उसके ७२ वर्ष पहिले के समय में ग्रीष्म (गर्मी) ऋतु के चोथे मास वा आठवें पक्ष के छठे दिन अर्थात् आषाढ सुदि ६ के रोज श्रीमन् वीर प्रभु का जीव महा विजय पुष्पोत्तर पुंडरिक नाम के बड़े विमान से वीस सागरोपम की स्थिति पूरी करके अर्थात् देवभव पूरा करके सीधे देवलोक से इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के दक्षिण भाग में इस वर्तमान अवसर्पिणी काल के ( १ सुखम सुखम् २ सुखम ३ सुखम दुखम् ४ दुखम सुखम इन चार आरों के बीत जाने में कुछ पिच्योत्तर वर्ष साडे आठ मास वाकी रहे तब [ चार श्रारों का समय प्रमाणः १ चार कोड़ा कोड़ी सागरोपम का. २ तीन कोड़ा कोड़ी सागरोपम का. ३ दो कोड़ा कोड़ी सागरोपम का. ४ एक कोड़ा कोड़ी सागरोपन में बयालीस हजार वर्ष कम का ]) चोथे आरे के अंत में माता के उदर में आये. उनके पहले २१ तीर्थंकरोंने इक्ष्वाकुकुल और काश्यप गोत्र में और २ तीर्थकरोंने हरिवंश कुल और गौतम गोत्र में जन्म लिया. इन २३ तीर्थंकरों ने केवलज्ञान द्वारा पहले ही कहा था कि (२४) चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर प्रभु ब्राह्मण कुंड नम में कोडाल गोत्र के ब्राह्मण ऋषभदत्त की जालंधर गोत्र की ब्राह्मणी देवानंदा नामी स्त्री के कूख में मध्य १-३ साए । परिमे. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) रात के समय उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में चंद्र योग में देवता के शरीर को छोड़कर मनुष्य सम्बन्धी आहार और भव ग्रहण कर (माता के उदर में ) आवंगे उसी मुजब महावीर स्वामी का जीव माता के उदर में आया. मूत्र (४) समणे भगवं महावीरे तिन्नाणोवगए प्राविहुत्था-बड़स्सामित्ति जाणइ, चयमाणे न याइ, एमि त्ति जाएइ । जे रणिं च णं समणे भगवं महावीरे देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिसि गम्मत्ताए वकंत, तं रयणिं च एं सा देवाणंदामाहणी सयणिजंसि सुत्तजागरा प्रोहीरमाणी २ इमेग्रारूवे उराले कल्लाणे सिवे धन्ने मंगल्ले सस्सिरीए चउद्दस महासुमिणे पासित्ताणं पडिवुद्धा, तंजहा, गय-वसहै-सह-अभिसे.-दाम-ससि-दिणपॅरं-मयं-कुंभ । पउमसैर-सागर-विमाणभवण-रयणुच्चय-सिहिं च ॥१॥1॥४॥ ___ महावीर स्वामी जिस समय माता के उदर में आये उसी समय उन्दै मनि, श्रुति और अवधि य नीन बान प्रास थे इसलिये च्यवन होने की और हॉगया ये दो वात वे जानने थे परन्तु च्यवता हूं वो "समय" मात्र काल होने से केवल ज्ञान न होने से वो धान नहीं जानने थे जिम रान को भगवान् महावीर प्रभु देवानंदा की कूख में आये उनी रान को देवानंदा ने पलंग पर सोने हुवे अल्प निद्रा में (अर्थान् आधी नींद और प्राय जागते ऐसी अवस्था में ) उदार कल्याणकारी उपद्रव हरनेवाले धन देने वाले मंगलीक सोभायमान उत्तम १४ स्वम देने. जो इस प्रकार हैं:-2 गज (हाथी) २ वृषभ (बैल) ३ सिंह (शर) ४ अभिपक (लक्ष्मी देवी का स्नान ) ५ पुष्यों की माला का जोड़ा. ६ चंद्र. ७ मयं. ८ वजा. ९ फलग. १० पत्र सरोवर. ११ दीर सागर. १२ विमान. ( भवन ) १३ रनों का र १४ निधूम अग्नी. इस प्रकार के चवदह बम देखें. (यह स्वम सब तीर्थकरों की अपेक्षा से कहे हैं) १-२ कयंयपुष्फपित्र. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) ® चौबीस तीर्थंकरों की माताओं के स्वप्नों का भेद * ___ प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव स्वामी की माता ने प्रथम स्वम में बृषभ (बैल) देखा और अंतिम तीर्थकर श्री महावीर प्रभु की माता ने प्रथम स्वप्न में सिंह देखा और जो तीर्थकर स्वर्ग में से आते हैं उनकी माता १२ वें स्वम में विमान देखती है और जो नरक में से आते हैं उनकी माता भुवन देखती है, सूत्र (५) तएणं सा देवाणंदा माहणी इमे एयारूवे उराले कल्लाणे सिव धणे मंगल्ले सस्सिरीय चउद्दम महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा समाणी, हद्वतुट्ठचित्तमाणंदिया पीप्रमणा परमसोमणसिधा हरिसवसविसप्पमाणहियया धाराहयकलबुगं पिव समुस्ससिअरोमकूवा सुमिणुग्गहं करेइ, सुमिणुग्गहं करिता सयणिजात्रोअब्भुढेइ, अट्टित्ता अतुरिअमचवलमसंभंताए अविलंबित्राए रायहंससरिसाए गईए, जेणेव उसमदत्ते माहणे, तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता उसमदत्तं माहणं जगणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावित्ता सुहासणवरगया धासत्था वीसस्था करयेलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी ॥५॥ ___ महावीर प्रभु की माता ऊपर लिखे चवंदह स्वम देख कर जागृत हुई. स्वप्नों से संतुष्ट मन में आनन्द प्राप्त करती हुई परम आल्हाद से प्रफुल्लित हृदय वाली (जैसे मेघ धारा से कदंव वृक्ष के फूल खिलते हैं ऐसे ही वो देवानंदा भी दिव्य स्वरूप धारण कर रोमांच से प्रफुल्लित होकर जिसके रोम २ हर्षाय मान होरहे हैं ) अपने श्रेष्ठ स्वमों को याद करती हुई अपनी शय्या से उठकर एक सरखी राजहंसी समान चाल से चलती हुई अपने स्वामी ऋषभदत्त ब्राह्मण के शयनगृह ( सोने की जगह ) में गई और जय विजय शब्द से संतुष्ट १-२ भदासण १-२ सुहासणवरगया क. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फर भद्रासन पर बैठ कर विश्राम लेनी हुई मुखासन पर बैठी हुई दश अंगुली मिला कर अंजली गिर में घुमा कर वंदन नमस्कार करती हुई इस प्रकार विनय पूर्वक वाली. मृत्र ( ६-७-८ ) एवं खलु अहं देवाणुपिया! अज्ज सयणिज्जमि सुत्तजागरा ग्रोहीरमाणी २ इमेग्रारूवे उराले जाव सस्सिरीए चउद्दस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा, तंजहा, गय-जाव -सिहिं च ॥ ६॥ एएसि उरोलाणं जाव चउदसण्ह महासुमिपाएं के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? तएणं से उसमदत्ते माहणे देवाणंदाए माहणीए अंतिए एअमटुं सुच्चा निसम्म हट्टतुट्ट जाव हिनए धाराहयकलंघुग्रंपिय समुस्ससियरोमकूवे सुमिणुग्गहं करेइ, करित्ता इहं अणुपविसह, अणु विसित्ता अप्पणो माभाविएणं मइपुब्बएणं वुद्धिविन्नाणेणं तेसिं सुमिणाणं अत्युग्गहं करेइ, करिता देवाएंदं माहणिं एवं वयासी ॥७॥ अोरालाणं तुमे देवाणु,पिए ! सुरिरणा दिट्ठा, कल्लाणा सिवा धन्ना मंगल्ला मस्सिरिया प्रारोग्तुहिदीहाउकल्लाणमंगलकारगाणं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्ठा, तंजहा-अत्यलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलामो देवाणुप्पिए ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए ! सुक्खलामो देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुमं देवाणुप्पिा ! नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाणं राइंदिप्राणं विकंताणं सुकुमालपाणिपाय नहीणपडिपुन्नपंचिंदिय1- देगषमा: 2. - - - Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) सरीरं ' लक्खणवंजणगुणोववेयं माम्माणपमाणपडिपुन्नसुजायसव्वंग सुदरंगं ससिसोमाकारं तं पिदंसणं सुरूवं देवकुमारोवमं दारयं पयाहिसि ॥ ८ ॥ हे स्वामी ! आज मैंने अल्प निद्रां लेते हुवे हस्ती इत्यादि के १४ स्वम देखे, हे स्वामी, हे देवानुमिय, इन स्वप्नों का क्या फल है ? वो कृपया बताइये. ये वचन सुनकर ब्राह्मण ऋषभदत्त मन में बहुत खुश होकर एकाग्रचित्त से अपनी बुद्धि अनुसार शुभ स्वप्नों का फल विचार कर अपनी भार्या देवानंदा से इस प्रकार कहने लगा, कि हे भद्रे ! तुमने प्रति उत्तम कल्याण के करने वाले, मंगलीक धन के देने वाले स्वप्न देखे हैं जिन सब का फल यह है कि नत्र मास और साढ़े सात दिन पूरे होने पर तुम्हारे एक सुकुमाल हाथ पांव वाला पांच इन्द्रिय पूर्ण शरीर में सुलक्षण धारण करने वाला गुणों का भंडार मान उनमान प्रमासे सम्पूर्ण सुन्दर यंग वाला चन्द्र समान मनोहर कांति से प्रिय दर्शन स्वरूप वाला पुत्र रत्न होगा, * बत्तीस लक्षणों का स्वरूप , 1 छत्रं तामरसं धनू रथवरो दंभोलि कूम्र्म्मा कुशौ, वापी स्वस्तिक तोरणानि चसरः पंचाननः पादपः; चक्रं शंख गजौ समुद्र कलशौ प्रासाद मत्स्यायवा, यूपः स्तूप कमंडलू न्यवनिभृत् सच्चामरो दर्पण: (१) उक्षा पताका कमलाभिषेकः सुदाम केकी घन पुण्य भाजाम्. ऊपर के शार्दूलविक्रीडित छंद में और इन्द्र बज्रा बंद के दो पदों में यह बताया है कि यह बत्तीस लक्षण पुण्यवान् पुरुष के होते हैं उनके नाम ये हैं. १ छत्र. २ वींजणा. ३ धनुप. ४ रथ. ५ वज्र. ६ काछुवो. ७ अंकुश ८ वावड़ी. ९ स्वस्तिक. १० तोरण. ११ तालाच. १२ सिंह. १३ वृक्ष. १४ चक्र. १५ शंख. १६ हाथी. १७ समुद्र. १८ कलश. १९ प्रासाद. २० मत्स्य. २१ यव. २२ यज्ञ का 'स्तंभ. ' २३ पादुका. २४ कमंडल. २५ पर्वत, २६ चंवर. २७ काच. २८ वैल. २९ पताका, ३० लक्ष्मी. ३१ माला. ३२ मयूर. 1 ८ वत्रीस लक्षण और भी हैं: - ( सात लाल, है ऊंचे, पांच सूक्ष्म, पांच दीर्घ, तीन विशाल, तीन लघू, तीन गम्भीर ) जिस पुरुष के नाक पांत्र हाथ जीभ डाढ लाखों के को लाल हों उसे लक्ष्मीवान समझना चाहिये, कांख छाती, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गलं का मिणिया (कीरका टीका) नामिका नख और मुख यह ६ जिसके ऊंचे हो वो सर्व प्रकार मे उन्नति करने वाला होवे और दान चमट्टी वाल अंगुली के पैरखे और नाब यह पांच जिसके मुख्य अर्थात् पतले हो वो धनाढ्य होवे. आंख स्तन का वीचका भाग नाक हनु (ठोडी) और भुजा जिस की दीर्य अर्थात् लम्बी हो। वो पुरुष दीयं आयु, धनाड्य और महा बलवान होवे, कपाल छानी और मुख जिलका विशाल (बडा ) होय वो पुरुष राजा होव, गर्दन जांघ और पुरुष चिन्ह (पुलिय) जिसके लघु हो वो पुरुष राजा हांव, स्वर (अावाज ) नाभी और सच यह नीन जिसके गंभीर हो वो समुंद्र और पृथ्वी का मालिक हो. श्रेष्ठ पुरुषों के ऊपर कहे हुए ३२ लक्षण होते हैं, किन्तु श्रेष्ठ पुरुषों में प्रधान वलदेव और बासुंदव के १०८ और चक्रवर्ती तीर्थकर भगवान् के १००८ लक्षण शरीर पर होने हैं परन्तु शरीर के भीतरी भाग में ज्ञानी गम्य (जिनको जानी महाराज जान सक्ने हैं) अनेक लक्षण होते हैं ऐसा निशीय चूगी ग्रंथ में कहा है. शरीर की सुन्दरता __ सम्पूर्ण मनुष्य दंह में मुख प्रधान है, मुख में नाक श्रेष्ठ है और नासिका से नेत्र अधिक श्रेष्ठ है, नेत्रों द्वारा मनुष्य का शील ( सदाचार )मालुम होता है, नासिका द्वारा सरलता और रूप ( खुवमूरती ) द्वारा धन संपत्ती प्रगट होती है शील से गुण, गनि से वर्ण. वर्ग में नह. स्नेह से स्वर, स्वर में तेज और तेज से सत्र मालुम होना है. सत्व गुण की प्रशंसा इस संसार में मनुष्य नव प्रकार के होते हैं अथान सालिक, मुकृति, दानी, राजसी, विपर्या, ब्राह्मी, तामसी, पानकी, लोभी. सात्विक पुरुष स्त्रपर को इस लोक और परलोक में मुग्व देने वाला होना है, कारण वो दयावान, धीरजवान, सन्यवादी, देवगुरू का भक्त, काव्य, और धर्म में प्रसन्न चित्त और शूरता में नायक होता है. सन्त्र गुण या तो बहुत छोटे में, वा बहुन बड़े में, बहुत पुष्ट मेंवा बहुत दुर्बल में, बहुत काल में वा बहुन गार में होता है. . चारगनियों में आने जाने के लक्षण धर्म गगी, मौभाग्यी, निरोगी मुस्त्रमा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीति पर चलने वाला और कवि. इतने प्रकार के गुण वाला पुरुष मायः स्वर्ग में से पाया हुवा प्रतीत होता है और इस यौनी को पूरी करके स्वर्ग में जाने वाला है ऐसा शास्त्रों में कहा है. दंभ रहित दयावान दानी इन्द्रियों को दमन करने वाला, चतुर, जिन देव पूनक, जीव मनुष्य यौनी से आया है और फिर मनुष्य यौनी ही प्राप्त करेगा. मायावी, लोभी, मूर्ख, आलसी, और बहुत आहार करने वाला पुरुष कोई शुभ कर्म के उदय से पशु योनी में से आकर मनुष्य हुवा है और फिर पशु योनी में जावेगा. अत्यन्तरागी, अतिद्वेषी, अविवेकी, कटू वचन बोलने वाला, मूर्ख और मूरों की संगति करने वाला, प्राणी नर्क से आया है और फिर नर्क में जावेगा. जिस मनुष्य के नाक, आँख, दांत होठ, हाथ, कान और पैर इत्यादि पूर्ण __ और सुन्दर हैं वो मनुष्य उत्तम गुण प्राप्त कर के योग्य होते हैं इनसे विपरीत __ अर्थात् जिस मनुष्य के अंगोपांग खराब हैं वो अयोग्य हैं. • मजबूत हड्डी से धन प्राप्त होता है, मांस पुष्टि से सुख, गोरी चमड़ी से भोग, सुन्दर आंखों से स्त्री, अच्छी चाल से वाहन प्राप्त होता है, मधुर कंठ वाला श्राज्ञा करने वाला होसक्ता है किंतु यह सर्व सत्व गुणी मनुष्य के लिये है अर्थात् ऊपर लिखे अनुसार उत्तम फल प्राप्त करना अथवा प्रतिकुल यानी खराव को छोड़ना वो सत्व बिना नहीं होता है. ____ मनुष्य के जीवणे भाग पर दक्षिण आवर्त हो तो शुभ है और यदि वाम भाग में उलटा हो तो अशुभ है, इत्यादि अनेक लक्षण शुभाशुभ के शास्त्रों में बताये हैं, परन्तु तीर्थकर देव सर्व से अधिक पुण्य वाले होने से सर्व उत्तमोत्तम लक्षण उनमें होते हैं. लक्षणों का विशेष स्वरूप अन्य टीकाओं से जान लेना. ' व्यञ्जन पसा तिल इत्यादि तीर्थंकरों के योग्य भाग में होते हैं पुरुष जितनी नाप की कुंडी में जल भर के एक युवा पुरुष को उस जल में बिठाया जावे और यदि उस कूडी में से एक द्रोण भर जल बाहिर निकले तो मनुष्य मान ( नाप') वरोबर समझना चाहिये. ___उन्मान से मनुष्य का वजन यदि अर्द्धभार होवे तो उत्तम समझना. उत्तम पुरुष १०८ अंशुल प्रमाण का होता है परन्तु तीर्थकर मस्तक ऊपर शिखर की तरह बारह अंगुल अधिक होने से १२० अंगुल प्रमाण होते हैं. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) ऋषमदत्त ब्राह्मण वेट वेदान्त का अच्छा विद्वान् था जिसने अपनी विद्या द्वारा सुन्दर रूपवान वालक होने का बनाकर सर्वे उत्तमोत्तम वाघ लवण भी बताये. मुत्र (९) सेवित्रणं दारए उम्मुक्कबालभाव विनायपरिणयमित्ते जुब्बणगमणुपत्ते, रिउव्वेन-जउग्र-सामवेअ-अथव्वणवेश इतिहासपंचमाणं निघंटुटाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चउण्हं वेत्राणं सारए पारए धारए, मडंगवी, सद्वितंतविसारए, संखाणे सिक्खाणे सिक्वाकप्पे वागरण वंदे निरुत्ते जोइसामयण अन्ने अवहुसु वंभरणएसु परिवायएसु नएसु सुपरिनिहिए प्राविभविस्सइ ।। ६ ।। __ वालक के विद्वान् होने के सम्बंध में ऋषभदत्त ब्राह्मण कहता है कि है भद्र जिस समय यह बालक विद्या पढ़कर युवा अवस्था को प्रहण करेगा उस समय चार वेद और बेदान्त का पारंगामी होगा. ___ (नोट-ऋग्वेद, यजुर्वेद, ज्यायवद, अथर्ववेद ये चार वेदों के नाम हैं) (वेद के साथ इतिहास और निघंटु जोड़न से ६ होने हैं और अंग उपांग भी होते हैं). उनका रहस्य जानेगा. और दूसरों को विद्याध्ययन करावेगा. अशुद्ध उधारण से रोकेगा. और मूलने वालों को फिरस समझा कर विद्वान् बनावंगा. शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, ज्योतिष, निरयुक्ति. इन छ अंगों में धर्मशास्त्र मीमांसा, तर्क विद्या, पुरान इत्यादि उपांगों में पष्टी तंत्र इत्यादि कपिल ऋषि के मत के शान्त्रों का पारंगामी अर्थात् पूर्ण ज्ञानी होगा. ब्राह्म मूत्रों का और परिव्राजक के ग्रंथों का भी पूर्णतया जानने वाला होगा. अर्थात् संसार में जितने दर्शन और मत विद्यमान है उन सर्व का पंडित होगा. और सर्व प्राणियों को यथार्थ मार्ग बनावेगा और सर्वज्ञ होकर सर्व जीवों के संश्रय निवारण करेमा. मूत्र (१०) तं उराला णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिवा, जाव Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) तुला रा थारुग्गतुट्ठिदीहाउयमंगल्लकल्ला कारगा पिए ! सुमिया दिट्ठन्ति कट्टु भुज्जो भुज्जो अणुवूहइ ॥ १० ॥ इस प्रकार बालक की विद्या बुद्धि की प्रशंसा करते हुवे अपनी भार्या देवानंदा से कहता है कि हे देवानुप्रिये जो तुमने स्वप्न देखे हैं वो सर्व उत्तम २ फल देने वाले हैं. इसलिये मैं उनकी बार २ प्रशंसा करता हूं. सूत्र (११-१२ ) तणं सा देवादा माहणी उसभदत्तस्स अंतिए एममट्ठ सुच्चा निसम्म हट्ट जाव हियया जाव करयल परिग्गहियं दसनहं सिरसावतं मत्थए अंजलिं कहु उसमदत्तं माहणंएवं वयासी ॥ ११ ॥ rahi देवापित्रा ! तहमेयं देवाणुपिया ! अवितहमेयं देवापित्रा ! संदिद्धमेयं देवागुपित्रा ! इच्छियमे देवापिया ! परिच्चित्रमेयं देवापित्रा ! इच्छियपडिच्चियमे देवाणुपित्रा ! सच्चे णं एसमट्टे, से जहेयं तुन्भे वहति कट्टु ते सुमि सम्मं पडिच्छर, पडिच्छित्ता उसभदमाहणं सद्धिं उरालाई मास्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ || १२ | देवानंदा अपने स्वामी के ऐसे वचन सुनकर हाथ जोड़ मस्तक नवा कर बोली कि हे स्वामिन्! आप कहते हो वो सर्व सत्य है. मेरी इच्छानुसार है और आपके बताये हुवे फल में मुझे किंचितमात्र भी संदेह नहीं है. मैं इसलिये प्रार्थना करती हूं. इस प्रकार विनय पूर्वक कह कर और स्वप्नों को फल सहित मन में याद रखती हुई अपने स्वामी ऋषभदत्त ब्राह्मण के साथ पुन्य संपदा अनुसार मनुष्य जन्म के अनुकूल सुख भोग में अपने दिन व्यतीत करने लगी. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) सूत्र ( १३ ) ; तेणं कालेणं तेणं समएणं सके देविंदे देवराया वज्जपाणी पुरंदरे सयकऊ सहस्सक्खे मघवं पागसासणे दाहिएड्ढ लोगा हिवई बत्तीसविमाणसयहस्सा हिवई एरावणवाहणे सुरिंदे अरiवरवत्यधरे लयमालमउडे नवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिज्ज माणगल्ले महिड्दिए महजुइए महावले महायसे महाणुभावे महासुक्खे भासुरसुंदी पलववणमालघरे सोहम्मे कप्पे सोहम्मवर्डिस विमाणे सुहम्माए सभाए सर्कमि सीहासांसि से णं तत्थ बत्तीसार विमाणवाससय साहस्सीणं, चउरासीए सामाणि साहस्तीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउरहं लोगपालाएं, अहं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिरहं परिमाणं, सत्तरहं प्रणीथाएं, सत्तरहं चणीचा हिवईणं चउण्ं चउरासीएं' आायरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसिं च बहुएं सोहम्मकणवासीणं वेमाणियाणं देवाणं देवीणं य आहेवचं पोरेवचं सामितं भट्टित्तं महत्तरगतं प्राणाईसरसेणावचं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयनडुगीयवाह तंतीतलतालतुडियघण मुइंगपडपडहवाइ यरत्रेणं दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरइ ॥ १३ ॥ सौधर्म देवलोक में इन्द्र को भगवान के दर्शन होना और उनको नमस्कार करना, बयासी दिनों के बाद केन्द्र ( अर्थात् देवताओं का राजा इन्द्र ) हाथ में वज्र धारण करने वाला राक्षसों की नगरियों को तोड़ने वाला श्रावक की पंचम प्रतिमा की ( तप विशेष ) को १०० समय आराधन करने वाला १००० आंखों वाला ( ५०० देवता इन्द्र के मंत्री काम करने वाले हर समय उसके पास १ बर्डसए १-२ णं Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) रहते हैं इस कारण इन्द्र सहस्राक्ष कहलाता है ) मेघों का स्वामी, पाक दैत्य को शिक्षा करने वाला मेरू पर्वत की दक्षिण दिशा का अर्धलोक का स्वामी ऐरावत हाथी पर बैठने वाला, सुरों का इन्द्र, बत्तीस लाख विमान का स्वामी, आकाश समान निर्मल वस्त्र धारण करने वाला, योग्य स्थान पर नव माला मुकुट धारण करने वाला, नये सोने के मनोहर झूलने वाले कुंडलों से देदीप्यमान गालों वाला महान ऋद्धि, महान कांति, महावल, महायश महानुभाव महासुख लम्बी पुष्पों की माला को ऊपर से नीचे तक धारण करने से जिसका शरीर देदीप्यबान होरहा ऐसा इन्द्र सौधर्म देवलोक में सौधर्म अवतंसक विमान में सौधर्म सभा में शक नामी सिंहासन पर बैठा हुवा जिसकी सेवा में बत्तीस लाख वैमानिक ( विमानों में रहने वाले ) देव हैं चोरासी हजार सामानिक देव हैं; तेतीश त्रायत्रिंशक बड़े मंत्री देव हैं सोम, यम, वरुण, कुबेर यह चार जिसके लोकपाल हैं ट अग्र महिपी ( मुख्य देवियां ) सपरिवार, वाह्य, विचली और भीतर को ऐसी तीन परखदा और सात सेना ( गंधर्व नट, हय हाथी, रथ, भट्ट, वृषभ ) ऐसी सात प्रकार की सेना का स्वामी. चार दिशा में चोरासी हजार देवों से रक्षित ने सौधर्म वासी देवों से विभूषित और सर्व देव देवियों का स्वामी अग्रेसर अधिपति, पालने वाला महत्व पद पाकर उनको आज्ञा करने वाला, रक्षक, इन्द्र पणे के तेज से अपनी इच्छानुसार सर्व देवों से कार्य कराने वाला बड़े वार्जित्र श्रेणी जिसमें नाटक, गीत, वार्जित्र तंत्री, कांसी, तृटीत ( एक प्रकार का बाजा ) धनमृदंग पट इत्यादि वाजों की और गाने की आवाज से दिव्य सुख भोगने वाला इन्द्र देवलोक में बैठा है. " सूत्र (१४ ) इमं चणं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं प्रोहिणा भरमा २ विहरइ, तत्थणं समयं भगवं महावीरं जंबुदवे दवे भार वा दाहिणड्ढ भर हे माहणकुंडगामे नयरे उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिसि गन्भत्ताए वकंतं पासह, पासित्ता हट्ठतु चितमाएदिए दिए परमानंदिए पीचमणे १ • Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए धाराहयनीवसुरभिकुसुमचंचुमालइयऊससियरोमकूवे विकसियारकमलनयणे पयलियवरकडगतुडियकेऊरमउडकुंडलहारविरायंतवच्छे पालंवपलंबमाणघोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरिअं चवलं सुरिंदे सीहासणाो अभुट्टेइ, अन्भुष्ठित्ता पायपीढायो पञ्चोरुहइ, पच्चोरुहिता वेरुलियवरिद्वेरिएंजणनिउणोवि(वचि)अमिसिमिसिं• तमणिरयणमंडिअायो पाउयात्रो प्रोमुत्रह, प्रोमुहत्ता एग साडिनं उत्तरासंगं करेड, करिता अंजलिमउलिअग्गहत्थे तित्थयराभिमुहे सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ, सत्तट्टपयाई अणुगच्छिता वामं जाणुं अंचइ, अंचित्ता दाहिणं जाणुं धरणि अलंसि साह१ तिक्खुत्तो मुद्दाणं धरणियलंसि निवेसेड़, निवेसित्ता ईसिं पच्चुन्नमइ, पच्चुराणमित्ता कडगतुडिअथंभिप्रा श्रो भुनाओ साहरेइ, साहरित्ता करयलपरिग्गहिनं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिंक्छ एवं क्यासी ॥ १४ ॥ ___ ऊपर लिखे अनुसार इन्द्र महाराज देवताओं की सभा में बैठे हुए अपने विपुल अवधि ज्ञान द्वारा जंबू द्वीप में देवानंदा की कुंख में श्रमण भगवंत श्रीमन महावीर स्वामी को देखकर अर्थात् अपने इच्छित पूज्य जिनेश्वर देव के दर्शन से मन में अति आनंदित हुए हृदय में बहुत हपायमान हुए उनके रोम २ कदंब के फूल के समान विकस्वर हुवे कमल के समान नेत्र और बदन को प्रफुल्लता प्राप्त हुई. भगवान के दर्शन से जिनको ऐसा इर्प हुवा है कि जिस के द्वारा उसके कंकण, वाहु रक्षक ( कडा ) वाजु वंध, मुकुट, कुंडल, हार इत्यादि हिलने लगगये है. ऐसा इन्द्र तुरंत सिंहासन से खड़ा होकर मणि रत्नों से जड़े हुवे बाजोट पर से नीचे उतर कर बंडुर्य श्रेष्ठ अंजन रत्नों से जडित् अति मनोहर मणि रत्नों से शोभित पावड़ियों को त्याग कर अर्थात् पगों में से निकाल कर एक अखंड निर्मल अमूल्य वन का उतरासन कर मस्तक में दोनों हाय की अंगुली रखकर अर्थान् दोनों हाथ जोड़ कर नीर्थंकर प्रभु के सन्मुख सान Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) आठ कदम जाकर दायें पैर को ऊंचा रक्ख कर जीवने पांव को धरती पर रख कर बैठा हुवा तीन समय मस्तक को जमीन से लगाकर थोड़ासा ऊंचा होकर अपनी कंकण और भुजबंध इत्यादि वहुमूल्य आभूषणों से शोभित भुजा को ऊंची करके दोनों हाथ की अंगुलियों की अंजली मस्तक में लगाकर इन्द्र महाराज इस प्रकार भगवान श्रीमत् वीर प्रभू की स्तुती करने लगे. सूत्र (१५) नमुत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं, वाइगराणं तित्थयराणं सयंसंबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंड - रयाणं पुरिसवगंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगीह चाणं लोगपश्वाणं लोगपज्जो गराणं, अभयदयाप चक्खदया मग्गदयाणं सरणदयाणं जीवदयाणं बौहिदयाणं, धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउंरतचक्कत्रट्टीणं, दीवो ताणं सरणं गड़ पट्ठा अप्प - डिहयवरनापदंसणधराणं विवरमाणं, जिणाणं जावयाणं तिन्नाणं तारयाएं बुद्धाएं बोहयाणं मुत्ताणं मोचगाणं, सव्वराणं सव्वदरिसीणं, सिवमय लमरुत्रणं तमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं, नमो जिणाएं जियभयाणं ॥ नमुत्थुणं समणस्स भगवत्र पहावीरस्स आह "गरस्स चरमतित्थयरस्स पुव्त्रतित्थयर निद्दिट्ठस्स जाव संपावि उकामस्स || वंदामिणं भगवंतं तत्थगयं इहगयं, पासह मे भगवं तत्थगए इहगयंति कट्टु समणं भगवं महावीरं वंदन नमंसह, वंदित्ता नमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुदे सन्नि स || तरणं तस्स सक्क्स्स देविंदस्स देवरन्ने श्रयमेथारू A 1 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L ( १६ ) ग्रन्मतिथए चिंतित् पत्थिए मलोग ए से कप्पे समुपज्जियां ||१५|| नमस्कार हो अरिहंत भगवंत को जो तीर्थ स्थापित करने वाले, स्वयम् चो पाने वाले, पुरुषों में उत्तम, पुरुषों में सिंह समान, पुरुषों में वर पुंडरिक ( श्रेष्ठ कमल समान ), और वर गंध हस्ति समान है अर्थात् विपत्ति में धैर्य रखने वाले, श्रेष्ठ वचन बोलने वाले, और कुतर्क वाढी को हटाने वाले हैं, लोगों में उत्तम, लोगों के नाथ, लोगों के हित करने वाले लोगों में प्रदीप ( दीपक ) समान, लोगों में प्रद्योत करने वाले, अभय देने वाले, हृदय चतु देने वाले, सीवा मार्ग बताने वाले, शरण देने वाले, जीव के स्वरूप बताने वाले, धर्म की श्रद्धा कराने वाले, धर्म्म प्राप्ती कराने वाले, धम्मोपदेशक, धर्म नायक, धर्म सारथी आप हैं. इससे आपको नमस्कार हैं. , · * मेघ कुमार की कथा (मंत्र कुमार की नीचे दी हुई कथा से मालुन होगा कि भगवान् महावीर ने मेघ कुमार को उपदेश देकर किस प्रकार धर्म में दृढ़ किया इसलिये भगवान् धर्मोपदेशक, धर्म के सारथी हैं ), भगवान् महावीर प्रभू जिस समय ( दीक्षा ग्रहण करने तथा केवल्य प्राप्त करने के पश्चात ) ग्रामानुग्राम विहार करते हुवे राजगृही नगरी के बाहिर के उद्यान में पधारे तो देवताओं ने थाकर समवसरण की रचना की अर्थात् व्याख्यान मंडप बनाया. उद्यान के रक्षक ने नगरी में जाके राजा श्रेणिक को भगवान् के पधारने के शुभ समाचार सुनाये. राजा श्रेणिक राणी, पुत्र, और सर्व नगरवासी लोग भगवान का व्याख्यान सुनने के हेतु समवसरण में याकर यथायोग्य स्थान पर बैठे उपदेश सुनने से राजकुमार मेघ कुमार को चैराग्य उत्पन्न हुवा और उसने अपने माता पिता से दीक्षा ग्रहण करने के लिये आज्ञा मांगी. पुत्र के यह हृदयभेदक वचन सुन कर राजा श्रेणिक और धारणी राणी ने पुत्र को अनेक प्रकार से समझाया कि अभी दीक्षा लेने का समय नहीं हैं किन्तु राज्य करने का समय है परन्तु मेघ कुमार को तो पूर्णऔर दृढ वैराग्य होगया था इसलिये उसने एक भी न मानी और आज्ञा के लिये अत्यन्त आग्रह किया. माता पिता भी उसकी वैराग्य दशा को देख कर आज़ा श्रोत्र Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) देना ही उचित समझा. आज्ञा पाकर अपनी आठों स्त्रियों को छोड़ कर भगवान के पास दीक्षा अंगीकार करी. भगवान ने उसे दीक्षित कर एक स्थिविर (विद्वान् ) साधू को उसे पढ़ाने के लिये आज्ञा दी. मेघ कुमार नवदीक्षित् और सर्व से छोटा होने के कारण रात्री में अपना सोने का संथारा (विछोना) विछा कर दरवाजे के समीप ही सोया. साधुओं के मात्रा इत्यादि के लिये वाहर जाने और भीतर आने से उसके विस्तर धूल से भर गये. मेघ कुमार जो आज के पहले फूलों की शय्या में शयन करता था आज ऐसे धूल से भरे हुवे संथारे में निद्रा न आने के कारण बहुत घबराया और मन में विचारने लगा कि निरंतर मुझ से तो ऐसा कष्ट सहन नहीं हो सकेगा. इसलिये प्रातःकाल ही भगवान से आज्ञा लेकर घर वापिस जाऊंगा. साधू के नियमानुसार प्रातःकाल ही उठ कर प्रभूको वंदना करने गया. भगवान तो केवलज्ञानी थे उनसे तीन लोक की कोई बात छिपी नहीं थी. रात के मेघ कुमार के विचार जान लिये और इस कारण उसके कहने के पहले ही कहने लगे कि हे मेघ कुमार ! रात को तूनें जो साधुओं की पैरों की रेत के कारण जो दुर्ध्यान किया है वो ठीक नहीं किया. जरा सोच तो कि पूर्व भव में तूंने पशु योनी में कैसे २ असह्य कष्ट भोगे हैं जिससे तूने राजऋद्धि पाई है और अब इस उत्तम मनुष्य भव में केवल साधुओं के पैरों की रज से जो सर्व पापों और दुःखों को क्षय करने वाली है उससे इतना घबराता है जरा ध्यान पूर्वक सुन कि तूं पूर्व भव में कौन था और कैसे कैसे दुःख सहे हैं. इस भव के पूर्व के तीसरे भव में, हे मेघ कुमार! तेरा जीव वैताढ्य पर्वत के पास के वनों में सफेद रंग का सुमेरू प्रम नाम का हाथी था तेरे ( हस्ती की योनी में) ६ दांत थे और हजार हथनियों का स्वामी था. एक समय उस जंगल में आग लगी देख और उसके भय से अपने प्राणों की रक्षा करने के हेतु अपनी सर्व हस्तनियों को छोड़ कर भागा. गर्मी के कारण प्यास से पीड़ित होकर एक तालाब में पानी पीने को उतरा. उस तालाव में पानी कम होने और कीचड जादा होने से तु दलदल में फस गया तूने निकलकर वाहिर आने की बहुत कोशिश की परन्तु नहीं निकले सका, उसी समय एक अन्य हाथी जो कि तेरा पूर्व भव का वैरी था वहां आगया और तेरे को दांतों द्वारा इतनी पीड़ा पहुंचाई के जिससे वहीं कीचड में फसे फसे.७ रोज बाद एकसो Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) बीस वर्ष की आयुष्य पूरी कर कर तेरे प्राण पखेरू उस हाथी की योनी में से अत्यन्त दुख पाकर निकल गये और फिर विध्याचल पर्वत पर चार दांत दाना सानो व्ययों का स्वामी तू हाथी हवा वहां भी दावानल लगा देख कर तुझे जाति सभ्य ज्ञान का जिसमें तुने अपने पूर्व भव को देख और उस में सही हुई आपदाओं का सारण कर वहां से नहीं भगा किन्तु वहीं कांस तक की पृथ्वी को धान रहन कर कर रहने लगा दूसरे वन के अनेक प उस जगह के निर्विघ्न अर्थात् जहां दान नहीं पहुंच सकेगा ऐसी जानकर तेरे समीप आकर बैठ गये इन पशु वहां गये कि चार कोन में एक निल भर जगह भी खाली नहीं बची हो या कुचरने के लिये अपने एक पग को ऊंचा लिया परन्तु एक खरगोश तेरे पैर की जगह आकर उसी समय बैठ गया उसे देखकर तुझे दया उत्पन्न हुई और उसकी रक्षा करने के हेतु अपने पैर को नीचे न रखकर अवर रक्खा जब तीन दिन के पथान दावानल शांत हुई योर सर्व पशु वहाँ से चले गये तो अपने तीन रोज तक अथर रखे हुए पैर को नीचे रखना चाहा परन्तु पग के अकड़ जाने से तू एकदम गिर गया और इतना कमजोर होगया कि वहां से न उठ सका भूख प्यास से पीड़ित होकर करालु हृदय बाला नेरा जीव सो वर्ष की आयुष्य पूरी करके उस हाथी की योनि को छोड़कर राणी धारणी के कुछ में उत्पन्न हुवा इस प्रकार से भगवान मेबकुमार को उसके पूर्व के तीन भव की कथा कहकर कहने लगे कि हे संघकुमार ऐसा दुर्व्यान करना तेरे योग्य नहीं, नक नियेच के तेरे जीवने अनेक बार दुःख सद्दे जिसके मुकाबले में ये दुःख किञ्चित् मात्र भी नहीं ऐसा कोन सूखे संसार में होगा जो चक्रवर्ती की ऋद्धि को छोडकर दासपणे की इच्छा करे हे शिष्य मरना उत्तम है परन्तु चारित्र त्याग करना बहुत बुरा है- अब जो बन भंग कर घर को जावेगा तो प्राप्त हुई अमुल्य लक्ष्मी को हार जावेगा ऐसे वीर भगवान के मीठे बचन सुनने से अपने मनमें पूर्व में संह हुवे कठिन दुखों की विचारता हुवा और फिर ऐसे दुःख न सहने पड़े इसवास्ते स्थिर मन होकर चक्षु सिवाय सर्व शरीर की मृथा छोड़ना हुवा पूर्णतया चारित्र पालने लगा और आयु समाप्त कर विजय विमान में अनुत्तग्वामी देव हुवा.. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) ऊपर की कथा से यह स्पष्ट है कि भगवान धर्म के उपदेशक और सारथी अवश्यमेव है. __पहला ब्याख्यान कितनेक आचार्य यहां पर समाप्त करते हैं. धर्म के चार भेद दान, शील, तप, भाव, अथवा चार प्रकार का साधू साध्वी श्रावक, श्राविकाओं का कर्तव्य शासन स्वरूप बताने वाले धर्म में चक्रवर्ती समान, भव समुद्र में दीपक समान, शरण लेने योग्य आधारभूत ॥ कोई भी कारण से न हटने वाला श्रेष्ठ केवल ज्ञान और केवल दर्शन के धारक, दूर होगया है अज्ञान जिनका ऐसे पूर्ण ज्ञानी, रागद्वेष को जीतने वाला और भव्य माणियों को जीतने का मार्ग बताने वाले आप तर गये हैं और दूसरों को तारने वाले आप बोध पाये हुवे हैं और दूसरों को बोध देने वाले आप मुक्त हैं और दूसरों को सुक्ति देने वाले, हे जिनेश्वर आप सर्वज्ञ हैं और सब देखने वाले हैं श्राप शिव, अचल, निरोग, अनंत अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावर्ति सिद्धी नाम की गति के स्थान को प्राप्त हुए है इसलिये, हे जिनेश्वर आपको नमस्कार है आपने भय जीत लिया है । इस प्रकार से सर्व तीर्थकरों को जो मोक्ष में गये है इन्द्र महाराज नमस्कार करते हैं) ____नमस्कार हो श्रमेण भगवंत श्रीमत् महावीर मभू को कि जो धर्म की शरूआत करेंगे जिनमें सर्व उत्तमोत्तम गुण है। पूर्व के २३ तीर्थंकरों के कहे अनुसार ही आप २४ वा तीर्थंकर अर्थात् वर्तमान चौवीसी के अन्तिम तीर्थकर उत्पब हुए है आप इसी भव में कर्म क्षय करके मोक्ष प्राप्त करोगे और दूसरे अनेक प्राणियों की अभिलाषा पूर्ण करोगे इसलिये मैं आपको नमस्कार करता हूं आप भरत क्षेत्र में देवानंदा की कुंख में है और मैं सौधर्म देवलोक में हूं कृपया आप मुझे सुधा दृष्टि से देखें ऐसे विनय पूर्वक वचन वोलकर और फिर दूसरी दफा नमस्कार करकर इन्द्र अपने सिंहासन पर पूर्व दिशा की तर्फ मुख करके बैठा और विचार करने लगा तो नीचे लिखे हुवे संकल्प विकल्प उसके ( इन्द्र के ) दिल में उत्पन्न हुएं. सूत्र ( १६ ) न खलु एयं भूध, न एयं भव्वं, न एयं भविस्सं, जंणं अरिहंता वा चकवट्टीवा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंतकुलेसु Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) वा पंतकुलेसु वा तुच्छकुलेसु वा दरिदकुलेसु वा किवणकुलेसु वा भिक्खागकुलेसु वा माहणकुलेसु वा, अायाइंसु वा, प्रायाइंति वा, आयाइस्संति वा ॥ १६ ॥ अद्यपि पर्यंत ऐसा कभी न तो हुवा न ऐसा होता है न ऐसा होना सम्भव है कि तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव-शुद्रकुल अधम कुल, तुछकुल, कपण कुल, भिक्षाचर के कुल अथवा ब्राह्मण के कुल में उत्पन्न हुवे हो हान हो वा हांगे ( न आने का कारण यही है कि एस कुल के पुरुषों से जन्म महोत्सव इत्यादि यथोचिन नहीं हो सकते हैं) मंत्र ( १७ ) एवं खलु अरहंता वा चकवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा, उग्गकुलेसु वा भोगकुलेसु वा राइगणकुलेसु वा इक्खागकुलेसु वा खत्तियकुलसु वा हरिवंसकुलेसु वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु विसुद्धजाइकुलवंमेसु धायाइंसु वा आयाइति वा आयाइरसंति वा ॥ १७॥ किन्तु अरिहंत, चक्रवनि, बलदेव, वासुदेव हर समय उग्रकुल, भोगकुल राजन्यकुल, इक्ष्वाकुकुल क्षत्रियकुल, हरिवंश कुल, वा अन्य ऐसे ही उत्तमकुल विशुद्ध, जानि वंश में उत्पन्न हुए है होते हैं और होवेंगे (क्योंकि ऐसे कूलों में जन्म महोत्सव इत्यादि अच्छी प्रकार से हो सकते हैं) कुलों की स्थापना ऋपभ देव स्वामी के समय में इस प्रकार से हुई. जो भगवान के आरक्षक थे वे उग्रकुल में माने गये जो गुरु पदमें थे वो भागकुलमें ना मित्र थे वो राजन्य कुल में जो भगवान के वंशके थे वो इक्ष्वाकु कुलमें हरि वर्ष क्षेत्र के युगलियों का परिवार हरिवंश कुलमें और जो भगवान की प्रजाके मनुष्य थे. सर्व क्षत्रिय कुलमें मान गय. परन्तु महावीर स्वामी ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न हुए यह एक आचर्य जनक घटना हुई. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१) सूत्र १८. . अस्थि पुण एसे वि भावे लोगच्छेरयभूए अयंताहिं उस्सपिणीअोसप्पिणीहि विइकंताहिं समुप्पज्जइ, (ग्रं, १००) नामगुत्तस्स वा कम्मस्स अक्खीणस्स अवेइअस्स अणिज्जिएणस्स उदएणं जणं अरहंता वा चकवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा, अंतकुलेसु वा पंतकुलेसु वा तुच्छ० दरिद्द० भिक्खाग० किवण, आयाइंसु वा आयाइंति वा आयाइ संति वा, कुच्छिसि गम्भत्ताए पकमिंसु वा वकमंति वा वकमिस्संति वा, नो चेव णं जोणीजम्मणनिक्खमणेणं नि निक्खमंति वा निक्खमिस्संति वा ॥ १८॥ किन्तु कोई २ समय में ऐसे आश्चर्य रूप, कर्म भोगने बाकी रहने से एक चौवीसी में १० आश्चर्य जनक घटना होना सम्भव है. दस बड़े आश्चर्यों का वर्णन । वर्तमान अवसरप्पिणी कालमें जो दस आश्चर्य जनक बातें हुई उनका वर्णन. १-उपसर्ग, २ गर्भहरण, ३ स्त्रीतीर्थकर, ४ अभावितपरिषदा, ५ कृष्णवासुदेव का अपरकंकामें जाना ६ मूल विमान में चन्द्र सूर्य का आना ७ हरिवंश कुल की उत्पत्ति, ८ चमरेन्द्र का उपर जाना, ९ वड़ी कायावाले १०८ की एक साथ सिद्धि होना १० असंयति की पूजा होना. १-तीर्थंकर को प्रायः अशाता वेदनी कम होती है और केवल ज्ञान होने के पश्चात तो शातावेदनी का ही उदय होता है यह मर्यादा है किन्तु महावीर प्रभु को केवल ज्ञान होने के पहले ही बहुत उपसर्ग हुवे और वाद भी गोशाले का उपसर्ग हुवा. उसका वर्णन इस प्रकार है. एक समय श्रीमन् महावीर स्वामी ग्रामानुग्राम विहार करते हुये श्रावस्ती नामकी नगरी में पधारे और उसी समय में गोशाला भी वहीं आगया. और लोगो में कहने लगा कि मैं भी तीर्थकर हूं श्री गौतम स्वामी नगरीमें गोचरी लेनेको गये तो वहां लोगों के मुख से सुना कि इस Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२) नारी में एक महावीर और दूसरा गांगाला ऐसे दो तीर्थकर आये हैं. इस शंका को निवारण करने के हेतु श्री गौतमस्वामी ने वापिस आकर भगवान से गोशाला की उत्पति पूछी. तो भगवान ने कहा कि हे गौनम, मोगाला शरवण ग्राम के मंखली नाम के ब्राह्मण की पत्नी मुभद्रा का पुत्र है. इसका जन्म च्यूकि गोशाला में हुवा था. इसलिये इसके माता पिताने इसका नाम गोशाला रक्खा. ब्राह्मणवृत्ति अनुसार यह गोशाला भी भिक्षा मांगता फिरता था. कारणवश आकर मेरा शिष्य हुवा. और छमस्थावस्था में मेरे पास ६ साल तक रहकर विद्या पही. तेजोलश्यापण सीखी है और फिर मुझसे जुदा होकर पार्श्वनाथ के शिष्यों से अष्टांग निमित्त सीखा. और अब केवल ज्ञानी नहीं होने परभी अपने तई तीर्थकर कहता है. ऐसे भगवान के मुख से मुनकर वहां बैठे हुचे श्रावकों ने नगरी में यत्र तत्र ये वान फैलाढी. यहांतक की गोशाले के कानों में भी ये वात पहुंची यह मुनकर उसे बड़ा क्रोध हुवा उसी समय आनन्द नाम के भगवान के शिष्य को गोचरी निमित्त रास्ते में जाते हुवे देखकर बुलाकर कहने लगा कि भो आनन्द मैं तुझे एक दृष्टांत कहता हूं सो मुन. किसी समय में बहुत से व्योपारी मिलकर माल लाने के निमित्त सवारियां इत्यादि लेकर विदेश जाने लगे. रास्ते में प्यास लगी परन्तु जंगल में बहुत दूढने परभी कहीं पानी न मिला परन्तु ४ मिट्टी के बड़े २ ढिगले नजर आये. व्यापारियों ने सोचाकि इनमें अवश्यमेव पानी होना चाहिये. इसवास्ते उनमें से एक को फोड़ा तो उसमें से निर्मल ठंडा जल निकला जिसके द्वारा सर्व ने अपनी प्यास बुझाई. और भविष्यत में ऐसी आपदा नहो, इसवास्ते बहुत से वर्तनों में भी जल भरलिया. परन्तु लोभ वश दूसरे को भी फोड़ना चाहा. तो उनमें से एक जो वृद्ध था कहने लगा कि हे भाईयों अपना कामतो होगया. अब दूसरे को फोड़ने से कोई काम नहीं. चलो इसे मत फोड़ा. परन्तु उन्होंने उसका कहना न मान दूसरे को फोडडाला उसमें से मुवर्ण मिला. अवतो वे सर्व बहुत खुश हुऐ और वृद्धको चिड़ा ने लगे. फिर भी वृद्धने जो अलोभी था कहा कि खैर अब चलो पर उन सब का तो सुवर्ण मिलने से लोभ और ज्यादा वढगया. उनने तीसरे को भी फोड़ा जिसमें से रत्न मिले तो सब खुशी से कूदपड़े और चौथे को भी फोड़ने के लिये तय्यार हुए, वृद्ध ने फिर ना कही पर अवतो उसकी मुन ही कान तुरंत चोथ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) को फोड़ा उसमें से महा विकराल भयंकर दृष्टि विष सर्प निकला और उस सर्पने अपने विपद्वारा सूर्य के सम्मुख देखकर रुर्व को जलाने लगा. और सर्व को तो जलाकर भस्म कर दिये परन्तु उस हित शिक्षा देने वाले वृद्ध को बचा दिया. इस दृष्टांत द्वारा हे आनन्द तुं हित शिक्षक होकर तेरे गुरु को समझा कि मेरी ईर्पा न करे और अपनी सम्पदा में संतोष करे जो लोभ के वश होकर मेरा कहना न मानेगा और करेगा तो मैं सर्प की तरह मेरी लब्धी द्वारा जला दूंगा किन्तु तेरे को बचा दूंगा ऐसे गौशाला के कोप भरे वचन सुनकर आनन्द साधू भगवान के पास जाकर गौशाला के कहे हुवे सर्व वचन अक्षरशः कहे जिसको सुनकर तथा सर्व वार्ता को केवलज्ञान द्वारा जानकर अपने सर्व शिष्यों को वहां से हटा दिये अर्थात् अपने पास न विठला कर दूसरी जगह जाकर बैठने की आज्ञा दी और गोशाले से कोई प्रकार का उत्तर प्रत्युत्तर न करें ऐसा समझा दिया गोशाला इतने ही समय में वहां आ उपस्थित हुवा और कोपायमान होता हुवा जोर से कहने लगा कि हे प्रभु आप मेरी उत्पति ऐसी न जाहिर करे कि मैं गौशाला हूं आपका शिष्य गोशाला मरचुका मैं तो उसके शरीर को अधिक ताकतवर देखकर धारण कर लिया है मैं दूसरा हूं और थापका शिष्य गोशाला दूसरा था यह सुनकर भगवान मीठे वचनों से बोलने लगे कि हे गोशाला ऐसा करने से सत्यवार्ता नहीं छुप सकती और तूं गोशाला ही हैं इसमें किंचित् मात्र भी संदेह नहीं हो सकता ऐसे भगवान के वचन सुनकर गोशाला अत्यन्त क्रोधित हुवा और महावीर स्वामी को अनेक अपशब्द कहने लगा महावीर स्वामी ने तो उत्तर प्रत्युत्तर करना अघटित समझकर मौन धारण की परन्तु सर्वानुभूति और सुनक्षत्र नाम के दो शिष्यों को वो गोशाले के वचन सहन नहीं हुए और उसे उत्तर देने लगे गोशाला ने क्रोध में आकर उन दोनों साधुओं पर तेजुलेश्या का व्यवहार किया जिस द्वारा जलकर दोनों शिष्य देवलोक गये भगवान गोशाले के हित के लिये उपदेश करने लगे परन्तु जिस प्रकार सर्प को दूध पिलावे तो भी विपही होता हैं उसी प्रकार गोशाला भगवान के अनेक उपकारों को भूलता हुवा भगवान पर तेजुलेश्या का व्यवहार किया भगवान तो अत्यन्त पराक्रमी और तीर्थंकर थे इसलिये तेजुलेश्या भी उनकी तीन प्रदक्षिणा कर कर वापिस कर गोगा के शरीर में ही प्रवेश करगई- भगवान को भी उसकी गर्मी मे ६ महिने Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) तक अवश्य तकलीफ हुई परन्तु गोशाला ने तो उसकी गर्मी से सातवे ही दिन प्राण छोड़ढिये. (इस अछेरे का विशेष अधिकार मूत्र में है सो वहां से देखले) @ महावीर प्रभु का गर्भापहरण ® महावीर प्रभु को देवानन्दा ग्राह्मणी की कुंख में से देवता ने राणी त्रिंशलादेवी की कुंख में लेजाकर रक्खें ये महावीर प्रभू का गर्भापहरण नामक दूसरा श्राश्चर्य वात हुई कारण पूर्व में कोई भी तीर्थकर का इस प्रकार से गर्भापहरण नहीं हुवा. @ स्त्री तीर्थकर छ धर्म में पुरुष को प्रधान माना है और उसका कारण भी यही है कि धर्म नायक जो तीर्थकर हैं वो सर्वदा पुरुष ही होते हैं परन्तु १९ वें तीर्थंकर श्रीमद मल्लिनाथ स्वामी स्त्रीवेद में उत्पन्न हुवे (पूर्व भव में पूर्णतया चारित्र आराधन कर कर तीर्थकर गोत्र वांध लिया किन्तु मित्रों से अधिक ऊंचा पद पाने की लालसा से तपश्चर्या में कपट किया अर्थात् तपस्या जादा की और मित्रों को कम वताई इसके कारण तीर्थकर के भव में स्त्रीवेद ग्रहण किया) प्रभावित पर्षदा। ऐसी मर्यादा है कि तीर्थंकर का उपदेश कभी निष्फल नहीं जाता अर्थात. ' तीर्थकर के उपदेश से अवश्यमेव किसी नकिसी को सभ्यकत्व की प्राप्ती होती है अथवा कोई शिक्षा ग्रहण करता है वा व्रत पञ्चक्खाण करता हैं. परन्तु जिस समय महावीर स्वामी को ऋजुवालिक नदी के किनारे केवल ज्ञान प्राप्त हुवा और देवताओं ने आकर समव सरण की रचना की और भगवान ने सभव सरण में विराजमान होकर प्रथम देशना दी उस समय श्रोतागणों की एक बडी भारी संख्या होते हुवे भी भगवान के उपदेश का असर प्रगट में किसी पर नहीं हुवा. यानी कोई भी प्राणीने न तो दीक्षा ली न समाकत प्राप्त किया और न व्रत पचवखाण किये. इसवास्ते यह भी एक आश्चर्य जनक वात हुई. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) कृष्ण वासुदेव का अपर कंका में जाना एक द्वीप का वासुदेव दूसरे द्वीप में नहीं जाने ऐसी मर्यादा है परन्तु श्रीकृष्ण वासुदेव पांडवों की स्त्री द्रोपदी जिसके रूप की प्रशंसा नारद मुनि के शुख से सुन कर धातकी खंड के भरत क्षेत्र की पर कंका नाम की नगरी का राजा पदमनाभ मोहित होगया और देवता द्वारा जो उसका मित्रथा हस्तिनापुर से अपने पास मंगवाली जिस को वापिस लाने के हेतु पांडवो के साथ लवण समुद्र के अधिष्टायक सुस्थित नामी देवकी सहायता से समुद्रपार कर अपरकंका नगरी गये यह नगरी कपिल वासुदेव के खंडमें थी. पदमनाम राजा को हराकर और द्रोपदी को साथ लेकर वापिस आते समय अपना शंख बजाया. शंख की आवाज सुनकर कपिल वासुदेव जो उस समय मुनि सुव्रत स्वामी के पास बैठा था. आश्चर्यान्वित होकर भगवान मुनि सुव्रत से पूछने लगा कि हे भगवान ये इतने जोर की किस चीज की आवाज हुई तब भगवान ने कहा कि हे वासुदेव अपरकंका नामी नगरी के राजा का मान मर्दन कर भरतखंड के श्रीकृष्ण नामी वासुदेव पीछे भरतखंड को यहां से जारहे है ये उनके शंख की आवाज है. भगवान से ये बात सुनकर और अपने समान दूसरे वासुदेव को अपने खंडमें आया हुवा सुन मिलने की इच्छा करता हुवा भगवान की आज्ञा ले समुद्र तटपर आया परन्तु श्रीकृष्ण वासुदेव पहिले ही आगे पहुंच चुके थे इसवास्ते मिलाप करने के हेतु वापिस बुलाने के वास्ते कपिल वासुदेव ने शंखकी आवाज की. श्रीकृष्ण वासुदेव अपने शंख की माफी (क्षमा) चाहने के हेतु आवाज की दो वासुदेवों का एक क्षेत्र में इस प्रकार से मिलना वा एक दूसरे के शंखकी ध्वनी सुनना आजतक कभी नहीं हुवा. इस लिये यह भी आश्चर्य जनक बात हुई. 1 सूर्य चन्द्र का मूल विमान से खाना | भगवान महावीर स्वामी को बंदना करने के लिये सूर्य चन्द्र मूल विमान से आपेपरन्तु ऐसा पूर्व में कभी नहीं हुवा. इसलिये यह भी आश्चर्य जनक बात हुई. हरिवंश की उत्पत्ति और युगलियों का नर्क जाना । युगलिक नर्क में कभी नहीं जाते ऐसी मर्यादा है परन्तु हारे वर्ष क्षेत्र का युगलिक का जोड़ा नर्क गया. उसका वर्णन इस प्रकार है. ऊपर कई हुचे ४ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) युगलिक के जाड़े को उनके पूर्व भवके वरी देवने युगलिक क्षेत्र से उटाकर भरत क्षेत्र में रक्खे और मदिरा मांस इत्यादि अभक्ष पदार्थ का खान पान सिखाया जिस कारण से मरकर दोनों नर्क गये. उनकी सन्तान हरिवंश कहलाई. उत्कृष्ट काया वाले १०८ का एक साथ मोन में जाना। पांच सो धनुप की काया वाले प्रथम तीर्थकर श्रीऋषभेदत्र स्वामी के नवाण (६९) पुत्र आठ भरत महाराज के पुत्र और स्वयं ऋपभंदव स्वामी सर्व १०८ एक साथ मोक्ष गये मध्यप काया वाले १०८ सौ पूर्व भी एक साथ मोक्ष गये परन्तु उत्कृष्ट काया वाले पूर्व में कभी नहीं गये इसलिये यह भी एक आश्चर्य जनक बात हुई. असंयति की पूजा ऋषभदेव स्वामी के समय ब्राह्मण लोग देश विरति गौर अल्प परिग्रह वाले होने के कारण पूंजे नाते थे किन्तु अाठमे और नवमें तीर्थकर बीच के काल में ब्राह्मण निरंकुश होकर (तीर्थकर का अभाव होने से ) पुजान रहे हैं एक आश्चर्य जनक बात हुई कारण त्यागी की ही बहु मानता होती है. ऐसे दस अाश्चर्य रूपी बात इस वर्तमान चौवीसी के समय में हुई. श्रीमन् महावीर प्रभु का ब्राह्मण गोत्र में आना भी एक आश्चर्य जान कर इन्द्र विचार करता है कि ऐगे आश्चर्य होना सम्भव है. ____ नाम कर्म गोत्र अर्थात् गोत्र नाम का जो कर्म है वो यदि भोगना वेदना जीर्ण होना बाकी रहा हो तो उदग्र होने के कारण तीर्थकर भी भागने वास्ते ऐसे नीच गोत्र में आसक्ने हैं महावीर प्रभू के नाम कर्म गोत्र इत्यादि २७ भवों का वर्णन इस प्रकार है १ भवः पश्चिम महाविदेह में क्षिति प्रतिष्ठित नामी नगरी में राजा का नयसार नाम का जमींदार थे और वो राजाज्ञानुसार लकडीये लेने के हेतु अन्य कई चाकरों को लेकर और गाइयों लेकर जंगल में गया वहां कई साधू मार्ग भूत कर उस जंगल में आ निकले उन्हें देख कर हपायमान होता हुवा उनके सन्मुख जाकर विनय पूर्वक वंदना की और अपने साथ लाकर गोचरी बहराई उन साधूओं ने उसे धर्मोपदेश दिया निप्त सुनने मे उसे समफिल हुत्रा साधूओं को सीधा मार्ग बतलाया जिससे Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) साधू निर्विघ्नतया नगर में पहुंचे वो सम्यकत्व से धर्म में रक्क होकर आयु विताई मरते समय पंच परमेष्टी मंत्र स्परण करने से वो पहला भव पुरा कर दूसरे भव में सौधर्म देवलोक में एक पल्योपम की आयु वाला देव हुवा तीसरे भव में मरिची नाम का भग्त महाराज का पुत्र हुवा प्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेव स्वामी के उपदेश सुनने से त्रैराग्य उत्पन्न हुवा जिससे उसने दीक्षा ली परन्तु एक समय गर्मी की मोमीप में रात्री की जलकी अत्यन्त प्यास लगी परन्तु चारित्र धर्म के अनुसार रानको जल नहीं पी सका इससे पिहित होकर घर जाने की मन में ठानी पर लज्जावश घर नहीं जासका। और स्व इच्छानुसार साधू भेप को त्याग कर नया भेष (वाना ) पहन लिया साधु तीन दंड से रहित हैं पर में तीन दंड सहित हूं इसलिये त्रिदंडि साधु अर्थात् मेरे पास ३ दंड का चिन्ह हो, साधू एप भाव से लाच करं पर में ऐसा नहीं कर सका इसलिये शिखा रखेंगा और बाकी सिर मुडवाऊंगा साधू सब प्राणी की रक्षा करते हैं पर में अशक्त होने से देश विरती हूं साधू शीलवत पालन करने से सुगन्धित है पर में एसा नहीं इसलिये वावना चंदन इत्यादि का लेपन करूंगा साधू सर्वधा मोह रहित हैं पर में एमा नहीं इमलिये मुझे छत्र और पग में पावडी हो, साधू क्रोधादि कपाय रहित है। और में क्रोधादि कपाय सहित हुं इसलिये मुझे गैरु रंग का वस्त्र हो साधू निर्वध है पर मैं एमा नहीं इसलिय स्नान इत्यादि करूंगा इस प्रकार से लोगों में अपने स्त्ररूप प्रकट करता हुवा ग्रामानुग्राम विचरने लगा, भोले लोग आकर धर्म पूछते तो उन्हें सत्य धर्म का स्वरूप बनाता और अपना असमर्थ पन प्रगट करता, वंगग्य जिन को उपदेश सुनने से होता तो उन्हें उत्तम साधूयों के पास दीक्षा लन को भेज देना कितनेक राजपुत्रों को उपदेश देकर उत्तम साधूयों के पास भेनदिये अर्थात् अपनी निन्दा करता हुवा सत्य धर्म प्रगट करता फिरता एक समय स्वयं भी ऋषभदेव स्वामी के साथ २ अयोध्या पहुंचा भरत महाराज ने प्रभू को नमस्कार कर विनय पूर्वक पूछा कि हे भगवान ! इस समग आपकी सभा में कोई ऐमा भी जीव है जो इस वर्तमान चोवीसी में तीर्थकर होने वाला हो, तब भगवान ने कहा कि हे भरत ! तेरा मरीचि नाम का पुत्र जो त्रिदंडी भेष धारण फिय बाहिर बैठा है वो इस वर्तमान चोवीसी का अन्तिम तीर्थकर होगा वीच के काल में महाविदेह में मुका नगरी में प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती राजा होगा और भरत क्षेत्र में त्रिपृष्ट नाम पोनन नगरी का अधिपत्ति Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) और पहिला वासुदेव भी होगा इस प्रकार प्रमू के मुख से मरिचि के भविष्य भत्र सुनकर भरत महाराज को अत्यन्त आनन्द हुवा और भगवान को वंदन नमस्कार कर बाहिर आकर मरीचि से कहने लगे कि भगवान ने तेरे भर इस प्रकार वर्णन किये है तू वासुदेव और चक्रवर्ती होगा इसकी मुझे खुशी नहीं हैं परन्तु आखरी तीर्थंकर इस वर्तमान चोवीसी का होगा इसका मुझे अनि हर्ष हैं और इसी कारण से मै तुझे नमस्कार करता हूं और नमस्कार कर कर अपने स्थान को गये मरीचि को इतनी खुशी हुई वा नाचने लगा और कहने लगा कि मेरा कुल सत्र से उत्तम है मेरे पिता और दादा ता चक्रवर्ती और तीर्थकर के प्रथम पद पर है ही पर मैं स्वयम् वासुदेव चक्रवर्ती और तीर्थकर होने वाला हूँ इसलिये मेरा ही कुल सर्वोत्तम है ऐसा २ वारंवार कह कर कृढ़ने लगा जिससे नीच गोत्र बांधा, शास्त्रों में कहा है कि कभी नइंकार न करना चाहिये जो पुरुष जाति, कुल, ऐश्वर्य चल, रूप, तप और मान का अहंकार करना है तो उसको दुसरे भवों में प्रकार का फल दीनता से हीनता से मिलना है और महावीर के भव में ब्राह्मण कुल में अर्थात् नीच कुल में आया पगचि साधूओं के साथ २ ग्रामानुग्राम विहार करता फिरता था. ऋषभदेव स्वामी के मोक्ष होने के पश्चात् एक समय पूर्व संचित कर्मानुसार मरीचि वीपार हुवा और उस समय अन्य किसी भी साधू ने उसकी संवा न की इसलिय उसने एक शिष्य बनाने का विचार किया कपिल राज पुत्र का उपदेश दिया जिससे उसे वैराग्य उत्पन्न हुवा और उसने दिक्षित होने के लिये मरिची से प्रार्थना की मरीचि ने उसे अन्य साधुओं के पास जाकर दीक्षा लेन को कहा तत्र राजपुत्र कहने लगा कि क्या आपके पास धर्म नहीं हैं ? जो श्राप मुझं दुमरों के पास जाने को कहते हैं ये सुनकर और ये समझ कर कि ये मेरा शिष्य होने योग्य है उस दीक्षा दी और कहा कि दोनों जगह ही धर्म है, इस अमत्य वचन के बोलने से शिष्य तो अवश्य पिला पर उसने फांडा कोडी सागरम का भ्रमण कम उपार्जन कर लिया इस प्रकार से विचरता हुवा अपनी चोरासी लाख पूर्व की आयु पूर्ण कर ब्रह्म देवलोक में दम सागरोपम की आयु वाला देव उत्पन्न हुवा कपिल शिष्य ने भी अपने अनेक शिष्य बनाये और पष्टीतंत्र इत्यादि ग्रंथ भी बनाये और मायु पूर्ण कर ब्रह्म देवन्तोक में गया. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवलोक से आर्य पूर्ण कर ५ वे भव में कोलाक सन्नीवेश में अस्सीलाख पूर्व का आयू वाला कोशिक नामका ब्राह्मण हुवा अंतमें त्रीदंडी होकर सौधर्म देवता हुवा छठे भवमें स्थूणा नामी नगरी में वहोत्तर लाख पूर्वका आयु वाला पुष नामका ब्राह्मण हुवात्रीदंडी होकर सातवें भवमें सौधर्म देवलोक में देवता हुआ पाठमें भवमें चैत्य सनिवेश नामकी नगरी में साठलाख पूर्वकी आयु वाला. अग्नियोत नामी ब्राह्मण हुवा. अंतमें श्रीदंडी होकर नवमें भव में दूसरे देवलोक में देव हुवा. दसमे भवमें मंदिर सन्निवेश में पचाप्त लाख पूर्वकी आयुवाला अग्निभूति नामका ब्राह्मण हुवा अग्यार में भवमें सन्नत कुमार देवलोक में मध्य स्थिति वाला देव हुवा वारवे भवमें श्वेताम्बी नगरी में चम्मालीस लाख पूर्व वाला भारद्वाज नामका ब्राह्मण हुवा. अंतमें त्रिदंडी होकर तेरमें भवये महेन्द्र देवलोक में देव हुवा. चौदमे भवमें राज्यगृही में चोतीस लाख पूर्वकी आयु वाला स्थावर नामका ब्राह्मण हुवा अन्त में त्रिदंडी होकर पंद्रह में भवमें ब्रह्म देवलोक में देवहुवा सोलमे भवमें विशाख भूति क्षत्रीय की धारणी रानी का पुत्र कोटी वर्ष की आयुवाला विश्वभूति नामका क्षत्री हुवा साधू के पास दीक्षा ली और अत्यन्त तपस्या की जिससे दुर्वल होगया. ग्रामानुग्राम विहार करता हुवा पारणे के वास्ते मथुरा नगरी में आया. वहां विशाखनन्दी नाम के अपने रिश्तेदार से जो विवाह करने को वहां आया था. मिला, जिसने उसे दुर्वल देखकर और एक गाय के धक्के से गिरता हुवा देखकर कहा कि अरे विश्वभूति ! तेरा वो वल कहां गया. पूर्व में तो हमारा चचेरा भाई होने पर भी हमें निर्दयता से मारता था. ये सुनकर साधता को भूलकर मुनीने क्रोधवश नियाणा किया कि अपनी तपस्या के फल से दूसरे भवमें इससे वैर लेने वाला होऊ. सत्तरमें भव में चारित्र के फल से महा शुक्र देवलोक में उत्कृष्ट स्थिति वाला देव हुवा अठारमें भव में पोतनपुर नगर में प्रजापति नामका राजा की रानी मृगावती का पुत्र त्रिपृष्ट नामका वासुदेव हुत्रा, ओगणीसमें भवमे सातवी नारकी का नारक हुवा. वीशमें भवमें सिंह हुवा. एकवीसमें भवमें चोथी नारकी में नारक हुवा. चावीसमें भवमें साधारण स्थिति वाला मनुष्य, तेवीस में भवमें मूंका राजधानी में धनंजय नामका राजा की राणी धारणी की कूख में चोरासी लाख पूर्व की आयु वाला प्रियमित्र नामका चक्रवर्ती हुवा. अन्त में पोटिलाचार्य के पास दीक्षा लेकर एक कोड वर्ष तक चारित्र पालकर चोवीस में भव में महाशुक्र नाम के देव Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) लोक में सनरह मागगंपम की आयुवाला सार्थ नायकं विमान में देव हुवा. पीसवें भव में भग्नचत्र में मंत्रिका नगरी में जित शत्रुगजा की गणी भद्रादेवी की कृल में पचीम लाग्ब वर्ष की आयु वाला नन्दन नामका पुत्र हुवा. वा पाटिलाचार्य के पास दीक्षा लेकर मास क्षपण के नपसे निरंतर भूपिन होकर वीन्न स्थानक की आली कर नीर्थकर गोत्र वांधा एक लाग्य वर्ष का चारित्र पालकर अन्नमें एकमास की मलखन ( प्रहार पानी शरीर ममन्त्र का न्याग) कर छवीमवें भवमे प्राणन कल्प में पुष्कोत्तर अवतमक विमान में वीस सागगेपम की आयु वाला देव हुवा. वहां से आयुप्य पूग कर सत्तावीम में भवो ऋषभदन ब्राह्मण के घर देवानंदा ब्राह्मणीकी कूवमें आये ( तीसरे भवमें जो नीच गात्र का कम बांधा वा सत्तावीस वे भवमें उदयमें आया ) अयं च एं समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीव दीवे भारहे वासे माहणकुंडग्गाम नयरे उमभदत्तस्स माहपस्स कोडालमगुत्तस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिमि गठभत्ताए वकंते ॥ २० ॥ नजीयमे तीअपच्चुप्यन्नमणागयाणं सक्काणं देविंदाणं देवरायाणं, अरहंत भगवते तहण्यगारहितो अन्तकुलहितो पंत तुच्छ० दरिदभिस्वाग० किवणकुलंहितो तहप्पगारमु उग्गकुलेमु वा भोगकुलेमुवा रायन्न नायखत्तियहरिवंसकुलसु वा अन्नयरेसु वा तहपगारेसु विमुद्धजाइकुलवेसेसु वा साहरावित्ता, तं सेयं खलु ममवि समणं भगवे महावीर चरमनित्ययरं पुबतित्ययरनिदिई माहणकुंडग्गामायो नयरायो उनुभदत्तम्म माणस्स कांडालमगुत्तस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंघरमगुनाए कुच्छीयो खत्तियकुंडग्गामे नयरे नायाणं खनियाणं सिद्धत्यस्म खत्तियस्स कासवगुनस्ल भा Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) रियाए तिसलाए खत्तित्राणीए वासिट्ठसगुत्ताए कुच्छिसि गन्भत्ताए साहरा वित्तए । जेवियां से तिसलाए खत्तियाणीए गन्भे तंपियणं देवादाए माहणीए जालंधरगुत्ताए कुच्छिसि गन्भत्ताए साहारावित्तएत्तिकट्टु एवं संपेes, एवं संपेहित्ता हरिऐगमेसिंग्गाणीयाहिव देवं सहावे, सहावेत्ता एवं वयासी ॥ २१ ॥ इंद्र विचार करता है कि कोई कर्म भोगना बाकी रहा जिस कारण से तीर्थंकर भी ऐसे नीच कुलमें आते है और महावीर प्रभू भी इसी कारण से ब्राह्मणी की कुंख में आये हैं. इसलिये इन्द्र आचारानुसार कि जिस समय जो इन्द्र होय वो यदि अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव वासुदेव पूर्व संचित कर्मानुसार दरिद्र कुल में उत्पन्न हो तो उनको उसगर्भ में से निकाल कर उच्च कुलों में स्थापन करें अर्थात् नीच कुल में जन्म नहीं होने दे अब मुझे भी यहां से अर्थात् देवानन्दा की कूख से उठाकर क्षत्रियकुंड ग्राम के राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला देवी की कूखमें स्थापन करना आवश्यक है. और रानी त्रिशला के गर्भ को देवानंदा ब्राह्मणी के गर्भ में रखना ऐसा. विचार कर हरिणगमेषी नामका देवता जो प्यादल सेना का अधिपति है उसे बुलाकर इस प्रकार से कहा. एवं खलु देवापिया ! न एवं भूयं, न एवं भव्वं, न एवं भविस्सं, जणं अरिहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंत पंतं किवण• दरिद० तुच्छ० भिक्खाग० श्रायासु वा ३ एवं खलु अरिहंता वा चक्क बल० वासुदेवा वा उग्गकुलेसु बा भोग० राइन्न० नाय० खत्तिय० इक्खाग० हरिदंसकुलेसु वा अन्नवरेसु वा तहप्पगारेसु विसुद्धजाइकुलवंसेसु आयाईसु वा ३ २२ ॥ १-२ पायताणीया ०. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) अस्थि पुण एमे वि भाव लोगच्छेरयभूए अणंताहिं उस्सप्पिणीयासप्पिणीहि विड़कंताहि समुप्पज्जति, नामगुत्तमा वा कम्मस्म अक्खीणस्स अवमस्त अणिज्जिगणस्म उदगण, जणं अरिहंता वा चकाट्टी वा बलदेवा वा बामुदेवा वा अंतकुलेगु वा पंतकुलेमु वा तुच्छ० किवण दरिद्द० भिक्खागकुलेसु वा अायाइंसु वा ३नो वेव एं जोणीजम्मणनिक्खमणणं निक्वमिंसु वा ३ ॥ २३ ॥ है गनापनि ! ऐसा कभी हुवा न होगा कि अग्हित तीर्थकर चक्रवर्ती कभी अंत पंत क्रपण नीच कुल में उत्पन्न होव पर यदि कोई नाम गोत्र कर्म भोगना बाकी रहने के कारण उत्पन्न हो ही जावे ना वो आर्थर्य रूप ममनना होगा किन्तु मयादानुसार नीच कुल में आवे ना सही पर जन्म कठापि न हो. __ अयं च णं समण भगवं महावीरे जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे माहणकुंडग्गामें नयरे उमभदत्तम्म माहणस्म कोडालसगुत्तस्स भारियाए, देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिमि गठभत्ताए वक्रते ॥ २४ ॥ तं जीग्रमेनं तीअपच्चुप्पण्णमणागयाणं सक्काणं देविंदाणं देवराईणं अरहते भगवते तहपगारे हितो अन्तकुलहितो पंत. तुच्छः किवण दरिद्द. वणीमग जाव माहणकुलेहितों तहप्पगारेसु उग्गकुलंसु वा भोगकुलेसु वा राइपण नाय० खत्तिय० इक्खागः हरिवं० श्चन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु विसुद्ध जाइकुलवंसेसु साहरा वित्तए ॥ २५ ।। तं गच्छणं तुमं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीर - माहणकुंडग्गामायो नयरायो उमभदत्तस्स माहणस्स कोडा Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) लस गुत्तस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छ खत्तियकुंडग्गामे नयरे नायाणं खत्तियाणं सिद्धस्थस्स खत्तियस्स कासवगुत्तस्स भारियाए तिसलाए खत्तियापीए वासिसगुत्ता कुच्छिसि गन्भत्ताए साहराहि, जेविद्यणं से तिसलाए खत्तियाणीए गन्भे तंपित्र्यणं देवादाए माहपीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिसि मन्भताए साहराहि, साहरित्ता ममेयमापत्तित्र्यं विपामेव पञ्चपिलाहि ॥ २६ ॥ इस समय श्रीमत् श्रीमहावीर प्रभु ऊपर कहे आश्चर्य रूप देवानन्द ब्राह्मणी के कूल में आये हैं और इन्द्र को आचारानुसार अब उन्हें उस गर्भ से नि काल उच्च गोत्र में स्थापन करना चाहिये इसलिये तुम यत्र जाओ और देवानन्दा की कूख में से निकालकर महावीर स्वामी को त्रिशलारानी की कृव में स्थापन करो और त्रिशला के गर्भ को उसके गर्भ में अर्थात उलटा पलटा करो और मेरे कहे अनुसार कर कर मेरे को सूचित करो कि सर्व श्राज्ञानुसार कर दिया. तर से हरिणेगमेसी गांणीयाहिवई देवे सकेणं देविंदे देवरन्ना एवं वृत्ते समाणे हट्ठे जाव हयहियए करयल जावत्तिक एवं जं देवा श्राणवेत्ति आणाए विणणं वयणं पडणे, पडिणित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं प्रवकमर, श्रवकमत्ता वेव्विसमुग्धारणं समोहण, वेउच्चित्रसमुग्वारणं समोहणित्ता संखिजाई जोश्रणाई दंडं निसिरह, तंजा - रयणाणं वइराणं वेरुलित्राणं लोहियाक्खाणं मसार - गल्लाणं हंसगभाणं पुलयाणं सोगंधियाणं जोईरसाणं अंजणाएं अंजणपुलयाणं रयणाणं जायरूवाएं सुभगाणं काणं फलिहाणं रिट्ठाणं श्रहावायरे पुग्गले परिसाडे, १ परिसाडिश क० २ श्राए क० ५ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमाडित्ता अहासुहुमे पुग्गले परित्रादियइ ॥ २७ ॥ एसी इन्द्र महाराज की आजा सुनकर और सर्व वार्ता से जानकार होकर आनन्द संतोष से प्रफुल्लित हृदय वाला सेनाधिपति हाथ जोड़ कहने लगा कि ऐसा ही होगा अर्थात् आपने जैसा कहा है वैसेही करूंगा इस प्रकार कहकर और इन्द्र की आज्ञा शिर चढ़ाकर ईशान कोन में जाकर वैक्रिय समुद्घात से अपने शरीर को बड़ा बनाकर (समुद्घात की व्याख्याः -जीव के प्रदेशों को फैलाकर एक संख्याता जोजन का दंड बनावे और उस दंड को उत्तम जाति के रत्न जैस कर्कनन, बार्यनील, बज्र, लोहितात, मसारगल, हंसगर्भ पुलक, सौगंधिक, ज्योतिःसार, अंजनरत्न, अंजनपुलक, जातरूप, सुभग, अंक, स्फटिक, अरिष्ट इस प्रकार के सोलह जाति के रत्न उनके मूक्ष्म पुद्गल अर्थात् उत्तम पुद्गलों को लेकर मुशोभित कर और वादर पुद्गलों को धूलि की समान छोड़ देवे वैक्रिय समुद्यात कर कर ) उत्तर समुयात किया. परियाइत्ता दुचंपि वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणइ, समो. हणित्ता उत्तरवेउब्बियरूवं विउबइ, विउवित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए जहणाए उडयाए सिग्धोए दिवाए देवगईए बीईवयमाणे २ तिरिअमसंखिज्जाणं दीवसमुदाणं मन्झमझणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे, जेणेव भारहे वासे, जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे, जेणेव उसभदत्तस्स माहणस्स गिहे, जेणेव देवाणंदा माहणी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आलोए समणस्य भगवनो महावीरस्त पणामं करेड़, करित्ता देवाणंदाए माहणीए सपरिजणाए बोसोवणिं दलई अोसोवाणिं दलित्ता असुभे पुग्गले अवहरह, अवहरित्ता सुभे पुग्गले पक्खिवइ, पक्खिवित्ता अणुजाणउ मे भयवंतिकटु समणं भगवं महावीरं अब्बावाहं अव्वाबाहेणं दिवेणं पहाब्बेणं करयलसंपुडेणं गिइ, Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) समणं भगवं महावीरं० गिरिहता जेणेव खत्तिभकुंडग्गामे नयरे, जेणेव सिद्धत्थस्स खत्तिस्स गिहे, जेणेव तिसला खत्तियाणी, तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता तिसलाए खत्तिापीए सपरिजणाए भोसोअणिं दलइ, ओसोप्रणिं - दलित्ता असुभे पुग्गले अवहरइ, अवहरित्ता सुभे पुग्गले अवहरइ, अवहरित्ता सुभे पुग्गले पक्खिवेइ, पक्खिवित्ता समर्ण भगवं महावीरं अव्वाबाहं अव्वाबाहेणं तिसलाए खत्तिआणीए कुच्छिसि गम्भत्ताए साहरई, जेविअणं से तिसलाए खत्तिश्राणीए गम्भे तंपिअणं देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिसि गम्भत्ताए साहरइ, साहरित्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए ॥ २८ ॥ "और उत्कृष्ट, त्वरित, चंचल, चंडा, जयणा, इत्यादि अधिकाधिक शीघ्र दिव्य देव गति द्वारा चलकर तिर्यग् दिशा में असंख्याता द्वीप समुद्र को पार कर जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के कुंड ग्राम में अर्थात् जहां देवानंदा की कूख में महावीर प्रभु विराजमान हैं वहां आया और भगवान के दर्शन कर नमस्कार किया देवानंदा ब्राह्मणी को अवसर्पिणी नामकी अंचत निद्रा में लीन कर अशुभ पुद्गलदूर कर शुभ पुद्गल रख कर तथा भगवान से आज्ञा मांगता हुवा हरिण गमेपी देवता ने भगवान को किंचित्मात्र भी वाधा न होवे इस तरह के दिव्य प्रभाव से करतल संपुट में गर्भ को लेकर अर्थात् भगवान महावीर को लेकर क्षत्रिय कुंड में त्रिशला क्षत्रियाणी के राज्य महल में गया वहां भी सर्व परिवार को तथा त्रिशला रानी को अवसर्पिणी निद्रा देकर शुभ पुद्गलों को रखता हुवा अशुभ पुद्गलों को दूर करता हुवा त्रिशला के गर्भ को निकालकर उसके स्थान में महावीर प्रभु को स्थापन किये सर्व को सचेत करता हुवा अर्थात् जो विद्या द्वारा निद्रा आगई थी उसको हरता हुवा त्रिशला के गर्भ को लेजाकर देवानंदा की कूख में रक्खा इस प्रकार से सर्व कार्य यथोचित पूरा कर हरिणगमपी देव अपने स्थान को पीछा गया. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) उकिट्ठाए तुरिभाए चक्लाए चंडाए जवणाए उडाए सिग्घाए दिवाए देवगइए, तिरिश्रमसंखिज्जाणं दीवसमुद्दाणं मझमज्झएं जोअणसाहस्सिएहिं विग्गहेहिं उप्पयमाणे २ जेणामेव सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसए विमाणे सकंसि सीहासणंसि सक्के देविंदे देवराया, तेणामेव उवागच्छङ्, उवागच्छित्ता सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो एप्रमाणत्तिनं खिप्पामेव पञ्चप्पिणइ ॥ २६ ॥ हरिणी गोपी देवता पूर्व में कहे अनुसार ही असंख्यात द्वीपों और समुद्री को पार करता हुवा दिव्य गनि द्वारा सौधर्म देव लोक में जहां इन्द्र बैठा था यहां आया और इन्द्र महाराज को सर्व अपने कार्य की वार्ता सुनादी. तेणं कालेणं तेणं समाएं समणे भगवं महावीरे तिलापोवगए प्रावि हुत्या, तंजहा-साहरिज्जिस्सामित्ति जागइ, साहरिजमाणे न जाणइ, साहरिएमित्ति जाणइ ॥३०॥ जिस समय भगवान महावीर को देवानन्दा की इंग्व में से उठाये उस समय उत्तराफालगुनी नक्षत्र था भगवान तो उस समय भी तीन ज्ञान के धारक थे इस से उठाने की बात तथा उठाकर दुमरी जगह रख दिया ये सब जानते थे किन्तु . उठाने का समय न जाने उस दार में टीकाकार कहते हैं कि उठाने का समय ज्याद हान से अवधि नानी जान सक्त है परन्तु हरिणगमपी का कोगल्य बताया है कि भगवान को ऐसी चातुर्यवा से उठाया कि उनको उठाये जाने की मालुम भी नहीं हुई तेणं कालणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जैसे चासाणं तचे मासे पंचमे पक्ख आसोमबहुले, तस्सणं अस्सोअबहलस्स तेरसीपक्खेएं वासीइराइंदिएहि विडतेहिं तेसीइमस्स राइंदिअस्स अंतरा वट्टमाणे हिवाणुकंपएणं देवेणं हरिणेगमिसिणा सक्वयणसंदिटेणं माहणकुंडग्गामारो नय Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) राम्रो उसभदत्तस्सं माहणस्स कोडालसगुत्तस्स भारिश्राए देवादाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छीश्रो खत्तिय कुंडगामे नयरे नायाणं खतित्राणं सिद्धत्थस्म खतिग्रस्त कासवगुचस्स भारिश्राए तिसलाए खत्तिश्राणीए वासिस गुप्ता ए पुव्वरत्तावरतकालसमयंसि इत्युत्तराहि नक्खतेणं जोगमुवागएणं अव्वाबाहं श्रव्वाबाहेणं कुच्छिसि गम्मत्ताए साहरिए ।। ३१ ।। वर्षाऋतुका तीसरा महिना पांचमा पक्ष अर्थात् आसोज वदि १३ के दिवस भगवान महावीर को एक गर्भ से निकाल कर दूसरे गर्भ में रखा था भगवान वयासी रात और दिन देवानंदा की कुंख में रहे और तयासीवी रात्री को भगबान पर अन्तःकरण की भक्ति होने से इन्द्र महाराज की आज्ञानुसार हरिण गमेषी देव ने देवानंदा की कुंख से निकाल कर भगवान को सिद्धार्थ राजा की रानी त्रिशला देवी की कुंख में रक्खा । जं रयाणि चणं समणे भगवं महावीरे देवाणंदाए माहपीए जालंधर मगुत्ताए कुच्छीत्र तिसलाए खत्तीचाणीए चासिद्धसगुत्ता कुच्छिसि गन्भताए साहरिए, तं स्यणिं चणं सा देवादा माहणी सयणिज्जंसि सुत्तजागरा प्रोहीरमाणी २ इंगयारूवे उराले कल्लाएं सिवे धन्ने मंगले सस्सिरीए चउद्दस महासुमिये तिसलार खत्तियाणीए हडेलि पासित्ताणं पडिबुद्धा, तंजहा - गय० गाहा ॥ ३२ ॥ उस समय देवानन्द्रा ने उत्तम गर्भ के चले जानेसे आधी निद्रा लेती स्वम में ऐसा देखा कि उसके पूर्व में देखे हुवे १४ स्त्रम रानी त्रिशला देवी उससे लेरही है और ऐसा देखकर वो एकदम जागृत हुई. जं रयाणं चणं समणे भगवं महावीरे देवाणं Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) दाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छीत्रो तिसलाए खत्तियाणीए वासिद्धमगुत्ताए कुच्छिसि गम्भत्ताए साहरिए, तं रयणिं च णं सा तिसला खत्तियाणी तंसि तारि संगति वासघरंसि भितर सचित कम्मे वाहिरयो दृमिघट्टमट्ठे विचित्तउल्लो चिल्लियत्तले मणिरयणपणा सिधंधयारे बहुसमसुविमत्तभूमिभागे पंचवन्न सर ससुरभिमुक्क पुप्फपुंजोचयारकलिए कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडज्यंत धूवमघमघंतगं छुयाभिरामे सुगंध वरगंधिए गंधवट्टिभूए तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिंगणबट्टिए उभयो विब्वोणे उभयो उन्नए मज्झे एयगंभीरे गंगापुलिवालुअ उद्दालसालिसए ओयविद्यखोमिच्चदुगुल्ल पट्टपडिच्छन्ने सुविरइारयत्ताणं रत्तं सुयसं ए सुरम्मे आईगरूयवनवणी अतूलतुल्लफासे सुगंधवरकुसुमच्चुन्नसयणोवयारकलिए, पुत्ररत्तावरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा योहीरमाणी २ इमेारूवे उराले जाव चउदस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा, तंजहागये - वस है-सी- अभिर्ये दामै - संसि - दिपयरं ॐयं कुंभं । पहमसरं - सागर - विमाण भव र्यणुच्चयै- सिहिं चें ॥ १ ॥ तपणं सा तिसला खचित्राणी इप्पढमयाए तोच उद्देत मूसिअ विपुल जलहरहारनिकरखीरसागरससंककिरणदगरयरययमहासेल पंडुरतरं समागयमहुयरसुगंधदाणवासियकपोलमूलं देवरायकुंजरं ( २ ) वरप्पमाणं पिच्छइ सजलघणविपुलजलहरगज्जियगंभीरचारुघोसं इमं सुभं सव्वलक्खणकथंविधं वरोरुं १ ॥ ३३ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) जिस रात्री को श्रीमत् महावीर प्रभु को देवानन्दा की कुंख में से निकाल कर त्रिशालारानी की कुंख में रक्खे उस रात्री को त्रिशलाराणी जिस उत्तम शयनागार में सोती थी उसका किंचित् मात्र स्वरूप बताते हैं प्रथम तो वो शयनागार ऐसा मनोहर था कि जिसका वर्णन हो ही नहीं सक्ता शयनागार की भीतरी दीवारों पर उत्तमोत्तम चित्र बनाये हुवे थे और दीवारों का बाहरी भाग घिसकर सफेद चलकादार बनाया हुवा था ऊपर का भाग अर्थात् छत उत्तमोत्तम चित्रों द्वारा चित्रित थी और मणी रत्न इत्यादि जडे हुवे थे जिससे अंधकार दूर होता था नीचे की जमीन अर्थात् फर्श भी अति सुन्दर थी और जहां पांच वर्ण के उत्तम सुगंध वाले पुष्पों के ढेर रक्खे हुवे थे और फूल सजाये हुवे थे और जो कालागुरु प्रवर कुंदुरुक तुरूस्क इत्यादि अनेक प्रकार के सुगंधी पदार्थों को धूप किये जाने से बहुत सुगंधित होरहा था ऐसे शयनागार में शय्या जो सुगंधी चूर्णों द्वारा सुगंधी वनाई हुई थी जिसके दोनों बाजू पर शरीर प्रमाण के तकिये रक्खे हुवे थे और मस्तक और पैर की तर्फ भी तकिये रखे हुवे थे जिससे शय्या चारों तर्फ से ऊंची व बीच में ऊंडी थी गंगा नदी की रेती के समान जिसका वीच का भाग कोमल और नरम था और जो रेसम के उत्तम वस्त्र से (खाट पछेबड़े से ) ढकी हुई थी जिसके ऊपर रज खाण ढका हुवा था जिस पर मच्छरदानी रक्तवस्त्र की लगी हुई थी शय्या में चमड़ा लगा हुवा था अत्यन्त कोमल जैसे बूई अथवा एक जाति की कोमल वनस्पति समान, मक्खन समान वा आकड़े की रूई समान कोमल था ऐसी उत्तम कोमल शय्या में सोती हुई त्रिशला राणी कुछ जागृत अवस्था में चौदह महा स्त्रम देखकर जागृत हुई. त्रिशलाराणी ने प्रथम स्वम में हाथी देखा वो हाथी कैसा है कि चार दांत वाला है मेघ के बरसने वाद के वादल समान उज्वल है मोती के हार के समान क्षीर सागर के जल के समान चंद्रकिरण समान चांदी का पहाड़ समान जिसका सफेद रंग है ऐसा धोला है जिसके कुंभ स्थल से मद चू रहा है जिसके मस्तक पर भवरों के झुंड बैठे हैं और इन्द्र के ऐरावत हाथी के समान जो बडा है और गाजते हुवे विपुल मेघ के समान गर्जारव ३ मधुर आवाज करने वाला है और सर्व शुभ लक्षणों से सुशोभित और श्रेष्ठ विशाल अंग वाला है. नोट-आज भी सफेद रंग का हाथी प्रदेश में पूजनीक गिना जाता है. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) तद्योपुणां वलकमलपत्तपयराइरेगरुवप्प पहासमुद थोहोरहिं सव्वत्र दीवयंतं इसिरिभर पिल्लणाविसप्पंतकंतमोहंतचारुककुहं तख सुसुकुमाललोमनिच्छविं थिरसु वद्धमंसलोव चिलभित्तसुंदरंग पिच्छड़ घणवट्ठलट्ठ उकिइविमितुपग्गतिक्वसिंगं दंतं सिवं समाणसहितनुद्धृतं वसहं यमिगुणमंगलमुहं २ ॥ ३४ ॥ वेल का वर्णन | दूसरे स्म में त्रिशला गुणी ने बैल देखा वो बैल सफेद कमल के पन के ढेर से अधिक रूप कांति वाला अपनी प्रभा के समुद्रय ( कांति कलाप ) से चारों और प्रकाशक अति सुन्दरता से दूसरों को प्रेरणा करना हो ऐसा जिनका कुंथुआ) है और शुद्ध मुकुमाल रोमराजी से स्निग्ध चमड़ी वाला स्थिर सुवद्ध मांग से पुष्ट श्रेष्ठ यथायोग्य शरीर भाग वाला था उसके सींग घन वर्तुलाकार उत्कृष्ट उपर के भाग में तीक्ष्ण थे जिसका स्वभाव क्रूरता रहिन और जो कल्याण करने वाला यथायोग्य शोभायमान स्वच्छ दांतवाला और बहुत गुण मंगल मुखवाला वी बैल था. तो पुणे 'हारनिकर खीरसागरससंक किरण दगरय रययमहा सेल पंडुरंगं ( ग्रं० २०० ) रमणिज्ज पिच्छीणज्जंथिरलट्टपउट्टबट्टीवर सुसिलिङ विसिद्धतिक्खदाढा विडंचियसुहं परिकम्मिद्यजञ्चकमलकोमल माणसोहंतल उट्टं रतुप्पलपत्तमउद्यसुकुमालतालु निल्ला लियग्गजीहंसागयपवरकणगतावियथावत्तायत वट्टतडियविमलसरिसनयणं विसालपीवरवरोरुं पडिपुन्नविमल मिरविसय मुद्दलक्खणपसत्य विच्छिन्न केस: राडोवसोहिथं ऊसित्रसुनिम्मित्रसुजायाफोडिअलंगूलं सोमं सोमकारं लीलायतं नहयलायो मोवयमाणं नियगवयाम " Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) इवयंतं पिच्छइ सा गाढतिक्खग्गनहं सीहं वयासिरी पल्लेवपत्तचारुजीहं ३ ।। ३५ ।। तीसरे स्वप्न में सिंह देखा वो मोती के हारोंका समूह क्षीरसागर चन्द्रकिरन इत्यादि वस्तुओं के समान बहुत सफेद रमणीय देखने योग्य स्थिर सुंदर पंजे वाला गोलाकार पुष्ट अच्छी तरह से मिली हुई तीक्ष्ण डाढों से शोभायमान मुंहवाला उत्तम जाति के कोमल कमल से शोभायमान होटवाला रक्त कमल के पत्ते के समान अंति सुकुमाल तालूवाला जिसमें लपलपायमान जीभवाला सुनार के घर में जैसे मूंस में उत्तम जाति का सोना गर्म होकर पिघलता है और चक्कर खाता है ऐसे बिजली के समान विमल नेत्रवाला विशाल, पुष्ट, श्रेष्ठ साथल और संपूर्ण विमल संधवाला, निर्मल सूक्ष्म, लक्षण से उत्तम विस्तीर्ण केसर के आटोप से शोभायमान ऊंचा. ऐसा और अक्रूर सुंदर क्रीडा करने वाले सिंह को आकाश से उतर कर अपने मुख में प्रवेश करते हुवे रानी ने स्वप्न में देखा जो सिंह अति तीक्ष्ण नखवाला मुख की शोभा में पल्लव पत्ते की समान सुंदर जीभवाला था. तो पुणे पुन्नचंदवणा, उच्चारायठाणलसीठ पसत्थरूवं सुपट्टिका कुम्मसरिसोवमाणचलणं प्रच्चन्नयपी - सारइयमंसल उन्नयततंबनिद्धनहं कमलपलाससुकुमालकरच कोमलवरंगुलिं कुरुविंदावत्तनद्वाणुपुव्वजंघ निगूढजागयवरकर सरिसपीवरोरुं चामीकररइयमेहलाजुत्तकंत विच्छिन्नसोणिचकं जचं जण भमरजलयपयरज्ज्जु समसंहितपुत्राइज्जलडहसुकुमाल मउ रमणिज्ज रोमराई नामीमंडल सुंदरविसालपसत्यजघणं करयलमाइपसत्यतिवलियमज्यं नाणामणिकगरयणविमल महातवणिज्जा भरण भूसा विराइयंगोवंगिं हारविरायंतकुंद मालपरिणद्भजल जलि तथणजुअल विमल कलसं याइयपत्तिविभूसिएवं सुभगजालुज्जलेणं मुत्ताकलावण्णं ६ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) उरत्थदीपारमालियविरहएण कंठमणिसुत्तएण य कुंडलजुनलुल्लसंतअंसोवसत्तसोभंतसप्पभेणं सोभागुणसमुदएणं आणणकुटुंविएणं कमलामलविसालरमणिज्जलोत्रणं कमलपज्जलंतकरगहियमुक्कतोयं लीलावायकयपक्खएणं सुविसदकसिण घणसरहलंवतकेसत्थं पउमदहकमलवासिणिं सिरिं भगवई पिच्छह हिमवंतसेलसिहरे दिसागइंदोरुपीवरकराभिसिच्चमाणि ४॥ ३६॥ ___ लक्ष्मीदवी के अभिषेक का वर्णन । चौथ स्वप्न में त्रिशलाराणी ने लक्ष्मी देवी को देखा वो कैसी है कि पूर्णचंद्रवढना ऊंचे स्थान में रहने वाली मनोहर अंगोपांग वाली प्रशस्य (सुंदर)रुप वाली प्रतिष्टिन सोनका बनाइवा कछुव के समान शोभायमान पर वाली, अति ऊचे पुष्ट मांस से बनेडुत्रे अंगूठे इत्यादि वाली जो ताव के समान लाल और चीकणे नख वाली, कमल के कोमल नये पत्ते के समान सुंदर हाय पग वाली और कोमल अंगुलियों वाली कुरूविंद्र आवर्त भूषण के ममान सुन्दर जांघ वाली मांस में दवगये है घुटने जिसके ऐसीसुंदर, हाथी कीसूड के समान सायल वाली और मनोहर सोने की बनीहुई मेखला से युक्त विस्तीर्ण कमलबाली उत्तमजाति के अंजन, भंवर, मेग समूह की तरह बहुत काली सरल समान मिलिहुई शोभायमान गुकोमल मृदु रमणीय रोम राजी से युक्त नाभि मंडल वाली सुंदर विशाल प्रशस्त जघन ( नाभि के नीच का भाग ) वाली हथेली में समाजावे एसी सुन्दर तीन सलवाली उदर वाली, और जुदी २ जानि के मणी रत्नों से शोभायमान सोने के ओप वाले सुन्दरता से निमर्ल रक्त सोने के आभरण भूषण से विराजमान अंगोपांग वाली हारसे विराजित और कुंद के फूल की माल से देदीप्यमान है स्तन युगल जो किटोनिमल कलश की तरह शोभायमान है जिसके, और कंठमणी सूत्र से और शोभागुण समुदाय से युक्त देवी है सूत्र में मरकत (पन्न) से शोभायमान है और मोती के समूह से शोभित है और सुवर्णमोहरों के भूपण से भूपित है (ये भूपण सर्वक्रएट से छानी तक के होते है उनका वणन हैं) कानमें कुंडल देदीप्यमान खंधे पर लटककर मुखकी शोभा बना रहे हैं और नि Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) कमल के समान विशाल रमणीय आंख वाली और कमल का शोभायमान सुंदर पंखा है जिसके हाथमें, जिनमें से रसका पानी निकल रहा है लीलासे विना पसीना भी पंखा हिला रही है और अति स्त्रच्छ भरे हुवे मेघ की समान काले ared बाल की चोटी ( वेणी ) वाली और पद्म द्रह में कमल के घरमें श्रीभगती देवी हिमवंत पर्वत के शिखर पर दिशारूप दो हाथियों की पुष्ट सूंडोसे जो स्नान कराती हुई बैठी हैं उसको त्रिशला देवी स्वप्न में देखती हैं. पद्मद्र का वर्णन :- १०५२ योजन १२ कला का हिमवंत पर्वत लम्बा हैं मौर सो योजन का ऊचा सोने का हैं उसके ऊपर दस योजन ऊंडा और ५०० योजन चौड़े और १०० योजन लम्बा वज्र रत्न का तला ऐसे पद्मद्रह अर्थात दीव्य कुंड है उसके मध्यभाग में दो कोसका ऊंचा एक योजन का चोड़ा वर्तुलाकार नील रत्न का दस योजन की नाल वाला वज्र रत्न का मूल रिष्ट रत्न का कुंद लाल सोने के वाहिर के पत्र और जंबूनद (सोने) के भीतर के पचे ऐसा सब से बड़ा एक कमल हैं उस कमल के २ कोसकी चोडी एक कोल की ऊंची रक्त सोने के सरे वाली रक्त सोनेकी कर्णिका है उसके बीच में एक कोस लम्बी आधा कोस चौड़ी कोस से कुछ कम ऊंची ऐसी देवी की वास भूमी है उसमें पूर्व पश्चिम और उत्तर इन तीन दिशाओं में तीन दरवाजे हैं उसके भीतर २५० धनुष की मणी रत्नों की वेदिका है उसके ऊपर श्री देवी के योग्य शय्या है इस मुख्य कमल के चारों ओर श्रीदेवी के आभरण के लिये १०८ कमल हैं उनका माप पूर्व कमल से लम्बाई चोड़ाई ऊंचाई आधी जाननी. उनके आज़ बाजू दूसरे वलय आकार में वायव्य ईशान उत्तर दिशा में ४००० सामनिक देव के ४००० कमल है पूर्व दिशा में ४ महत्तरा देवी के ४ कमल है अग्नी कोण में गुरु पदके अभ्यंतर पदा के आठ हजार कमल है वो ८००० देवताओं के लिये tara कोण में मित्रस्थान के मध्य पर्पा के १०००० देवताओं के १०००० कमल हैं नैऋत्य कोण में किंकर अर्थात् नोकर चाकर समान वाह्य पर्पदा के १२००० देवों के १२००० कमल है पश्चिम दिशा में घोड़ा रथ, पैदल भैसा, गांधर्व, नाटक ऐसी सात प्रकार की सेना के सेनापतियों के सात कमल हैं तीसरे वलय में १६००० अंगरक्षक देवों के १६००० कमल है. चोथे वलय में ३२००००० श्रभ्यंतर अभियोगिके ( आज्ञा पालक ) देवों के ३२००००० कमल है पंचम वलय में ४००००० कमल मध्यम अभियोगिक देवों के हैं. को बत Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) में ४८०००० वाह्य अभियोगिक देवों के कमल है. इस प्रकार से सर्व कमलों की संख्या छेवलयों में एक क्रांड़ वीस लाख पचास हजार एकसो नीम होती है. उनके मध्यमें ऊपर कहे हुवे पद्मद्रह में रहती हुई लक्ष्मी देवी को त्रिगलाराणी ने स्वममें देखी. विनीय व्यान्यान समासः । तो पुणो सरसकुसुममंदारदामरमाणिज्जभूग्रं चंपगासोगपुन्नागनागपिअंगुसिरीममुग्गरगमल्लिाजाइजूहिग्रंकोल्लकोजकोरिंटपत्तदमणयनवमालिअवउलतिलयवासंतिपउमु प्पलपाडलकुंदाइमुत्तंसहकारसुरभिगंधि अणुवममणोहरेणं गंधेणं दस दिसायो वि वासयंतं सब्बोउअसुरभिकुसुममल्लघवलविलसंतफंतवहुवन्नभत्तिचित्तं छप्ययमहुअरिभमरगणगुमगुमायंतनिलितगुंजंतदेसभागं दामं पिच्छद नहंगणतलायो अोवयंतं ५ ॥ ३७॥ पंचम स्वप्न में त्रिशला देवी ने फूलों की दो माला देखी उन मालाओं में सुगंधी रसवाले फूल थे मंदार ( कल्पवृक्ष ) के फूलों की गुंथी हुई थी चंपा, अशोक, उन्नाव, पीअंगु, शिरसे, मोगरा, मालनीका जाई, जुई, अकोलकोझ, कोग्टि, दमनक, नवमालिका, बकोल, निलक, वसंतिक, पनपत्र, पाटल, कुंद्र, अनिमुक्त, सहकार ( आंत्र ) इत्यादि अनेक जाति के फूलों की सुगंध से अनूप मनोहर गंध से दश दिशाओं मुगंधमय होगई थी और सर्व ऋतु के सुगंधी फल की मालायें जिसमें धवलरंग ज्यादा है ऐसे मनोहर दूसरे भी रंगों से चित्रमय दीखती थी जिसमें छ पैर वाले मधुकर भंवर और भंवरियों गुंजार कर रही थी और माला को नीलेरंग की बना रही थी ऐसी अत्यन्त सुंदर दो मालाओं को त्रिशला देवी ने आकाश में से उतर कर अपनी तरफ आनी हुई देखी. ससिंच गोखीरफेणदगरयरययकलसपंडुरं सुभं हिअयनयणकंन पडिपुन्नं निमिरनिकरघणगुहिरवितिमिरकर पमाण Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) पक्खंतरायलेहं कुमुश्रवणविबोहगं निसासोहगं सुपरिमदप्पणतलोवमं हंसपडुवन्नं जोइसमुहमंडगं तमरिपुं मयणसरापूरगं ससुद्ददगपूरगं दुम्मणं जणं दइअवज्जिअं पायएहिं सोसयंतं पुणो सोमचारुरूवं पिच्छइ मा गगणमंडलविलास। सोमचंकम्भमाणतिलगं रोहिणिमणहिप्रयवल्लहं देवी पुनचं. दं समुल्लसतं ६ ॥ ३८॥ . चन्द्र का वर्णन. छठे स्वप्न में निराला राणी ने चंद्रमा देखा वो चंद्र गौ का दूध फीण पाणी का विंदु चांदी के कलश इत्यादि सफेद वस्तु के समान उज्वल था हृदय और नेत्रों को शांति देनेवाला मनोहर था और पूर्णिमा के चंद्र समान पूर्ण था अंधकार का समूह जो धन होकर गुफाओं में घुप्त जावे उसको दूर करने वाला दो पक्ष के बीच में अर्थात् शुक्ल पूर्णिमा के चंद्र समान पूर्ण था अंधकार का समूह जो धन होकर गुफाओं में घुसजावे उसको दूर करने वाला दो पक्ष के वीचर्म अर्थात् शुक्ल पूर्णीमा के चंद्रमा का सा प्रभाव वाला, कुमुद ( चंद्रविकाशी कमलों को जागृति करने वाला रात्री का भूपण. अच्छी प्रकार से मंजा हुवा दर्पण के तलेके समान हंसके समान सफेद ज्योतिपी देवों का भूपण अंधकार नाशक मदन के वाणों को पूरने वाला समुद्र में भरती ( ज्वार भाटा) लाने वाला वियोगी स्त्री पुरुषों को दुख देने वाला. और उसकी किरणों से लोही सुकाने वाला. ऐसा मनोहर उत्तम रूपवाले चंद्रको जो गगन मंडल में विशाल मनोहर चलते तिलक के समान था. रोहिणी मक्षत्र के हृदय को बल्लभ उदयमान था. वो राणी ने देखा. तो पुणो तमपडलपरिप्फुडं चेव तेअसा पञ्चतरूपंरत्तासोगपगासकिंसुअसुअमुहगुंजद्धरागसरिसं कमलवणालंकरणं अंकणं जोइसस्स अंवरतलपईवं हिमपडलगग्गहं गहगणोरुनायगं रत्तिविणासं उदयस्थमणेसु मुहत्तसुहदसणं दुन्नि Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) रिक्खरूवं रत्तिसुद्धृतदुष्प्रयारपमद्दणं सी वेगमहणं पिच्छड़ मेरुगिरिसयय परियद्ययं विसालं सूरं रस्सीसहस्त्रपयलियदित्तसोहं ७ ॥ ३६ ॥ सूर्य का वर्णन. इसके बाद सातवें स्वम में अंधकार के पडल को फोड़ने वाला तेजसे जाज्वल्यमान ( जलाने वाला ) रक्त अशोक, अंकुश, केसुडे लालचणोंटी (चिमी ) इत्यादि रंग की वस्तु समान लाल, दिन विकासी कमल को प्रकाशक, बारै राशि को गिनती में लाने वाला, आकाश तलका मढीप ( दीपक ) हिम के पटलको फोड़ने वाला, गृह समुदाय का वडानायक, रात्रिका विनाशक, उदय और अस्त समय दो २ बड़ी सुख से देखने योग्य, बाकी के समय में दुःख से देखने योग्य, रात्री में भटकने वाले दुराचारीयों को रोकने वाला ठंड के वेगको शांत करने वाला, मेरुपर्वत के चारों ओर निरंतर फिरने वाला ऐसा विशाल सूर्य हजार किरण वाले को देखा जो देदीप्यमान था. तो पुणो जच्चकणगल द्विपट्टि समूहनीलरत्तपीयसुकिलसुकुमालुल्लसियमोरपिच्छकयमुद्धयं धयं श्रहियसस्तिरीयं फालि संखंककुंददगरयरययकलसपंडुरेण मत्थयत्थेण सीहेण रायमाणेण रायमाणं भित्तुं गगणतलमंडलं चैव ववसिएणं पिच्छह सिवम उयमारुयलयाहकंपमाणं चप्पमाणं जयपिच्छणिज्जरूवं ८ ॥ ४० ॥ ध्वजा का वर्णन. आउ स्वप्न में त्रिशला राणी ने जो ध्वज देखा उस ध्वजकी लट्टी उत्तम सोन की थी, और नील, राम, पीले धोले, मारके सुकुमाल पीछों का शिखर जिसपर बना हुवा था, अधिक शोभायमान स्फटिक रत्न, शंख, अंक, कुंद पाणी के बिंदु, चांटीका कलश इत्यादि समान सफेद सिंह से शोभायमान और पवन से उड़ता कपड़ा में चित्र का सिंह उड़ता था, वो ऐसा दिखता था Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) - कि मानों वो आकाश को भेदने को जाता है वो ऐसी ध्वजा शिव मृदु वायु में आकाश के अन्दर बहुत दूर तक उडती थी. तो पुणो जच्चकंचणुज्जलंतरूवं निम्मलजलपुण्णमुत्तमं दिप्पमाणसोहं कमलकलावपरिरायमाणं पडिपुण्णसव्वमंगलभेयसमागमं पवररयणंपरायंतकमलट्ठिय नयणभूसणकरं पभासमाणं सवो चेव दीवयंतं सोमलच्छीनिभलणं सनपावपरिवज्जिअं सुभं भासुर सिरिवरं सब्बोउयसुरभिकुसुम भासत्त मल्लदा पिच्छइ सा स्ययपुरणकलसं ६ ॥ ४१ ॥ कलश का वर्णन नवौ स्वम में त्रिशला राणी ने कलश देखा वो उत्तम जाति के सोनेका अथवा उत्तम चांदीका बना हुवा था देदीप्यमान रूपथा, निर्मल जल से पूरा भरा हुवा था, उत्तम कांति की शोभा वाला था, कमलों के समुह से विराजमान था, सर्व पूरे मंगलों के कारणों के एकत्र होनेका स्थान था, उत्तम जाति का प्रघर रत्न और अन्दर से सुगंधी कण उडाने वाले कमल में स्थापित किया हुवा था, नेत्रों का भूषण प्रकाशमान, सर्थ दिशाओं में दीपता, सौम्य लक्ष्मी संयुक्त और सर्व पापों से रहित शुभ, भासुर, शोभा वाला, सर्व ऋतु के सुरभी कुसुमों से उपर से नीचेतक मालायें जिस में लगी थी ऐसा चांदीका पूर्ण कलश था. तो पुणो पुणरवि रविकिरणतरुणवोहियसहस्सपत्तसुरभितरपिंजरजलं जलचरपहकरपरिहत्थगमच्छपरिभुज्जमाणजलसंचयं महंत जलंतमिव कमलकुवलयउप्पलतामरसंपुडरीयउरुसप्पमाणसिरिसमुदएणं रमणिज्जरूवसोहं पमुइयंतभमरगणमत्तमहुयरिंगणुकरोलि (ल्लि) जमाणकमलं २५० कायवगवलाहयचककलहंससारस गधिनसउणगणमिहणविज्ज माणसलिलं पउमिणिपत्तोवलग्गजलविंदुनिचयचित्तं पिच्छह Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (20) मा हिययनयण कंतं परममा नाम सरं महाभिरामं १० ॥ १२ ॥ .. - एममरोवर का वर्णन । - उसके पश्चात उनमें स्त्रम में त्रिमला सीन पदय सगेवर देखना जिसमें कमले गवि के किरणों में विकलर पद्म के पन होगये हैं उसमें सुगंयमय है और मृय की प्रभात की धूप में लाल पीला हांगा है जब जिम गंमा नगंवर और जल में चलने वाले जनचा प्राणी के ममुह से पानी का मर्वत्र उपयोग होता है जिसका पाणी कपल कुवलय, उचल, नामग्य, पुंडरिक इत्यादि कई प्रकार के कमलों में जलना हुवा अग्नि के समान गांभायमान, रमणीय स्प वाला अनन्य दीग्वना था और जिस मगंबर में ग्रानन्दिन भंवर्ग का समूह और मन भंवरियों का समूह गुंजार कर रहा र कपनों का समुद्राय था और मगंबर में काईवक, कलहंस, बगळे, चक्रवाक सागस इन्यादि जलचर मुख से गर्विष्ट थे और वे पी अपनी २ मिथुन ( नर मादा) माय पाणी में क्रीडा करह ार कमल के पनों पर उछलने जलंक विन्द लग रहे थे व एम शामायमान होते थे कि जप हर रंग के पन्ने पर मच्चं पानी के दाणं लंग हो ऐसा पद्म मगंवर मनाहर, हृदय और मंत्र को प्रानन्दन वाला त्रिगला गणी न बन में दवा. ___ तो पुणा चंदकिरणरामिमरिमसिस्विच्छमोहं चउगमएयवड्डमाणजलसंचयं चक्लचंचललुच्चायप्पमालकल्लोललोलंतनायं षड्डुपयवणायचलियनवलपागडनरंगरंगतभंगलाचुन्भमाणसभितनिम्मलुक्कडहम्मीमहमंबंधघावमाणोनियत्नभामुरतराभिरामं महामगरमच्छतिमितिमीगलनिन्द्धतिलितिलियाभिधायकप्परफेणपसरं महानईतुरियंवगममागयभमगंगावत्तगुप्पमाणुचलंतपच्चानियत्नमममाणलोलसलिलं पिछड़ स्त्रीरोयमायर मा.श्यणिकरमोमवयणा १५ ॥ १३ 11. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) . क्षीर सागर का वर्णन । ___ अग्यारमें स्वप्न में त्रिशला रानी ने क्षीर समुद्र देखा वह समुद्र कैसा है कि चंद्रमा की किरणों के समान शोभायमान है और चारों दिशाओं में से जिसमें जल समूह बह रहा है और जिसमें चञ्चल से भी चञ्चल कल्लोले बहुमसी उठरही हैं जिन कलोलों के कारण जल ज्यादा चञ्चल होरहा है और धीमी २ हवा के कारण कल्लोलें चलायमान होकर किनारे आकर टकरें खाती है और उन का शब्द हो रहा है जिनसे समुद्र शोभायमान होरहा है उसमें एक कल्लोल के पीछे दूसरी कल्लोल दोड़ती है अर्थात् एक तरंग के पीछे दूसरी तरंग लग रही है. पहले एक छोटी तरंग उठती है तो उसके बाद बड़ी उठती है इस प्रकार की तरंगों की शोभा जिसमें है और जिसमें अनेक जलचर पशु जैसे मगरमछ, मछलियां, तिमि तिमिगल, निरुद्ध तीलि तिलक इत्यादि आपस में जिस समय क्रीड़ा करते हैं उस समय उनकी पूंछों से उछले हुवे पाणी में जो फेण उत्पन्न होते हैं वह कल्लोलों के साथ किनारे पर आते हैं उनके समूह कपूर के ढेर के समान मालुम होते हैं और जिस समुद्र में गंगा इत्यादि नामी नदियों का पानी आता है और जिसमें दूसरी हजारों नदियों का जल पाता है ऐसा क्षीरसागर त्रिशला राणी ने स्वप्न में देखा. तो पुणो तरुणसूरमंडलसमप्यहं दिपमाणसोभं उत्तमकंत्रणमहामणिसमूहपवरतेयअट्ठसहस्तदिप्पंतनहप्पईवं कणगपयरलवमाणमुत्तासमुज्जलं जलंतदिव्वदामं ईहावि (मि) गउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरसंसत्तकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं गंधब्बोपवज्जमाणसंपुण्णघोसं निचं सजलघणविउलजलहरगज्जियसदाणुणाइणा देवदुंदुहिमहारवेणं सयलमवि जीवलोयं पूरयंतं, कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडझंतधूववासंगउत्तममघमघंतगंधुडयाभिरामं निचालोयं सेयं सेयप्पभं सुरवराभिरामं पिच्छइ सा सोवभोगं वरविमाणपुंडरीयं १२ ॥ १४ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) देव विमान का वर्णन । वारहवें स्वप्न में त्रिशला देवी न देव विमान देखा वो देव विमान चढ़ने हुवे मूर्य के समान प्रकाशमान दिव्य शांभा वाला उत्तम सान के मणि माणिक से जड़िन १००८ बम जिसमें है और जिससे वो आकाश में दीपक के समान शांभायमान होरहा है साने की जिसकी छत हैं और जिन छतों में मांतियों के झुमके वा मालाओं के लगने से शांभा अधिक मालुम होती है और उसकी भीतों में रहा मृग सिंह बैल घोड़ा मनुष्य हाथी इत्यादि अनेक चित्र है बनलता पद्यन्नता इत्यादि चित्रित है और जिस विमान में नाटक होरहे थे वाजिंत्र का राग मनोहर दोरहा था जिसमें मेघ गर्जन के समान देव इंदुभी का गब्द होरहा था जिमकी श्वनी सर्वत्र आकाश में फैल रही थी और जहां कालागुरु उत्तम कुंदरक इन्यादि अनेक उत्तम जानि के धूप होम्हें ये पला मुगंध से मघ मघावमान, मुंढर मनोहर दग्वने योग्य देवनाओं से भग हुवा श्रेष्ठ पुंडरिक विमान त्रिशला गणी ने देवा. तम्रो पुणो पुलगवेरिंदनीलमासगकक्कयणलोहियस्खमरगयममारगल्लपवालफलिहसोगवियह लगभग्रंजणवंदप्पहबररयणहिं महियलपइट्टिग्रं, गगणमंडलंतं पभामयंतं, तुंगं मरुगिरिमनिकास पिच्छह सा रयणनिकररासि १३ ॥ १५ ॥ रत्नों का ढेर का वर्णन. उसके बाद नरहवें स्वप्न में त्रिशला राणी न वदुर्य रत्न वन, इन्द्र, नील शासक, कर्केनन, लोहिनान मरकन मसारगल्ल प्रवाल स्फटिक सांगधिक इंसगर अंजण चन्द्रप्रभ इत्यादि अनेक जाति के श्रेष्ठ रत्नों का ढेर जा पृथ्वी से आक्राम नक देदीप्यमान मेरु पर्वन के समान कंत्रा २ लगा हुवा था देखा. सिहं च-सा विउलुज्जलपिंगलमहुघयपरिसिञ्चमाणनिमधगधगाइयजलंतजालुज्जलाभिरामं तरतमजोगजुत्तेहिं जालपयरहिं अगणुगणमिव अणुप्पहणणं पिच्छइ जालुज्जल Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) गगनंबरं व कत्थइ पयंतं अइवेगचंचलं सिहि ॥ १४ ॥ ४६॥ निर्धूम अग्नी. चवदवे स्वप्न में त्रिगला देवी ने निधूम अग्नी देखी जो जलती थी और उसमें से लाल पालेरंग की ज्वालाएं निकलती थीं मधु और घी से सींची हुई निधूम अग्नी धगधगायमान जलती ज्वालाओं से मनोहर अत्यन्त ऊंची २ ज्वालाऐं जानी है जिसकी ऐसी निधूम अग्नी देखी.. हमे एयारिसे सुमे सोमे पियदंसणेसुरूवे सुविणे दळूण सयणमज्झे पडिबुद्धा अरविंदलोयणा हरिसपुलइअंगी ॥ एए चउदस सुमिणे, सबा पासेइ तित्थयरमाया । जं स्यर्णि व कमई, कुच्छिसि महायसो अरहा ॥४७॥ चौदह स्वप्न. पूर्व में कहे हुवे (विस्तार पूर्वक कहे हुवे ) हाथी बैल सिंह लक्ष्मी देवी का अभिषेक पुष्पों की दो मालाएं चन्द्र, सूर्य, ध्वना, कलश, पनसरोवर, क्षीरसागर, देव विमान रत्नों का ढेर निधूम अग्नी ऐसे शुभ सौम्य, प्रिय दर्शन अच्छे रूप वाले स्वप्न देखकर शय्या में जागी और विकस्वर कमल नेत्रवाली हर्प से खिलती रोगराजी वाली त्रिशला राणी ने उत्तम चवदह स्वप्न देख ऐसे ही सर्व तीर्थकरों की माताएं देखती है जिस समय कि तीर्थकर भगवान उटर में आते हैं क्योंकि तीर्थकर भगवान महापुण्यात्मा यशस्वी पूजनीय होते हैं. तएणं सा तिसला खत्तियाणी इमे एयारूवे उराले च3इस महासुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी हद्वतुट्ट-जाव हियया धाराहयकयंवपुप्फगं पिव समस्ससिअरोमकूवा सुविगुग्गहं करइ, करित्ता सयणिज्जायो अभुढेइ, अन्भुट्टित्ता पायपीढाओ पनोरुहइ, पञ्चोरुहिता अतुरिअमचवलमसंभंताए Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) ध्यविलवियाए रायहंसस रिसीए गईए जेणेव सयपिज्जे जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता सिद्धत्थं खतिथं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणोरमाहिं उरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं हिययगमणिज्जाहिं हियय पल्हायणिन्जाहिं मिउमहुरमंजुलाहिं गिराहिं संलवमाणी २ पडिवोहे ॥ ४८ ॥ ऐसे चौदह स्वप्न देखकर त्रिशला राणी जागृत होकर संतुष्ट होकर हृदय से कदंब वृक्ष के फूल मेघ के पाणी से जैसे विकस्वर होते हैं वैसे ही विकस्वर होकर स्वप्नों की अच्छी तरह विचार कर भैय्या से उठकर निःसरणी पर पैर रख कर अत्वरित, अचपल, असंभ्रात अविलंविन, स्थिरता से राज हंस सरखी गति से चलकर जहां पर सिद्धार्थ राजा सोये हुए हैं वहां आई. और सिद्धार्थ राजा को, इष्ट, कांत प्रिय, मनोज, मनोरम, उदार, कल्याणकारी, शिव-धन मंगल शोभा देनेवाले हृदय प्रसन्न करने वाले वचनों द्वारा जागृत करती है. तरणं सा तिसला खत्तित्राणी सिद्धत्थेणं ररणा अभ गुणाया समाणी नाणामणि कणगस्य ण भत्तिचित्तंसि भद्दा - सरांसि निसीयड़ निसीइत्ता आसत्था सुहासणवरगया सिद्धत्थं खत्तियं ताहिं इट्ठाहिं जाव संलवमाणी २ एवं व्यासी ॥ ४६ ॥ एवं खलु अहं सामी ? अज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि नरणओ जाव पडिबुद्धा, तंजहा - गयउसभ० गाहा । तं एएसिं सामी ! उरालाएं चउदसरहं महासुमिणा के मन्ने कलणे फलवितिविसेसे भविस्सह ? || ५० ॥ सिहार्थ राजा का जागृत होना । सिद्धार्थ राजा ने जागृत होकर त्रिशला देवी को बैठने को कहा उससे मन्मान की हुई विचित्र मुव का बना हुवा, रत्नों से जुड़ा हुवा भट्टामन Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) पर बैठ कर, शांति विश्रांति लेकर सुखासन पर बैठी हुई राणी त्रिशला देवी इस प्रकार वोलने लगी. हे नाथ ! आज रात्री में मैंने शय्या में अच्छी तरह सोते हुवे चौदह स्वप्न देखें हैं (जिसका वर्णन पूर्व में कहा है ) कृपया कहें कि उनका क्या अच्छा फल मेरे को होगा. __ तएणं से सिद्धत्थे राया तिसलाए, खत्तिप्राणीए अतिएं एयमढे सुच्चा निसम्म हतुष्ठचित्त आमंदिए पीइमणे परमसो. मणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए धाराहयनीवसुरभिकुसुमंचचुमालइयरोमकूवे ते सुमिणे भोगिरहेइ, ते सुमिणे प्रीगिाण्हेत्ता ईहं अणुपविसइ, ईहं अणुपविसित्ता अप्पणो साहाविएणं मइपुव्वएवं बुद्धिविगणाणण तास समिणाणं अत्युगगहं करेइ, करित्ता तिसलं खतिप्राण ताहि इट्ठाहिं जाव मंगल्लाहिं मियमहुरसस्सिरीयाहिं वग्गूहि संलवमाणं २ एवं वयासी ॥ ५१ ॥ सिद्धार्थ राजाने त्रिशला राणी के मुख से यह रहस्य सुनकर, संतुष्ट होकर कदंब वृक्ष के पुष्प जिस प्रकार मेघ के जल से विकस्वर होते हैं उसी भांति विकस्वर होकर अच्छी तरह स्वप्नों को समझ कर अपनी स्वभाविक, मति, युद्धि विज्ञान से स्वप्नों का अर्थ विशेष विचार करके त्रिशला राणी को अति उत्तम, मधुर वचनों से कहने लगा. उराला णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्ठा, कल्लाणा णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्टा, एवं सिवा, धन्ना, मंगल्ला, सस्तिरीया, प्रारुग्ग-तुहि-दीहाउ-कल्लाण-(ग्रं,३००) मंगल्ल-कारगाणं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्ठा, तंजहा, अत्थलामो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो०, पुत्तलाभो० सुक्खला. भो० रज्जलाभो०-एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए ! नवगहं मामा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) णं बहुपडिपुराणाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं विकंताणं अम्ह कुलकेलं, अम्हं कुलदीवं, कुलपब्धयं, कुलवडिंसयं, कुलतिलयं, कुलकित्तिकर, कुलवित्तिकरं, कुलदिणयरं, कुलाधारं, कुलनंदिकर, कुलजसकरं, कुलपायवं, कुलविवद्धणकर, मुकुमालपाणिपायं, अहीणसंपुरणपंचिंदियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेयं, माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्यंगसुंदरंगं, ससिसोमाकारं, कंतं, पियदंसणं, दारयं पयाहिसि ॥ ५२ ॥ ई देवानुप्रिय ! तुमन उदार स्वप्न देखे हैं, कल्याण करने वाले, शिव, धन, आगेग्यना, दीर्घ आयु को देने वाले उत्तम स्वप्न देवे हैं इनमे आप को अर्थ लाभ, भोग लाभ और पुत्र लाभ, नव मास और साढे सात दिन बाद होगा वो पुत्र हमारा कुल केतु कुल दीपक कुल पर्वन, कुल अवतन्स, कुलनिलक, कुल कीर्तिकर कुल दिनकर, कुल श्राधार, कुलनंदिकर, कुलजसकर, जुलपादप (वृक्ष ) कुल बर्द्धनकर, सुकुमाल हाथ पग वाला, योग्य संपूर्ण पांच इन्द्रिय शरीर वाला, लक्षण व्यञ्जन गुणयुक्त, मान उन्मान प्रमाण और प्रतिपूर्ण, - मुजात, सोंग मुन्दर, चन्द्र समान साम्य, कान्न, प्रियदर्शन, स्वरूप वाला, होगा अर्थात् तुझे उत्तम गुण, लक्षण वाला सुन्दर पुत्र होगा. सेविय णं दारए उम्मुक्कवालभावे विनायपरिणयमिते जुब्बणगमणुएत्ते सूरे वीरे विकंते विच्छिन्नविउन्लवलवाहणे रज्जई राया भविस्सइ ॥ ५३॥ और वह बालक बाल्यावस्था समाप्त कर जिस समय युवान् होगा उस समय विज्ञान का परिणमन (प्राप्ति ) होने से अर्थात् विज्ञान विद्या में पारंगामी हाने से शूर, वीर, विक्रांत (तेजस्त्री ) विस्तीर्ण, विपुल बलवाहन धारक और राज्याधीश होगा (अत्रिय पुत्र के लक्षण सिद्धार्थ राजा ने बताय) तं उराला णं तुमे देवाणुप्पिया ! जाव दुचंपि तचंपि अणुवुहइ ॥ तएणं सा तिसला खत्तियाणी सिद्धत्थस्स रणो Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) अंतिए एयमढे सुच्चा निसम्म हट्टतुट्ठा जाव-हियया करयलपरिग्गहिअंदसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कहु एवं वयासी ।। ५४ ॥ इसलिये हे राणी ! तुमने अति उत्तम स्वप्न देखे हैं ऐसी वारंवार प्रशंसा की, त्रिशला राणी सिद्धार्थ राजा के इस प्रकार के वचन सुनकर हर्प, संतोष से प्रसन्न चित्त बाली होकर हाथ मस्तक को लगाकर (हाथ जोड कर) बोली. एवमेयं सामी ! तहमेयं सामी ! अवितहमेयं सामी ! असंदिद्धमेयं सामी ! इच्छिअमेनं सामी ! पडिच्छिअमेयं सामी ! इच्छिअपरिच्छिश्रमेयं सामी ! सचेणं एसमट्टे-से जहेयं तुम्भे वयह तिकट्ठ ते सुमिणे सम्म पडिच्छइ, पडिच्छित्ता सिद्धत्थेणं रण्णा अभणुराणाया समाणी नाणामणिरयण भत्तिचित्तानो भदासणायो अभुढेइ, अन्भुटेत्ता प्रतुरियमचवलमसंभताए अविलंविधाए रायहेससरिसीए गईए, जेणेव सए सयणिज्जे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी ॥ ५५ ॥ हे स्वामी ! ऐसा ही है आपके कहे हुवे फल सत्य हैं, उसमें लेग मात्र भी झूठ नहीं निभ्रान्त हैं मरी इच्छानुसार है मैं वहीं चाहती थी और ऐसा ही हुवा है इसलिये हे स्वामी आपका कथन सर्वथा सत्य है ऐसे कहकर स्वप्नों को अच्छी तरह से विचार कर सिद्धार्थ राजा की आज्ञा लेकर सन्मानित हुई राणी मणि रत्न और सुवर्ण के बने हुवे भद्रासन से उठकर मंदगति मे स्थिरना से, राज हंसी की चालके समान चलकर अपने शयनागार में जाकर एंगे विचार करने लगी. ___ मा मे ते उत्तमा पहाणा मंगल्ला सुमिणा दिट्ठा अन्नहिं पावसुमिणेहिं पडिहम्मिस्सति तिकटु देवयगुरुजणमंबद्धाहिं Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) पसत्याहिं मंगल्लाहि धम्मियाहिं लट्ठाहिं कहाहिं सुमिणजागरिनं जागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ ।। ५६ ॥ __मैंने जो उत्तम प्रधान, मांगलिक स्वप्न देखे हैं अब यदि सोऊं और फिर कोई पाप स्वप्न देखने में श्रावे तो (नियमानुसार) उन अच्छे स्वप्नों का उत्तम फल नाश होजावे इसलिये मुझे अब नींद न लेना चाहिये. वरञ्च देव गुरुजन इत्यादि पुण्यात्मा पुरुपों की उत्तम, कल्याणकारी, धार्मिक, श्रेष्ट कथाओं सुनकर शेष रात्री व्यतीत करना चाहिये ऐसा विचार कर रात्री जागृत अवस्था में गुजारी. तएणं सिद्धत्थे खत्तिए पञ्चसकालममयंसि कोडंविअपुरिसे सदावेइ, सहावित्ता एवं वयासी ॥ ५७ ॥ सिद्धार्थ राजाने कुछ रात्री वाकी रही तब अर्थात् प्रभातकाल में अपने कुनबे के सेवकों को बुलाकर यह आना दी. खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अञ्ज सविससं वाहिरिशं उवट्ठाणमालं गंधोदयसित्तं सुइअसंमज्जिोवलित्तं सुगंधवरपंचवण्णपुप्फोवयारकलिगं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडज्मतधूवमघमघतगंधुडुयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधिवट्टिभूग्रं करेह कारवेह, करित्ता कारविचा य सीहासणं रयावेह, रयावित्ता ममेयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चपिणह ॥ ५८ ॥ हटवानुपिय आप लोग शीघ्रता से बाहर के सभा मंडप में सर्वत्र गंधोढक छिड़क कर स्वच्छ कराकर पवित्र करके नीपण चूपण कराकर सुगंधी श्रेष्ठ पांच वर्ण के फूलों से शोभायमान मंडप बना दो कालागुरू कुंदरक तुरुस्क के धूप से मघमघायमान करो, अर्थात् सुगंधमय, मनोहर, सुगंध व्याप्त मंडप को सर्वत्र करो वा दूसरे अनुचरों द्वारा कराओ इस प्रकार तय्यार होने के पश्चात् सिंहासन स्थापन करके मेरी आज्ञानुसार सर्व होजाने बाद यहां सूचना दो. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) तर ते कोडं विपुरिसा सिद्धत्थेषं रण्णा एवं युता समाणा हट्ठतुट्ठ जाव हियया करयल जाव अंजलिं कट्टु एवं सामिति प्राणाए विणणं वयणं पडिसुति, पडिणित्ता सिद्धस्थस्स खत्तिग्रस्त अंतिया यो पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरियो उट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता खियामेव सविसेसं बाहिरियं उबट्ठायसालं गंधोदगसितं जाव - सीहासणं रयाविंति रयावित्ता जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थर अंजलि कहु सिद्धत्थस्स खत्तिस्स तमापत्ति पचपिति ॥ ५६ ॥ इस प्रकार की सिद्धार्थ राजा की आज्ञा सुनकर और उससे सन्मान पाकर हर्पित प्रसन्न हृदय वाले होकर हाथ जोड़ कहने लगे कि हे नाथ ! आपकी आज्ञानुसार ही होगा राजाज्ञा को नम्रता से बरोबर सुनकर राजा के कहने का अभिप्राय समझकर कार्य करने को राजा के पास से रवाना हुवे और बाहिर के सभा मंडप में आकर शीघ्रता से सभा मंडप में सर्वत्र गंधोदक का वि कर पवित्र बनाकर राजा की आज्ञानुसार सर्वत्र सजाकर और सिंहासन स्थापित करके सिद्धार्थ राजा के पास आकर के विनय पूर्वक मस्तक में अंजली लगाकर अर्थात् हाथ जोड़कर जैमा किया था वो सर्व राजा को कहकर संतुष्ट किया. तणं सिद्धत्थे खनिए कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पल कमल कोमलुम्मीलियम ग्रहापंडुरे पभाए, रचासोगपगास किंमुसुमुहगुंजद्धरागबंधु जीवगपारावयचलनय‍ परहुत्र सुरत्तलो जासुग्रण कुसुम रासि हिंगुल निरातिरेश्ररेहंत मरिसे कमलायर संडवोहए उट्ठमि सूरे सहम्सरस्सिमि दि पयरे तेसा जलते, तस्स य करपहरापरर्द्धमि धयारे ८ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) वालायवकुंकुमणं खचिअ ब जीवलोए, सयणिज्जायो अ. भुट्टेड ।। ६०॥ सिद्धार्थ राजा रात्री वीन जान पर मूर्योदय के समय प्रकाश होन पर सूर्य विकाशी कमल खिलन के लिय जो प्रभान का ममय होता है उस समय पर रक्त अशोक के प्रकाग के समान करके फूल, नाने का मुग्व, गुंजे का आधा भाग पंजीवके ( एकजान का पुप्प ) कतर के पर और नत्र, कोयल के लाचन (क्रोध से लाल हान है ) जामुद्र के फूलों का ढेर, हिंगल, इत्यादि लाल वस्तुओं से अधिक लाल प्रकाशवाला कमलों को जागृत करने वाला एकहजार किरणों वाला तंज से जलना हुवा जिस समय उदय होने वाला था अंधकार का नाश होगया था प्रभान समय में सर्व लाल पीला प्रकाश हारहा था और जिम समय लांग सब जागृत होगये थे ऐसे समय पर सिद्धार्थ राजा अपनी शय्या से उठा. अभुद्वित्ता पायपीढायो पचोरुहइ पचोरुहिता जणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अट्टणसालं अगुपविमइ, अणुपविसित्ता अणेगवायामजोगवग्गणवामदणमलजुद्धकरणेहिं संते परिस्संते मयपागमहस्सपागेहिं सुगंधवरतिल्लमाइएहिं पीणणिज्जेहिं मयणिज्जेहिं विहणिज्जेहिं दप्यणिज्जेहिं सबिदियगायपल्हायणिज्जेहिं अभंगिए समाण तिल्लचम्मंसि निउणेहिं पडिपुराणपाणिपायसुकुमालकोमलतलहिं पुरिसेहिं अभंगणपरिमद्दणुव्वलणकरणगुणनिम्माएहिं छएहिं दक्खेहिं पढेहिं कुसलहिं मेहावीहिं जिअपरिस्समेहि अट्टिनुहाए मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चउब्बिहाए सुहपरिकम्मणाए संवाईणाए संवाहिए समाणे अवगयपरिस्समे अट्टणसालानो पडिनिक्खमइ ॥ ६१ ॥. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९ ) उठ करके पयही पर पैर रखकर नीचे उतर कर अपनी कसरत शाला में गया और अनेक प्रकार की कसरत, व्यायाम, अंगमोडन मल्लयुद्ध करने पर निस समय शरीर से पसीना निकलने लगा उस समय, शत पाक सहस्र पाक ( हजार वनस्पति, औषधी का वना ) नामी तेल से निपुण मर्दन कारों से मालिश कराई वो तेल रस लोह धातु वीर्य इत्यादि को पुष्ट करने वाला था, उदर की गरमी पाचन शक्ती वढाने वाला था, काम शक्ति बढाने वाला था मांस बढाने वाला पराक्रम देने वाला था और अंग के सर्व भागों में पानन्द उत्पन्न करने वाला था और मर्दनकार अर्थात् मालिश करने वाले बड़े चतुर प्रवीण कुशल पुरुष थे जो समय पर कष्ट परिसह की परवाह नहीं करते थे. ऐसे पुरुषों से हड्डीके सुख के लिये मांस चमड़ी रोम राजी के सुख के लिये शरीर रक्षा के निमित्त शांति होने के लिये, मर्दन कराया थोड़े समय शांति से ठहर कर फिर कसरतशाला से निकल कर स्नानागार में गया । पडिनिक्खमित्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ अणुपविसित्ता समुत्तजालाकुलाभिरामे विचित्तमणिरयणकुट्टिमतले रमणिज्जे रहाणमंडवसि नाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि रहाणपीढंसि सुहनिसरणे पुष्फोदएहि अगंधोदयएहि अ उगहोदएहि असुहोदएहि भ सुद्धोदएहि अ, कल्लाणकरणपवरमज्जणविहीए मज्जिए, तत्थ कोउअसएहिं बहुविहेहिं कन्लाणगपरमज्जाणावसाणे पमहलसुकुमालगंधकासाइअलूहिअंगेश्रयसुमहग्घदूसरयणसु संबुडे सरससुरभिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते सुइमालावरणगवि लेवणे भाविद्धमणिसुवरणे कप्पियहारद्धहारतिसरयपालंबपलंबमाणकडिसुत्तसुकयसोभे पिणद्धगेविज्जे अंगुलिज्जगललियकयाभरणे वरकडगतुडिअभिप्रभुए अहिअरूवसस्सिरीए कुंडलउज्जोइयाणणे मउडदित्तसिरए हारोत्थयसुकयरइअवच्छे मुदिशापिंगलंगुलीए पालंवपलबमाणसुक्यपडउत्तरिज्जे ना Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) णामणिकणगरयणविमलमहरिहनिउणीवचित्रमिसिमिसिंतविरइअसुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठाविद्धवीरवलए, किंबहुणा ? कप्परुक्खए चेव प्रलंकिनविभृसिए नरिंदे, सकोरिटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेबवरचामराहिं उडुब्वमाणीहिं मंगलजयसबकयालोए अणेगगणनायगदंडनायगराईसरतलवरमाडविथकोडविमतिमहामंतिगणगदोवारियग्रमच्चचेडपीढमद्दनगरनिगमसिट्टिसेणावइसत्यवाहदूअसंधिवाल सद्धिं संपरिवुडे धवलमहामेहनिग्गए इब गहगणदिपंतरिक्खतारागणाण मज्झे ससिब्ब पिपदसणे नरवई नरिंदे नर वसहे नरसीहे अमहिनरायतेप्रलच्छीए दिप्पमाणे मज्जणघरायो पडिनिखमइ ।। ६२॥ वह स्नानागार मानियों की मालाओं से और झरुखों से शोभायमान था जिसकी फश अनेक जाति के मणि रत्नों से सुसजित थी और जहां अनेक उत्तम रत्नों से जडी स्नान के करने की चौकी रक्खी थी उस पर बैठकर फूलों के द्वारा सुगन्धमय किये हुवे जलसे, गंधोदक से तीर्थ जलसे निर्मल, ठंडा और कल्याणकारी जल से विधी अनुमार स्नान करने लगा और कौतुक कृत्य करके स्नान पूरा होने पश्चात् उत्तम वस्त्र से जो लाल रंग का अगोछा होता है उस द्वारा शरीर को पूंछ करके उत्तम जानि के गोशीप चंदन से शरीर पर लेपकर मुगन्धी तेल इत्यादि लगा कर बहुमूल्य उत्तम जानि के वस्त्र पहनकर, फूल माला धारण कर ललाट पर उत्तम केसर का तिलक कर अनेक जाति के उत्तमोनम बहुमूल्य आभूपण पहरे जिनमें मणिरत्न मुवर्ण में जड़े हुवे थे ऐसे आभूपों में हार, अर्द्धहार तीन मरके द्वार मातियो के झूमके वाली कटी मत्र अर्थात् कणकती में कमर गाभायमान थी, कंठ में भी कंठे इत्यादि अंनक अाभूपण थे. अंगुलियों में अंगूठिये पहरी थी भुजा पर भुज बन्ध और हाथों में कड़े पहने हुये थे जिससे अधिक रूप वाला और शोभायमान मालुम होता था मुख कुंडलों में शोभायमान हो रहा था मस्तक पर युकुट था और हार लटकने से छानी का . Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) भाग सुन्दर मालुम होना था. मुद्रिका से अंगुली पीली होगई थी और सर्व के ऊपर दुपट्टा दोनों तरफ लटक रहा था. ऐसे अनेक आभूषण होने पर भी सुवर्ण का मणि रत्नों से जटित निपुण कारीगर का वनाया हुवा प्रधान वीरवलय ( जो दूसरा यदि कोई मुझे हराये तो उसे लेवे ऐसा बनाने वाला भूषण ) हाथ में धारण करा हुवा था उसकी अधिक मपा न कर इतना ही लिखना काफी होगा कि जैसे कल्पवृक्ष शोभायमान होता है उसी प्रकार राजा सिद्धार्थ भी वस्त्राभूषण से सुसज्जित, कोरंट वृत्तों के पुष्पों की माला से शोभायमान माधे पर छत्र धराकर जिसके दोनों बाजू चामर हुल रहे हैं जिसके दर्शन से मंगल जय की ध्वनीयें होरही हैं और अपने अनेक प्रधान मंत्री पोलिस नायक राजेश्वर तलवर (राजाने जिस को प्रसन्न होकर पट्ट बंध दिया है ) जमीदार, चोघरी, मंत्री, महामंत्री, ज्योतिषी, सिपाई अमात्य दास, सांवती, नगर निवासी प्रतिष्ठित पुरुष ) व्यापारी, नगर सेठ, सेनापति, सार्थवाह, दून संधिपाल, ( Ambassador ) के साथ जैसे मेघ के खुल जाने के पश्चात् प्रकाश होने पर आकाश में तारों के मंडल के बीच चन्द्रमा शोभायमान होता है वैसे ही सर्व में शोभायमान होता हुवा राजा नर हृपभ, नरसिंह, राज तेज लक्ष्मी में सुन्दर शोभायमान स्नानागार से निकट सभा मंडप में आया और पूर्व दिशा सन्मुख सुखकर सिंहासन पर विराजमान हुवा. मज्जघरा पडिनिक्खमित्ता जेसेच वाहिरिया उनडाणसाला तेथेव उवाग़च्छड़, उवागच्छित्ता सीहासांसि पुरत्याभिमुनिसी, निसीहत्ता चप्पणो उत्तरपुरच्छेिमे दिलीभाए अट्ठ महासलाई सेचवत्थपच्चुत्थयाई सिद्धत्वयकय मंगलोवयाराई रयावे, रयावित्ता पण दूरसामंते नाणामणिरयणमंडियं ग्रहिश्रपिच्छणिज्जं महग्यघवरपट्टणुग्गयं सराह - पट्टत्तिस्यचित्तताणं ईहामित्र उस भतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसर भचमरकुंजरवणलय उमलयभत्तिचित्तं प्रभितरियं जवणि यंत्रावे, यंत्रावेत्ता नाणामणिय एभत्तिचिनं Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) त्थरयमिउमसूरगुत्ययं सेयवत्यपच्चत्ययं सुमउयं यंगसुहफरिसं विसिहं तिसलाए खत्तियाणीए भद्दासणं रयावे ||६३|| रयावित्ता को विपुरिसे सहावे, सहावेत्ता एवं वयासी ॥ ६४ ॥ राजा ने सिंहासन पर बैठ ईशान कोण में आठ भद्रासन सफेद वस्त्रों से शोभित बनवाये और उसे सफेद सरसों और दीव से मंगल उपचार कर उस से थोड़ीसी दूर अनेक जाति के मणि रत्नों से विभूषित बहूत देखने योग्य उत्तम जाति का स्निग्ध, बड़े शहर में बना हुवा कोमल वस्त्र विद्याया उस आसण में अनेक जाति के चित्र थे. जैसे इहा, मृग, बैल, घोड़ा, आदमी, मगर, पक्षी, सांप, किन्नर, रुरु, सरभ, चत्ररी गाय, हाथी बनलता, पद्मळता श्रादि उत्तम चित्रों से वह आसन शोभायमान था जैसा राणी का शरीर कोमल था और संपदायुक्त था वैसा ही उसके हेतु पट्ट बस्न से ढका हुवा भद्रासन एक सुन्दर पड़ड़े के भीतर रखवाया अर्थात् वह आसन राणी को सुख से स्पर्श करने योग्य बनाया गया इतना करा के सिद्धार्थ राजाने अपने कुटुम्ब के पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा. खिप्पामेव भो देवाप्पिया ! टुंगमहानिमित्चसुत्तत्यधारए विविहसत्यकुसले सुविएल+खणपाढए सद्दावेह ॥ तए ते कोडुविपुरिसा सिद्धत्येयं ररणा एवं बुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठ जाव-हियया, करयल जाव - पडिमुति ॥ ६५ ॥ भां देवानुप्रिय ! आप लोग आठ प्रकार का महा निमित्त ( ज्योतिष ) सूत्रार्थ जानने वाले दूसरे शास्त्रों के पंडित, स्त्रम लक्षण बताने में निपुण पंडितों को बुलावां. ऐसी राजाज्ञा सुनकर विनय से हाथ जोड़ कर थाना सिर पर चढा कर वे लोग (पंडितों की खोज में ) निकले. पडिणित्ता सिद्धत्यस्स खत्तियस्स अंतिचा पडिनिक्खमंति कुंडपुर नगरं मज्यंमज्झेणं जेणेन सुविणलक्खण Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) पाढगाणं गेहाई, तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सुविएलक्खणपाढए सद्दाविंति ॥ ६६ ॥ सिद्धार्थ राजा के पास से रवाने होकर नोकर लोग क्षत्रिय कुंड शहर के मध्यभाग में होकर जहां पर स्वम पाठक ज्योतिषियों के घर थे वहां आये. ज्योतिषियों को बुलाकर राजाज्ञा सुनाई जिसे सुनकर वे लोग राज्य मान से खुश डोकर स्नान कर देव पूजन कर तिलक कौतुक मंगल शकुन देखकर, स्वच्छ वस्त्र पहन, विविध आभूषण धारण कर आभूषण जिनमें वजन कम हो पर जिन का मूल्य ज्यादा हो सफेद सरसव और द्रोच से मस्तक भूषित कर अपने २ घरों से निकल कर शहर के मध्य भाग में होकर राज्य महल के समीप आये और राज्य ड्योढी पर सर्व ने मिलकर अपना एक २ नायक बनाया. दृष्टांत. एक समय ५०० सुभट मिलकर नोकरी के वास्ते एक शहर के राजा के पास गये वे सर्व अर्थात् ५०० ही स्वतन्त्र थे उन में से कोई भी एक को नायक नहीं स्वीकार करना चाहता था राजाने उनकी परीक्षा करने के हेतु सर्व के लिये सिर्फ एक शय्या रात्री में सोने को भेजी उनमें तो सर्व अपने को चराघर समझने वाले थे. एक शय्या पर सर्व किंस प्रकार से सोत्रं आखिर सत्र में यह निश्चय हुवा कि सर्व अपना एक २ पैर इस शय्या पर रख कर सोवें और इसी प्रकार सर्व सोंगये. राजाने यह वार्ता सुनकर और मन में यह विचार किया कि यदि यह लोग लड़ाई में जावें तो अफसर के आधीन कदापि नहीं रहसते उन लोगों को अर्थात् ५०० ही सुभट्टों को नोकरी देने से अनिच्छा प्रकट कर वहां से निकाल दिये. तणं ते सुविणल+खपाढया सिद्धत्थस्स खत्तियस्स कोडुविपुरिसेहिं सावित्रा समाणा हट्टतुट्ट जावहियया रहाया कयवलिकम्मा कयको मंगलपायच्छित्ता सुद्धावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवराडं परिहिया अप्पमहग्घभरणालंकियसरीरा सिद्धत्थय हरियालिया कय मंगलमुद्धाला सहिं २ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) गेहेड़ितो निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता खत्तियकुंडग्गामं नगरं मज्झमज्झणं जेणेव सिद्धत्यस्स पो भवणवरवळिसगपडिदुवारे, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भवणवरवर्डिसगपांडवार एगा मिलांत, मिलित्ता जणव बाहिरिग्राउ वट्ठाणसाला,जेणेव सिद्धस्थे खत्तिए, तेणेव उवागच्छत्ति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहिअंजावकद्द, सिद्धत्थं खतिश्र जएणं विजएणं वद्धाविति ॥ ६७ ॥ इस ऊपर लिखे दृष्टांत को याद कर सर्व ज्योनिपियों ने अपने में से एक एक को नायक बना लिया और उसी के पीछे २ सर्व राजसभा में आये हाथ जोड़कर राजा को आशीर्वाद दिया आपकी जय हो "तीसरा व्याख्यान समाप्त हुवा" तएणं ते सुविणलक्षणपाढगा सिद्धत्थणं रगणा वंदियपूइप्रसकारिअसम्माणिया समाणा पत्ते२पुवन्नत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति ।। ६८॥ राजा ने उनको नमस्कार किया सत्कार, सन्मान पूजन कर यथोचिव भामन पर विधाये जव सर्व ज्योनिपी लोग पूर्व में लगाये हुत्रे पाठ भद्रासन पर बैठ गये तब पीछे. तएणं सिद्धत्थे खत्तिए तिसलं खत्तियाणिं जवाणिअंतरियं भवइ, ठावित्ता पुप्फफलपडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुविलक्षणपाढए एवं वयासी ॥ ६ ॥ सिद्धार्थ राजा ने त्रिशला राणी को पूर्व कथित पड़दे के भीतर बुलाकर भद्रासन पर विठाई और हाथ में फल फुल लेकर हाथ जोड़कर उन सर्व ज्योतिपियों से कहने लगा (नीतिशास्त्र में ऐसा कहा है कि जिस समय राजा देवता, गुरु वा ज्योनिपी के पास जावे उस समय खाली हाथ कभी भी नहीं जावे) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) एवं खलु देवाणुपिया ! अज तिमला खत्तियाणी तंसि तारिसगंसि जाव सुत्तजागरा चोहोरमाणी २ इमे एयारूवे उराले चउदस महासुमिये पासित्ता णं पडिबुद्धा ॥ ७० ॥ हे ज्योतिषी महाराज ! आज हमारी राणी ने सुख शय्या में सोते हुने थोड़ी निद्रा लेते हुवे १४ चवदह बड़े स्वप्न देखे हैं और फिर पूर्णतया जागृत हुई. तंजा, गयगाहा - तं एए सिं चउदसरहं महासुमियाणं देवाणुपिया ! उरालाएं के मन्ने कल्लाऐ फलवित्तिविसेसे भविस्सह ? ॥ ७१ ॥ हाथी से सिंह तक के चवदह स्वप्न सुनाकर राजा बोला कि बतलाइये इन उत्तम स्वप्नों का क्या फल होगा. तणं ते सुमिएलक्खणपाढगा सिद्धत्थस्स खत्तियस्स अंतिए एयमहं सोचा निसम्म हट्ठट्ठ जाव-हयहियया. ते सुमिऐ योगिरहंति, योगिरिहत्ता ईहं पविसंति, पविसित्ता यन्नमन्त्रेण सद्धिं संचालेंति, संचालित ( तेसिं सुमिणाएं लड्डा गहिया पुच्छिया विणिच्छिया अभिगयहा सिद्धत्थस्स रणो पुरो सुमिणसत्थाई उच्चारेमाणा २ सिद्धत्थं खत्तियं एवं वयासी ॥ ७२ ॥ राजा के मुख से स्वप्नों का वृत्तान्त सुनकर प्रसन्न होने व सर्व ज्योनिपियों ने अपने २ मनमें फलों का विचार किया और फिर परस्पर फलों के सम्बन्ध में वार्तालाप कर कर सर्व एकमत होकर फल का निश्रय कर पूर्व मं जिसको नायक बनाया है वो निःशंक होकर खड़ा होकर बोला. स्वमों का फल | हे राजन सुनिये स्वप्न दिखने के नव कारण है १ अनुभव से, २ सुनने ६ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) से, ३' देखने से, ४ प्रकृति बिगड़ने से, ५ स्वभाविक, ६ चिन्ता से, ७ देवता के उपदेश से, ८ धर्म पुण्य के प्रभाव से पाप उदय से इन नव कारणों से स्वप्न दीखते हैं जिनमें से प्रथम के छ कारणों से यदि स्वप्न दीखे तो उसे निष्फल समझना चाहिये और वाकी के तीन कारणों से दीख और वो उत्तम हों तो उत्तम फल देते हैं और यदि बुरे हो तो बुरा फल देते हैं. यदि रात्री के पहिले प्रहर अर्थात् सूर्यास्त से ३ घंटे बाद तक स्वप्न आवे तो उसका फल १२ मास पीछे मिले, दूसरे प्रहर में यदि आवे तो ६ मास पर्यन्त तीसरे प्रहर में आवे तो ३ मास और चौथे प्रहर में आवे तो एक मास पीछे और यदि सूर्योदय से २ घड़ी पहिले आवे तो १० दिन मे और सूर्योदय के समय ही आवे तो शीघ्र ही फल मिलता है. ___ यदि एक रात्रि में लगातार बहुन से स्त्रम देखे तो निष्फल जाते हैं अथवा रोगादि कारण से अथवा मूत्रादि रोकने से जो स्वप्न दीखे वो भी कुछ फल नहीं देते. ___ धर्म में रक्त, निरोगी स्थिर चित्त, जितेन्द्रिय और दयावान पुरुष स्वप्न द्वारा इच्छिन, वस्तु प्राप्त कर सका है. यदि कुस्वप्न देखने में आवे तो किसी को कहना नहीं परन्तु उत्तम स्वप्न योग्य पुरुष को अवश्य कहना और यदि योग्य पुरुष न मिले तो गाय के कान में कहना. ___ उत्तम ( अच्छा ) स्वप्न देखकर फिर निद्रा नहीं लेना चाहिये कारण यदि फिर कोई कुस्वप्न देखने में आवे तो वो उत्तम स्वप्न व्यर्थ जाता है इसलिये 'उत्तम स्वप्न देखने पश्चात रात्री बहुत होवे तो धर्म कथा इत्यादि शुभ कार्य कर रात्री व्यतीत करना चाहिये. ___ कुस्वप्न देखकर यदि सोजावे अर्थात् निद्रा ले लेवे थोड़े से समय के लिये और किसी को भी न कहै तो वो व्यर्थ होजावे अर्थात् उसका बुरा फल न मिले. ___ कुस्वप्न के पश्चात् यदि फिर उत्तम स्वप्न देखने में आये तो उत्तम का फल मिले कुस्वप्न व्यर्थ जावे इसी प्रकार उत्तम के पश्चात् बुरा देखे तो बुरे का फल मिल उत्तम व्यर्थ जावे. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) स्वप्नों का फल | स्वप्न में जो मनुष्य, सिंह, हाथी, घोड़ा, बैल और गाय के साथ अपने को रथ में बैठकर जाता देखे तो वो राजा होवे अर्थात् उसे राज्य प्राप्ती होवे. जो मनुष्य स्वप्न में अपना घोड़ा, हाथी, वाहन, आसन, घर निवसन को चोरी जाता देखे तो उसे राज्य का भय अथवा शोक का कारण अथवा बन्धुओं में क्लेश होवे. जो मनुष्य स्वप्न में सूर्य चन्द्र का वि आखाही निगल जाये तो वो गरीव होगा तो भी सुवर्ण से भरी समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का स्वामी होवे स्वप्न में यदि शस्त्र, मणि, माणिक, मोती, चांदी, तांबा की चोरी देखे तो उस मनुष्य कां धन, मान की हानी होवे और बहुत दुःख भोगना पड़े. 1 स्वप्न में सफेद हाथी पर चढ़कर नदी के किनारे जाकर चावल का भोजन करे तो वो मनुष्य दीन होने पर भी धर्मात्मा होकर राज्य लक्ष्मी का भोग करे. ear में यदि अपनी स्त्री ( भार्या ) का हरण देखे तो द्रव्यों का नाश होवे, और स्त्री का परिभव अर्थात अपमान देखे तो क्लेश होव और यदि गोत्र की स्त्री का हरण देखे तो बंधुओं को वध बंधन की पीड़ा होवे. स्वप्न में यदि दक्षिण हाथ को भूरे सर्प से काटा देखे तो उस मनुष्य को ५ रात्रि में १००० सुवर्ण मुद्रा की प्राप्ति होवे. स्त्रम में जो पुरुष अपने जूते शयन चुराते देखे तो उसकी स्त्री की मृत्यु हो और उसके खुद के शरीर में बहुत पीड़ा हो. स्वम में यदि प्रभु की प्रतिमा का दर्शन पूजन करे तो सर्व संपदा की राद्ध होवे. स्वप्न में सफेद वस्तु देखे तो अच्छा और यदि काली देखे तो बुरा फल मिले परन्तु कपास, रुई, नमक सफेद होने पर भी यदि स्वप्न में दिखाई दें तो बुरा फल मिले और गाय, घोड़ा, हाथी और देव ये यदि काले रंग के भी दिखे तो उत्तम फलदाई हो. स्वम में यदि अपने ताई युग वा उत्तम हुवा देखे तो खुद को दूसरे को देखे तो दूसरे को फल मिलता है. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) युग स्वम देखकर प्रभात में देवगुरु की सेवा में रक्त रहे तो बुरा स्वम भी उत्तम फल देने वाला होजाता है. इत्यादि लौकिक शास्त्रों में स्त्रम फल बताये हैं. जैन शास्त्रानुसार स्वम फल । जो स्त्री वा पुरुष स्त्रम में एक बड़ा क्षीर वा घी का घड़ा वा मधु का घड़ा देखे वा उसे शिरपर चढ़ाया देखे तो वो प्राणी उसी भव में वोध पाकर मोक्ष में जाव अर्थात् जन्म मरण से मुक्त होजावे और रत्नों का ढेर वा सुवर्ण का ढेर पर चढ़ना देखे तो उसी भव में मुक्ति पात्रे किन्तु तृपुवा तांत्रा के ढेर पर चढना देखे तो दो भव में बोध पाकर मुक्ति पावे. स्वप्न में रत्नों से भरा हुवा घर देखे और भीतर जाकर अपना कब्जा करना देख्ने तो उसी भव में मुक्ति जावे इत्यादि जैनशास्त्रों में भी स्वम फल लिखा है एवं खलु देवाप्पिया ! म्हं सुमिणसत्थे वायालीसं सुमिया तीसं महासुमिणा वावन्तरि सव्वसुमिणा दिट्ठा, तत्थ णं देवापिया ! अरहंतमायरो वा चकवहिमायरो वा श्ररहंतंसि (ग्रं० ४०० ) वा चक्कहरंसि वा गर्भ वक्रममाणंसि एएसिं तीसाए महासुमिणाणं इमे चउदस महासुमिणे पासित्ता णं पडिवुज्झति ॥ ७३ ॥ तंजा, गयगाहा ॥ ७४ ॥ वासुदेवमायरो वा वासुदेवसि गव्र्भ वक्कममाणंसि एएसिं चउदसरहं महासुमिणाणं अन्नयरे सत्त महासुमिये पासित्ता पं पडिवुज्यंति ॥ ७५ ॥ बलदेवमायरो वा बलदेवंसि गर्भ वक्रममाणंसि एएसिं चञ्चद्दरहं महासुमिणाणं द्यन्नयरे चत्तारि महासुमिणे पासित्ता णं पडिवुति ॥ ७६ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गर्भ वक्कममायंसि एएसिं चउदसरहं महासुमिणा अन्नयरं एगं महासुमियं पासित्ता णं पडिबुज्यंति ॥ ७७ ॥ हे राजन् हमारे स्वप्न शास्त्र में ७२ स्वम कहे हैं ४२ जघन्य हैं ३० उत्तम हैं उनतीस स्वप्नों में से चक्रवर्ती वा तीर्थंकर की माता जिस वक्त यह उत्तम पुरुष माता की कुक्षि पवित्र करते हैं उस समय १४ स्वप्न देखती है और वे हाथी से लेकर निर्धुम अग्नि तक हैं. वासुदेव की माता इसी तरह सात स्वम थार वलदेव की माता वो पुत्र रत्न आने पर ४ स्वप्न पूर्व के १४ स्वप्नों में से देखती है, और देखकर पीछे संपूर्ण जागती है. सामान्य राजा की माता एक प्रधान स्वम देखती हैं. इमे यणं देवापिया ! तिसलाए खत्तिप्राणीए चोद्दस महासुमिया दिट्ठा, तं उराला एवं देवागुप्पिया ! तिसलाए खत्तियाणीए सुमिणा दिट्ठा, जाव मंगल्लकारगा णं देवाणुपिया ! तिसलाए खत्तित्राणीए सुमिया दिट्टा, तंजहा प्रत्थलाभो देवाखुप्पिया ! भोगला भो० पुत्तलाभो० सुक्खलाभो० देवापिया ! रज्जलाभो देवागु० एवं खलु देवाशुपिया ! तिसला खत्तियाणी नवरहं मासाएं बहुपडिपुराणं श्रद्धट्टमाणं इंदियाणं व कंताणं, तुम्हं कुलकेउं कुलदीवं कुलपव्वयं कुलवडिंसगं कुलतिलयं कुलकित्तिकरं कुलवित्तिकरं कुलदिएयरं कुलाहारं कुल नंदिकरं कुलजसकरं कुलपायवं कुलतन्तुसंताविवणकरं सुकुमालपाणिपायं ग्रहीण व डिपुराएपंचिंदियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेचं माणुम्माणपमाणपडिपुराण सुजाय सब्बंग सुंदरंगं ससिसोमाकारं कंतं पियदंसणं सुरूवं दारयं पयाहिसि ॥ ७८ ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) हे राजन् ! त्रिशला देवीने प्रधान स्वप्न १४ देखे वे बहुत उत्तम फल वृत्ति का लाभ देंगे आपको अर्थ भोग पुत्र सुख राज्यादि संपदाओं का लाभ होगा और हमास ७॥ दिन वाद आप के कुल में केतु समान और कुल दीपक, कुल पर्वत, कुलअवनंसक, कुलतिलक कुलकीर्तिकर कुलवृत्तिकर, कुलदिनकर कुलाधार कुलनंदिकर ( आनंद देने वाला ) कुल यश वर्धन कुलपादप (वृक्ष ) कुल वृद्धिकर इत्यादि गुणों वाला सुकुमाल हाथ पेरवाला, अहीन प्रतिपूर्ण पांचेंद्रिय शरीर वाला लक्षण व्यंजन गुणों से युक्त मान उन्मान प्रमाण (जिस का वर्णन पूर्व में पृष्ट पर कहा है ) प्रतिपूर्ण सर्वांग वाला चंद्र समान सौम्य कांत प्रिय दर्शन अच्छे रूपवाला खुबसूरत पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी. सेविय णं दारए उम्मुक्कवालभावे विनायपरिणयमित्ते जुब्बणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विकंते विच्छिन्नविपुलवलवाहणेचाउ रंतचकवटी रज्जवई राया भविस्सइ. जिणे वा तिलोगनायगे धम्मवरचाउरंतचकवट्टी ॥ ७६ ।।। वह पुत्र वालावस्था छोड कर युवक होनेपर विज्ञान की प्राप्ति से शूरवीर विस्तीर्ण विपुल सेना वाहन का मालिक होगा और वह चक्रवर्ती राजा की पदवी पावेगा अथवा तीन लोक के नाथ धर्म चक्रवर्ती तीर्थंकर प्रभु होंगे. तं उराला णं देवाणुप्पिया ! तिसलाए खत्तियाणीए सुमिणा दिट्ठा, जाव आरुग्गतुहिदीहाऊकल्लाणमंगल्लकारगा एं देवाणुप्पिा !तिसलाए खत्तियाणीए सुमिणा दिवा॥८॥ __ इसलिये पुण्यवती त्रिशला देवी ने जो स्वप्न देखे हैं वे निरोगता दीर्घायु संतोप देने वाले कल्याण मंगल करने वाले स्वप्न देखे हैं. तएणं सिद्धत्थं राया तेसिं सुमिणलक्खणपाढगाणं अंतिए एयमढे सोचा निसम्म हटे तुढे चित्तमाणंदिते पीयमणे परमसोमणसिए हरिसवसविसप्पमाणहिए करयलजाव ते सुमिणलक्खणपाढगे एवं वयासी ॥१॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) ऐसा स्वप्नों का फल सुनकर सिद्धार्थ राजा संतुष्ट होकर स्वप्नों के शास्त्रों को जानने वाले पंडितों के पास आकर हाथ जोड़ प्रसन्न चित्त से वोला. एवमेवं देवाप्पिया ! तहमेव देवाप्पिया ! अवितहमेयं देवापिया ! इच्छियमेयं० पडिच्छियमेयं० इच्छियपडिच्छियमेयं देवापिया ! सच्चे णं एसमट्ठे से जहेयं तुम्भे वयह त्तिकद्दु ते सुमि सम्मं पडिच्छाइ, पडिच्छित्ता ते सुविणलक्खणपाढए विउलेणं असणं पुष्पवत्थगंध मल्लालंकारेणं सकारेइ, सम्माणेइ, सकारिता सम्माणित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दल दलइत्ता पडिविसज्जइ ॥ ८२ ॥ हे देवानुयि विद्वानगण ! आपने कहा है सो सब सत्य है जरा भी झंड उस में नहीं हैं मेरा इच्छित है मैं उसीकी प्रार्थना करता हूं जैसे तुमने कहा है ऐसा ही फल होगा. इतना कह कर फिरसे स्वप्नों का फल विचार कर याद करे. और इस के बाद राजा उन पंडितों को खाने पीने की वस्तुएं और पुष्प वस्त्राभूषण गंधमाला वगैरह उनकी जिंदगी पर्यंत चले इतना धन सत्कार बहु मान करके दिया और नमस्कार कर उनको जाने की आज्ञा दी. तणं से सिद्ध खत्तिए सीहासपात्रो अभुट्ठेड़, - भुट्ठित्ता जेणेव तिसला खत्तियाणी जवणियंतरिया तेऐव उवागच्छर, उवागच्छित्ता तिसलं खत्तियाणीं एवं वयासीं ॥८३॥ एवं खलु देवाप्पिया ! सुमिणसत्यंसि वायालीसं सुमिया तीसं महासुमिया जाव एगं महासुमिण पासित्ता पडिबुज्यंति ॥ ८४ ॥ इमे तुमे देवाप्पिए ! चउद्दस महासुमिणां दिहा, तं उराला गं तुमे जाव - जिणे वा तेलुकनायेंगे धम्मवरचाउरंतचकवट्ठी ॥ ८५ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) ज्योतिषियों के जाने बाद राजा खड़ा होकर त्रिशलादेवी के पास आकर बोले हे देवानुभिये ! ज्योतिषियों ने जो कहा है कि ३० स्वप्न उत्तम है और उसमें से १४ स्वप्न तीर्थंकर की माता तीर्थंकर के गर्भ में आने बाद देखती है और पीछे जागृत होती है वो सब बातें तेने सुनी है इसलिये तेरे को धर्म चक्र वर्ती तीर्थंकर पुत्र रत्न होगा. तणं सा तिसला खत्तियाणी एचमहं सुच्चा निसम्म हट्ठतु जाव- हयहिया, करर्यलजाव ते सुमिणे सम्मं पडिच्छन् ॥ ८६ ॥ पडिच्छित्ता सिद्धत्थेणं ररणा अम्भणुन्नाया समाणी नाणामणिरयण भत्तिचित्तायो भद्दा सणाद्यो ऋभुट्ठित्ता चतुरियं अचवलं असंभताए अविलंविधाए रायहंगसरिसीए गईए जेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छड़, उवागच्छित्ता सयं भवणं अणुविद्या ॥ ८७ ॥ त्रिशलारानी उन स्वप्नों के उत्तम फल सुनकर प्रसन्न चित होकर हृदय में फिर से धारकर सिद्धार्थ राजा की आज्ञा लेकर मणि सुवर्ण रत्नों से बना हुआ भद्रासन से उठकर अत्वरित, अचपल असंभ्रांत अविलंब राज हंसी की चाल से चलकर अपने वाम भवन में गई ( और आनंद से दिन व्यतीत करने लगी ) जप्पभिड़ं चणं समणे भगवं महावीरे तंसि नायकुलंसि साहरिए, तप्पभिड़ च णं वहवे वेसमणकुंडधारिणो तिरियजंभगा देवा मुक्कवयणं से जाई इमाई पुरापोराणाई महानिहागाई भवंति, तंजहा पहीण सामिया पहीणसेउचाई पही गुत्तागाराई, उच्छिन्न सामिचाई उच्छिन्न से उच्चाई उच्छिन्नगुतागाराडं गामागरनगरखेडकञ्चडमडव दोष मुहपट्टणासमसं Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३ ) पाह सन्निवेसेसु सिंघाडएसु वा तिएसु वा चउकेसु वा चचरसु वा चउम्मुहेसु वा महापहेसु वा गामहाणेसु वा नगरहाणेसु वा गामणिद्धमणस् वा नगरनिङमणेस वा प्रावणेस वा देवकुलेसु वा सभासु वा पवासु वा पारामेसु वा उज्जाणेसु वा वणेसु वा वणसंडेसु वा सुसाणसुन्नागारागिरिकंदरसंतिसेलोवट्ठाणभवणगिहेसु वा सनिक्खित्ताई चिट्ठति, ताई सिद्धस्थरायभवणंसि साहरांति ॥८॥ महावीर प्रभु निसदिन से त्रिशला देवी के उदर में आये उसदिन से उन के पिता सिद्धार्थ राजा के कुल में इंद्र महाराज की आजा से कुबेर तोगपाल तिर्यन जंभक देव द्वारा स्वामी रहिन धन के देर जो पूर्व में किसी ने कहां भी स्थापन किये है वे बहुत धन को मंगाकर रखावे जो धन का स्वामी मरगया हो, धन स्थापन करने वाले मरगये हो उनके हकदार गोत्री भी मरगये हो स्वामी का कोई भी रहा न हो ढालने वाला का भी कोई न रहा हो गोत्री के कुनवा का भी कोई न रहा हो ऐसा निवंशों का धन जिस जगह पर हो वहां से लाकर तिर्यक जंभक देव सिद्धार्थ राजा के घर में रखे. जगह के नाम । गांव नगर खा ( छोटा गांव ) कर्बट ( ) मंडप द्रोण मुस (नंदर ) पट्टण, मसाण स्थान, संबाह ( सला) मंनिवेश (प) वगरह जगह पर से अथवा सिंबाटक ( त्रिकोण स्थान ) में अथवा नीन रस्ते जहां मिले यहां चौक में, जहां बहुत रस्ने मिल वहां, चार मुख वाला स्थान में, अथवा राजमार्ग से, गांव स्थान नगर स्थान से, नगर का पानी जाने का रास्ते से, दुकानों से, मंदिरों से, सभा स्थान मे, पानी पाने की जगह से, आगम से, उद्यान से, वन से, वनखंड से, श्मशान से, फूटे हटे घरों मे, गिरि गुफा, पर्यन के घर, शांति घर वगैरह अनेक स्थान जहां रिलकुल वस्ती न हो वहां से धन उठाकर लाफर रखने लगे. जं रयणिं च णं समणे भगवं. महावीरे नायकुलंमि.सा. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) हरिए, तं रयाणि च णं नायकुलं हिरणेणं वड्ढित्था सुवणेणं वड्ढित्था धणेणं धनेणं रज्जेणं रद्वेणं वलेणं वाहणं कोसेणं कोट्टागारणं पुरेणं तेउरेणं जणवएणं जमनाएणं वड्ढित्था, विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तिय संखासेिलप्पवालरत्तरयणमाइएणं संतसारसा वइज्जेणं पीइसकारसमुदएणं अईव २ अभिवदित्था, तरणं समणस्स भगवच्यो महावीरस्स श्रम्मापिऊणं श्रयमेयारूवे अव्मत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकपे समुप्पज्जित्धा ॥ ८ ॥ जप्पभिहं च णं म्हं एस दारए कुच्छिसि गव्भत्ता ए वक्रेते, तप्पभिडं च णं अम्हे हिरण्णं वड्ढामो सुवरणेणं धणेणं धन्नेणं रज्जेणं रणं बलेणं वाहणं कोसेणं कुट्ठागारेणं पुरे तेरे जणवएणं जसवाएणं वड्ढामो, विपुलधण कणगरयणमणिमुत्तिय संख सिलप्पवाल रत्तरयणमाह एवं सेतसारसावइज्जेणं पीइसकारणं ईव २ भिवड्ढामी, तं जया णं म्हं एम दारए जाए भविस्स, तया सां ग्रम्हे एयस्स दारगस्स एयाणुरुवं गुरुणं गुणनिष्पन्नं नामधिज्जं क रिस्सामा वद्धमाणुति ॥ ६० ॥ June 3 जिस समय सिद्धार्थ राजा के घर को महावीर प्रभु आये उस समय से सिद्धार्थ राजा के कुल में हिरण्य (चांदी) सुवर्ण, धन, धान्य, राज्य, राष्ट्र (देश) बल, वाइन, कोश, कोठार, नगर, अन्तःपुर ( रानिओं का परिवार ) जनपद यशोवाद की वृद्धि हुई. उसके साथ घन, सुवर्ण, रत्न, मोती, शंख, शिला, (चांद) पदवी का मान मुंगे, रक्त रत्न ( माणिक ) वगैरह उत्तांतम वस्तु (धन धान्यादि सब सारे रूप ) से और प्रीति सत्कार निरन्तर अतिशय बढ़ने लगे. ऐसी वृद्धि होती देखकर महावीर प्रभु की माता और पिता के हृदय में Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) ऐसा विचार हुवा कि ऐसी उत्तमोत्तम वस्तु बढती है वो प्रताप सब गर्भ का है इसलिये गुणों के साथ मिलता पुत्र का जन्म होने पर वर्द्धमान (वृद्धि करने पाला ) नाम रखेंगे. तएणं ममणे भगवं महावीरे माउग्रणुकंपणछाए निचले निप्पंदे निरयणे अल्लीणपल्लीणगुत्ते श्रावि होत्था ।। ६१ ॥ महावीर प्रभु की मातृ भक्ति ।। महावीर प्रभु ने माता की भक्ति से उसकी कुति में कोई भीतर दुःख न हो इसलिये निश्चल निष्का स्थिर होकर अंगोपांग को हिलने बंध किये (जैसे कि एक योगी समाधि लगाकर बैठना है ). नएणं तीसे तिप्तलाए खत्तिपाणीए अयमेयारूवे जाव संकपे समुपज्जित्था-हडे मे से गमे, मडे मे से गठभे, चुए मे से गम्मे; गलिए मे से गमे, एम मे गम्भे पुदि एयइ, इ. याणिं नो एयइ तिकटु ग्रोहयमणसंकप्पा चिंतासोगसागरसं: पविठ्ठा करयलपल्हत्थमुही अट्टज्माणोवगया भूमीगयदिट्ठिया झियायइ, तंपि य सिद्धत्थरायवरभवणं उबरयमुइंगतंतीतल. तालनाडइज्जजणमराज्जं दीणविमणं विहरइ ।। ६२ ॥ ___ अपने गर्भ को हिलना नहीं देखकर त्रिशला माना को इस तरह मनमें विचार हुवा कि मेरा गर्भ किसी ने हरण किया, मेरा गर्भ परगया, मंग गर्भ पड़ गया, मेरा गर्भ प्रवाही होकर निकल गया क्योंकि थोड़ी देर पहले हिलना था अब नहीं हिलना से मनमें संकल्प करके शुन्य होकर चिंना समुद्र में होकर हथेली में मुख स्थापन करके आर्न ( संताप ) श्यान में स्वकर पृथी नरफ दृष्टिकर विचार करने लगी यहां ग्रंथकना बादामा दुःग का वर्णन करने हैं. में निर्भागिणी हं मेरे घर में निधान (पन भंडार ) फलों में गमन Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) कि दुर्भागी दरिद्री के हाथ में चिंतामणी रत्न नहीं रहता ऐसेही मेरे घर में ऐसा पुत्र रत्न कहां से रह सकता है. अरे देव ! मेरे मन रूप भूमि में अनेक मनोरथ रूप कल्पवृक्ष उत्पन्न हुआ उसको तैने जड़ों से ही काट डाला अर्थात् पुत्र होने बाद जो सुख मिलने की उम्मेट थी वो सब नष्ट होगई. हे देव ! तेने मुझे मेरु पर्वत पर चढाकर नीचे गिरादी अर्थात् मुझे उंची आशाएं कराकर आशाएं सब भ्रष्ट कर डाली. हे देव तेरा क्या दोष है ! मैंने पूर्वभव में ऐसे अघोर पाप किये होंगे, छोटे बच्चों को उसकी माता से दूरकर दूध पिलाने में वियोग कराया होगा तोते चकवा कबूतर वगैरह को पांजरे में डाले होंगे वाल हत्या की होगी शोकिला पुत्र को मराया होगा, कोई के चालक को गाली दी होगी अपने पति को छोड़ दूसरे का संग किया होगा किसी को जूठे कलंक दिये होंगे ! सति साध्वी साधु को संताप दिया होगा नहीं तो ऐसे दुखों का देर मेरे शिर पर कहां से आता! हे सखि ! मैं जानती थी कि मैंने चौदह स्वप्न देखे हैं तो सर्वत्र पूजित पुत्र को जन्म दूंगी किंतु वो सब निष्फल होगये मनके मनोरथ मनमें ही रहगये. अब मैं कहां जाऊं किस के आगे दुःख कहुं ? धिक्कार हो ! ऐसा क्षणिक मोहक संसार सुख को। हे सखी ! दोष किसको देना ! मैंने पाप किये होंगे उसका फल जो दुर्दैव है उससे विचार करना भी फुकट है. घुबड पक्षी दिन में न देखे तो मूर्य का क्या दोष ? वसंतु ऋतु में केरडा को पान न आवे तो वसंत का क्या दोष है. हं सखी आप जाओ विघ्न शांति के लिये कुछ उपाय करो ! मंत्र वादिओं को शुलाओ क्योंकि मेरा गर्भ पहिले हिलता था अब नहीं हिलता इसलिये मैं जानती हूं कि उसकी कुछ भी हानि हुई होगी. , इस बातको सुनकर सखिये सिद्धार्थ राजा को कहने को दोड़ी. सिद्धार्थ राजा भी वह अमंगल सूचक बात सुनकर उदास होगया और मृदंग वीणा वगेरह अनेक वार्जित्रों से जो सभा गाज रही थी वह भी वन्द होगया सर्वत्र शून्य दीखने लगा और उपाय करने लगे ). Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गली होकर रात अब हिलालने से मुझे (७७) तएणं से समणे भगवं महावीरे माऊए अयमेयारूवं अमस्थिनं पत्थिनं मणोगयं संकप्पं समुप्पन्नं वियाणित्ता एगदेसेणं एयइ, तरणं सा तिसला वत्तियाणी हट्टतुट्ठा जाव हयहिअया एवं वयासी ।। ६३॥ ' माता पिता की इतनी पुत्र की तरफ स्नेह दृष्टि देख कर उनका दुःख को समझकर उनका दुःख निवारणार्थ जरा हिले, हिलते ही माता को गर्भ का सचेतन पना देखकर हर्प तुष्टि से हृदय भरजाने पर इस तरह बोली । , मेरा गर्भ हिलता है इसलिये वह जीवित है किसीने उसका हरण नहीं किया न मरगया है न नाश हुआ है क्योंकि पूर्व में न हिलने से मुझे अंदेशा पहा था कि उसका नाश होगया होगी परन्तु अब हिलता है इसलिये वह जिंदा है ऐसा कहकर प्रसन मुख वाली होकर फिरने लगी ( सबकी चिंता भी साथ दूर होने से पूर्व की तरह वाजिंत्र गायन होने लगे ). नो खलु मे गम्मे हडे जाव नो गलिए, मे गम्भे पुबिनो एयड़, इयाणिं एयइ तिकटु हट्ठ जाव एवं विहरह, तरणं समणे भगवं महावीरे गभत्थे चेव इमेयारूचं अभिग्गहं अभि. गिरहइ-नो खलु से कप्पइ अम्मापिगंह जीवंतहि मुडे भवित्ता अगाराभो अणगारिश्र पवइत्तए । ६४ ॥ . (सब को आनन्द हुआ परन्तु महावीर प्रभु को मन में विचार हुआ कि शल्यकाल मेग हिलना बंद हुवा तो ऐसा उन्होंने दुःख पाया तो मैं दीवा लेगा तो मेरे वियोग से मानायंगे ऐसा विचार हाजाने से ) मनिज्ञा ( अभिग्रह) लिया कि मैं उनको वियोगी न बनाउंगा जहां तक वे जीवित है वहां तक उन को लोड दीक्षा नहीं लगा न गृहवास छोडंगा. तएणं सा तिसला खतियाणी राहाया कयवलिकम्मा क. यकोउयमंगलपायच्छित्ता सबालंकारविभसियानं गभं नाइ. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) सीएहिं नाइउण्डेहिं नाइतित्तेहिं नाइकडुएहिं नाइकमाइएहिं नाइअंबिलेहिं नाइमहुरेहिं नाइनिहिं नाइलुक्खहिं नाइउल्ल हिं नाइसुक्केहिं सवृत्तुगभयमाणसुहेहिं भोयणच्छायणगंधमल्लेहिं ववगयरोगसोमोहभयपरिस्समा जं तस्स गम्भस्स हिअंमि यं पत्थं गम्भपोसणं तं देसे अकालेअाहारमाहारेमाणी विवित्तमउएहिं सयणासणहिं पइरिकसुहाए मणोष्णदूलाए विहारभूमीए पसत्थदोहला संपुण्णदोहला संमाणियदोहला अविमाणिप्रदोहला वुच्छिन्नदोहला ववणीअदोहलासुहंसुहेणं प्रासइ सयइ चिट्ठइ निसीआइ तुयट्टइ विहरइ सुहंसुहेणं तं गम्भ परिवहइ ॥६५॥ उसके बाद त्रिशला क्षत्रियाणी गर्भ रचार्य स्नान कर देव की पूजा कर कौतुक मंगल के चिन्द से विघ्नों को दूर कर सब अलंकार वस्त्रों को पहरकर आनन्द में रहने लगी और बहुत ठंडे वा बहुत गरम वा बहुन तांग्वे, बहुत कहर . बहुत कपायले, बहुत खट्टे, वहुत मीठे, बहुत घी तेल वाले चीकटे, वहुत लूख, घहुन हरे, बहुत मुम्बे, ऐसे पदार्थों को खाना छोड दिया और ऋतु अनुसार अनुकूल भोजन वस्त्र गंधमाला उपयोग में लेने लगी और रोग शोक मोह परिश्रम को छोड दिये ऐसे वैद्यक रीति अनुसार पथ्य हित परिणामयुक्त (थोडा) भाजन गर्भ की पुष्टि देने वाला खाने लगी और योग्य वस्तु भोगने लगी नि- , ोप कोमल शय्या जो एकांत सुख देने वाली हो, और हृदय को प्रसन्न करने वाली विहार भूमि (अनुकूल जग्या में ) फिरने लगी. छ ऋतु में उपयोगी चीज । वर्षा ( चौमास ) में लूण, ( नमक ), शरद ऋतु में जल, शिशिर में खट्टा रस, वसंत में घी, ग्रीष्म में गुड़ वगैरह अनेक उपयोगी चीज उपयोग में लेनी ।। क्योंकि गर्भवती स्त्री अयोग्य वस्तु को खावे वा अयोग्य वस्तु का उपभोग में लेवे तो नीच लिखे हुए दोपों की उत्पनि होनी है. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... स्त्रियों के लिये प्रसंगानुसार हित शिक्षा कहत है:-वायु पिच कफ की वृद्धि होत्र ऐमा याहार नहीं खाना गर्भ मालूम पहने बाद ब्रह्मचर्य पालना चाहिये नहीं तो गर्भ को हानि होती है, दिनको नींद नहीं लेनी आंख में अंजन नहीं डालना, रोना नहीं, बहुत बोलना नहीं, बहुत हंसना नहीं, तेल से मर्दन कराना नहीं, पहुत स्नान नहीं करना नख नहीं कटाना बहुत कथाएं नहीं सुननी, जल्दी चलना नहीं, अग्नि के ताप में नहीं बैठना क्योंकि वैद्यक शास्त्र में कहा है कि जो गर्भवती दिन को सोवे तो बच्चा बहुत निद्रा लेने वाला होता है, स्त्री अंजन करे तो अन्धा होवे, तेल मर्दन से बच्चा कोह रोग वाला होवे, नख उतराने से नख रहित अर्थात् हीन नख वाला होता है. रोने से यांख का रोगी बच्चा होता है. नोड़ने से चपल लड़का होता है अथवा गर्भपात होजाता है, स्त्री के इंसने से बालक के जीभ होठ दांत काले होते हैं, बहुत बोलने से लड़का मुखर (बहुन बोलने वाला ) होता है बहुत कथा सुनने से बहग लड़का होना है, पंखा वगैरह से पवन खाने से बालक . शून्य होता है. तीखे भोजन से बालक का मुख बास मारता है. कहुए भोजन से बालक दुर्वल होता है कसायला भोजन से उदानवर्त वायु का रोग अथवा नेत्र रोगी होता है. ग्वट्ट भोजन से रक्त पित्त होये मीठे भोजन से बालक मूर्ख होता है. खारे (लवण जिसमें अधिक हो ) भोजन से वालक को सफेद बाल शीघ्र आते हैं अथवा बहरा होता है. ठंडे भाजन से वायु गंगी होवे उष्ण भोजन से बालक निर्बल होता है पथुन (पुरुष संग से, दोड़ने से पेट मसलने से, मोरी उल्लंघन करने मे ऊंची नीची जमीन पर सोने से नीसरणी उपर चढ़ने से, अस्थिर (ऊकडा ) श्रासन पर बैंठन स उपवास करने मे उलटी ( वमन से )वा जुलाब लेने से गर्भ का नाश वा गर्भ को हीनता होती है. माता के दाहले। त्रिगला रानी को जो दोहले उत्पन्न हुए वे सब उत्तम थे वे सब पूरे किये और ये भी इच्छानुमार पूरे किये जमे कि सुपात्र का दान देना, स्वधर्मी का पोपण करना, पृथी में अपने द्रव्य से लोगों को ऋण मुक्त करना, धर्मशाला अनाना, जीवों को अभरदान देना, याचकों को इन्टिन टान देना टानमाला पनाना, बादलों की जुबाना, तीर्थयात्रा करना, उत्तम ध्यान करना वनर Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) सर्वोचम दोहले हुए वे सब पूर्ण होजाने बाद उस त्रिशलादेवी का चित्र प्रसन्न होजाने से गर्भ के रक्षण में स्थिर चित्त होकर सुख से आश्रय लेती हैं सुख से सोनी है सुख से खड़ी होती है सुख से बैठती हैं सुख से शय्या में लौटती है मुख से भूमि पर पैर बरती है और गर्म का अच्छी तरह से रक्षण करती है. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जे से गिम्हाणं पढमे माझे दुबे पक्खे चित्तसुद्धे तस्स णं चिचसुद्धम्स तेरसीदिवसेणं नवराहं मासाएं बहुपडिपुराणं चट्टमाणं राइंद्रियाणं विक्कंताणं उचट्ठाए गएसु गहसु पढमे चंदजोए सोमासु दिमासु वितिमिरासु विसुद्धासु जड़एसु सव्वसउणेसु पायाहिणाणुकूलंसि भूमिसपिसि मारुयंसि पवायंसि निष्फन्नमेइणीयंसि कालसि पमुझ्यपक्की लिए जणवएसु पुव्वरत्तावरतकालसमयंसि हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएवं आरुग्गा रुगं दारयं पयाया ॥ ६६ ॥ वो समय वो काल श्रीभगवान् महावीर ग्रीष्म ऋतु पहिला मास दूसरा पत्र चैत्र सुदी त्रयोदसी नवमास पूरे होने बाद साडे सात दिन जाने बाद उच्च स्थान में ग्रह आने पर चंद्र नचत्र उत्तर फाल्गुनी का योग आने पर दिशाओं में सौम्यता होजाने पर अन्यकार दूर होने पर धूल वगैरह तोफान से रहित, पक्षिओं से जय जयाख निकलने पर सर्वत्र दृष्टि हवा की अनुकूलता अनाज के खतर सर्वत्र भरे हुए थे और पृथ्वी को नमस्कार प्रदक्षिणा करने की तरह पवन चल रहा था सब लोग मुखी दीखते थे ऐसे उत्तम मुहूर्त नक्षत्र योग आनंद के समय पर मध्य रात्रि में भगवान के जन्म कुंडली में उच्च ग्रह गये क्योंकि तीन ग्रह उच्च के हो तो राजा, पांच ग्रह से वासुदेव छः ग्रह उच्च हो तो • चक्रवर्ती और सान हो तो तीर्थकर पढ़ पाता है. तीर्थंकर महावीर प्रभु का ग्रह स्थान । सूर्य मेश राशि का, चन्द्र वृषभ राशि का मंगल मकर राशि का, बुध बृहस्पति कर्क राशि का शुक्र मीन राशि का, शनि तुला राशि का कन्या का - Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) ऐंस सात ग्रह उपरांत राहु मिथुन गगि का उच्च स्थान में भागया व मध्य रात्रि में मकर लग्न में मधरात को सर्वत्र उद्योत करके नारकी के जीवों को भी दो घड़ी नक मुग्छ होने पर माता त्रिशला देवी ने महावीर प्रभु को जन्म दिया. चौथा व्याख्यान समाप्त । जं रयाणं च णं समणे भगवं महावीरे जाए, सा एं रयणी वहहिं देवेहि देवीहि अोवयंतेहिं उप्पयंतेहि य उणिज लमाणमूत्रा कहकहगभूषा प्रावि हुत्था ।। ६६ ब ।। . जिस रात्रि में भगवान महावीर का जन्म हुआ उम रात्रि में बहुत से देव देवी पाने से और जाने से सर्वत्र आनंद व्याप रहा दीग्वना या और अस्पष्ट उच्चार से हर्प के आवाज आरहे थे. प्रभु का जन्म महोत्सव । प्रभु के जन्म समय दिशाएं हर्पित होगई ऐसा दिखने लगा मंद मंद सुगंधी वायु चलने लगा तीन जगत में उद्योन होगया, आकाश में देव इंदुभी ( एक जात का देवी वाजिंत्र ) वजने लगी नग्क के नीनों को भी योदी देर तक शानि होगई पृथ्वी रोमांचित दीखने लगी. ५६ दिक्कुमारियों का उत्सव । अधोलोक की माठ भोगकग, भोगवती, मुभागा, भोग मालिनी, सुबत्सा, वत्समित्रा, पुष्पमाला, आनंदिता, देविएं आसनकंप से उपयोग टेने गे भवधि मान द्वारा प्रभु का जन्म जानकर आई और माता को नमस्कार कर इशानकोण में मृति का ग्रह बनाकर एक योजन की जमीन संवर्त वायु मे शुद्ध की मेएफरा मेघवती, सुमेघा, मेघ मालिनी, तोयधारा विचित्रा वारिपेणा, बलात्का, ये आठ उप्रलोक से पाकर देवीयों ने नमस्कार फर सुगंधी जल पुष्प की ष्टि की. ___ नंदामरा, नंदा, आनंदा, नंदिवर्धना, निमया, वैजयंनी, जयंनी, अपराजिना भाठ दिनकुमारी पूर्व रुप मे आकर नमस्कार कर दर्पण पर दी गी. . की. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) ममाहाग, सुपढना, सुप्रबुद्धा, यशोधग, लन्मीवनी, शेपवनी, चित्रगुप्ता, वमुंबग, दक्षिण स्चक से श्राकर नमस्कार कर म्नान कगने को जल में भरा हुया कलश लेकर गीत गान करने लगी. ___ इला देवी, मुनदेवी, पृथ्वी, पद्मायनी, एकनामा, नत्रमिका, भद्रा, मीना, पश्चिम रुचक्रम प्राकर नमस्कार कर हाय में पंवा कर पवन डालने को बड़ी रहकर गीन गान करने को लगी. __ अलंकुशा मिनकशी, पुंडनिका. वामणी, बामा, मर्व प्रमा, श्री, ही आठ उत्तर रुचकसे आकर नमस्कार कर चामर विजन लगी चित्रा, चित्रकग. गतरा, वमुदामिनी यह चार विडिक रुचकम आकर हाथों दीपक लकर खड़ी रही, और रुचक हैप से रूपा. स्यामिका, सुना, ल्यवनी, चार देवीएं आकर चार आंगुल रखकर बाकी की नाल के कर नजदीक में गडा बोडकर उसमे डाल कर वैर्य ग्न्न का चीनरा बना लिया और द्रोड से बांध लिया, जन्म गृह में पूर्व दक्षिण, उत्तर तीन दिशा में नीन कल के गृह बनाकर दक्षिण के घर में माना पुत्र दोनों को नेल से मालिस (मर्दन ) किया पूर्वक घर में लजाकर स्नान कराया, और कांड आभूषण पहाय, उत्तर के घर में लेजाकर अरणी के काष्ट मे अग्नि जलाकर चंदन का होमकर रक्षा बनाकर पोटली बांध दी और मणि ग्न्न के दो गोल टकराकर कहा कि हे वीर आप पर्वत जितन आयु वाले हो इस नाह मूनिका कर्मकर माना पुत्र को उनके घरमें रखकर नमस्कार कर अपने स्थानों में चली गई. दरक देवी का परिवार चार हजार मामानिक देव, चार महत्तरा, १६हजार आ रनक, सात जानि की सेना और सनापनि, और दुसरं भी रिद्धि वाले देव गाय होते है और अभियोगिक वॉ ने बनाया हुया एक यांजन के विमान में बैठकर आये थे और चले गये. ६४-इन्द्रों का महोत्सव. इन्द्रों का प्रामन कंपने से वे जानते हैं और प्रथम देवलोक में हरिनगमपि देव इन्द्र महाराज के कईन से मुघोपा पंग वनाव जितसे ३२ लाख विमान के घंट वजन पर मब तैयार होकर इन्द्र के पास आकर खड़े हुए और पालकदव ने Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) पालन विमान बनाया. बीच में इन्द्र बैठा, और आठ अग्र महिपी (मुख्य देविएं ) के आठ भद्रासन सन्मुख बनाये थे डावी वाजू पर सामानिक देवों के ८४००० भद्रासन थे, दक्षिण बाजू में अभ्यंतर पर्पदा के १२००० भद्रासन मध्य पर्पदा के १४०००, बाहय पर्पदा के १६००० भद्रासन थे पीछली बाजू पर सात सेनापति के सात भद्रासन थे और चारों दिशा में ८४००० हजार ८४००० हजार यात्म रक्षक देवों के भद्रासन थे और भी कई देवों का परिवार इन्द्र के साथ बैठ गये और जव इन्द्र चला कि उनके साथ इन्द्र के हुकम से कितने देव चले, कितनेक मित्र की प्रेरणा से, कितनेक देवियों के अाग्रह से कितनेक अपनी इच्छा से, कितनेक कौतुक से कितनेक विस्मय से कितनक भक्ति से अपने नये २ वाहन बनाकर चलने लगे. और उनके वाजिंत्र घंटा नाद से और कोलाहल से ब्रह्माण्ड गाज रहा था. आपस में आनंद के लिये कहते थे कि आप अपना वाहन संभालो कि मेरा सिंह उन्मत्त होकर श्रापके हाथी को पीडा न करे. भोस वाला घोड़े वाले को कहता था, गरुड वाला सर्प वाले को, चित्रे वाला वकर वाले को, कहना था. इस तरह आकाश बहुत बड़ा होने पर भी देवो की संख्या ज्यादा होने से छोटा ( संकीर्ण ) दीखने लगा. जो देव जोर से चलते थे उनको दुसरं करने लगे कि मित्र ! मुझे छोड़ आप न जावे, किंतु हर्प से जाने की जल्दी से कॉन सुनता था, कोई को धक्का लगने पर दूसरे को उलम्भा देता था नो दृमग कहता था कि बन्धु ! इस समय पर लेश नहीं करना चाहिये. कवि की घटना। चंद्र के किरण जब उन देवों के मम्नक उपर आये नो निजादेव भी नग वाले अर्थात् बृहे धोले बाल वाले दीखने लगे, और ना मम्न उपर "मगारे" माफक और कंठ में मुक्ताफल की माला की तरह और गर्ग पर पीना क बिंदु माफक दीग्वने लगे दम तरह मब देव आने लगे. ___ पहिले माधर्म इन्द्र नंदीश्वर द्वीप में जाकर अपना यहून या मान को लोटा नाकर महावीर प्रभु के पास आकर तीन मदत्तिणा कर नमस्कार कर माना को फाने लगा। रन्नति ! तुझं नमाही में इन्द्र देन, आप Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) पुत्र रत्न का जन्म महोत्सव करने को आयी हूं आप बग्ना नहीं ऐसा कहकर माना को अवसर्पिनी निंद्रा दी और प्रभु का वि प्र के बदले म की माता के पास रखा और इन्द्र ने अपने पांच रूप बनाकर एकरूप से प्रभु को हाथ में लिये दो रूप से चंवर बीजने लगा, एकरूप से छत्र घरा और एक रूप से बच हाथ में लेकर आगे चलने लगा और परिवार के साथ मेरु पर्वत पर आया. दक्षिण भाग में पांडुक, वन में पांडुक बला शिला पाम गया, थोर शिला पर आसन लगाकर बैठा और गोद में प्रभु को रखा पीछे २० भवनपनि ३२ व्यंतर, १० वैमानिक और दो सूर्य चंद्र मिलकर ६४ इन्द्र थे आठ जाति के कला सुवर्ण चांदी, सुवर्ण रत्न, चांदी रत्न, सुवर्ण चांदी रत्न और मिट्टी के प्रत्येक १००८ एकहजार आठ की संख्या में लाकर रखे, सिवाय दर्पण, रत्न करंडक, सुप्रतिष्ठक थाल, चंगेरी वगैरह पूजा के उपकरण १००८ इकट्ठे किये और मागथ प्रभास वगैरह नीयों की मिट्टी और गंगादि नदियों का जल, पद्मादि सरोवर का और क्षुद्र हिमवंत, वैताढ्य विजय वक्षस्कार पर्वनों से कमल सरसों, फूल वगैरह पूजा की सामग्री प्रथम अच्युतेंद्र ने अभियोगिक देवों द्वारा मंगाकर पूजा की जब तैयारी की तब वहां खड़े हुए देव कलश हाथ में होने से ऐसे लगे कि जैसे तुंब के जरिये समुद्र तैरने को लोग तैयार होते हैं वैसेही देव कलश द्वारा संसार समुद्र तिरने को खड़े हैं अथवा अपना भाव रूप वृक्ष का मिंचन करने को तैयार होने के माफक दीखते थे इन्द्र ने प्रभु का अनंत चल न जानकर शंका की कि पानी बहुत और प्रभु का शरीर छोटा तां किस तरह वो इतना पानी सहन कर सकेंगे ऐसी अज्ञानता से इन्द्र ने विलम्ब किया, प्रभु ने इसका संशय दूर करने को दाहिने पैर के अंगठे से मेरु पर्वत का दवाया जिससे अचल पर्वत पूजने लगा कवि ने घटना कि प्रभुके स्पर्श से हर्पित होकर मेरू पर्वत भी ( नृत्य ) नाचने लगा पर्वत के घूजने के कारण उस पर के दृच और शिक्षाएँ गिरने लगी जिसे देख इन्द्र को भग हुवा कि ऐसे मांगलिक कार्य के समय यह अमंगल सूचक बातें क्यों होती हैं उसने अवधि ज्ञान का उपयोग दिया और सर्व बात को जानकर प्रभू का अतुल बल जानकर क्षमा मांग कर स्नान कराया वा अन्य इन्द्रों ने भी अभिषेक किया. • Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (<4) कवि घंटना. जिस समय प्रभू के शरीर पर चीर सागर का पानी आया तो वह श्वत छत्र समान दीखता था, मुख पर चन्द्र किरण समान, कंठ में हार समान शरीर पर वीन देश के रेशमी वस्त्र के समान वह कलशों में से निकल कर गिरता हुवा जल दीखता या ( वह जगत के जीवों का पाप संताप को शांत करो ) सर्व देवता और इन्द्रों के अभिषेक करलेने के पश्चात् अच्युतेन्द्र ने प्रभु को गोद में लिये, और शक्रेन्द्र ने चार वृषभ (बैल) के रूप धारण कर आठ सींगों से कलश के समान अभिषेक किया और पीछे शुद्धोदक से स्नान कराकर गंध कषायो ( अमूल्य कोमल दुवाल ) वस्त्र से शरीर को पूंछा. और गोशीर्ष चंदन से लेप किया, पुष्प से पूजा की मंगल दीपक और आरात्रिक ( आरती ) कर नृत्य, गति, बार्जित्र वजाकर मनु का जन्म महोत्सव किया पीछे प्रभू को रत्न की चौकी पर बिठा कर अष्ट मांगलिक चिन्ह चावल से किये, दर्पण, वर्धमान, कलश, मत्सयुगल ( ) श्रीवत्स्वस्तिक, ( सथीया ) बनाया और पीछे जिनेश्वर के गुणों की स्तुति की. इत्यादि प्रकार से प्रभु की पूजन तथा गुणगान कर २ प्रभु को पीछा माता के पास लाकर रक्खा और उस प्रतिबिंब को जो प्रभु लेजाने के समय माता के पास रखा था उसको उठाकर और माता की निद्रा दूर कर सिराणे की तरफ कुंडल का जोड़ा और उत्तम रेशमी वस्त्रों का जोड़ा रखा और ऊपर के चंदुवे में श्रीदाम, रत्नदाम, और सुवर्ण का दडा लगाया और वारह कोड सुवर्ण मुद्रा की वृष्टि की और फिर इन्द्र महाराजने अपने अभियोगिक देवों द्वारा उदघोषणा कराई ( हुंडी पिटाई ) कि जो कोई प्रभू का अथवा उनकी माता का अशुभ कर होगा तो उसके मस्तक के एरंड वृक्ष की भांति ७ टुकडे किये जायेंगे. पीछे प्रभू के अंगूठे में अमृत स्थापन कर इन्द्र सहित देवों का समूह नंदीश्वर द्वीप में गया और वहां आठ दिन कां अठाई महोत्सव कर अर्थात् आठ दिन तक जिनेश्वर के पूजन भजन इत्यादि कर अपने २ स्थान को गये. जं रयाणि च णं समणे भगवं महावीरे जाए तं रयणि च णं बहवे वेसमणकुंडधारी तिरियजंभगा देवा सिद्धत्थरायभवसि हिरणवासं सुवरणवासं च वयर वासं च वत्थवासे 1 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६ ) च प्राभरणवासं च पत्तवासं च पुष्पवासं व फलवासं च वीयवासं च मल्लवासं च गंधवासं च चुगणवासं च वरणवामंच वसुहारवासं च वासिंसु ॥ १७ ॥ जिस रात्रि में भगवान का जन्म हुवा उस रात्रि को इन्द्र की आज्ञा से कुवर लोक पाल के कहने मे तिर्यजभक देवाने प्रभू के पिता सिद्धार्थ राजा के भवन में हिरण्य, सुवर्ण, हीरा, वस्त्र, आभरण पत्ते, पुप्प, फल वीज माला मुगन्धी.चूर्ण वर्ण ( रंग ) और सुवर्ण मुद्रा इत्यादि उत्तम २ पदार्थों की दृष्टि की (अर्थान् उपयोगी वस्तुओं का ढेर करठिया ). तएणं से सिद्धत्थे खत्तिए भत्रणवड्वाणमंतरजोइसवेमा. णिएहिं देवेहिं तित्थयाजम्मणाभिसेयमहिमाए कयाए समाणीए पञ्चूसकाल समयसि नगरगुत्तिए सहावेइ सदावित्ता एवं वयासी ।। ६८॥ प्रभात के प्रहर में भवन वासी, वैमानिक, इत्यादि देवों का महान्सब हो जाने बाद प्रभू के जन्म होने के शुभ समाचार सिद्धार्थ राजा को मालुम हुवे तब सिद्धार्थ राजा अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने नगर के रक्षक (पुलिस के बड़े अफसर ) को बुलाकर इस प्रकार कहने लगा. (यहां पर विस्तार पूर्वक ग्रंथान्तर से सिद्धार्थ राजा के किये हुवे महोत्सव का वर्णन किया है ). प्रभू के जन्म के शुभ समाचार लेकर सिद्धार्थ राजा के पास प्रियंवढा नाम की दासी वधाई देने को गई तब सिद्धार्थ राजा ने प्रमोद से संतुष्ट होकर मुकुट छोड़ अपने सर्व आभूषण पुरस्कार स्वरूप देदिये और उसको आजन्म के लिये दासीपन दूर किया और अनेक महोत्सव करांय. . - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कुंडपुरे नगरे चारगसोहणं करेह, करिता माणुम्माणवद्धणं करेह, माणुम्भाणवद्धणं करिचा कुंडपुरं नगरं सम्भितरवाहिरियं आसियसम्प्रज्जियोव - Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७) लित्तं संघाडगतिगचउकचच्चर चउम्मुहमहापहृपसु सित्तसुइंससंमरत्थंतरावणवीहियं मंचाइमंचकलिश्रं नागाविहरागभूसिप्रज्झयपडागमंडि लाउल्लोइयमहिथं गोसीससरसरत्तचंददद्दर दिन्नपंचगुलितलं उवचियचंदणकलसं चंदणघडसुकयतोरण पडिदुवारदेसभागं श्रासत्तोसत्तर्विपुलवट्टवग्वारियमल्लदामकलावं पंचवरण सरससुर भिमुक्कपुंष्फ पुजोवगारकलिश्रं कालागुरुपवर कुंददुरुक्क तुरुक्कडज्मंतधूवमघमघंत गंधुडुग्राभिरामं सुगंधवरगंध गंधवट्टिभूयं नडनहगजल्ल मल्लमुट्ठियवेलंबगकहपाढगलासगच्या रक्खगलं खमखतूप इल्लतुंबवीणिय गताला यरागुचरिश्रं करेह कारवेह, करिता कारवेत्ता य जू सहस्सं मुसलसहस्सं च उस्सवेह, उस्तवित्ता मम एयमा - पत्तियं पञ्चपिह ॥ ६६ ॥ ॐ , नगर रक्षकों आज आप ( मेरे नगर ) क्षत्रिय कुंड में जितने कैदी हैं। - उन सर्व को कैद से मुक्त करे अर्थात् छोड़द और अनाज घी इत्यादि भोजन की वस्तुएं सस्ती चिकेँ ऐसी आज्ञा देदी ( दुकानदारों को कहदो की सस्ती बेचने से जो नुकसान होगा वह राज कोष से पूरा किया जावेगा और नगर में सर्वत्र सफाई कराके सफेदी कराओ लिपन कराओ और संघाट, त्रिक, चौक, चच्चर, चतुर्मुख महापथ इत्यादि शहर के भागों में सुगंधी जल का छिटकाव कराओ गंदकी दूर कराओ सर्व गलिएं स्वच्छ कराओ हरेक रास्ते के किनारे पर लोग अच्छी तरह बैठ कर देख सकें इसलिये मांचड़े बंधवाओ और सर्वत्र शोभायुक्त कराओ अनेक जाति के रंगों से रंगी हुई और सिंहादिक उत्तम चित्रों से चित्रित ध्वजा पताकाऐं रस्तों पर लगाओ गोवर से लेपन कराकर खडिया से सफेदी ऐसी कराओ जैसे पूजन के लिये कराया हो. गोशीर्ष चंदन, रक्त चंदन, दर्दर चन्दन से ( पहाड़ी) भीतों के उपर छापे लगाओ चंदन कलश पर छांटने छांट कर घरों के चौक में रखाओ और चन्दन छांट कर मट्टी के घड़े रखकर और तोरणें बांधकर घर के दरवाजे शोभायमान बनाओ - Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) लम्बी २ फूलों की माला लटका कर नगर का शोभायमान बनाया और पृथ्वी पर पांच वर्ष के फूलों के ढेर लगाओ. अगर, कुंदरू, तुम्ष्क, इत्यादि वस्तुओं के मुगन्धी धूपों से नगर मघमघाघमान मुगन्धी बनायो श्रेष्ठ सुगन्ध के चूर्णो से सुगंधित कगे अर्थात् नगर में ऐसी सुगन्ध आने लगे जैसे नगर सुगन्ध की बड़ी ही है. खेल का वर्णन. नाच कराने वाले, नाच करने वाले, डोरी उपर खेल करने वाले, मलयुद्ध मुष्टि युद्ध करने वाले, विदुपकों (मश्करों ) कूदने वाले, तिरने वाले, कय रसिक वार्ता कहने वाले, रास लीला करने वाले, कोटवाल ( ) नट, चित्रपट हाथ में रखकर भिक्षा मांगने वाले, तुणा बजाने वाले, वीणा घजाने वाले, ताली पाडने वाले. ऐसे अनेक प्रकार का रमत गमत से क्षत्रिय कुण्ड नगर को आनंदिन करो, कराओ और यह कार्य कराकर हल, मूसल, हजारों की संख्या में चलते हैं के बन्ध कराओ अर्यात् उनका कार्य निषेध करा कर शांति दो ( उसकी त्रुटी राना में पूरी होमी) एसी मेरी आत्रा है वैसा करके शीघ्र मुझे खबर दो. तएणं ते कोडुवियपुरिसा सिद्धत्थेणं रण्णा एवंवुत्ता समाणा हट्ठा जाव हिअया करयल-जाव-एडिसुणित्ता सिप्पामेव कुंडपुरे नगरे चारगमोहणं जाव उस्सवित्ता जेणेव सिद्धस्थे राया ( खत्तिए) तेणेव उवागच्छंति,उवगच्छित्ता करयल जाव कटु सिद्धत्यस्सरगणोएयमाणत्तियं पञ्चपिएंति ।।१००॥ ___उस समय सब बात मुनकर वे पुरुषों नी सिद्धार्थ राजा की आज्ञा शिर पर चहा कर हप से सन्तुष्ट होकर सब जगह जाकर जैसा राजा ने कहा था वैसा करा कर सिद्धार्थ राजा के पास आकर सिद्धार्थ राजा को सब बात सुनाई। तगणं से सिद्धत्थे राया जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवाग. न्छइ रचा जाव मवोरोदेणं सव्वपुष्पगंधवत्थमल्लालंकारविभू Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९) साए सब्बतुडिअसद्दनिनाएणं महया इड्ढीए महया जुइए महया बलेणं महया वाहणेणं महया समुदएणं महया वरतुडिअजमगसमगपवाइएणं संखपणवभेरिझल्लरिखरमुहिहुडुक्कमुरजमुइंगदुंदुहिनिग्घोसनाइयरवेणं उस्सुकं उक्करं उकिट्ठ अदिज्जं अमिज्जं अभडप्पवेसं अदंडकोदंडिमं अधरिमं गणि आवरनाडइज्जकलियं अणेगतालायराणुचरिअं अणु अमुइंग, (ग्रं. ५०० ) अमिलायमल्लदामं पमुइअक्कीलियसपुरजणजाणवयंदसदिवसं ठिईवडियं करेइ ।। तएणं से सिद्धत्थे राया दसाहियाए ठिईवडियाए वहमाणीए सइए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य जाए य दाए य भाए अदलमाणे अ दवावेमाणे अ, सइए अ साहस्सिए अ सयसाहस्सिए य लभे पडिच्छमाणे य पडिच्छावमाणे य एवं विहरई ॥ १०१ ॥ उस के बाद राजा अट्टनशाला में गया, जाकर मल्ल कुस्ती वगैरह कर स्नान कर अच्छे वस्त्र पहर कर अपने परिवार साथ, पुष्प वस्त्र गंध, माला अलंकार से शोभित होकर, सर वाजिंत्रों की साथ, बडी ऋर्दि से बडे धुनि से बडी सेना से, बहुत वाहन से, बडे समुदय से, खट् स्वर युक्त वाजिंत्र वाजते, संख प्रणव, भेरी झालर (घडीयाल) खर मुखी. हुढुक. ढोल, मृदग दुंदुभी के अवाज से शोभायमान राजा ने फिर कर जकात वेद की. कर बंद कीया, और लोगों को सूचना दी कि खाने पीने वाभोजन के लिये जो चीझ चाहे सो प्रसन्नचित्त होकर लोराजा उसका दाम देगा और अमूल्य वस्तुयें भी लो राजे के सीपाई किसी को भीन पीटे ऐसा बंदोवस्त किया दंड शिक्षा कडी केद शिक्षा बंद की और गाणकाओं से नृत्य कराएं वो देखने को सर्वत्र मनुष्य समूह इकट्टे हुए है और मृदंग बज रहे है खाली हुई विकस्वर मालाएं देख कर नगरवासी जन प्रसन्न होकर इधर उधर फिर कर आनंद क्रीडा करते है ऐसा दशदिवस का महोत्सव कुल मर्यादा से यथाविधि किया। दश दिवसों में राजा के रिस्तेदारों ने राजा को यथोचित भेट, नजर की Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (20) सी हजार, लाखों की गिनती में लोग बडे पुरुष दे जाते थे और राजा प्रसन्न चित्त होकर पात्रों को देता था और दान दिलाना था और पूजन करना था । ( यहां पर समयानुसार दान का वर्णन ) जिनेश्वर के मंदिरों में अष्ट प्रकारी २१ प्रकारी अष्टोतरी, शांति स्नात्र इत्यादि अनेक प्रकार की पूजाएं कराई क्योंकि सिद्धार्थ गजा पार्श्वनाथ प्रभु का परम श्रावक था । विद्यार्थीओं की पाठशाला वासस्थान, (बोर्डिग) पुस्तक का भंडार, अनाथाश्रम, विधवाश्रम व औषधालय अपंग पशु स्थान, कन्या विद्यालय श्राविकालय वगैरह उस समय के योग्य प्रजा के हितार्थ जो जो बातों की त्रुटी थी वे संपूर्ण की और अपने राज्य में कोई भी दुःखी न रहे ऐसा महोत्सव किया। तरणं समणस्स भगवो महावीरस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठिवडियं करिंति, तर दिवसे चंदसूरंदसयिं कः रिंति, छट्ठे दिवसे धम्मजागरियं करिंति, इक्कारसमे दिवसे विक्कते निव्वचिए सुइजम्मकम्मकरणे, संपत्त वारसाहे दिवसे, विउलं असणपाएखाइमसाइमं उवक्खडात्रिंति, उवक्खडावित्ता मित्तनाइनिययसयण संबंधिपरिजणं नाए य खत्तिए आमंतित्ता तय पच्छा रहाया कयवलिकम्मा कयको उमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई पवराई वत्थाई परिहिया अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा भोश्रण लाए भो - मंडवंसि सुहासणवरगया तेणे मित्तनाइनिययसंबंधिपरिजः नायएहिं खत्तिएहिं सद्धिं तं विउलं असण पाणखाइम साइमं यासाएमाणा विसाएमाणा परिभाषमाणा परिभुंजेमाया एवं वा विहरंति ॥ १०२ ॥ दश दिवसों का विशेष वर्णन | उस चक्न महावीर प्रभु का पिता सिद्धार्थ राजा प्रथम दिन में स्थिति पति Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ( कुल मर्यादा ) की तीसरे दिन को चंद्र सूर्य का दर्शन कराया। चंद्र सूर्य की दर्शन विधि। गृहस्थ गुरु ( संस्कार कराने वाला विद्वान् ब्राह्मण अर्हन् देव की प्रतिमा के सामने स्फाटिक रत्न वा चांदी की चंद्र की मूर्ति स्थापन करा के प्रतिष्टा पूजा करके माता और बालक को स्नान कराके अच्छे वस्त्र पहरा कर चंद्रोदय के समय रात्रि में चंद्र सन्मुख माता पुत्र को बैठा कर ऐसा मंत्र पढे।। __उँ चंद्रोसि, निशा करोसि, । नक्षत्र पति रसि, ओषधि गर्नोसि, अस्य कुलस्य ऋद्धि वृद्धिं कुरुकुरु ऐसा बोल कर ग्रहस्थ गुरु मात्रा पुत्र को चंद्र के दर्शन करावे औह नमस्कार करावे, पीछे गुरु आशीर्वाद देवे । सर्वोपधि मित्र मरिचिराजिः सर्वापदां संहरणे प्रवीणः । करोतु वृद्धिं सकले पिवंशे युष्माक मिंदुः सततं प्रसन्नः (१) सव औषधि युक्त किरणों का समूह वाला और सब दुःखों को दूर करने में निपुण, कलावान चंद्र निरंतर प्रसन्न होकर आपके वंश की वृद्धि करो। ___ जो चौदस वा श्रमावस्या के कारण अथवा बादल से चंद्र दर्शन न हो तोपूर्व में स्थापन की हुई चंद्र मूर्ति के दर्शन करावे पीछे वो मूर्ति को विसर्जन करे श्राज के समय में लोग में आरिसा ( आयना) के दर्शन कराते हैं चंद्र दर्शन बाद सूर्य दर्शन विधि । दूसरे दिन मभात में सूर्योदय के समय. सुवर्ण वा तांबे की मूर्य मूर्ति धना कर पूर्व की तरह स्थापन कर ग्रहस्थ गुरु इस तरह मंत्र पढे । ___आँ अहं सूर्योसि, दिन करोसि. तमो पहोसि, सहस्र किरणोसि, जगच- क्षुरसि, प्रसीद, अस्य कुलस्य तुर्टि पुष्टिं प्रमोदं कुरु कुरु ऐसा सूर्य मंत्र उच्चार फर माता पुत्र को सूर्य के दर्शन करावे नमस्कार करा कर गुरु आशीर्वाद देवे । सर्व सुरा सुर वंद्यः कारयिता सर्व धर्म कार्याणाम् । 'भूया स्त्रि जगच्चक्षु मंगल दस्ते सपुत्राय (१) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) यह श्लोक लौकिक रीति से लिखा दीखता है क्योंकि सब धर्म कार्य कराने वाला तीन जगत् को चक्षु रूप होने पर भी सुरों को सूर्य वंध नहीं होसक्ता क्योंकि वैमानिक देवों को सुर कहते है उनकी सिद्धि सूर्य से अधिक है इसकी अपेक्षा ज्ञानी गम्य है। ___ छठे दिनको जागरण महोत्सव क्रिया अग्यारवें दिन को सब अशुचि कार्य को दूर कर वारहवे दिनको महावीर प्रभु के माता पिता ने जिमन ( दावत) किया. जिमन में उस समय के अनुसार अशन लड्डु इलंबा कलाकंद वरफी खीर दुध पाक भजीए वगैरह अनेक जाति का भोजन. साथमें पीने का अनेक प्रकार का पानी, वा प्रवाही पदार्थ और मेवा द्राक्ष बदाम, पिस्ते, चारोली अनेक जाति के हरेक फल और स्वादिष्ट चूर्ण मसाले तैयार कराएं मंगाके रखे. रिस्ते दारों को आमंत्रण । भोजन तैयार होने वाद मित्र न्याति (विरादरी) निजक (एक कुनया के) स्वजन और उन सब का परिवार और " ज्ञात" वंशके क्षत्रियों को बुलाए, उन सब के आने पर स्नान कर देव पूजन का अनिष्ट विघ्नों को दूर कर अच्छे वस्त्रों को पहर कर, थोड़े वजन के और बहु मूल्य के आभूषण पहर कर सिद्धार्थ राजा और त्रिशला रानी दोनों ही भोजन के समय में भोजन मंडप में आकर सुखासन उपर बैठे-और जिनों का आमंत्रण दीया था, वे आजाने पर सबके साथ सब पदार्थों को खाये पीते स्वाद लेते (थोडा खाकर विशेप फेंकते शेरड़ी की तरह ) खजूर की तरह. अधिक खाते और थोड़ा फेंकते. कितने क पदार्थों को संपूर्ण खाते. और कितनेक पदार्थों स्वादिष्ट देखकर परस्पर देने का आग्रह करते थे अर्थात् मनुष्यों के साथ आनंद से सिद्धार्थ राजा और त्रिशला रानी ने भोजन किया [जैनी वा जेनेतरों में भोजन विधि और उसका स्वाद सर्वत्र प्रसिद्ध होने से विपेश लिखने की आवश्यकता नहीं है ] जिमिप्रभुत्तुत्तरा गयावित्रणं समणा श्रायंता चुक्खा परमसुइभूना तं मित्तनाइनियगसयणसबंधिपरिजणं नायए खत्तिए य विउलेणं पुप्फगंधवत्थमल्लालंकारेणं सक्कारिति Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) संमाणित सकारिता संमाणित्ता तस्सेव मित्तनाइ नियय सयणसंबंविपरियणस्स नायाणं खत्तित्राण य पुरत्रो एवं क्यासी ॥ १०३ ॥ जिमन हो जाने बाद सब आसन पर बैठे. और स्वच्छ पानी से मुंह स्वच्छ कर महावीर प्रभु के माता पिता ने मित्र नाति निजक स्त्रजन परिवार ज्ञात जाति के क्षत्रियों को बहुत से फूल फल गंध माला वस्त्र आभूषण वगैर से सत्कार और सन्मान किया, और उन सत्र के सामने अपना हार्दिकभाव जो पूर्व में निश्चित किया था इस प्रकार प्रकट किया. पुव्विपि णं देवापिया ! अम्हं एयंसि दारगंसि गब्र्भ वक्तंसि समासि इमेयारूवे अन्मतिथए चिंतिए जाव स. मुप्पज्जित्था - जप्यभिदं च णं म्हं एस दारए कुच्छिसि गभत्ताए वक्कंते, तप्पभिहं च णं अम्हे हिरणं बड्ढा मो सुवर येणं धणेणं जाव सावइज्जेणं पीइसक्कारेण श्रईव २ अभिवड्ढामो, सामंतरायाणो वसमागया य, तं जया एं - म्हं एस दारए जाए भविस्सह, तया णं अम्हे एयस्स दारगस्स इमं एाणुरूवं गुण्णं गुण निष्पन्नं नामधिज्जं करिस्सामो वद्धमाणुति ॥ १०४ ॥ हे हमारे रिस्तेदार स्वजन जाति वर्ग ! जिस समय से यह बालक गर्भ में या उसी समय से हमें हिरण्य सुवर्ण, धन धान्य राज्यादि सव उत्तमोत्तम वस्तुओं की और प्रीति सत्करार की अधिक वृद्धि होती रही है और सामंत राजा हमारे वंश में आगये. ता अज्ज म्ह मणोरहसंपत्ती जाया, तं होउ णं म्हं कुमारे वद्धमाणे नामेणं ॥ १०५ ॥ उससे हमारे मनमें ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि जब हमारे यह लड़के का Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) जन्म होगा तो हम उस बालक का नाम उसके गुणानुसार (गुणों को मिलता) नान वृद्धि करने वाला वमान नाम रक्खेंगे. आज हमारी यह अभिलाषा पूर्ण हुई है इसलिये आप लोगों के सामने हम इस बालक का नाम वर्तमान रखते हैं. लोगस्स में भी महावीर प्रभु का नाम बद्धमान कहा है. यया-मासंनइ बद्ध माणंच, पार्श्वनाथ और बर्द्धमान ] समणे भगवं महावीरे कासवगुत्तेणं, तस्स णं तो नानामधिज्जा एवमाहिज्जति, तंजहा-अम्मापिउसंतिए वद्धमाणे, सहसमुड़ाए समणे, अयले भयभेरवाणं परीसहोवसग्गाएं खतिखमे पडिमाण पालगे धीमं अरइरहमहे दविए वीरिअसंपन्न देवेहिं से नाम कयं 'समणे भगवं महावीरे ॥१६॥ · श्रयण भगवान् महावीर काश्यप गोत्र के तीन नाम प्रसिद्ध है मात पिता का दिया नाम, वर्द्धमान तप करने की शक्ति से दूसरा नाम श्रमण, और भयभीति में अचल और परिसह उपसर्ग ( दुःख विघ्न ) में धैर्य क्षमा रखने वाले और साधु प्रतिमा ( एक जाति के उत्कृष्ठ तप ) के पूर्ण पालक धी बुद्धि वाले. रति अरति सहन करने वाले द्रव्य (गुणों का स्थान ) पराक्रम वाले, होने से देवों ने नाम रखा, " श्रमण भगवान् महावीर" भगवान् का वीरतत्व का वर्णन । पील पीलोगा ( पेडपर कूदने का ) खेल जब प्रमुवालक थे उस समय परभी महान् तेज वाले थे कमल समान नेत्र वाले कमल समान सुगंधी श्वासो च्छास वाले, बन ऋपमनाराच संघयण वाले, सम चतुरस्त्र संस्थान वाले मुंगे समान होठ वाले दाडिम समान दांत वाले तीन ज्ञानके धारक थे प्रभु वहार खेलने को जाते नहीं थे खेलने भी नहीं थे हांसी भी किसी की नहीं करते थे घरमें ही चैठते थे एक समय माता ने पुत्र के भीतर के गुणों से वाकिफ नहीं होने से कहने लगी कि खेलने को भी बाहर जाओ ! माता को प्रसन्न करने को योग्य सोतियों के साथ खेलने गये और पेडपर चडना और कूदने की क्रीडा (खेल ) करने लगे. .. " Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) इंद्र ने उस समय बीर प्रभु की प्रशसा की कि छोटी उम्र में कैसे वीरत्व धारक है ! वो सुन कर एक तुच्छ हृदय वाले मिध्यात्वी देव को ast रोष हुआ कि मनुष्य में ऐसी धैर्यता कहां से होसक्ती है ! एक दम परीक्षा करने को वहां से उठा और रूप बदल कर छोटे बच्चे का रूप लेकर लड़कों के भीतर खेलने को लग गया पेड पर चढ़ते ही देव ने एक वडा सर्परूप लेकर पेड के आजु बाजु (चो तरफ ) लपेट गया दूसरे लडके तो कूद कूद के डर के मारे भागे परन्तु वीर प्रभु ने उस सर्प का मुँह पकड कर एक दम दूर फेंक दिया फिर देवता खेलने लगा और "हारे वो दूसरे को खंबे पर उठावे" ऐसी शरत मे खेलने लगे देवता जान कर हार गया और प्रभु जीत गये मान कर खंधे पर बैठाये और डराने को एक दम बड़े पेड़ जितना उंचा होगया लडके भागे परंतु वीर प्रभु ने ज्ञान का उपयोग कर जान लिया कि यह देव माया है जिससे उसको सीधा करने को दो चार गुक्कीएं मारकर अपना वीर्य बताया देवता भी समझ गया अपना रूप जैसा था वैसा कर बोला हे वीर ! आपकी प्रशंसा जैसी इन्द्र ने की वैसे ही थाप वीर है मैंने कहना नहीं माना परन्तु मार खाकर अनुभव से जान लिया, आप मेरा अपराध क्षमा करे ! ऐसा कहकर प्रभु को मुकुट कुंडल की भेटकर नमस्कार कर देव अपने स्थान को गया माता पिता को वीरत्व की बात और देव की भेट सुनकर बहुत आनन्द हुआ. माता पिता का पुत्र को विद्यालय में भेजना | मात पिता ने सामान्य पुत्र की तरह आठ वरस की उम्र में विद्यालय में भेजने का विचार कर सब तैयारी की ज्ञाति को भोजन देकर वर्द्धमान कुंवर को स्नान कराकर वस्त्राभूषण से अलंकृत कर तिलक कर हाथ में श्रीफल और सुवर्णमुद्रा देकर हाथी पर बैठाये और पंडित और विद्यार्थिओं को खुश करने it मेवा मिष्ठान वस्त्राभूषण वगैरह लेकर वार्जित्र के और सधवा औरतों के गीत के साथ विद्यालय की तरफ बड़ी धामधूम से पढाने के लिये लेगए. इन्द्रने अवधि ज्ञान से इस बात को जान कर विचार किया कि यह भी आर्य हैं कि तीन लोक के पारगामी प्रभु को भी पढाने को भेजते है ! श्रामके पेडपर तोरण बांधना सरस्वती को पढाना, अमृत में मीठाश के लिए और चीझ डालनी, किंतु मेरा फर्ज है कि प्रभुका अविनय नहीं होने देना ऐसा विचार कर ब्राह्मण का रूप लेकर इन्द्र स्वयं वहां आया और प्रभु को ऐसे प्रश्न पूछे Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो व्याकरसा में अधिक कठिन होने मे उसकी मिद्धि पंडिन भी नहीं कर सक्का या उसके उत्तर प्रधुने योचित दिये. जिन २ वालों की शंकाए पंडित के मनमें थी उनको इन्द्र ने अवधिनान मे जानकर भगवान से पूछा भगवान् ने उन सब के उत्तर भलीभांनि में दिये जिन्हें नुनकर पंडिन को आश्चर्य हुवा कि ऐसा छोटा बालक विना पढाए कहां से पंडिन होगया ? इन्द्र ने पंडिन से सब चात कहा कि यह बालक नहीं है त्रिलोकनाय है, जिम मुनकर उसने हाथ जोड़ कर अपने अपराध को खमाया और प्रभु को अपना गुरु माना जो प्रश्न पूछ. उसका समाधान प्रभु ने किया यह जिनन्द याकरणं बना जिममें १ संज्ञा स्त्र २ परिभाषा मृत्र ३ विधिसत्र, ४ नियम मृत्र, प्रनिपंध मृत्र, ६ अधिकार मृत्र, ७ अतिदश मृत्र, ८ अनुवाद मृत्र, ९ विभाषा मृत्र, १० विपाक मृत्र दश अधिकार का सवालाख श्लोक का महान् व्याकरण बना इन्द्र भी ब्राह्मण की सजनना मे प्रसन्न होकर बहुन द्रव्य देकर चला गया और प्रश्नु भी अपने घर को चले, मान पिना स्वनन परिवार घर को आने वाद पुत्र की विना से अधिक संतुष्ट होगयें और योग्य उम्र में ( युवावस्था में ) शुभ मुहन में बड़े उत्सव से नरवीर सामने की यशोदा नाम की पुत्री की महावीर प्रभु के साथ स्थादी की और उस गनी में प्रिय दर्शनों नामकी एक पुत्री हुई जिसकी पहावीर प्रभु के बहिन के लड़के नमाली के साथ स्यादी हुई. समणम्स णं भगवनो महावीरस्स पिया कासवगुत्तेणं, तस्स एं तंग्रो नामधिज्जा एवमाहिज्जति, तंजहा-सिद्धत्ये इवा , सिज्जसे इ वा, जसंसे इ वा ॥ समणस्स णं भगवयो महावीरस्स माया वासिट्ठी गुत्तेणं, तीसे तयो नामधिज्जा एवमाहिज्जति, तंजहा-तिसलाइ वा, विदेहदिन्ना इवा, पि. अकारिणीइ वा ।। समणस्स णं भगवत्रो महावीरस्स पितिज्जे मुपासे, जिढे भाया नंदिवद्धणे, भगिणी सुदंसणा, भारिया जसोया कोडिन्ना गुत्तेणं ॥ संमणस्स णं भगवत्रो महावीरस्स घूमा कासवी गुत्तेणं, तीस दो नामधिज्जा एवमाहि: जंति, तंजहा-अपोज्जा इ वा, पियदंगणा इ वा-।। सम: Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) णस्सं णं भगवो महावीरस्स नतुई कोसिअ (कासव ) गु. तेणं, तीसेणदुवे नामधिज्जा एवमाहिज्जति, तंजहा-सेसवई इ वा, जसवई ई वा ॥ १०७ ॥ भगवान महावीर पिता काश्यप गोत्र के थे जिन के तीन नाम थे. सिद्धार्थ, श्रेयांस, यशस्वी, भगवान की माता वाशिष्ठ गोत्र की थी, उसके भी तीन नाम थे. त्रिशला विदेहदिना, प्रीति कारिणी, भगवान महावीर का काका सुपार्थ, भगवान महावीर का बडा भाई नंदिवर्द्धन, वेन सुदर्शनाथी, और स्त्री यशोदा कोडिन गोत्र की थी. भगवान महावीर को एक पुत्री थी जिसके दो नाम थे. अणोज्जा, प्रियदर्शना. महावीर प्रभु की एक दोहित्री कोशिक गोत्र की थी उसके दो नाम शेषवती, यशस्वती. समणे भगवं महावीरे दक्खे दक्खपइन्ने पडिरूवेपालीणे भद्दए विणीए नाए नायपुत्ते नायकुलचंदे विदेहे विदेहदिन्ने विदेहजचे विदेहसूमाले तीसं वासाइं विदेहंसि कटु अम्मापिउहि देवत्तगएहि गुरुमत्तरएहिं श्रमणुन्नाए समत्तपाइन्ने पुणर वि लोगतिएहिं जीअकप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इटाहि कंताहिं पित्राहि मणुन्नाहि मणामाहिं उरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहि धन्नाहिं मंगल्लाहि मित्रमहुरसस्सिरीबाहिं हिययगमणिज्जाहिं हिययपल्हायणिज्जाहिं गंभीराहिं अपुणरत्ताहि वग्गूहि अणवरय अभिनंदमाणा य अभिथुब्बमाणा य एवं वयासी ॥१०॥ महावीर प्रभु दक्ष ( संव कला में प्रवीण ) दक्ष प्रतिज्ञा वाले ( जो चोले सो पाले ) प्रतिरूप (सुन्दर रूप वाले ) आलीन ( संब गुणों से व्यास ) भद्र क ( सरल ) विणीत (वड़ों की इज्जत करने वाले ) ज्ञात (प्रख्यात) ज्ञातपुत्र (सिद्धार्थ राजा के पुत्र) ज्ञात कुल में चंद्र संमान, विदेह ( वज्र रूपम नाराच संघयण, समचतुरस्र स्थान वाले ) विदेह दिन (त्रिशला रानी के पुत्र) विदेह Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) मार्च (त्रिशला देवी से उत्पन्न होने वाले ) विदहमुकुनाल (घर में ही मुकामल) ऐसे प्रभु घर में तीस वर्ष तक रहे. मात पिता के स्वर्गवास के बाद बड़े भाई की आवानुसार और अपनी प्रतिज्ञा पूरी होने बाद लोकनिक देवों ने आकर ऐने मधुर बचनों से कहा कि:. "जय २ नंदा!, जय२ भदा ! भदं ते, जय २ खत्तिअवरवसहा !बुझाहि भगवं लोगनाहा! सयलजगजीवहियं पवत्तहि धम्मतित्थं, हियमुहनिस्मयसकरं सबलोए सबीवाणं भविस्मइत्तिकटु जयजयसई पउंजंनि ॥ १०६ ।। समृद्धिवंन ! आप जयवंतावतॊ २ हे कल्याणवंत ! आप जयपनापों ई सत्रियों में श्रेष्ट वृपभ समान ! हे भगवन् श्राप दीचा लो ! ह लोकनाय भग: वन् ! आप केवल ज्ञान पाकर सकल जंतु हितकारक धर्मनीयं प्रकट गे! आपमा स्थापिन धर्म तीर्थ सब जीवों को हिनकारी, मुखकारी और मोक्ष का देन वाला होगा इमलिये आपकी निरंतर जय हो. ऐसा हम प्रकट कहते हैं. ___ पहिल भी महावीर प्रभु का ग्रहम्थावास में उत्तम विशाल और स्थायी ऐसा अवधि ज्ञान और अवधि दर्शन था, उस उत्तम अवधि बान का उपयोग देकर अपना दीक्षा ममय जान लिया था. प्रभु का उस वारे में कुछ वयान. २८ वर्ष की उम्र महावीर प्रभु की हुई उम ममय प्रभु के माता पिता इस संसार को छोड़ देवलोक में गये प्रयु का अभिग्रह (गर्भ में जो प्रतिज्ञा कीथी कि में मात पिना के मृत्यु बाद दीक्षा लूंगा ) पूर्ण हुआ और दीक्षा लेन को नैयार हुए माता पिता की मृत्यु से बड़े भाई को खद हुआ था जिससे नंटिवर्धन ने कहा कि दे बंघो! घाव के उपर नमक का पानी नहीं डालना चाहिये अर्थात् मात पिता के वियोग से मैं दुःखी हूं ऐसे समय में आपको मुझे छोड़ कर नहीं जाना चाहिये. प्रभु ने कहा कि संसार में कोई किसी का नहीं है नंदीपर्यन ने कहा कि मैं बह जानता हूं ना भी बन्धु प्रेम हटता नहीं है इसलिये इस समय दीक्षा न लो, प्रभु ने करुणा लाकर साधु भाव हृदय में रखकर उसका Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९९ ) कहना मान लिया परन्तु उस समय से निरवद्य आहारादि से ही अपना निर्वाह करना और ब्रह्मचर्य पालन करना प्रारम्भ किया. म की दीक्षा का निश्रय जानकर कितनेक राजा उन प्रभु के जन्म समय से १४ स्वप्न सूचित गर्भ होने से चक्रवर्ती राजा होंगे तो हमारी सेवा का लाभ पीछे बहुत मिलेगा इस हेतु से सेवा करने थे वे सब श्रेणिक चेड़ा महाराजा चंद मद्योतन वगैरह अपने देश को चले गये. एक वर्ष पहिले अर्थात् भगवान की २९ वर्ष की उम्र हुई तब लोकांतिक देवने आकर जय जय नंदा जय जय भद्दा कहकर प्रार्थना की प्रभु भी अब दीक्षा लेने के पहिले १ वर्ष से तैयारी करने लगे. दीक्षा पहिले दान. दीक्षा को अवसर विचार कर हिरण्य छोड़कर सुवर्ण धन राज्य देश सेना वाहन को धन धान्य के भांडार सबकी मूर्छा ममत्व छोड़ नगर अंतःपुर ( राणी परिवार ) नगर ग्रामवासी लोगों का मोह छोड़ बहुत धन सुवर्ण रत्न मणि शंख शिला प्रवाल ( मुंगी ये ) रक्त रत्न ( माणिक ) वगैरह सब मोहक वस्तुओं का मोह छोड़कर सर्वथा संसारी निंदनीय मोह ममत्व छोड़ याचक और गोत्र बन्धुओं को सर्व पांट दिया. देवों की सहाय से दान. सूर्योदय से लेकर १ | मदर ३ ||| घंटे तक तीर्थंकर प्रभु दान देवे नगर की शेरी और रास्ते पर उद्घोषणा ( डोंडी ) पिटा कर सब लोगों को सूचन करे कि इच्छित दान लेजाओ. प्रतिदिन १ करोड आठ लाख सुवर्ण मुद्रा का दान देवे उस के साथ वस्त्र आभूषण मणि मोती मेवा मिठाई का भी दान देवे. जितना दान देवे और नया देने को चाहिये वो निरंतर इन्द्र अपने देवों द्वारा प्रभु के भंडारों में भर देवे. तीर्थकरों के दान का अतिशय । ( १ ) प्रभु दान देते खेद न माने अर्थात् देने में श्रम 'न' माने, देते ही रहवे ( २ ) इशान इन्द्र देवता को दान लेते रोके और मनुष्य को हद से ज्यादा मांगते रोके ( ३ ) चमरेंद्र जितनी मुंह से मांगे उतनी सुवर्णमुद्रा निकाल कर देवे ( ४ ) भुवनपति देवता लोगों को दान लेने को वे आवे ( ५ ) व्यंतर Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) देवता दान लेने वालों को अपने घर पहुंचाव (६) ज्यानिपी देव विद्याधरों को टान लेजाने की खबर देवे. नंदिवर्धन राजा ने भी बंधु प्रेम से तीन दानशालाएं प्रारम्भ की. (१) अनदान कोई भी लेजाओ, (२) वस्न लजायो प्रभु के दान समय इन्द्रों ने सहाय कर सेवा की उसका फल उनका यह होवे कि वे आपस में दो वर्ष तक परस्पर क्लेश न करे राजा अपने भंडार में दान की सुवर्ण मुद्रा रखें तो चार वर्ष तक यशः कीर्ति बढे रोगी के रोग चले जावे दान लेने वालों को १२ वर्ष तक रांग न होवे ३६० दिन तक ऐसा दान देने से ३८८ कोड़ ८० लाख मुवर्णमुद्रा का प्रभु ने दान दिया. पुबिपि णं समणस्स भगवो महावीरस्स माणुस्मगारो गिहत्थधम्मायो अणुत्तरे प्राभोइए अप्पडिवाई नाणदंसणे हुत्था, तएणं समणे भगवं महावीरे तेणं अणुत्तरेणं अाभोइ. एणं नाणदंसणेणं अप्पणो निक्खमणकालं आभोएइ, श्राभोइत्ता चिच्चा हिरण्णं, चिच्चा सुवरणं, चिचा धणं, चिच्चा रज्जं, चिच्चा रहूँ, एवं वलं वाहणं कोसं कुट्ठागारं, चिच्चा पुरं चिच्चा अंतेउरं, चिच्चा जणवयं, चिच्चा विपुलधणकणगरयणमणिमुत्तियसंखसिलप्पवालरत्तयणमाइयं संतसारसावइज्ज, विच्छाइत्ता, विगोवइत्ता, दाएं दायारेहिं परिभाइत्ता दाणं दा. इयाणं परिभाइत्ता ॥ ११० ।। दीक्षा की तैयारी। बड़े भाई की आज्ञाले प्रभु दीक्षा लेने को जब तैयार हुए तब इन्द्र और नंदिवर्धन दोनों दीक्षा की महिमा करने लग प्रभु को सिंहासन पर बैठा स्नान कराकर बावना चन्दन का लेप कर मुकुट कुण्डल बगरह पहरावे, पीछे ५० धनुष्य लम्बी २५ धनुष्य चौड़ी, ३६ धनुष्य उंची, बीच में सिंहासन और १००० पुरुष को उठान योग्य ऐसी चंद्रप्रभा नामकी पालखी जो नंदिवर्धन ने Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) तैयार कराई थी इन्द्र और नंदिवर्धन दोनों मिलकर उस पालवी की शोभा बढावे उसमें पूर्व दिशा सन्मुख महावीर मनु सिंहासन पर आकर बैठे तत्र इन्द्र और नंदिवर्धन वगैरह मिलकर पालखी को उठाई काई देवता छत्र धरने लगे सधवा स्त्रिएं मंगल गीत गाने लगी भाट चारण जय जय नाद विरुदावलि वोलने लगे सब प्रकार के वाजिंत्र वजने लगे, नाटारंभ होने लगे इन्द्र ध्वजा आगे चलने लगी, देवता आकाश में से फूल वृष्टि करने लगे, उग्रकुल क्षत्रिय कुल के पुरुष सेठ सेनापति, सार्थवाह वगैरह श्रेष्ठ नगरवामी अपनी भक्ति से आगे चलकर जय जय शब्द करने लगे और सब चलते चलते नगर के मध्य भाग में होकर चलने लगे नगरवासिनी स्त्रिये अपना घर कार्य छोड़कर जलसा देखने को श्रागई. प्रभु की शांत मुद्रा अनुपम रूप अनुपम महिमा अनुग्म तेज अनुपम कांति देखकर स्त्रिय यथायोग्य सत्कार पूजन बहुमान गुणमान करने लगी कोई अपने विशाल नेत्रों से प्रभु की गांत मुद्रा देखने लगी कोई प्रफुल्लित हृदय से मोती से प्रभु को वधाये, नेत्र मुख शरीर सत्र के स्थिर होगये थे कोई स्त्री दोड़ती हुई जाती थी और मुग्धता से घेना गिर जाये तो भी कोई नहीं उठाता था त्रिओं को क्लेश काजल कुंकुंम, वाजिंत्र, जमाई दुधये छः वस्तु प्रिय होने से वाजिंत्र के नाद से ही मुग्ध होकर विचित्र चेष्टाएं करती थी तो भी यहां पर कोई हास्य नहीं करता था सब प्रभु तरफ ही देखते थे. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले, तस्स णं मग्गसिरवहुलस्त दसमीपखणं पाईणगामिणीए छायाए पोरसीए अभिनिवट्टाए एमाणपत्ताए सुब्बणएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं चंदप्पमाए सीआए सदेवमणुप्रासुराए परिसाए . समणुगम्ममाणमग्गे संखियचकियनंगलिअमुहमंगलियवद्धमाणयसमाणघंटियगणेहिं, ताहिं इटाहि कंताहिं पियाहिं मणुनाहिं मणामाहिं उरालहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंग Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) गल्लाहिं मित्रमहुरसस्मिरीचाहिं वग्गूहिं अभिनंदमाला भिथुव्वमाणा य एवं व्यासी ॥ १११ ॥ प्रभु का दीक्षा समय | " दीक्षा के समय प्रभु तैयार हुए वो हेमन्त ऋतु पहिला मास पहला पच मागसीर बढी १० के रोज पूर्व दिशा में छाया जाती थी उस समय तीसरे पहर में प्रमाण युक्त पोरसी होने पर अर्थात् पूणे तीसरे शहर में सुव्रत नामका दिन, विजय मुहूर्त में चन्द्रप्रभा शिविका ( पालखी ) में बैठकर देव नव मनुष्य समृह के साथ चले उस समय शंख बजाने वाले, चक्र आवृत्र धरने वाले, लांगूल (हल जैसा ) शस्त्र धारन करने वाले खंबे उपर आदमी को बैठाने वाले, मुख से मंगल शब्द बोलने वाले विरुदावली बोलने वाले घंटी बजाने वाले और भी अनेक पुरुष आगे और पीछे चलकर जिनकी भक्ति सेवा करते हैं मैंने भगवान् दीवा लेने को जाते हैं लोग भी भक्ति सूचन मधुर वचनों से कहते हैं. (( जय २ नंदा ! जय २ भद्दा !, भदं ते खत्तियवरवसहा ! भग्गेहिं नाणदंसणचरितेहिं, अजियाई जिलाहि इंदियाई, जिथं च पालेहिं समणधम्मं, जियविग्घोविय व साहि तं देव ! सिद्धिम, निहांहि रागद्दासमल्ले तवेणं धिधणिचवडकच्चे, मद्दाहि टुकम्मसत्तू झालेलं उत्तमेणं सुकेणं, थप्प मत्तो हराहि चाराहणपडागं च वीर ! तेलुक्करंगमज्झे, पावय वितिमिरमरणुत्तरं केवलवरनाएं, गच्छ य मुक्खं परं पयं जि वरोव मग्गेणं अकुडिलेणं हंता परीसहचम्, जय २ खत्तियवरवसहा ! बहु दिवसाई बहु पक्खाई बहूई मासाई बहूई उकई बहूई चयणाई वहुई संवच्छ गई, अभीए परीस होवसग्गाणं, खंतिखमे, भयभेरवाणं, धम्मे ते विग्धं भवर " ति कहु जयजयमत्रं पउंजंति ॥ ११२ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · नप'नय नंदा, नय जय भवा, अखंडित ज्ञान दर्शन चारित्र से अनित इंद्रियों को कब्जे में लेकर श्रमण धर्म पालकर विघ्न को दूरकर हे देव ! सिद्धि स्थान प्राप्त करो. तपश्चर्या से राग द्वेष दो मलों को नाश करो धैर्य संतोष से कमर बांधकर श्रेष्ठ शुक्ल (निर्मल ) ध्यान से आठ कर्म रूपी शत्रु का मर्दन करो हे वीर ! कार्य कुशल होकर तीन लोक रूप मंडप में आराधना रूपं जील की ध्वजा को प्राप्त करो, हे भगवन् ज्ञान स्वरूप जो प्रकाश है वो सम्पूर्ण केवलज्ञान अनुपम है उसको प्राप्त करो ! हे प्रभो ! आप परिषह सेना को जीतकर पूर्व जिनेश्वरों ने कहा हुआ सीधा मार्ग से मोक्ष नामका परमपद को माप्त करो. क्षत्रियों में हे उत्तम पुरुष ! आपकी निरंतर जय हो २ काल का आश्रय लेकर कहते हैं हे प्रभो ! बहुत दिन तक, पक्ष तक, मास तक, ऋतु तक, अयन तक, वरसों तक, परिसह उपसर्ग ( दुःख विघ्नों) से निर्भर होकर सिंह विजली वगैरह के भयों से निडर होकर क्षमा धैर्य से दुःखको सहन कर जयवंतारहो ! आपका चारित्रधर्म विघ्न रहित हो. ऐसा शब्द बोलकर 'फिर से कुल वृद्ध ( बड़े पुरुष ) जय जय नाद करने लगे. तएणं समणे मगवं महावीरे नयणमालासहस्सेहिं पिच्छिज्जमाणे २, वयणमालासहस्सहिं अभिथुबमाणे २. हिययमालासहस्सेहिं उन्नंदिज्जमाणे २. मारहमालसहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे २. कंतिरूवगुणेहिं पत्थिज्जमाणे २, अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइज्जमाणे २. दहिणहत्थेणं बहूणं नरनारीसहस्पाणं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छमाणे २. भवणपंतिसहस्साइं स. मइच्छमाणे तंतीतलतालतुडियगीयवाइअरवेणं महुरेण य मगहरेणं जयजयसद्दघोसमीसिएणं मंजुमंजुणा घोसेण य पडि. वुज्झमाणे २ सब्बिड्ढीए सव्वजुईए सब्बबलेणं सधवाहणेणं सब्वसमुदएणं सन्नायरणं सबविभूईए सबविभूसाए सब्वसंभमेणं सबसंगमेणं सबपगईहिं सम्बनाडएहिं सव्वतालायरहिं Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) सब्बोरोहेणं सधपुप्फगंघमल्लालंकारविभूसाए सब्बतुडियसहसन्निनाएणं महया इड्ढीप महया जुइए महया वलेणं महया वाहणे णं महया समुदएणं महया वरतुडियजमगममगप्पवाहएणं संखपणवपडहभरिमल्लरिखरमुहिहुडुक्कदुंदुहिनिग्घोसना. इयरवेणं कुंडपुर नगर मझमझाएं निगरच्छह, निग्गच्छित्ता जणेव नायमंडवणे उज्जाणे जेणेव अमोगवरपायवे तेणेव उवागच्छड़ ।। ११३ ॥ दीनाथ भगवान का उद्यान में जाना. वीर प्रभु हजारों आंखों से देखान हजागें मुन्बों में स्तुनि कराने, हजारों हृढ़या मे जय जय नाद के अवाज प्रकट कराने हजारों मनुष्यों से "संवक हान की प्रार्थना" कराने कांति रूप गुणों में प्रार्थना कगने, हजारों अंगुलिओं में " यह भगवान है" ऐसा उच्चार कर्गत दाहिणा हाथ में हजारों स्त्री पुरुषों से जो नमस्कार होना था उमको स्वीकारते शहर के भीतर हजारों हवेलियों (उत्तम मकान ) का उल्लंघन कर तंत्री तल ताल त्रुटिन वगैरह वाजिंत्रों का नाद गीत और मधुर जय जय शब्द से त्रिलोकनाय जयवंता रही आप धर्म को प्राप्त करा इत्यादि वचनों में प्रेरणा कर्गत महावीर प्रभु आभूषण की सर्व धुति स सब प्रकार की मंपचि में, सब प्रकार की सेना वाहन से महाजन मंडल से युक्त मब प्रकार के सन्मान युक्त सब विभूनि सब प्रकार की शोभा से युक्त सब प्रकार का हर्प उत्साह से युक्त सब स्त्रजनों में युक्त नगर में रहती हुई अठारह जानि के माय सब नाटकों से युक्त, नालाचर, अंतःपुर, परिवार से युक्त सब प्रकार के फूल, गंध, माला अलंकार से विभूषित, सब वाजिंत्रों से आकाश गुंजाबने बहुन गिद्धि बहुन धुति, कांनि, सेना, वाहन, समृदय, सब प्रकार के वाजिंत्र समूह शस्त्र पह भरी पालर प्रांझ हुक नौबत नगरह से अवाज होना और फिर उस का प्रतिध्वनि मे गाजना इस तरह सत्र महोत्सव आनन्द पूर्वक प्रभु वृत्रिय कुंड नगर का मध्य भाग में होकर बजार में से निकलकर जहां पर जात वन बंड नाम का उद्यान है वहां आकर अशोक वृक्ष के नीचे ठहरने का होने से सब वहां खड़े रहे. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५) उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावइ, ठावित्ता सीयारो पचोरुहइ, पचोरुहित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं प्रोमुअइ, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोअं करेइ, करित्ता छटेणं भत्तेणं अपाणएणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं एगं देवदूसमादाय एगं अबीए मुंडे भवित्ता अगाराअो अणगारिश्र पव्वइए ॥ ११४ ॥ भगवान पालखी में से निकल और अपने हाथ से सब वस्त्र आभूपणों को उतार और पंच मुठी से लोच करे लोच करके चन्द्र नक्षत्र उत्तरा फाल्गुनी का योग आने पर जिन्होंने दो उपवास (छठ, बैला) चौविहार (विना पानी) करके इन्द्रने दिया हुआ देव दृष्य वस्त्र को ग्रहण कर अकेले राग द्वेप रहित होकर ग्रहवास से निकल कर अनगार ( साधु ) हुए भीतर के क्रोधादि और बाहार के बालों को दूर कर मुंड हुए जब भगवान ने लोच, किया और साधु हुए तव करेमि भंते उच्चरे उस.समय इन्द्र वाजिंत्र और अवाज दूर कराकर सब शांति चित्त से डरा श्रवण करे, ५ - महावीर प्रभु भी स्त्रयं अरिहंत होने से नमो सिद्धाणं कहकर भंते शब्द छोड़ कर करेमि सामाइ सावजं जोमंपच्चक्खामि. वगैरह सर्व विरति का पाठ पढे स्वयं भगवान (भंते ) होने से भंते शब्द न वाले. ___ करेमि सामाइनं सावज्ज जोगं पच्चक्खामि जावजीवाए तिविहतिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारमितस्स पडिक्कगामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि. , , .. - अर्थात् प्रभुने प्रतिज्ञा की कि मैं आज' से जीवित पर्यंत मन वचन काया से कोई. भी जाति का पाप न करूंगा न कराउंगा न करने वालों को भला जानुंग्रा छमस्थ अवस्था में यदि जरा भी अतिचार लगा तो उससे पीला हट कर उसकी निंदा गर्दा कर आत्म ध्यान में ही रहकर शरीरादि मोह को छोडंगा दीक्षा विधि पूरी होने से प्रभु को चौथा ज्ञान मन पर्यव उत्पन्न हुआ, इन्द्रादि Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) देव नमस्कार कर उनके कल्पानुमार नंदीश्वर द्वीप में जाकर अटाई महात्मत्र कर पीछे अपने स्थान की गय. पंचम व्याख्यान ममाप्त हुआ. छठा व्याख्यान । भगवान महावीर को वंदन कर सब अपने स्थान को गए परन्तु चिर परिचित निरन्तर साथ रहने वाला नंदिवर्धन बन्धु कुछ प्रेम में कुछ भक्ति में कुछ दुःख से रोने गंते कहने लगा हे वन्यो ! जगवन्सल ! आप जीवमात्र के चितस्त्री होने से मेरा दुःख का भी कभी ग्वयाल करना ! मैं किस तरह से घर को जाउं ? किसके साथ "बंघो" कहकर बात करूंगा ? किस के साथ भोजन करूंगा ! जो कुछ मेरा आश्रय गुणों का निधान सर्व प्रिय आप ये वा चले जान हो ना मी हे करुणानिधान ! यह बंधु का कुछ भी करुणा जनक दुग्न हृदय में लाकर बोध के उद्देश से भी दशन देना में रोकने को असमर्थ हूं! । घीतराग प्रमु सब जानने थे संसार की भ्रमता का ज्ञान था इसलिय 'हाना' कुछ भी उत्तर दिय विनाही चले नंदिवर्धन दृष्टि पहुंचे और दर्शन होत्र वहां नक खड़ा रहा पीछे वो भी निस्तेज मुद्रा से पीछा लोटा ! ___ महावीर प्रभु की दीक्षा के समय अनेक जाति के सुगंधी मे लेप किये थे वो सुगंध चार मास नक रही थी वो मुगंधी से आकर्पित होकर भवरे देश देने लगे लोग उत्तम मुगंधी की याचना करने और मॉन देखकर प्रभु को मारने की भी तैयार होते थे तो भी राग द्वेष को दूरकर प्रशु विहार करते दो घड़ी दिन बाकी रहा उस समय “कुमार" नाम के गांव नजदीक आकर ध्यान में ग्बई रहे. प्रभु की दीक्षा में धीरता। प्रभु कायोत्सर्ग में खड़े थे उस समय एक गोवाल सारा दिन खन में चला में काम कर प्रभु का वलं सौंपकर घर को गायों दाहन को गंया प्रमु मान थं चल चाने को दूर चले गये और गायों को दोहकर गांवाल आया बल को नहीं देखकर प्रभु को पछा प्रभु ने उत्तर नहीं दिया वो चला गया रातभर बैल को इंटे नो भी मिले नहीं थककर पीछा आया नो प्रभु के पास बैल बहे देख Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७) कर गोवाल ने विचारा कि यह कोई ऐसा पुरुष है कि जो जानता था तो भी मुझे कहा नहीं उसको शिक्षा करूं ऐसा दृढ विचार कर बैल की रस्सी से प्रभु को मारने को दोड़ा प्रभु तो शांतही थे अवधिज्ञान से इन्द्र ने वो वात जानकर एकदम आकर गोवाल को शिक्षाकर रोक दिया गोवाल चला गया. ___ पीछे प्रभु को इन्द्र कहने लगा हे प्रभो ! आप को बहुत उपसर्ग होने वाले हैं इसलिये वहां तक में आपके साथ रहकर आपकी रक्षा करूं प्रभु ने कहा कि दूसरे की सहाय से तीर्थंकर कभी केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सक्ते परन्तु देवेन्द्र वगैरह की सहाय विनाही तीर्थकर अपने पराक्रम से केवलज्ञान प्राप्त करते हैं तो भी इन्द्र ने मरणांत उपसर्ग दूर करने को सिद्धार्थ नाम के व्यंतर जो पूर्व की अवस्था में प्रभु महावीर की मौसी का लड़का था उमको रक्षा के लिये रखकर देवेंद्र अपने स्थान को गया. प्रभु का प्रथम पारणा (भोजन) दीक्षा लेने के बाद प्रभु ने कोलाग सनिवेश (सदर वा केप ) में बहुल ब्राह्मण के घर को द्ध पाक से ग्रहस्थ के पात्र में ही भोजन किया (इससे यह सूचन किया कि मेरे वाद साधु कर पात्री नहीं परन्तु काष्ठ पात्र में भोजन करने वाले होंगे ) गोचरी ( भोजन ) होने के समय तीर्थकर की महिमा बहाने को पांच दिव्य प्रकट किये फूल वृष्टि, वस्त्र दृष्टि, सुगंधी जल-वृष्टि देव दुंदुभी और यह उत्तम दान है ऐसी उद्घोषणा ( गौर से आवाज ) हुई. तीर्यकर जहां पारणा (वन के पश्चात भोजन ) करते हैं वहां देवता प्रसन्न होकर साढे वारह कोड सोन, या (सुवर्ण मुद्रा) की दृष्टि करता है दान देने वाले को लाभ और प्रभु की महिमा होती है और अन्य मनुष्यों को धर्म श्रद्धा होती है कि यह कोई महात्मा पुरुष है यदि कम वृष्टि करे तो कम से कम भी साढे वारह लाख सुवर्ण मुद्रा की वृष्टि करें. वहां से विहार कर प्रभु मोराक सन्निवेश में आये, दुइजंत नामका तापस जो सिद्धार्थ राना का मित्र था वो वहां पर तापसों का कुलपति ( नायक ) होकर रहता था, उस से प्रभु पूर्व के अभ्यास से दोनों हाथ चौड़े कर अंगो अंग मिले. वहां से रवाने होने के समय तापसों के नायक की विज्ञप्ति होने से प्रभु , निरागी होने पर भी चोमासे पर वहां आने का मंजुर कर विहार किया, इस Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) लिये आठ मास फिर कर वा ऋतु में वहां आय. कुलपति ने एक घास का झोपड़ा निवास करने का दिया घाम के अभाव में और जगह पर घाम नहीं मिलने से गाये वहां आकर ऑपड़े का घास खाने लगी कुलपति को वो वात मालुब होने पर उसनं आकर वीर प्रभु को कहा कि हे महावीर ! चत्रि पुत्र होकर राज्य पालना तो दूर रहो ! क्या एक झापड़ की भी रक्षा करने की तेर्ग गक्ति नहीं है ? पक्षी भी अपने घोंसले की रक्षा करते हैं ऐसे वचनों में प्रभु ने विचारा कि मैं तो जीव दया की खातर पशू को हटाना नहीं, पर उसका व्यय क्लेश होता है, ऐसा कलश फिर न-हाँ एमा निश्चय कर बीमामा के पदरह दिन व्यनीत हान बाद प्रभुंन विहार किया और पांच अभिग्रह (प्रतिना) किये. ( १ ) जहां अनीति हो। उसके घर में ठहरना नहीं, (२) हमेशा प्रतिमा (नए विशेष ) धार्ग रहना, (३) ग्रहस्यों का विनय नहीं करना, (४) पौन रहना, (५) हाथ में ही भोजन करना.. ___ महावीर प्रभु ने एक वर्ष और एक मास से कुछ अधिक समय तक बन धारण किया उसके बाद वन रहित ( अंचलक ) र उनके पुण्य तंज के प्रभाव सं दूमरों को नग्न नहीं दीखन थे न काई को उनस ग्लानि होनी थी. - प्रभु का देव दूप्य वस्त्र का दूर होना. मन दीक्षा ली उसके एक वर्ष एक मास में कुछ अधिक समय बाद व विहार करने दक्षिण वात्राट नाम के गांव की नरफ जहां सुवर्ण वालु का नदी वहनी थी वहां पर आने के समय कांटे की बाड में वस्त्र लगा और कांटे से लाकर बम्ब गिरपड़ा वह प्रधुने सिंहावलोकन से देखा कि वह वस्त्र निर्दोष नगह में पड़ा है कि नहीं ? किंतु त्याग वृत्ति से पीटा ग्रहण नहीं किया वह दान लेने की इच्छा से प्रभु के पीछे फिरने वाले ब्राह्मण ने उठा लिया, उस ब्राह्मण की कथा. प्रधुन जब दीक्षा के पहिल दान दिया उस समय वह ब्राह्मण विदेश में था, पीछ आया तो उसकी स्त्रीन कहा कि प्रमुन जिस समय दान दिया उस सयय तूं विदेश चला गया अब क्या खाग ? इमलिये प्रभु के पास जाओ कुछ मां अब भी वे देवग. बायण पांच में आकर प्रार्थना करने, लगा प्रभु के Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) पास सो वस्त्र के सिवाय कुछ न था आपा वस्त्र फाड़ के दिया ब्राह्मण ने शरम से दूसरा आधा मांगा नहीं, जब कांटे पर लगा कि उठा लिया वो देव दुष्य आखा मिलने से सवा लाख स्वर्ण मुद्रा का मालिक हुआ. दीक्षा से एक मास वाद आधा मिला और एक वर्ष पीछे फिरने से दूसरा आधा मिला. (आधा वस्त्र ही प्रभु ने प्रथम क्यों दिया उसके कारण आचार्य अनेक बताते हैं कि प्रभु ने ब्राह्मण कुक्षि में जन्म लिया वह कृपण वृत्ति सूचन की. कोई कहते हैं कि मेरी संतति (शिष्य समुदाय ) मेरे बाद कपड़े पर मूर्या रखने वाली होगी) वाद संतुष्ट होकर ब्राह्मण चला गया. प्रभु के शुभ लक्षण पर इन्द्र की भक्ति. प्रभु जब विहार कर गंगा के किनारे पर आये वहां कोमल सुक्ष्म रेती में और कीचड़ में "प्रभु अमीन पर 'पैरों की श्रेणी में छत्र ध्वजा अंकुश वगैरह उत्तम लक्षण देखकर एक ज्योतिषी विचारने लगा कि यह चिन्ह वाला चक्रवर्ति होगा अभी कोई कारण से एक्रिला फिरता है उस की सेवा करने से लाभ होगा ऐसा विचार कर पीछे पीछे आया प्रभुको भिक्षुक अवस्था में देखकर अपना जोतिष जून मानकर शास्त्रो को उठाकर गंगामें डालने को चला ईन्द्रने वो बात जानकर एकदम आकर कहा कि तेरा ज्योतिष सच्चा है ये भिक्षुक नहीं है इंद्रों को भी पूज्य है थोड़े रोज में केवल ज्ञान पाकर तीन लोक में पूज्य होंगे आज भी उनका शरीर पसीना मल और रोग से मुक्त है श्वासो श्वास सुगंधि है रुधिर मांस सफेद है ऐसा कह कर इंद्रने पुष्प नामका ज्योतिषी को प्रसन्न करने को मणिकुंडल वगैरह धन देकर खुश किया ईद्र और पुष्प सामुद्रिक दोनों अपने स्थान को गये, प्रभुजी समभाव रखकर दूसरे स्थान को चलेगये. समणे भगवे महावीरे संवच्छरं साहियं मासं जाव चीवरधारी होत्था. तेण परं अचेलए पाणिपडिग्गहिए ॥ समणे भगवं महावीरे साइरेगाई दुवालस वासाई निचं वोसट्टकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जति, तंजहा-दिब्बा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा,अणुलोमा वा पडिलोमा बा,. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) ते उप्पन्न सम्म महइ खमइ तितिक्खइ अहियासह ।। ११५ ।। श्रमण भगवान महावीर का दीक्षा का छमस्त काल । महावीर प्रभु माडा बारह वरस से कुछ अधिक छद्मस्त अवस्था में रहे उम समय में निरन्तर गरीर की मुश्रुपा ममत्व भाव छोड़कर देवना मनुष्य नियंच पशु ( वगैरह ) की नरफ मे जो उपसर्ग (पीडा ) होता था वो मब उन्होंने मम्यक् प्रकार से महन किया. (जैनधर्म में ऐसी मान्यता है कि जीवन जीपूर्वकाल में कृत्य किये उसका फल वर्तमान काल में भोगना है भोगने के समय में चाहे अनुकूल उपमर्ग चंदन का लेप कोई करे अथवा प्रतिकूल चाहे भरीर में कांटा भोके तो भी हर्ष शोक नहीं करना समभाव रखने से ही केवलनान और मुक्ति होती है.) महावीर प्रभु ने अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग कस सहन किये हैं वो लिखते हैं. (१) प्रभु का पहिला चौमासा मांगक सन्निवत्र से निकलकर शुल पाणी मन के चत्व में हुआ. शुलपाणी की उत्पत्ति ।। धनदेव नामका कोई व्यापारी ५०० गाड़ी के साथ नदी उतरना था मत्र गाडीएं कीचड़ और रती में से नहीं निकल सकी और बैलों में नाकन नहीं होने में एक बैल जो बड़ा तंजदार उत्साही या उसने मालिक की कनन्नता हृदय में रखकर पांच सौ गाडीएं एक रकर वहार निकाली मालिक की कार्य सिद्धि हुई । परन्तु वल की हड्डीप टूटगई उसको वहां ही छोड़ना पड़ा किन्तु पोपण रचण के लिंय नजदीक में वर्धमान (बर्दवान वंगाल में है ) गांव के नेताओं को बुलाकर बैल और धन अर्पण किया नेताओं ने खबर नहीं ली बैल भूख से मरा परन्तु शुभ ध्यान से देव हुआ वो व्यंतरदेव ने पूर्वभव का हाल देखकर क्रोधायमान होकर वर्षमान गांव में मरकी का रोग फैलाकर बहुत से आदमी ओं को मारे मुर्दे उठाने वाले नहीं मिलने से (हड्डी) अस्थियों का ढेर हुआ गांव का नाम भी अस्थिक होगया लोगों ने डरकर देव को प्रसन्न कर पूछा उसने अपना मंदिर बनाने को कहा और लोग भी अपनी रचा के लिये पूजन Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१११) लगे किन्तु उस मंदिर में रातवासी कोई रहवे तो जन उसको मार डालता था प्रभु ने उसको बोध देने को शूलपाणी जक्ष के मंदिर में लोगों ने ना कही तो भी रात्रि में निवास किया जक्ष ने रात्रि में बहुत गुस्सा लाकर देवमाया से भयंकर रूप हास्य जनक रूप देखाकर त्रास दिया तो भी प्रभुने अपना ध्यान न छोड़ा तव ज्यादा गुस्सा लाकर मस्तक नाक कान आंख वगैरह कोमल भागों में पीडाकर ने लगा तो भी प्रभु को निष्कंप देखकर शूलपाणी ज्यादा ज्यादा दुःख देने लगा अंत में वो थका तब सिद्धार्थ व्यंतर आकर कहने लगा है निभागी पुण्यहीन ! तू किसको सताता है डराता है ? मालूम नहीं ! वो इंद्र को भी पूज्य है । इन्द्र तेरी मिट्टी खराब करदेगा । ऐसा सुनकर शूलपाणी घबराकर प्रभु के चरणों में पड़ा क्षमा चाही और उनको प्रसन्न करने को नाटक करने लगा किन्तु प्रभुने पूर्व में वापीछे द्वेष वा राग न किया ( इसलिये प्रभु का चरित्र प्रत्येक मुमुक्षु मोक्षाभिलाषी भव्यात्मा को अधिक आदरणीय है ) चार प्रहर इस तरह दुःख में निकाले किंतु थोड़ी रात रही कि जक्ष प्रयत्न होकर सेवा करता रहा उस समय प्रभु को अल्प निंद्रा आई आर उसमें उनको दश स्वम देखे देखते ही जागृत हुए गांव के लोग भी जन का चमत्कार देखने को आए जक्ष को प्रभु की सेवा करता देखकर लोग भी सेवा करने लगे नमस्कार करने लगे उन लोगों में उत्पल, इंद्र शर्मा, नाम के दो भाई ज्योत्सी थे उन्होंने आकर प्रणाम कर उत्पल बोला कि हे प्रभो आपने आज दश स्वम देखे उसको फल आप जानते है मैं भी कहता हूं। . दश स्वप्नों का फल । (१) आपने प्रथम स्वप्न में ताड़ (जितना बड़ा ) पिशाच का नाश किया उससे आप मोहनीय कर्म ( मोह ) का नाश करोगे. (२) सेवा करने वाला शुक्ल पक्षी देखा उससे आप शुक्ल ध्यान (निर्मल आत्म तत्त्व ) को धारण करोगे. (३) सेवा करने वाला कोयल पक्षी देखा उससे आप द्वादशांगी (श्राचारादि बारह भङ्ग सिद्धांत ) का अर्थ विषय प्ररूपणा करोगे. (४) सेवा करने वाली गायों का समूह देखा उससे आपकी सेवा साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध संघ करेगा. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३) ( ५ ) स्वप्न में याप समुद्र नर है उससे आप भव समुद्र तरांगे. . . (६) आपने उदयभान ( उगना ) मूर्य को देखा जिससे आप केवलझान प्राप्त करोमे. (७) आपने उदर के आंतरहों ( ) से मानुषोत्तर पर्वत को लपेटा है जिससे आपकी कीर्ति तीन भुवन में होगी. (८) आप मेरु पर्वत के शिखर पर चढ उससे आप समवसरणमें सिहासन पर बैठकर देव मनुष्यों की सभा में धर्म कहोगे. (९) आपने देवों से मुगोभिन पद्मसरोवर देखा उससे आपकी संवा भुवनपति, व्यंनर, ज्योनिपी, वैमानिक देव करेंग. (१०) परंतु आपन दो मालाएं देखी उसका फल में नहीं जानता आप ही कहे. - प्रभुने उसको कहा है उसल ! मैं दो प्रकार ( साधु और ग्रहस्थों) का सर्व विरनि देव विरनि धर्म कहूंगा उसल और दूसरे लोग वो सुनकर अपने स्थान गये प्रभुन भी चतुर्मास निर्वाह किया, .. __प्रभु पीछे विहार करके मोराक सन्निवंश तरफ गये वहां प्रभु जब प्रतिमा पारी कार्योत्सर्ग में स्थिर रहे तब प्रभु की महिमा वढाने का सिद्धार्थ व्यंतर निमित्त ( भविष्य की बातें ) कहने लगा. अछेदक नाम के निमित्तिया को द्वेष उत्पन्न हुआ और तृण हाथ में पकड़ कर कहा उस के टुकड़े होंगे वा नहीं ? व्यंतर ने ना कही वो जूठ करन को अछेदक ने तृण छेठने की तैयारी की इन्द्र ने ऐसी उसकी उन्मत्तताई देख कर अंगुली छेढदी सिद्धार्थ व्यंतर ने भी क्रोधा. यमान होकर लोगों के सामने देवमाया से चमत्कार बनाकर उसपर कलंक आरोपण कर तिरस्कार कराया जिससे अछेदक गभराकर प्रभु के चरणों में पड़ा वीर प्रभुने उसका दुःख देखकर वहां से विहार करा रास्ते में कनक खल तापस के आश्रम में चंद कौशिक सर्प को प्रति बोध किया. ' . . . __ . चंड कौशिक की कथा । . - एक महान तपस्वी साधु ने पारणा के दिन रास्ते में प्रमाद से एक छोटा मेहक अंजान वा प्रमाद से मारा था वो साथ का छोटा साधुने उस वक्त गोचरी Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने की ( खाने की) वक्त और संध्या प्रतिक्रमण में याद कराया कि उसका दंड लो परन्तु उसने दंड लिया नहीं साधु पर रात को क्रोधकर मारने को दोड़ा बीच में स्तंभ आया उससे टक्कर खाकर मर ज्योतिषी देव हुआ, और वहां से चव (मर ) कर उसी आश्रम में ५०० तापसी का अधिपति चंड कौशिक नाम का हुआ, और श्राश्रम में फल लेने को आने वाले राज कुमारों पर क्रोधी हो कर कुलाडा लेकर मारने को दौड़ा बीच में कुवा आया खबर नहीं रहने से उसमें गिरकर मरा और उसी आश्रम में दृष्टि विप सर्प हुथा और चंड कौशिक नाम से प्रसिद्ध हुआ. सर्प को प्रभु का आना देखकर बड़ा क्रोध हुआ क्योंकि उसके डर से कोई भी मनुष्य वा प्राणी जलने के भय से आता नहीं था, प्रभु श्राकर कायोसन ध्यान में मेरु पर्वत समान थिा खड़े थे तो भी गुस्सा लाकर पूर्व स्वभाव से प्रभु को जलाने को दृष्टि द्वारा सूर्य की तरफ देखकर ज्वाला फेंकने लगा परन्तु प्रभु के तंज के सामने उसकी दृष्टि का कुछ भी जोर न चला तब चर्गों में जाकर दंश किया और पिछा हटा पुनः पुनः दंश मारने पर भी प्रभु न मरे न क्रोध किया और जब लाल लोह के बदल दुध समान लोह निकला तब सर्प का कोष कुछ शांत हुआ कोमल भाव होने पर प्रभु ने बांध दिया कि हे चंड कौशिक ! कुछ समझ समझ, पूर्व में क्रोधकर तेंन कैसी युरी अवस्था प्राप्त की हैं ! तब प्रभु की शांत मुद्रा पर्वत समान धर्यता अमृत समान वचनों से अपूर्व शांति प्राप्त करते ही उसने निर्मल हृदय से विचार किया कि तुन जाति स्मरण ज्ञान हुआ और अपनी अधम दशा देखकर " मैंने यह क्या दुष्ट चेष्टा की तो भी प्रभु ने मेरा उंदार किया", ऐसा विचार कर प्रभु को नमस्कार तीन प्रदक्षिणा द्वारा कर प्रभु की आज्ञानुसार अनशन कर क्रोध रहित होकर दर में मुखकर पड़ा रहा, मार्ग में जाने वाली महीआरियों ने दूध दही घी से पूजा की वो चीकट से कीड़िओं ने आकर उसका शरीर चालणी समान काटकर कर दिया किंतु मनु ने शांत सुंधारेस का सिंचनकर स्थिर चित्तरखा, वो मरकर आठमे देवलोक (सहस्रार ) में देव हुआ प्रभु भी उसका उद्धार कर विहार कर दूसरी जगह गये. . उत्तर वाचालं गांव में नागसेन ने प्रभु को पारणा में क्षीराम दिया वो से प्रभु श्वेतांची नगरी में गये पूर्व में केशी गणधरने पनि बोधित प्रदेशी राजा ने 'यही प्रभु की महिमा बढाया. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) प्रदेशी राजा की कथा । (श्वेताम्बी नगरी में प्रदेशी राजा परलोक प्रत्यक्ष नहीं देखने से पुण्य पाप स्वर्ग नर्क नहीं मानता था और जो कोई जीव भिन्न बनाता तो विचारे मनुष्यों को संदूक में बंद कर मारता था और कहता था कि जीव कहां है। जो जीव होता तो क्यों नहीं दीखता और जीव नहीं है तो फिर पुण्य पाप पीछे को न भोगेगा, इत्यादि प्रश्न द्वारा सब धर्म कृत्य उड़ाकर स्वच्छानुसार चलता था, उसके चित्र सारथी ने दूसरे गांव मे केशी गणधर जो पार्श्वनाथ प्रभु के शिष्प परम्परा में थे, उनका अपूर्व उपदेश से बोध पाकर विनती की कि यदि आप हमारे यहां आवोगे तो हमारा राजा सुधरेगा केशी गणधर भी समय मिलने पर वहां गए और चित्र सारथी ने उद्यान में ठहरा कर राजा को फिरने के बहाने ले जाकर प्रतिबोध कराया केशी गणधर महाराज चार ज्ञान धारक होने से राजा के प्रश्नों का समाधान कर लौकिक दृष्टांत द्वारा लोकोत्तर जीव और पुण्य पाप की सिद्धि की और परम आस्तिक जैनी राजा बनाया उसका विशेष अधिकार राज प्रश्निय (रायपसेणी ) सूत्र उपांग से जान लेना) प्रभु को वहां से सुरभिपुर जाते समय रास्ते में पांच रथों से युक्त नैयक गोत्र वाले राजाओं ने वंदना की. गङ्गा नदी में उतरते विघ्न । भगवान जब सुरभिपुर तरफ आये रास्ते में सिद्धपात्र नाविक की नाव में गंगा नदी उतरने को प्रभु बैठे उस नाव में सोमिल नामके ज्योतिपी ने शकून देखकर कहा कि आज मरणांत कष्ट होगा परन्तु इस ( प्रभु ) महात्मा के पुण्य से बचेंगे वो बात होने बाद जब नाव चली आये रस्ते पानी में सुदृष्ट नामके देवने नाव बुडाने के लिये प्रयास किया क्योंकि वो सुदृष्ट्ट देव पूर्व भवों में जब सिंह था तब त्रिपृष्ट बासुदेव के भव में वीर प्रभु ने उसको मारा था वो वैर याद लाकर जब देव नाव डुबाने लगा तत्र कंवल संवल नाम के दो नागकुमार देवों ने विघ्न दूरकर नाव बचाली. कंवल संवल देवों की उत्पत्ति । * रायपसेणी सूत्र थोड़े समय में दिन्दी भाषान्तर के साथ छपने वाला है विद्याप्रेमी जैन वा जैनंतर इस ग्रंथ के ग्राहक होवें उसकी किंमत प्रायः १ || रहेगी, Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५) मधुरा नगरी में साधु दासी जिनदास नाम के दो स्त्री पुरुष (पति पत्नी) थे श्रावक के पंचम स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत में चोपगे (गौ बैल वगैरह ) न रखने की प्रतिज्ञा की थी एक दूधवाली रोज नियमित अच्छा ध योग्य दाम से देती थी जिससे दोनों को परस्पर प्रीति होगई साधु दासी ने प्रसन्न होकर उसके घर की यादी (लग्न ) मे योग्य वस्तुएं वापरने को दी । विवाह की शामा होने से दो छोटे वैल लाकर शेगणी को दिये उन्होंने नहीं रखे परन्तु वो पल जबरी से रखकर चली गई शेठाणी ने उसको रखकर धर्म सुनाया जिससे पैल तप भी करने लगे जिससे दोनों बैल भाई माफिक प्यारे लगे. ____ एक वक्त मेले के समय में अच्छे बैल को देखकर जिनदास का मित्र विना पूछे उठाकर लेगया और भांहिर वन के यक्ष की यात्रा में खूब भगाये बैलों को अभ्यास न होने से उनकी हड्डियें टूटगई रात को घर लाकर बांध दिये जिनदास को बड़ा दुःख हुश्रा परन्तु और उपाय न होने से नवकार मंत्र से आराधना कराकर धर्म संबल दिया वे दोनों नागकुमार देव हुएं । धर्म भक्त हो कर ज्ञान से जानकर धर्मनायक वीरप्रभु की सेवा कर नाव वचाली सुदंष्ट्र देव भागा दो देव पुष्प वृष्टि वगैरह से प्रभु की महिमा कर चले गये, प्रभु वहां से विहार कर रोजग्रही नगरी में आये और नालंदा पाडा में एक शालवी (कपड़ा बुनने वाला) की जगह में एक मास रहे वहां गौशाला मिला. गौशाला की उत्पत्ति । मंख नामका एक ब्राह्मण था उसकी सुभद्रा नामकी स्त्री थी वो गौ बहुल प्राह्मण की गौशाला में रहता था वहां पुत्र जन्म होने से पुत्र का नाम गौशाला हुआ प्रभुं के एक मास के उपवास के पारणा में विजय शेठ के घर को देवों ने पंच दिव्य से प्रभु का महिमा किया था को देखकर गौशाला प्रभु को बोला कि मैं भान से आपका शिष्य हं. प्रभु का दूसरा पारणा नंद शेठने पकवान से कराया, तीसरा पारणा सुनंद शेठने परमान्न से कराया चोथे मास के उपवास का पारणा कोलाग सन्निदेश में बहुल नाम के ब्राह्मण ने दूध पाक से कराया वहां भी देवोंने पंच दिव्य से महिमा किया. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) - पूर्व स्थान में गोशाले की चेष्टाएं. प्रभु को न देखने से पीछे ढूंढता ढूंढता अपनी पूर्व भिक्षा के उपकरण छोड़ कर मुख मस्तक मुंडाकर कोलाग सन्निवंश में स्वयं शिष्य होकर साथ रहा. प्रभु जब मुवर्ण खल गांव की गये, रास्ते में दूध वाले एक बड़े मट्टी के बरतन में दूध पाक बनाने थे वो देखकर गोशाला बोला भोजन कर पीछ जावेंगे सिद्धार्थ ध्यंतरने कहा वो वरनन फुटकर दुध पाक नयार न मिलेगा धवालों ने वो बात जानकर रक्षा की तो भी बरतन फूट गया वो देखकर गांशाला ने निश्चय किया . कि जो होने वाला है वो होता ही है । प्रभु वहां म विहार कर ब्राह्मण गांव में गये वहां पर नंद बार उपनंद दो भाई थे वे दोनों अलग रहन थे नंद के वहां प्रभु ने पारणा किया गौशाला उप नंद के घर में वासी अन्न मिला जिससे गुस्सा लाकर श्राप से उसका घर जला डिया प्रभुवहां से चंया नगरी गये दो मास के दो वक्त तप कर नीसरा चतुर्मास पूरा किया. वहां से प्रभु विहार कर कोल्लाग सन्निवंश में गए उजाड़ घर में कार्यो, त्सर्ग में रहे. गोगाला भी साथ था उसने वहां पर एक सिंह नामक जागीरदार के पुत्र ने विद्युन्मति नाम की दासी के साथ और में छुपा संबंध किया. वो देख कर इंसने लगा गौशाला पर क्रांध कर वो मारने लगा. गौशाला बुम पाड़ने लगा तब छोड़ा | गोशाला को सिद्धार्थ व्यंनर ने हित शिक्षा दी कि ऐसे समय में माधुओं को उपेक्षा करनी योग्य है गंभीरता रखनी हांसी नहीं करनी । सब जीव कर्मवश अनाचार भी करते हैं. प्रभु वहां से पानालक गांव में गए वहां उजाड़ घर में ध्यान में खड़े थे वहां स्कंद नामका युवक को दासी साथ एकांत में दुराचार करता देख के गोगाला ने हांसी की और उसको मार खाना पड़ा प्रभु वहां मे विहार कर कुमार सन्निवेश में चंपा रमणीय उद्यान में कार्योस्मर्ग (ध्यान ) में रहे, पार्श्वनाथ के साधनों का गोशाले से मिलाप. मुनि चन्द्र नाम के मुनि बहुत साधुओं के परिवार के साथ विहार करते । आय उनको दबकर पूछा आप कौन हैं। वे वाले हम निग्रंथ है गोशाला बोला Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A ( ११७ ) आप मेरे गुरु समान नहीं । जिस से कोई साधुने कहा कि जैसा तूं है ऐसा तेरा गुरु भी होगा । गोशाला ने गुस्सा लाकर कहा कि जहां तुम ठहरे हो वो कुमार का आश्रम जल जाओ वे बोले हमें डर नहीं ऐसा सुनकर चला गया सब बातें प्रभु को सुनाई सिद्धार्थ व्यंतर बोला कि वे साधू हैं साधुओं का आश्रम तेरे श्राप से नहीं जलेगा रात के समय मुनिचन्द्रजी ध्यान मे खड़े थे अंजान में कोई कुंभार ने चोर जानकर उन पर महार किया मरने के समय शुभ भाव से अवधि ज्ञान उत्पन्न हुआ उसकी महिमा करने को देव भाये वो प्रकाश देखकर गोशाला बोला देखो पार्श्वनाथ के साधुओं का आश्रम जलता है. सिद्धार्थ ने सत्य वात कही वो गोशाला को असत्य मालूम होने लगी जिससे वहां जाकर देखने लगा और साधुओं की महिमा देखकर और कुछ नहीं कर सका जिससे तिरस्कार कर पीछा लोटा. g प्रभु वहां से विहार कर चोरागांव गए रास्ते में राज्य पुरुषों ने प्रभु को गुप्त बात जानने वाला व पर राज्य का दूत समझकर कैद में डालने का विचार किया, इतने में सोमा, जयंती, नामकी दो साध्वीएं जो उत्पल निमित्तिया की वैने थी वे चारित्र संयम में असमर्थ होकर परिव्राजिका ( वावी ) बनी थी उन्होंने सत्य बात कहकर बचाये, प्रभुने पीछे मष्ट चंपा में जाकर चोमासी तप कर चोमासा पूरा किया ( चौथा चौमासा ). प्रभु पीछे विहार कर कायंगल नामके सनिवेश में गये पीछे श्रावस्ती नगरी में जाकर बहार उद्यान में ध्यान में रहे. गोशाला का मृत मांस भक्षण ! पितृदत्त नाम का एक वणिक था, उसके बच्चे जन्मते ही मर जाते थे सत्र ज्योतिषी को पूछने पर कहा कि यदि साधू को मृत पुत्र का मांस दूध पाक में मिलाकर खिलाया जावे तो जीता रहने मूर्ख माता ने निर्लज्ज होकर वैसा ही किया सिद्धार्थ व्यंतर से आज मांस खाना पड़ेगा ऐसा जानकर गोशाला और घर छोड़ कर भाग्यवान वणिक के घर को शुद्ध आहार निमित्त आया परन्तु वो ही दूध पाक मिला वो लाकर खाया सिद्धार्थ ने कहा तैने मांस ही खाया गोशाबोला नहीं मैंने दूध पाक खाया, गोशाला ने वमन कर निश्चय करलिया पीला Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८) आकर धाप देने लगा, मालिक ने श्राप के भय से घर का दरवाजा बदल दिया था उससे गोगाले को घर मिला नहीं उससे अधिक गुस्सा में पाकर गली में जितने घर थे वे श्राप देकर जला दिये. प्रभु वहां से विहार कर हरिद्र सनिवेश में आये और हरिद्र वृक्ष के नीचे ध्यान में खड़े रहे. मार्ग में पंथीओं ने अग्नि जलाई आगने बहकर प्रभु का पांच जलाया तो भी प्रभु नहां से हटे नहीं गोशाला अग्नि देखने ही भगा, प्रभु पीछ मंगला गांव में वासुदेव के मंदिर में ध्यान में खड़े रहे वहां पर गोशाला छोटे बच्चों को आंख टेडी करके डराने लगा. वालकों के रोने से मा वापों ने आकर मुनि का रूप देखकर गोशाला को कहा कि यह मुनि पिशाच है ऐसा कहकर छोड दिया प्रभु ने पीछे आवनं गांव में जाकर बलदेव के मंदिर में ध्यान किया वहां पर गौशाला ने मुख टंडा कर बच्चों को डराये, लोगों को गुस्सा आया किन्तु उसको पागल कहकर छोड़ दिया किन्तु उसके गुरु को मारे कि फिर ऐसा दुष्ट शिष्य न रखे ऐसा विचार कर प्रभु को मारने को आये बलदेव की मूर्ति देवाधिष्ठित होकर हाय चोड़ा कर हल से प्रभु को बचाये, प्रम वहां से चौराक सन्निवंश में गये. वहां कोई मंडप में भोजन होता था वो देखने को गोगाला नीचा होकर देखने लगा चौर की भांति से उसको मारा गोशाला ने क्रोधी होकर मंडप को श्राप से जला दिया. ___ पीछे प्रभु कलंचुक नाम के सन्निवेश में गए वहाँ पर मेघ और काल हस्ती दो भाई थे, काल इस्ति अनजान होने से प्रभु को दुःख देना शुरु किया मेघ ने प्रभु को पिछान लिये और प्रभु को छुड़ाये और क्षमा मांगली. प्रभु वहां से अधिक कठिन कर्मों को काटने के लिये लाट देश में गये वहां पर बहुत दुःख पाये, किन्तु प्रभु का चित्त निवल या वहां से अनार्य क्षेत्र में गये रास्ते में दो अनार्य ने अपशुकन की बुदि से मारने को दोड़े इन्द्र ने आकर प्रभु को बचाये और गुस्सा लाकर दोनों के प्राण लिये प्रभु ने भद्रिका मे चोमासा किया (पांचवां चोपासा) वहां से प्रभु विहार कर नगर वहार पारणा कर तंबाल गांव को गये पार्श्वनाथ के नंदिपेण नामक शिष्य सह आकर कायोत्सर्ग में रहे थे उन के साधुओं के साथ भी मोशाला ने पूर्व की तरह अनुचित्त वर्तन किया था भेद इनना ही था कि यहां पर दरोगा (आरक्षक) के पुत्र ने भालों से चोर Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की भांति से मुनि को मारे थे वे मरने के समय अवधि ज्ञान को शुभ भाव से पाकर स्वर्ग में गये प्रभु वहां से कुपिल सन्निवेश को गये. भारक्षक, (कोटबाल ) ने चोर की बुद्धि से प्रभु को पकड़े परन्तु पार्थनाय की साध्वियें जो पावी बनगई थी उन विजया प्रगलभा ने पिछानकर समझाकर छुड़ा दिये ऐसा देखकर गोशाला प्रभु से अलग होगया किन्तु अशुभ कर्म से रास्ते में ५०० चोरों ने उसको बहुत कष्ट दिया. जिससे फिर प्रभु के पास ही रहने का विचार कर प्रभु को ढूंढने लगा परन्तु मह तो वैशाली नगरी में जाकर लुहार की जगह में ध्यान में खड़े रहे थे, लुहार पहले बीमार था और दूसरी जगह गया था वहां से अच्छा होकर आया तब प्रभु को देखकर अपशकुन की शंका से क्रोधायमान होकर बेगुनाह प्रभु को मारने को घण लेकर आया इन्द्र को ज्ञात होजाने से उसी समय आकर लुहार को रोक कर दंड दिया वहां से प्रभु ग्रामाक सनिवेश में गए वहां पर विभेलक यच ने प्रभु का महिमा किया पीछे प्रभुजी शालिशीर्ष गांव के उद्यान में माय मास में कार्योत्सर्ग में रहे थे वहां पर त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में एक अपमान की हुई रानी मर के भ्रमण करती हुई व्यंतरी हुई थी उसने पूर्व भव का वैर याद करके प्रभु को दुःख देने को तापसी का वेश लेकर जटा में शीतल जल भर कर प्रभु उपर छांटा जाड़े की ठंडी में ठंडा पाणी वज प्रहार समान होता है जो दूसरा सहन नहीं कर सका और प्रभु ने समभाव से सहन किये जिससे वैर छोड़कर व्यंतरी स्तुति करने लगी प्रभु ने कष्ट के समय भी दो उपवास का नियम नछोड़ा जिससे निर्मल भाव से लोकावधि ज्ञान (जिससे रूपी द्रव्य जो लोक में है वो सब देखे ) उत्पन हुआ. प्रमु वहां से विहार कर भद्रिका नगरी में आकर छठा चोमासा में चार मास का तप वगैरह विविध अभिग्रहों से दुष्ट कर्मों को दूर किये. .. छे मास बाद गौशाला फिर मिला गांव बहार पारणा कर आठ मास तक मगध देश में विना उपसर्ग विहार किया वहां से प्रभु ने विहार कर सातवा योमासा आलंभिका नगरी में चतुर्मासी तप से पूर्ण किया गांव पहार मभु ने पारणा कर प्रभु कुंडग सप्रिवेश में गए और वासुदेव के मंदिर में कार्योत्सर्ग Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) किया गोशाला ने वासुदेव नरफ पीठ की लोगों ने वैमा देखकर उसकी मारा चहां से मर्दन गांव में बलदेव के मंदिर में ध्यान किया गोशाला ने गुप्त भाग मूर्ति तरफ किया लोगों ने गुस्सा लाकर फिर मारा मुनि का रूप जानकर छोड़ दिया. प्रभु वहां से विहार कर उन्नाग सन्निवेश में गए रास्ते में दांत जिसके मुंह के बहार निकले थे ऐसे स्त्री पुरुष का जोड़ा देखकर हांसी की कि देखो ! कि ब्रह्माजी ने ढूंढ कर कैसी (दंतुर ) जोड़ी मिलाई हूँ ! ऐसा कटु वचन सुनकर उन्होंने उसी समय गोशाले को पीटकर हाथ पांव बांधकर बांस की झाड़ी (कुंज) में फेंक दिया किंतु प्रभु का छत्रवर मानकर जान से नहीं मारा और छोड़ दिया. वहां से प्रभु गो भूमि गये, और राजग्रही को जाकर आठव चीमामा चौमासी तप ( चार मास के उपवास ) से पूर्ण किया, दो मास विहार कर चीमासा की योग्य जगह न मिलने से अनियत वाम कर नवमा चौमासा पूर्ण किया. • पीछे रास्ते में कुर्म गांव तरफ जाने गौशाला ने मधू को पूछा कि यह तिल का पौधा में तिल होंगेवा नहीं प्रभु ने कहा कि होगा गौशाला ने प्रभु का वचनं जूठा करने को उठाकर एक जगह पर रखड़िया प्रभु का वचन सच्चा करने को व्यंतर देव ने वृष्टि की गो की खुरी लगने से वो पोढ़ा खड़ा भी हो गया और पुष्पों के जीव एक ही फली में तिल होगये. प्रभु वहां से विहार कर कुर्म गांव में गये, वहां पर वैक्यायन तापस ने आतापना लेने को माथे की जटा ( वालों का समूह ) खुला रखी थी जुएं जमीन पर गिरती थी उसकी दया की खातिर उसको उठाकर फिर जटा में रखता था गौशाला ने उसको युका शय्यातर ( जुएं का घर ) वारम्वार कह कर हांमी करने लगा तापस को गुस्सा आया उसने तेजुलेइया गोशाले पर छोड़दी वो जलने लगा गोशाला का रुदन सुनकर दयासागर प्रभु ने शीतलेश्या छोड़कर बचाया गोशाला बच गया और रास्ते में प्रभु से पूछा हे प्रभो ! तेजुलश्या क्या वस्तु हैं कैसे प्राप्त होती हैं प्रभु ने बताया कि इस तरह तप करने से होती हैं निरन्तर छठ ( दो उपवास ) और पारणा में एक मुटी भर उड़द उसके उपर तीन चुलु पानी गरम पानी और सूर्य सामने खड़े रहकर ~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२१) ध्यान करना छ मास में वो सिद्ध होती है गोशाला की कार्य सिद्धि इच्छित होगई और सिद्धार्थपुर तरफ जाने के समय रास्ते में प्रभु को पूछा कि पूर्व का तिलका पौधा देखो कि उगा है या नहीं प्रभु ने कहा उगा है गोशाला अविश्वास लाकर वहां गया और देखा तो वैसाही तैयार देखा उसकी फली तोड़ी तो भीतर सातों ही तिल देखकर निधय किया कि जीव मरकर पुनः ( फिर ) वहांही उत्पन्न होते हैं गोशाला तेजोलेश्या सिद्ध करने को श्रावस्ती नगरी को गया, और कार्य सिद्धि कर पार्श्वनाथ के साधु पास अष्टांग निमित्त शीखकर सर्वज्ञ पद धारन किया प्रभु ने श्रावस्ती नगरी में जाकर विविध तपश्या से. १० वां चातुर्मास निर्वाह किया. प्रभु वहां से विहार कर म्लेच्छों की दृढ भूमि में गये वहां पेढाल गांव की बाहर पोलास चैत्य में अठम तपकर एक रात्रि रहे और ध्यान करने लगे. (इन्द्र की प्रशंसा और प्रभु को महान कष्ट) प्रभु की ध्यान में स्थिरता देखकर इन्द्र प्रशंसा करने लगा कि वीरभभु ऐसे ध्यान में निश्चल है कि तीन लोक में कोई भी उनको चलायमान करने को समर्थ नहीं वीरप्रभु की प्रशंसा संगम नाम के इन्द्र के सायानिक देव से सहन नहीं. हुई और खड़ा होकर प्रतिज्ञा कर बोला कि मैं उनको चलायमान करूंगा. इन्द्र को कहा कि आपको वीच में नहीं आना इन्द्र मौन रहा और संगम ने आकर वीरप्रभु के उपर ( १ ) धूल की दृष्टि की जिससे प्रभु का मुख नाक भी ढक गये श्वास भी नहीं लेसक्ते थे, (२) पीछे वज्र मुखवाली कीडिये बनाकर प्रभु के शरीर को चालणी समान कर दिया कि कीड़ी एक तरफ से भीतर घुसकर दूसरी तरफ निकलने लगी पीछे वज्र समान, (३) डांस वना फर दुःख दिया, पीछे (४) तीक्ष्ण मुख वार्ली घी मेल, ( ५ ) वीछु, (६) नौला, (७) सर्प, (८) उदर के जरिये से दुःख दिया, पीछे (8) जंगली मदोन्मत्त हाथी से और हथणी से (१०) दुःख दिया (११) पिशाच के अटूट हास्य, पीछे ( ११) शेर की दाहों से और नखों से पीडा की, (१२) पीछे त्रिशला और सिद्धार्थ राजा का रूप बनाकर उनके विलाप वताकर चलायमान करना चाहा पीछे ( १३ ) सेना बनाकर मनुष्यों द्वारा परों पर ६६ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) रसाड बनवाई (१४) चंडाला नाम के पक्षियों की चांचों से दुःख दिया (१५) प्रचंड वायु से दुःख दिया, ( १६ ) पीछे बड़ा वायु से दुःख दिया (१७) हजार धारवाला चक्र प्रभु उपर जोर से 'टाका' जिससे प्रभु जमीन के भीतर घुटण तक चले गये तो भी प्रभु को स्थिर देखकर (१८) दिन करके बोला कि रात्री पूर्ण होगई आप चले जाओ, प्रभु ने उपयोग देकर रात्रि जानली. (१९) देवना ने देवरूप प्रकट कर कहा कि इच्छा होवे सो मांगलो तो भी प्रभु मौन रहे तो (२०) देवागनाओं के हाव भाव से चलायमान करना चाहा तो भी स्थित रह. ऐसे एक रात्रि में २० भयंकरं उपसर्ग करके चलायमान करने की कोशीश की तो भी प्रभु ध्यान में मग्न रहे न क्रोध किया. [कवि कहता है कि क्रोध करने योग्य संगम था ना भी प्रभुने क्रोध न किया जिससे क्रोध स्वयं गुस्मा (क्रोध ) कर भाग गया ]. देवता दिन उगने बाद भी जहां प्रभु गोचरी जावे वहां श्राहार को अशुद्ध कर देता था जिससे ये मास तक आहार शुद्ध न मिलने से प्रभु भूखे रहे परन्तु अशुद्ध आहार न लिया अंत में वज्र गांव में भी देवता ने अशुद्ध आहार करदिया वहां से भी प्रभु पीछे लोटे और कायोत्सर्ग में स्थित रहे जिस से देवना थक गया और प्रभु को शुद्ध ध्यान में देखकर अवधि नाम से निश्चय कर प्रभु को वंदन कर पीछा सौधर्म देवलोक तरफ चला प्रभु भी पीछे वन भूमि में गोचरी गये जहां पर एक गांवालण ने खीर से पारणा कराया जहां पर यमुधारादि पांच दिव्य प्रकट हुए. इन्द्र का पश्चाताप दुष्ट को दंड. इन्द्र ने जब प्रशंसा की और संगम दुःख देने को गया और प्रभु ने सत्र दुःख सहन किया वो दुःख मन दिवाया ऐसा मानकर इन्द्रने के मास तक सब वार्जित्रादि शोख बंध कराकर आप उदासीन पणे बैठा था जय प्रभु का दुःख दूर हुआ परीक्षा भी पूरी होगई और अपना श्याम बदन लेकर संगम देव आने लगा इन्द्रने, उसके दुष्ट कृत्यों को याद कर विमुख होकर दूसरे देवों के साथ कहलाया कि यहां से तूं निकल ना मैं तेरा मुख देखना नहीं चाहता. इन्द्र कहुकम Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिसह इन्द्र से प्रभु का सारसी में कुशल (१२३) मे संगम का तिरस्कार कर उन्होंने निकाल दिया. एक सागरापम का वाकी का आयु पूरा करने को मेरु पर्वत पर चला गया. अग्रमहिपी ( मुख्य देविएं) भी इन्द्र की आज्ञा लेकर उसके पीछे चली गई. ___ आलभी नगरी में प्रभु को कुशल पूछने को हरिकांन इन्द्र आया, और स्वतांवर नगरी में हरिसह इन्द्र आया और श्रावस्ती नगरी में इन्द्र कार्तिक स्वामी की मूर्वि में आकर वंदना की जिससे प्रभु की बहुत महिमा हुई. कौशंबी नगरी में मूर्य चन्द्र प्रमु को बंदन करने को आये, वाणारसी में इन्द्र, राजग्रही में इशानेन्द्र मिथिला नगरी में जनक राजा और धरणेन्द्र ने प्रभुजी को कुशल पूला और अग्यारवां चौमासा प्रभुजी ने वैशाली नगरी में निर्वाह किया. प्रभु का कठिन अभिग्रह (तप) प्रभु जब मुसुमारपुर गये वहां चमरेन्द्र का उत्पात हुआ. ( आश्चर्यों में कहा गया है ) उसके बाद प्रमुजी कोशांवी नगरी गये वहां शतानिक राजा था, मृगावनी उसकी राणी थी, विजया प्रतिहारी थी वाठी धर्म पाठक था, मुगुप्त प्रधान था, प्रधान की भार्या नंदा श्राविका थी वो मृगावती की सखी थी प्रभुने पोस मुदी १ को अभिग्रह लिया कि स्तूप-छाज ( पड़ा) में उडद के वाकला देली में रहकर दुपहर के बाद राज पुत्री जो दासी पने में हो और माथा मुंड हो, पग में वेड़ी हो, आंख में आंसु हो तेले का उपवास का पारणा हो ऐसी बालिका भोजन देवे वो लेना ऐसे अभिग्रह से गांव में फिरें परन्तु श्राहार का योग नहीं मिला, इस समय शतानिक राजा ने चंपा नगरी को लंटी, दधि वाहन राजा मारा गया उसकी रानी धारिणी को कोई सिपाई ने पकड़ी वो शील भंग की भांति से मरगई पुत्री वसुमती को पकड कर सिपाई ने पुत्री बनाकर कोसंबी नगरी में बाजार में वेची धनावह शेठ ने उसको लेकर चंदना नाम रखा शेठ की मूला स्त्री को डर लगा कि दोनों का प्रेम वढताजाता है वो पत्नी भी हो जावेगी, ऐसा विचार कर शेठ की गर हाजरी में उसका शिर मुंडाकर पांव में बेड़ी डालकर घर में कैद कर मूला चली गई भेठ चौथे दिन घर को पाया चंदना की दुर्दशा देखकर डेली में बैठाकर बड़ी तोड़ने को लुहार को बुलाने को गया भूखी पालिका को उड़ढ के वाकुला खान को दिये सोपड़े में रखकर बालिका चाहती थी कि साधु को देकर खाउं! ऐगे समय Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) में प्रभु आाये देखकर चंढना को हर्ष हुआ प्रभु पीछे लोट तत्र श्रमु आए और अभिग्रह पूरा होने से प्रभु ने बाकुला का दान लिया देवों ने पंच दिव्य प्रकट कर महिमा किया बेड़ी के आभूषण होगये और बाल नये आगये. मृगावती रानी भी आई अपार धन की वृष्टि देखकर शतानीक धन लेने लगा इन्द्र ने रोका कि यह धन चंदना के लिये है वीर मनु की प्रथम साध्वी यह होगी दीक्षा उत्सव में धन को व्यय होगा इन्द्र चला गया जंभिका गांव में आकर इन्द्र को कहा कि इतने दिन बाद आप को केवल ज्ञान होगा. प्रभु को महान् उपसर्ग | टिकि गांव बहार प्रभु जब कार्योत्सर्ग में खड़े थे वहां पर त्रिपृष्ट भव का बैरी शय्या पालक जिसके कान में उष्ण गंग डाली गई थी मरकर भव भ्रमण कर गोवाल हुआ था वो बैल लेकर प्रभु के पास आकर बोला हे साथी ! इन बैलों की रक्षा करना वो चला बैल भी चले गए वो पीछा आया बैल नहीं लौटे प्रभु को पूछा के नहीं बोले तत्र उसने गुस्सा लाकर वारीक दो कीले बनाकर दोनों कान में डाल दिये और कोई न जाने इस तरह परस्पर मिला लिये म जब मध्य अपापा नगर में आये तव सिद्धार्थ वणिक के घर को गोचरी गये खरक वैद्य ने सिद्धार्थ से मिलकर चेष्टा से दुःख जानकर उद्यान मैं जाकर प्रभु के कीले निकाले संगहिणी औषधि से आराम किया वहां पर लोगों ने स्मरणार्थ मंदिर बनाया दोनों दवा करने वाले स्वर्ग में गये शय्यापालक गोवाल मर सानवीं नर्क में गया. सव उपसगों में कठिन यह था कालचक्र जो संगम देव ने मारा था वो मध्यम था जघन्य में शीतोपसर्ग जो पृतना ने किया था वो था सव उपसर्गो को प्रभु ने समभाव से सड़न किंय. तणं समणे भगवं महावीरे अणगारे जाए, इरियासमिए भासासमिए एमणासमिए श्रायाण मंडमत्त निक्लेवणासमिए उच्चारपासवण खेल संघाणजल्लारिट्ठावणियासमिए मणसमिए वयसमिए कायममिए मणगुते वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुत्तिंदिए Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) गुत्तबंभयारी अकोहे प्रमाणे अमाए अलोहे संते पसंते उवसंते परिनिव्वुडे अणासवे अममे अकिंचणे छिन्नगंथे निरुवलेवे, कंसपाई इव मुक्कतोए, संखे इव निरंजणे, जीवे इव अप्पडिहयगई. गगणमिव निरालंबणे, वाऊ इव अप्पडिबद्धे. सारयसलिलं व सुद्धहियए पुक्खरपत्तं व निकालेवे, कुम्मे इव गुत्तिदिए. खग्गिविसाणं व एगजाए; विहग इव विष्पमुक्के, भारंडपक्खी इव अप्पमत्ते' कुंजरे इव सोंडीरे, वसहे इव जायथामे, सीहे इव दुद्धरिसे, मंदरे इव निकंपे, सागरे इव गंभीरे, चंदे इव सोमलेसे, सूरे इव दित्ततेए, जच्चकणगं व जायसवे, वसुंधराइव सबकासविसहे, सुहुयहुयासणे इव तेयसा जलंते ॥११॥ ___ इमेसि पयाणं दुनि संगहणिगाहारो-” कंसे संखे जीवे, गगणे वाऊ य सरयसलिले । पुक्खरपत्ते कुम्मे, विहगे खग्गे य भारंडे ॥ १॥ कुंजर वसहे सीहे. नगराया चेव सागर मखोहे । चंदे सूरे कणगे, वसुंधरा चेव हूयवहे ॥ २ ॥” नथि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधे-से अपडिबंधे चउबिहे पन्नते, तंजहा दबो, खित्तो, कालो, भावो । दबो, णं सचित्ताचित्तमीसेसु दब्बेसु, खित्तो णं गामे वा नगरे वा अरगणे वा खित्तेवा खले वा घरे वा अंगणे वा नहे वा, कालो एं समए वा प्रावलिश्राए वा प्राणापाणए वा थोवे वा खणे वा लेवे वा मुहत्ते वा अहोरत्ते वा पक्खे वा मासे वा उउए वा अयणे वा संवच्छरे वा अन्नयरे वा दीहकालसंजोए, भावनो णं कोहे वा माणे वा मायाए वा लोभे वा भए वा पिज्जे वा दोसे वा कलहे वा अभक्खाणे वा पेसुन्ने Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६) __ वा परपरिवाए वा अरहरई वा मायामोसे वा मिच्छादसणसल्ले वा ग्रं० ६०० ) तस्त पं भगवंतस्स नो एवं भवइ ॥ ११७ ॥ .. से णं भगवं वासावासवज्जंअहगिम्हहेमंतिए मासे गामे एगराइए नगरे पंचराइए वासीचंदणसमाणकप्प समतिणमणिलेडुकंचणे समदुक्खसुहे इहलोगपरलोगअप्पडिवद्धे जीवि. यमरणे अनिरवकंखे संसारपारगामी कम्ममत्तुनिग्घायणट्ठाए अभुट्टिए एवं च णं विहरड् ॥ ११८ ॥ भगवान के चारित्र में निर्मल गुण । महावीर प्रभु के साधु पणे में इयर्या समिति (देखकर पगधरना) भापासमिति ( विचार पूर्वक बोलना ) एषणा समिति (शुद्ध निर्दोष गोचरी करना) अपनी वस्तुएं देखकर लेना छोड़ना और शरीर मल को निर्दोष निर्जीव स्थान पर छोड़ना ये पांच समिति युक्त थे दूसरों को पीड़ा नहीं करते थे मन वचन काया की समिति गुप्ति पालते थे अर्थात् अशुभ वर्तन को छोड़ शुभ और शुद्ध वर्तने ग्रहण करते थे गुप्त, गुप्त इंद्रिय गुप्त ब्रह्मचारी अर्थात् पाप से बचते थे पापों से इंद्रियों को छुड़ाते थे, ब्रह्मचर्य की रक्षा करते थे क्रोध मान माया लोभ ये चार दोप से रहित थे शांत प्रशांत उपशांत अर्थात् भीतर से मुख मुद्रा से वाह्य चेष्टाओं से भी क्रोधादि रहित थे ( उन्मत्तता छोड़ सुशीलता धारण की थी) परिनिवृत्त (संताप रहित ) आश्रव (तृष्णा) रहित थे ममता छोड़ दी थी कुछ भी द्रव्य नहीं रखा था, भीतर वहार की गांठ छोड़ दी थी निर्लेप कर्म लेप से दूर थे ( नया कर्म नहीं होने देते थे ) कांसी के पात्र में पानी का लेप नहीं होता ऐसे प्रभु निःस्नेह थे, शंख की तरह अंजन (मेल ) रहित निर्मल निरंजन थे जीव जैसे दूसरी गति में बिना रुकावट जाता है ऐसे. वो भी बिना विघ्न ममत्व विहार करते थे जैसे आकाश विना आधार है ऐसे प्रभु किसी का आधार नहीं लेते थे वायु माफक अबंधन थे अर्थात् वायु सर्वत्र जाना है ऐसे वो भी सर्वत्र विहार करते थे शरद ऋतु के पानी समान निर्मल Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) कमल के पसे माफिक लेप रहित थे कछुवा की तरह इंद्रिय वश रखते थे खड्म ( गेंडा ) के एक शींग की माफिक एकड़ी थे राग द्वेष को छोड़ दिया था, पक्षी माफक परिग्रह रहित थे भारंड पक्षी की तरह अप्रमत थे, हाथी की तरह शूरवीर थे बैल की तरह बलवान, सिंह माफक निडर और मेरु पर्वत की तरह कंप रहित थे, समुद्र की तरह गम्भीर चन्द्र की तरह सौम्य लेश्या वाले, सूर्य की तरह देदीप्यमान तेजवाले उत्तम सुवर्ण जैसे रूपवाले, पृथ्वी की तरह सब ( आर ) फरसों में समभावी थे निर्मल घी से सिंचन किया हुआ अनि समान तेज वाले थे भगवान को विचरने में कोई भी जगह प्रतिबंध नहीं था, प्रतिबंध का स्वरूप । द्रव्य से- सचित अचित वा दोनों प्रकार का द्रव्य सम्बन्ध न था. क्षेत्र से गांव नगर अरण्य क्षेत्र खला, घर आंगणा आकाश में कहां भी ममत्व न था. काल से समय आवलिका श्वासोश्वास वा दिन रात वा वरसों तक का थोडा वडा ममत्व न था. भाव से क्रोध मान माया लोभ, भय हास्य, प्रेम द्वेष, कलह, जूठा कलंक चूगली परनिंदा रति अरति माया कपट, मिध्यात्वशल्य भगवान को उनमें से कोई भी दोष नहीं था. प्रभु का दमस्त विहार. वर्षा में चार मास एक जगह रहते थे, आठ मास फिरते थे. गांव में एक रात्रि, नगर में पांच रात्रि, जैसे चंदन काटने वाली बांसी को भी चंदन सुगंधी देता हैं ऐसे भगवान् दुष्टों पर भी निरागीय करुणा धारक थे. तृण मणि पत्थर सुवर्ण पर समान भाव धारक थे, दुःख सुख में समता धारक थे. इस लोक परलोक में कुछ भी राग द्वेप नहीं करते थे जीवित मरण से निराकांक्षी थे. संसार पार जाने वाले कर्म शत्रु नाश करने को उद्यमवान होकर विचरते थे. तस्त ं भगवंतस्स अणुत्तरेणं नाणेणं अणुत्तरेणं दंसऐणं अणुत्तरेणं चरित्तेणं अणुत्तरेणं श्रालएणं श्रणुत्तरेणं वि Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) हारेणं अणुत्तरेणं वीरिएणं श्रणुत्तरेणं श्रज्जवेणं श्रणुत्तरेण मद्दवेणं अणुत्तरेणं लाघवेणं अतरार खेतीए अत्तराए गुत्ती अणुत्तराए तुट्ठीए अगुत्तरेणं सच संजमतवसुचरित्रफलनिव्वाणमग्गेणं. अप्पाणं भावमाणस्स दुवालस संवच्छराई विइकताई तेरसमस्त संवच्छरस्त अंतरा वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं दुच्चे मासे चउत्थे पक्खे वइसाहसुद्धं तस्स णं वइसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं पाई गमिणीए छायाए पोरिसीए अभिनिविट्टाए पमाणपत्ताए सुव्वणं दिवसेणं विजएणं मुहुतेणं जंभियगामस्स नगरस्स वहिना उज्जुवालियाए नईए तीरे वेयावत्तस्स चेइअस्स दूरसामंते सामागस्स गाहावईस्स कट्टकरणंसि सालपायवस्त हे गोदोहियाए उक्कडुनिसिज्जा यायावणाए यायावेमाणस्स बट्टेणं भत्तेणं पापएवं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागणं झाणंतरिचाए वट्टमाएस अयंते अणुत्तरे निव्वाघा निरावरण कसि पडिपुणे केवलवरनापदंसणे समुप्पन्ने ॥ ११६ ॥ भगवान को केवल ज्ञान. महावीर प्रभु का अनुत्तर ज्ञान, दर्शन, चारित्र आलय ( स्थान में निर्ममत्व ) विहार, वीर्य, सरलता, कोमलता, लघुता, क्षांति, मुक्ति, गुप्ति, संतोष, सत्य, संयम, सदाचरण, वगेरह सब श्रेष्ट होने से मुक्ति का फल इकट्ठा करके आत्मा का स्वरूप चितवन करते हुए बारह वरस जब पूरे हुऐ. बारह वर्षों का तप. १२ एक मासी तप. १ छे मासी. तप. १ छे मास में पांच दिन कम, ७२ पक्ष चमण. ६ चौमासी १२ तेला 1 · Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६) • २ तीन मासी . २१८ बेला २ ग्रहाई मासी २ भद्र प्रतिमा ६ दो मासी ४ महाभद्र प्रतिमा २ देढ मासी १० सर्वभद्र प्रतिमा इन दिनों में तपश्चर्या के भीतर ३४६ दिन खाया था. जब तेरहवां वर्ष आया तब ग्रीष्म ऋतु दूसरा महिना चौथा पक्ष वैशाख सुदी १० पूर्व दिशा की छाया में तीसरे पहर के अंत में पुरुष प्रमाण छाया के समय सुव्रत दिवस, विजय मुहुर्च में जूंभिक गांव के बाहर ऋजु वालिका नदी के किनारे वैयाव्रत्य जक्ष के चैत्य नजदीक श्यामाक जमींदार के खेत में शाल वृक्ष के नीचे गोदोहिका उत्कट आसन में आतापना लेते थे चउविहार वेले का तप था, उत्तरा फाल्गुनी का चन्द्र नक्षत्र के योग में शुक्ल ध्यान में स्थित मभु को अनंत, अनुत्तर, अनुपम निर्व्याघात, (निराबाध ) निरावरण सम्पूर्ण, केवलवर ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ. तेणं कालणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे अरहा जाए, जिणे केवली सबन्नु सव्वदरिसी सदेवमणुप्रासुरस्स लोगस्स परित्रायं जाणइ पासइ सव्वलोए सव्वजीवाणं प्रागई गई ठिई चवर्ण उववायं तक्कं मणो माणसिगं भुत्तं कडं पडिसेवियं प्रावीकम्मं रहोकम्मं, अरहा परहस्स भागी, तं तं कालं मणवयकायजोगे वट्टमाणाणं सव्वलोए सव्वजीवाणं सब्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरइ ॥ १२० ॥ उस केवल ज्ञान से प्रभु त्रिलोक पूज्याह हुए जिनेश्वर, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, देव मनुष्य असुर वगेरह के और लोका लोक वर्तमान भूत भविष्य सब के पर्यायों को जानने वाले हुए. देखने वाले हुए सब लोक के सब जीवों की श्रागति, गति, स्थिति च्यवन, उपपात (देवों का परण जन्म ) तर्क मन के अभिप्राय खाया हुआ किया हुआ, उपयोग में लिया प्रकट किया वा छ्या किया. वे सब बातों को जानने वाले हुए और तीन लोक Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) के पूज्य. पूना के योग्य उस वक्त के वा सब जीवों के मन वचन काया के पापारों को जानने वाले हुए और जानने हुए विचरते रहे अर्थाद केवल ज्ञान ही से सब वान को जानने और देखने लगे. . प्रभु का ज्ञान महोत्सव । तीर्थंकर महावीर प्रभु को केवल बान हुअा तब देवेन्द्रों के आसन कंपायमान हुए वे अवधि जान से जानकर आय और प्रभुन देवों के रचा हुआ समत्र सरण (सभा मंडप) में बैठकर धर्मोपदेश दिया मनुष्य नहीं आये जिससे विरति (चारित्र) किसी को प्राप्त नहीं हुआ. तीर्थंकर की यह प्रथम देशना निष्फल हुई और प्रभु ने भी थोड़ी देर देशना (उपदेश ) देकर विहार कर महसेन वन ( पावापुर से थोड़े मैश ) में दूसरे दिन धर्मोपदेश दिया. गणधर वाद गोतम इन्द्रभूतिजी का मिलाप । इन्द्र और देवना मनुष्य स्त्रीओं का समूह जाना आता देखकर गौतम इन्द्र भूतिजी जो यन्त्र कर रहे थे और उनके साथ दो भ्राता और आठ अन्य वेद पारंगामी ब्राह्मण विद्वान अपने ४४०० शिष्यों के परिवार से मंमिलिन ये उन के दिल में लोगों को आते देख कर आनन्द हुआ परन्तु यन्नमंडप से आगे बढते देखकर इन्द्रभृति को दुःख हुआ और लोगों से पूछने लगा कि आप कहां जाते हैं। प्रभु की वहुत महिमा सुनकर उनको शिष्य बनाकर महिमा बढाउं वा मेरी शंका का ममाधान कर शिष्य बननाउं ऐसा निश्चय कर वहा भाई इन्द्रभूति ५०० शिष्यों के साथ गया प्रभुने आते ही गौतम इन्द्रभूति को कहा हे भद्र ! तेरे मन में यह जीव सम्बन्धी संदह है उसका समाधान मुन! शंका का समाधान। जीव है वा नहीं ? ऐसी शंका तेरे दिल में है क्योंकि वेद पदों का अर्थ नरे समझ में नहीं आया. विज्ञान घन एव एतेभ्यो भूतेभ्यो, समुत्याय तान्येवानु विशति म प्रेत्य संज्ञाऽस्ति इति इसका अर्थ तर खयाल से यह है कि, Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१) "विज्ञान घन जीव-' पांच भूत ( पृथ्वी पाणी अग्नि वायु आकाश ) से उत्पम होकर उसी में प्रवेश होता है पीछे कुछ नहीं है अर्थात् पांचभूत मिलने से जीव उत्पन होता दीखता है और वे अलग होने से जीव भी उस में नाश होजाता है किंतु जीव ऐसा भिन्न पदार्थ कोई नहीं है जैसे कि पाणी में बुदबुदे होते हैं और फिर शांत होते हैं ऐसेही जीव नहीं है और परलोक में भी गमन आगमन नहीं करता जिससे पुण्य पाप का फल भोक्ता भी नहीं है प्रभु ने फिर कहा हे गौतम इंद्रभूति ! तेरे अर्थ में स्याद्वाद रहस्य तूं समज कि "विज्ञान धन" का अर्थ शान स्वरूप आत्मा भी होता है और पांचइंद्री और छठा मन से जो पांच भूत द्वारा ज्ञान पर्याय होते हैं वे ज्ञान पर्यायों को भी "विज्ञान घन" कहते हैं अब वेद पदों से "विज्ञान धन" का अर्थ ज्ञान पर्याय लेना चाहिये और ये विज्ञान धन पांच भूत देखकर आदमी को होते हैं और पांचभूत के अभाव में को ज्ञान पर्याय भी नष्ट होता है अर्थात् जिस पदार्थ को सामने लाए उसका भान होगा और वो उसके चले जाने पर उसका ज्ञान भी चला जावेगा इसलिये विज्ञान घन को पीछे मेत्य संज्ञा नहीं है उससे 'जीव" का नाश कोई भी रीति से नहीं होता जैसे कि श्रायना में कोई भी वस्तु जो सामने रहती है उसका चित्र पड़ता हैं और वस्तु दूर होने से वो चित्र भी नष्ट होजाता है किन्तु चित्र जाने से आयना का नाश नहीं मानते ऐसेही ज्ञान पर्याय (विज्ञान घन ) नाश होने से चा बदलने से आत्मा का नाश नहीं होता. जैनरीति से अधिक समाधान । आत्मा चेतन है जीव भी चेतन है परंतु जीव कर्म सहित होता है वो संसार भ्रमण करता है और चार घाति कर्म- और चार अघाति कर्म से ही 'जीव' शरीर बंधन में पड़ा है शरीर भी दो जाति के हैं एक स्थूल है वो छोड़कर जीव दूसरी गतिमें जाता है परन्तु सूक्ष्म शरीर (तेजसफार्मण) साथ जाकर नया स्थूल शरीर मिला देता है और मोहनीय कर्म से और ज्ञान आवरणीय कर्म से जीव स्वस्वरूप को भूल पर स्वरूप में कुछ अंश में एकसा होजाता है उससे ही पूर्व पदार्थ विस्मृत होता है नये पदार्थ में शान लगता है इससे पूर्व 'संज्ञा' नहीं रहती उस मे भ्रम में नहीं पड़ना कि जीव नहीं है जो बोधमतानुयायी क्षण भंगुर पदार्थ मानते हैं उसमें भी पदार्थ का रुगान्तर घण भंगुर है पदार्थ का मूल द्रव्य क्षण भंगुर Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२) कदापि नहीं है जीव और अजीव ढोनों द्रव्य है और जीव द्रव्य तीनाही काल में मौजूद है वो ही जीव ख्याल रखकर दूसरा पदार्थ को जान सक्ता हैं. __आत्मा संपूर्ण ज्ञानी होजाने वाढ उपयोग की आवश्यकता नहीं है उसका तीनाही काल का ज्ञान है. (जीव विचार नक्तत्व त्रिलोक्य दीपिका संग्रहणी और कर्मग्रंथ देखने की आवश्यकता है पूर्व के दो छप चुके हैं दो छपने वाले हैं) गौतम इन्द्र भूति की शंका का समाधान वेद पदों से ही होगया क्योंकि प्रत्य संना के लिय प्रभु ने और भी बताया था कि जीव दकार त्रय द द द है अर्थात् दान दया दमन ये "तीन दकार" जीव का लक्षण है. अपन पास सद्बुद्धि धन जीवन शक्ति वा कोई भी पदार्थ है उससे परोपकार करना त्याग वृत्ति धारण करना मृा छोड़ना और ज्ञान विमुख धर्म विमुख दुःखी जीवों को मुखी करना और पृष्ट खुराक से वा मोह से उन्मत्त होने वाली इन्द्रियों और मन को दमना अर्थात् कुमार्ग में नहीं जाने देना,वो जीवका लक्षण है किंतु जो विज्ञान घन आत्मा का नाश होवे और प्रत्य संज्ञा न होवे अथवा क्षण भंगुर होवे तो दान दया दमन का फल कौन भोगेगा ? इसलिये प्रेत्य संज्ञा है पूर्व वात की स्मृति होती है वो भी प्रेत्य संज्ञा है और जन्मतेही बच्चों को आहार निंद्रा भय परिग्रह संज्ञा पूर्वाभ्यास की होती हैं जन्म से ही सुख दुःख कुरुप सुरूप ऊंचकुल नीच कुल सत्कार तिरस्कार होता है और जो कुछ अच्छी बुरी वस्तुएं प्राप्त होती हैं वो सब पूर्व कृत्यों का फल रूप है जैसे कि पूर्व वीज का ही फल खनी का पाक है और पदार्थ मात्र में नित्यत्व अनित्यत्व घट सक्ता है जहाँ जैसी अपेक्षा से बोले ऐसी अपेक्षा से अर्थ करना वो स्याद्वाद है और वेढपदों में भी योग्य अर्थ घयन से जीव नित्य भी है अनित्य भी है प्रेत्य संज्ञा रहती भी है नहीं भी रहती है वो उपर की बातों से समझ में आवेगी एक वस्तु में अनंत धर्म का समावेश होसक्ता है सिर्फ बोलने वाले की उसमें अपेक्षा समझनी चाहिये. . वांचने वालों के हितार्थ कुछ यहां पर लिखा है विस्तार से जानने वालों के लिये विशेपावश्यकादि ग्रन्यों को वा बड़ी टीकाएं देखनी चाहिये ) गौतम इन्द्रभूति को संशय दूर होने से शिप्य होकर प्रमु के चरण का शरण लिया गौतम इन्द्र भूति के ५०० शिष्यों ने भी वैसाही किया. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३) । त्रिपदी का वर्णन । प्रभुने शिष्यपद देकर त्रिपदी सुनाई उपइया,विगमे इवा धुवेइवा । पदार्थ उत्पन्न होता है, नाश होता है और कायम रहता है क्योंकि दूध का दही हुआ तब दूध की उपयोग दही में से नहीं होगा और दही का उपयोग दही के लिये होगा किन्तु द्ध वा दही में स्नेहत्व (चीकट) है वो तो कायम है- संसार का स्वरूप इस तरह है ( उसको जैनेतर ब्रह्मा शिव विष्णु की कृति मानते हैं ) कोई पदार्थ का रूपांतर होना वो उत्पत्ति है इससे पूर्व पर्याय का नाश होता है किन्तु मूल द्रव्य तो कायम है और रूपांतर भी कृत्रिम और स्वाभाविक दो तरह होता है जैसे कि हिमालय पर स्वभाविक वरफ होता है और बड़े शहरों में उष्ण ऋतु में लाखों मण कृत्रिम बनाते हैं और जड़ चेतन का सम्बन्ध अनादि होने से सुख दुःख ममता मूळ का अनुभव होता है सिद्ध ( मुक्त ) जीवों को कर्म सम्बन्ध नहीं है. इन्द्रभूति महाराज ने त्रिपदी सुनकर पुण्य प्रवलता से लब्धि द्वारा द्वादशांगी(सत्र सिद्धांत)का ज्ञान प्राप्त कर शिष्यों के हितार्थ सूत्र रचना करी प्रभुने चतुर्विध संघ की स्थापना की. साधु साध्वी श्रावक श्राविका साधुओं में प्रथम गौतम इन्द्रभूति हुए। उनको गणधर पद दिया अर्थात् उनके ५०० शिष्यों के अधिष्ठाता उनको वनाए. अग्नि भूति का शंका समाधान. इन्द्रभूतिजी का जीव सम्बन्धी समाधान सुनकर अग्निभूतिजी अपने भाई को पीला लेजाने को आये किन्तु प्रभुजीने उसको कहा हे महाभाग ! तेरे को कर्म की शंका है किन्तु कर्म की सिद्धि वेद पदों से ही होजाती है. पुरुष एव इदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यं । उस का अर्थ तूं यह लेता है कि आगे होगया भविष्य में होगा वो सव आत्मा ही है किन्तु देवता तिर्यच वगैरह दीखता है वो भी आत्मा है आत्मा अरूपी होने से कर्म उसको कुछ भी नहीं करसक्ता जैसे चंदन का लेप वा खड्ग ( तलवार ) से घा आकाश को होता नहीं ऐसे कर्म का उपघात वा अनुग्रह (हानि लाभ ) आत्मा को नहीं होता इसलिये "कर्म" का भ्रम तेरे को हुआ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) है परन्तु हे भट्ट ! ऐसा अर्थ उसका नहीं होना किन्तु वेद पद तीन प्रकार के हैं. 1 विधिदर्शक, अनुवादक, स्तुति रूप वे तीनों अनुक्रम से इस तरह स्वर्ग की इच्छा वाले को अग्निहोत्र करना, वर्ष के बारह मास होते हैं. विश्व पुरुष -रूप है अर्थात् विश्व में भला बुरा पुरुष ही करसक्ता हैं जैसे कि: to विष्णुः स्थलं विष्णु, विष्णुः पर्वतमस्तके | सर्व भूतमयो विष्णु, स्तस्माद्विष्णुमय जगत || ऐसे पत्रों से विष्णु की महिमा बनाई है किंतु और जीवों का निषेध नहीं है और अमूर्त आत्मा को मृत कर्म से कैसे लाभ हानि होवे ? ऐसी तेरी शंका है उसका समाधान यह है कि बुद्धि जो ज्ञान का अंश है वो भी श्ररूपी है और उसको ब्राह्मी (सरस्वती ) वनस्पति से वृद्धि और मदिरापान वगैरह मेहानि भी दीखनी है इसलिये कर्म रूपी होने पर भी अनादि कर्म से मलिन श्ररूपी आत्मा को लाभ हानि करके कर्म फल देते हैं और सुख दुःखों के प्रत्यच ष्टांत जगत् में दिखते हैं अग्नि भूति का समाधान हुआ और वो दूसरे गणभर हुए उनके साथ ४०० शिष्य ने भी दीक्षा केली. वायु भूति का समाधान. तीसरा भाई वायुभूति ने आकर बोडी शरीर वोही जीव की शंका का समाधान करना चाहा प्रभुंन उसका विज्ञान धन पद का अर्थ जो गौतम इन्द्रभूति को सुनाया था बड़ी सुनाकर कहाकि आत्मा शरीर से भिन्न है और सन्यन लभ्यस्तप मां चर्येण नित्यं ज्योतिर्मयां शुद्धोऽयं हि पश्यंति धीरा यनयः संयतात्मनः इत्यादि । उसका अर्थ यह है किः यह आत्मा ज्योतिर्मय शुद्ध है वो नपसा सत्य और ब्रह्मचर्य से प्राप्त होता हैं. और धीरता वाले संयम पालने वाले साधु उस आत्मस्वरूप को जानते हैं. हे भव ! उस पढ़ से आत्मा की सिद्धी होती है और शरीर भिन्न है जैसे दूध में पानी मिलने से दूब पानी की एकता होती है किन्तु दूध वो दूध और पानी सो पानी ही है. वायुभूति शीघ्र ५०० शिष्यों के साथ साधु हुआ और तीस ग गणवर हुआ, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५) व्यक्त दिजका समाधान | म के पास पांच भूत के संशय वाले व्यक्त जी आए कि प्रभु ने कहा हे भव ! तेरी यह शंका है कि येन स्वमो पर्म वै सकलं, इत्येष ब्रह्मविधि रंजसा विज्ञेयः । अर्थात् सत्र स्त्रमकी तरह सब दिखता है यह ब्रह्म विधि शीघ्र जान लेनी उससे पांच भूतका अभाव है. और पृथ्वी देवता आप: ( जल ) देवता नाम सुनकर पांच भूर्ती का भ्रम होता हैं किंतु स्त्रम समान सत्र दृश्य पदार्थ और पांच भूत बताये है वो सिर्फ अध्यात्मिक दृष्टि से बताये हैं कि उसकी सुंदरता विरूपता से हर्ष शोक अहंकार दीनता होती है और भूतों में विचार शक्ति चली जाती हैं और जन्म मर्थ होता है वो छुड़ाने को सिर्फ वेद पदों से वोध दिया है कि सुंदरता विरूपता भूतों में है और वो क्षणिक है वा स्त्रम में जो दिखता हैं वो पीछे निष्फल हैं. ऐसे ही यह संसार में सुंदरता विरूपता भी भूतों में दिखती है वो निष्फल है उस में नित्यता का मोह करना अनुचित है. व्यक्त जीने दीक्षा ली. और चौथे गणधर हुए उन के साथ ५०० शिष्यों ने दीचा ली. सुधर्मा स्वामि का संशय · जैसा है वैसा ही फिर होता हैं पुरुषों वैपुरुषत्वम श्नुते पशवः पशुत्वं अर्थात् पुरुष मर के पुरुष और पशु मरके पशु होता है इसलिये तेरे को शंका होती है कि जो ऐसा होता तो शृंगालो वैएपजायते यः सपुरीषोदद्यते जो विष्टा को जलाता हैं वह मरके गीदड़ होता है परस्पर विरुद्ध वचनों से शंका होवे तो भी है भद्र ! वेद पढों का परमार्थ समज में नहीं आने से ही शंका होती है उसका समाधान सुनः पुरुष अच्छे कृत्य करे तो पुरुष ही होवे और पशु बुरे कृत्य करे तो पशु ही होवे उसमे कुछ आर्य नहीं है और ऐसा एकांत निश्चय नहीं है कि अच्छे कार्य करने वाला वा बुरे कार्य करने वाला दोनों पुरुष होवे ! किन्तु अच्छा कार्य करे और पुरूष होवे वही बताया है जैसे गेहूं बोने से गेहूं ही मिलेगा और Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) विंछु की उत्पनि गावर से भी होती है कहन का सारांश यह है कि कर्तव्य पर नरा शरीर मिलना है चाह पशु हो चाह मनुष्य हा फिर कर्नव्य अनुसार चाह मनुष्य हाव चाहे पशु होव. मुवी स्वामि का समाधान हुया पांचवा गणधर ५०० शिण्यों के माय साधु होगये । __बंध मानकी शंका मंडित दिन को यी स एप विगुणो विभुर्नबध्यते संसरति चा मुच्यते मोचयनि वा, अर्थात् मंसार में जीवन बंधाना है न छुटना है न छु.हाता है. . उपमें परमार्थ यह है कि बानी प्रभु केवल जान से वस्तुधर्म समज कर उसमें नहीं फंसने न छुटने सिर्फ आत्मा में ही रक्त है. उसका समाधान होगया लहागणवर ३५० शिष्यों के साथ साधु इए. . . मार्यपुत्र की शंका देवकं बारे में थी कि कोजानानि माया पमान् गर्वािणान् इंद्रयम वरुणकुवंरादी निति. माया के जैस इंद्रादि कान जानता है ! उसका परमार्थ यह है हेभद्र ! - मुन कि-पुण्य संपत्ति खुटजान से इंद्रादि भी चलित होजात है स्थिर वा भी नहीं है इमलिये देवत्व की भी आकांना नहीं करनी-मुक्तिकाही विचार रखना और तेरे मामने मग ममा में देव वैट है मौर्यपुत्र का समाधान होने से सातवा गणधर ने ३५० शिष्यों के सात दीचा लो. अपित द्विज को नरक की शंका थी कि:नहिं वैत्य नरकं नारकाः नारका वैएपजायते यः शुद्रान्नमध्नाति । . दोनों पदों में भेद क्यों एक में नरक में नारक नहीं दूसरे में शूद्र का अन्न खाने वाला नरक में जाता है प्रभु ने समाधान किया कि हे भट ! पाप दूर होने पर नारक मी नरक में स्थिर नहीं है तो और दुख तो कहना ही क्या है! इसलिये धैर्य रखना उसा उपदेश पूर्व पद में है. अकंपिनजी ने-३०० शिष्यों के साथ दीक्षा ली. अचलभ्राना को पाप के बारे में शंका थी उसका समाधान अग्निभूति के प्रश्नोत्तर से होजाता है. नववा गणधर का समाधान होने से ३०० के साथ दीक्षा ली, '- - प्ररभत्र की मंका दगवां गणघर मेनायजी को “ विझान घन" पद का Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७) अर्थ बताने से समाधान होगया ३०० शिष्य के साथ दीक्षा ली मोक्षका संदेह ११ वा गणधर प्रभासजी को था जरामर्यं थदग्नि होत्रं. __' अर्थात् अग्निहोत्र मुक्ति के लिये नहीं है मुक्ति वांछक को अग्निहोत्रकी आ: वश्यकता नहीं अग्निहोत्र छोड मुक्ति का हेतु रूप अनुष्ठान को करो उनका समाधान होने से ३०० के साथ दक्षिा ली पांच के साथ २५०० दो के साथ ५०० चार के साथ १२०० कुल ४४०० शिष्य हुए और ११ उनके गणधर स्थापन किये. तीर्थ स्थापना। इंद्र महाराज ने रत्नों से जड़ा हुआ सोने के थाल में सुगंधी चूर्ण ( वास क्षेप ) लाकर प्रभु को दीया प्रभुने खड़े होकर वास क्षेप की मुठी भरी अग्यारह गणधरों ने शिर प्रभु के चरणों में नवाये देवों ने हर्प नाद के वाजिंत्र वजाए पीछे इंद्रने वाजिंत्र बंद कराये गौतम इंद्रभूति बडे होने से द्रव्यगुण पर्याय से तीर्थ की माझा दी और मस्तक पर प्रभु ने वासनेप डाला देवों ने हर्पनाद किया पुष्प वृष्टि की. गच्छ परंपरा की आज्ञा सुधर्मस्वामी पंयम गणधर को दी. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणं भगवं महावीरे अट्टियगामं निस्साए पढमं अंतरावासं वासावासं उवागए, चां चपिट्टचंपंच निस्साए तो अंतरावासे वासावासं उवागए, वेसालिं नगरिं वाणियगामं च नीसाए दुवालस अंतरावासे वासावासं उवागए, रायागहं नगरं नालंदं च बाहिरियं नीसाए चउद्दस अंतरावासे वासावासं उवागए, छ मिहिलाए दो भद्दिश्राए एगं आलंभियाए एगं सावत्थीए पर्णिभूमीए एगं पावाए मज्झिमाए हस्थिवालस्त. रगणो रज्जुगसभाए अपच्छिमं अंतरावासं वासावासं उवागए ॥ १२१ ।। प्रभुके चौमासा का वर्णन । अस्ति प्राम ( वर्धमान ) में पहिला चोमासा चंपा और प्रष्ट चंपा में तीन Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३८) चामासे वैशाली नगरी में वाणिज्य गांव में बारह चौमासे राजग्रही नगरी नालंदा पाड़ा में १४ चौमाम मिथिला नगरी में छ चीमासे भद्रिका नगरी में दो चौमास आलंमिका नगरी में एक चौमासा श्रावस्ति नगरी में एक चौमासा वज्र भूमि में एक चोमामा एक चोमासा अंतका पावापुरी में हस्तिपाल राजा की कचहरी (मुनमियों को बैठने की पुगणी जगह में किया, तत्थ णं जे मे पावाए मज्झिमाए हत्यिवालस्स रणो रज्जुगमभाए अपच्छिम अंतरावासं वासावास उवागए॥१२२।। • तस्म णं अंतरावासस्म जे से वासाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे कत्तिअवहुले, तस्म णं कत्तियबहुलस्स पन्नरसीपक्खणं जा सा चरमा रयणी, तं रयणि च णं समणे भगवं महावीरे कालगए विक्कंते समुन्जाए छिन्नजाइजरामरणवं. धणे मिद्धे बुद्धे मत्त अंतगडे परिनिन्बुड़े सव्वदुक्खणहीणे, चंदे नामे से दुचे संवच्छरे पीइवद्धणे मासे नंदिवद्धणे पक्खे अग्गिवसे नाम से दिवझे उनसमित्ति पवुच्चड़, देवाएंदा नाम सा रयणी निरतित्ति पवुच्चड़, अच्चे लवे मुहृत्ते पाणु थोवे सिद्ध नागे करणे सबट्ठसिद्ध मुहुत्ते साइणा नरखत्तणं जोगमुवागए एं कालगए विइंक्वते जाव सबढुक्खप्पहीणे ॥१२३॥ | जिस समय प्रभु आखिर चौमासा करने को पावापुर आय तब वर्षाऋतु के चौथपाग के सानवा पक्ष अर्थात् कार्तिक बढ) चरमा नामकी रात्रि में में भगवान् महावीर काल धर्म पाये, मंसार से निवृत हुए, जन्म जरा मरण को छड़ने वाले हुए, मिद्ध बुद्ध, मुक्त अंतकृत् परि निवृत, और सब दुःख को काटने वाले हुए. चन्द्र नाम का इना संवत्सर था, प्रीनि वर्धन नाम का महिना, नंदिवर्धन पक्ष, अग्नि बंश्य नाम का दिन, उपशम दूसरा नाम था, देवानंदा नामकी रात्रि, विनि दृमरा नाम था, अचलब था, प्राण मुहूर्त, सिद्ध नामका स्नांक, Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) मागकरण, सर्वार्थ सिद्ध मुहर्स चन्द्र नक्षत्र स्वाति का योग आने पर भगवान् सय दुःखों से मुक्त हुए. . जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सबदुक्खापहीणे सा णं रयणी बहुहिं देवेहिं देवीहिं य श्रोवयमाणेहि य उप्पयमाणेहि य उज्जोविया प्रावि हुत्था।।१२।। जं रयणि च समणे भगवं महावीर कालंगए जाव सबदुक्खप्पहीणे, सा रयणी बहुहि देवेहि य देवीहि य प्रोवयमाणेहिं उप्पयमाणेहिं य उप्पिंजलगभूमाणश्रा कहकहगभूषा प्रावि दुस्था ।। १२५ ।। ___महावीर प्रभु के निर्माण समय देव देवीए बहुत से आने से प्रकाश होगया और देव देवी के आने जाने से आकाश में अव्यक्त (गों घाट) अवाज बड़े जोर से होगया. जं रणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव . सम्बदुक्खप्पहीणे, तं रयाणि च णं जिस्टस गोत्रमस्स इंदभूहस्स अणगारस्त अशवासिस्त नायएं पिज्जयंधणे युच्छिन्ने, अणंत अणुत्तरे जाव केवलवरनापदंसणे समुप्पन्ने ॥१२६।। चीर प्रभु का निर्वाण बाद शीघ्र गौतम इन्द्र भूतिजी महाराज को केवल ज्ञान केवल दर्शन हुआ. उसकी विशेष वात. धीर प्रभुने अपने निर्वाण के थोड़े समय पहिले देव शमा ब्राह्मण को पनि घोध करने के लिये भेजे थे वे पीछे आते थे उस समय रास्ते में देव मनुष्यों दाग प्रभु का निर्वाण की बात सुनकर पूर्व प्रेम और गुणानुराग से वियोग का खद हुया और ससार में वीर प्रभु के विना भव्यात्माओं का और मंग शंका समापान कौन करेगा वगैरह याद करने लगे परन्तु एकन्य भावना से आत्म परप Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) का ख्याल में मग्न होकर धैर्यता धारण करने से केवल ज्ञान हुआ. . . देवताओं ने आकर इन्द्रभूतिजी का केवल ज्ञान का महोत्सव किया. . कवि घटना. अईकारापि बांधाय, रागोपि गुरुभक्तये, विषादः कवलाया मृत् चित्रं श्री गौतम प्रभोः १ वाद करने से बोध मिला, राग से गुरु भक्ति का लाभ, खेद से कंबल मिला गौतम स्वामि की बात आश्चर्य रूप है ( दूसरों को भी बोध भक्ति और खेद से क्या लाभ होता है अथवा वे कहां करने वाँ सोचना चाहिये दिवाली और बेटते वर्ष का पहिला दिन का महिमा जैनों में कैसे हुआ वो भी विचारना चाहिय), ___ गौतम इन्द्रभूति बारह वर्ष केवल ज्ञान का पर्याय पूराकर मुक्ति में गये मुधर्मा स्वामि आठ वप केवल जान पोय पालकर मोक्ष गये। जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सबदुक्खप्पहीणे, तं रयर्षि च णं नवमल्लई नवलेच्छई कासीकोसलगा अद्यारसवि गणरायाणो अमावासाए पारा• भोयं पोसहोववासं पट्टविमुं, गए से भाबुज्जोए, दबुज्जोध करिस्सामो ॥ १२७ ॥ दीवाली पर्व. प्रभुक निर्वाण समय पर काशी कांशल देश के नत्र मञ्चकी जानि के नत्र लन्छकी जाति के राजा आये थे वे चेड़ा महाराजा के सामन थे, उन्होंने संसार म पार उतारने वाला पौषध उपवास किया वीर भगवान के निर्वाण से धर्मोपदंश के अभाव में हम द्रव्या योन करेंगे ऐसा विचार कर दीपक जलाए वह दिवाली शुरु हुई ( नंदिवर्धन बंधु को सुदी १ को मालूप हुई उनका खेद निधारणार्थ दूज के दिन बहन के घर को नीम उससे भाई वीन पर्व हुआ) _____ रयणिं च णं समणे जावसम्बदुक्खप्पहीणे, तं रयणिं च पं खुदाए भासरासी नाम महग्गहे दोवाससहस्सठिई सम Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४१) एस्स भगवत्रो महावीरस्स जम्मनक्खत्तं संकते ॥ १२८ ॥ जप्पभिई च णं से खुदाए भासरासी महग्गहे दोवाससहस्सठिई समएस्स भगवो महावीरस्स जम्मनक्खत्तं संकंते, तप्पभिई च एं समणाणं निग्गंथाणं निग्गंथाणं य नो उदिए २ पूनासकारे पवत्तइ ॥ १२६ ॥ • जया णं से खुदाए जाव जम्मनक्खत्ताओ विइकते भविस्सइ, तयां णं समणाणं निग्गंथाएं निग्गंथीण य उदिएर पूनासकारे भविस्सइ ॥ १३० ॥ भगवान् के निर्वाण समय क्षुद्रात्मा भस्म राशि नामका बड़ा ग्रह २००० वर्ष की स्थिति का जन्म नक्षत्र में आगया था (ग्रहों का और दिन वगैरह का विशेष वर्णन सुबोधिका टीका से जानना). वह भस्म राशि ग्रह आजाने से श्रमण निग्रन्थ ( साधु ) और निग्रंथिणी (साध्वी) यों के उदय पूजा सत्कार विशेष नहीं होगा भस्मग्रह दूर होने पर साधु साध्वी की बहु मान्यता होगी। ___जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सबदुक्खप्पहीणे, तं रयणिं च णं कुंथू अणुद्धरी नाम समुपन्ना, जाठिया अचलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाणं निग्गं. थीण य नो चक्खुफासं हवामागच्छति, जा अठिा चलमाणा छउमस्थाणं निग्गंथाणं निग्गंधीण य चक्खफासं हव्वमागच्छड् ॥ १३१ ॥ ___जं पासित्ता बहुहिं निग्गंथेहिं निग्गंथीहिं य भत्ताई पञ्चक्खायाहं, किमाहु भंते ? श्रज्जप्पभिई संजमे दुराराहे भविस्सह ॥ १३२ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) 'भगवान् के मोक्ष समय पर कुंथुएं बहुत उत्पन्न हुए जो न चलती उस्त साधू को दृष्टि में न आवे. अर्थात् वे जीव है वा अन्य कुछ चीज है. वो समज मैं न आवे और वे चलेतो मालूम हो कि वे जीव हैं. वे कंथूओं का उत्पन्न होना देखकर बहुत साधु साध्वीयों ने अनशन किया सबब यहथा कि जीव रक्षा में प्रमाद होवे तो संयम पालना मुश्किल था (जीबों का नाश हो जावे ) इसलिये अन्नपाणी त्यागकर पर्मात्म चितवन में लगगये. ते काले तेणं समएणं समणस्स भगवां महावीर - स्स इंदभूइपासुक्खाद्यो चउस समय साहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया हुत्या || १३३ ॥ समणस्स भगवच्त्रो महावीरस्स अज्जचंदणापामुक्खायो छत्तीसं अज्जियासाहस्मीथो उक्कोसिया ग्रज्जिया संपया हुत्था ॥ १३४ ॥ समणस्स भगवथो० संखसयगपामुक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सी ग्रउणसद्धिं च सहस्सी उक्कोसिया समपोवासगाणं संपया हुत्था ॥ १३५ ॥ समणस्स भगवो० सुलसारेवईपामुक्खाणं समणोवासियाणं तिन्नि सयसाहस्सी अट्ठारससहस्सा उकोसिया समणोवासियाणं संपया हुत्था ।। १३६ ।। समणस्य णं भगव० तिन्नि सया चउदसपुव्वीणं जिणाएं जिसका साणं सव्वक्खरसन्निवाई जिलो विव श्रवितहं वागरमाणाएं उक्कोसिया चउदसपुत्रीणं संपया हुत्था ॥ १३७ ॥ समणस्स० तेरस सया श्रहिनाणीणं असेसपत्ताणं उकोसिया ओहिनाणिपया हुत्था ॥ १३८ ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३) समणस्स णं भगवनो० सत्त सया केवलनापीणं संभिएणवरनाणदंसणधराणं उक्कोसिया केवलनाणिसंपया हुत्था ॥ १३६ ॥ , समणस्स णं भ० सत्त सया वेउन्धीणं अदेवाणं देविड्- . ढिपत्ताणं उक्कोसिया वेउब्वियसंपया हुत्था ।। १४० ॥ . समणसणं भ० पंच सया विउलमई अडढाहज्जेस दीवेसु दोसु अ समुद्देसु सन्नीणं पंचिंदियाएं पज्जत्तगाणं मणोगए भावे जाणमाणाणं उकोसिश्रा विउलमईणं संपया हुत्था ॥ १४१ ॥ - समणस्स णं भ० चत्तारि सया वाईणं सदेवमणुप्रासुराए परिसाए वाए अपराजियाणं उक्कोमिया वाइसंपया हुत्था ॥१४२॥ समणस्स णं भगवत्रो० सत्त अंतेवासिसयाई सिद्धाई जाव सन्धदुक्खप्पहीणाई, चउद्दस अज्जियासयाइं सिद्धाइं १४३ समणस्स णं भग० अट्ठ सया अणुत्तरोववाइयाणं गइकलाणाएं ठिकल्लाणाणं प्रागमेसिभदाएं उकोसिश्रा अणुत्तरोववाइयाणं संपया हुत्था ॥ १४४ ॥ महावीर प्रभु की संपदा • इंद्रभूति श्रादि १४००० साधु-और चंदना, वगैरह ३६००० साध्वी, संख शतक मादि १५६००० श्रावक, सुलसा रंवती आदि ३१८००० श्राविका, चउद पूर्वी जिन नहीं परंतु जिन माफक श्रुत ज्ञान से सत्य भापी श्रुत केवली साधु की संपदा थी, लब्धिवंत ऐसे १३०० अवधि ज्ञानी की संपदा थी, ७०० फेवल ज्ञानी थे-७०० वैक्रिय लब्धिधारक थे-५०० विपुलमति मन पर्यवं ज्ञानी २॥ द्वीप दो समुद्र में संज्ञी पंचेंद्री के मनके भावों के जानने वाले थे, ४०० वादि भगवानके थे जो देवता मनुष्य की सभा में युक्ति से प्रतिवादि को जितते Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) थ,७०० साधु और १४०० माघी मोक्ष में गई, ८०० साधु अनुचर विमान में गरे जी देव भत्रम मुख भागकर मनुष्य होकर मुक्ति जावेंगे. समणस्त भ० दुविहा अंतगडभृमी हुत्था, तंजहा-जुगंतगड़भूमी य, परियायंतगडभूमी य, जाव तचायो पुरिसजुगायो जुगंत०, चउवासपरियाए अंतमकासी ॥ १४५ ॥ ___भावान की अनकन भूमि (१) जुगत (२) पर्याय अंतकन उनमें मातम इंठभूति नुवर्मा जंबु पेमे नान पाटनक मांद रहा, और वीर प्रभुके केवल ज्ञान होन वाट चार वर्ष होने से एक पुरुष मोच गया. अर्थात तीन पाट और चारवर्ष दोनों अंतकृत भूमि है. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे तीस वासाई अगारवासमझे वसित्ता साइरेगाई दुवालस वासाई छउमत्थपरियागं पाउणित्ता देसूणाई तीसं वासाई केवलिपरियागं पाउणित्ता, वायालीसं वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता वावत्तरि वासाइं सव्वाउयं पालत्ता वीणे वेयणिज्जाउयनामगुत्ते इमीसे प्रोसप्पिणीए दूसमसुसमाए समाए बहुविक्वंताए तिहिं वासेहिं अद्धनवमेहिं य मासेहिं ससेहिं पावाए माझिमाए हस्थिवालस्स रगणो रज्जुयसभाए एगे अबीए छ?णं भत्तणं अपाणएणं साइणा नक्वत्तणं जोगमुवागएणं पच्चूसकालसमयसि संपलिग्रंकानसराण पणपन्नं अज्झयणाइंकल्लाणफलविवागाइं पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाई छतीसं च अपुट्ठवागरणाई वागरित्ता पहाणं नाम अझयणं विभावेमाणे २ कालगए विक्कंते समुज्जाए चिनजाइजरामरणवंधणे सिद्धे युद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुड़े सम्बदुक्खप्पहोणे ॥ १४६ ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५) महावीर प्रभु ३० वर्ष ग्रहस्थावास में रहे, १२ वर्ष से कुछ अधिक छमस्थ दीक्षा पाली, ३० वर्ष में कुछ कम केवल ज्ञानी पर्याय में शरीर धारी रहे ४२ वर्ष कुल दीक्षा पाली ७२ वर्प का पूर्ण आयु पाला तब वेदनी नाम आयुगोत्र ऐसे चार अघाति को क्षय होगये और इस अवमर्पिणी का दुःखम मुखम नाम का तीसरा धारा बहुत व्यतीत होजान वाद ३ वर्ष ८ मास बाकी रहे उस समय पावापुरी में हस्तिपाल गजा की मुनसियों की पुगणी बैठक में एकिले बैलेका पानी रहित नपमें स्वातिनक्षत्र में चंद्रयोग आनेपर प्रत्युप ( चार घडी रात्री वाकी रही थी उस ) समय में पलोठी मारकर बेटे थे और उपदेश ५५ अध्ययन कल्याण (पुण्य ) फल के, ५५ अध्ययन पाप फल के ३६ अध्ययन अप्रष्ट व्याकरण के कहकर प्रधान अध्ययन मरुदेवा का कहते कहते संसार से विराम पाये, उर्वलोक में सिद्ध हुए जन्म जगमरण को छेद सिद्ध बुद्ध मुक्त अंन कुन हुए उनके सत्र दुःख क्षय होगये. समणस्स भगवत्रो महावीरस्स नाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स नव वाससयाई विइक्ताई, दसमस्सय वाससयस्स अयं प्र. सीइमे संवच्छरे काले गच्छद, वायणंतरे पुण अयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छदइइ दीसह ।।१४७॥ (क० कि०, क. सु० १४८) (कल्पसूत्र जिस समय लिग्वा ) उस समय भगवान महावीर के निर्वाण को ९८० वर्ष ये दूसरे पुस्तकों में ९६३ वर्ष का लेख भी है देवादि चमा श्रमण ने यह मत्र लिखाया है उससे ऐसा भी अनुमान करते हैं कि ९८० वर्ग वाद लि खाया और ६९३ वर्ष में राजसभा में बांचना शक हुआ तत्व कंवली गम्य समजना चाहिये. ॥ यहां पर छठा व्याख्यान समाप्त होता है ।। तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादापीए पंचविसाहे हुत्था, तंजहाविसाहाहिं चुए चइत्ता गम्भं वकते, Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) विसाहाहिं जाए, विसाहाहिं मुंडे भवित्ता थगा रात्री श्रणगारिथं पव्वड़ए, विसाहाहिं यांत अणुत्तरे निव्वाधार नि रावरणे कसिणे पडिपुराणे केवलवर नाणदंसणे समुप्पन्ने, विसाहाहिं परिनिब्बु ॥ १४६ ॥ पार्श्व प्रभु का चरित्र पार्श्वनाथ प्रभु के च्यवन जन्म दीक्षा केवल ज्ञान और मुक्ति पांच कल्याणक विशाखा नक्षत्र में चन्द्रयोग थाने पर हुए | (विशेष वर्णन महावीर प्रभु समान जान लेना ) तेणं कालणं तेणं समएणं पासे रहा पुरिसादाणीए जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढने पक्खं चित्तबहुले, तस्स एवं चिबहुलस्म उत्थीपकखेणं पाणयायो कप्पा वीससागरोवमट्ठेिद्द्याद्यो यणंतरं चयं चत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वाणारसीए नयरीए ग्रास सेणस्स रण्णो वामाए देवीए पुव्वरत्तावरन्तकालसमयसि विसाहाहिं नक्वणं जोगसुवागएणं श्राहारवक्कंतीए (ग्रं० ७०० ) भववकंतीए सरीरवकंतीए कुच्छिसि भत्ता वते ॥ १५० ॥ पार्श्वनाथ प्रभु पुरुषों को विशेष स्मरणीय है वे ग्रीष्म ऋतु का पहिला मास चैत्र बढी ४ के रोज प्राणन कल्प से १० वां देवलोक से २० सागरोपम की स्थिति पूरी कर इस जंबुद्वीप के भरत क्षेत्र में बाणारसी नगरी में अश्वसेन राजा की वामा देवी की कुक्षि में पूर्वरात्री अपररात्रि के बीच ( मध्यरात ) में विशाखा नक्षत्र में चन्द्र योग आने पर दिव्य आहार देव भव दिव्य शरीर त्याग करके ( माता की कुक्षि में ) आवे. पार्श्वनाथ के पूर्व भवों का वर्णन । जंबुर्द्वीप के भरत क्षेत्र में पोतनपुर नामका नगर में अरविंद राजा का विश्व Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७) भूति पुरोहित था उसकी अनुद्धरी नामकी भार्या से कमट और मरुभूति ऐसे दो पुत्र हुए वाप के मरने पर कमठ को पुरोहित का पद मिला उसमे घमंड में भाकर मरुभूति की ओरत से दुराचार कृत्य किया. मरुभूति ने राजा को फरयाद की राजा ने मरुभूति को निकाल दिया, उसने गांव बहार जाकर तापस की दीक्षा ली और तापस होकर गांव में पाया मरु भूति जो पुरोहित हुआ था. उसने कमठ तापस को मस्तक नवाकर पूर्व अपराधकी क्षमा चाही परन्तु पूर्व रको यादकर के जोरसे बड़ा पत्थर मारा, मरुभूति मरगया. दूसरे भवमें मरुभूति सुजातक नामका हाथी विध्याटवी में हुआ कमठ का जीव कुर्कुट नामका उडता सपं हुआ. अरविंद मुनि को उद्यान में देखकर हाथी को जाति स्मरण ज्ञान हुआ मुनि के पास श्रावक के ( ११ व्रत लेकर मुनिको चंदन कर गया, सर्प को पूर्व वैरमे द्वेप हुआ और दंश किया हाथी शुभ भाव से मरगया. __ तीसरे भवमें मरुभूति ( हाथी ) का जीव आठवां देवलोक में गया और सांप पांचवी नर्क में गया चोथे भवमें मरुभूति ( देव ) जंबूद्वीप के महा विदेह क्षेत्रमें सुकच्छ नामकी विजय में वैताब्य पर्वत की दक्षिण आणि में तीलवती नगरी में करणवेग नाम का राजा हुआ. राजाने वैराग्य से दीक्षा ली और विहार कर हैमशैल पर्वत के शिखर पर खड़े थे वहां कनठ का जीवनरक में से आकर सर्प हुआ उसने मुनिराज को काटा. शुभ ध्यान से मुनि मरगये. मुनिराज पांचवां भव में बारहवां देवलांक में देव हुए और सर्प मर कर पांचवीं नरक में गया छठा भव में वह देवता जंबुद्वीप के महा विदेह में गंधीलावती विजय में शुभंकरा नगरी में वज्र नाम का राजा हुआ टेमकर तीर्थकर के पास देशना सुन वैराग्य माने से दीक्षा ली विहार करते निज्वलन पर्वत पर ध्यान में खड़े थे कमठ का जीव मरकर भील हुआथा उसने तीर मार माण लिये. सातवां भव में मुनि मध्यम ग्रेवयक में देव हुए मुनिघातक सानवीं नरक में गया. आठवां भव में देव जंवृद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में शुभंकग विजय में पुराण पुर नगर में सुवर्ण बाहुचक्रवती हुए वृद्धावस्था में तीर्थकर की देशना सुन वैराग्य से दीक्षा लेकर वीश स्थानक नप श्राराधकर तीर्थकर नाम कर पांघा कमठ मक से आकर मिह हुआ था उगने मुनि को मार डाले. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) मबमें सर्वम मुनि प्राणुत देवलोक में देव हुए सिंह मरकर चौथी नरक में गया. दशमा यव में मम्मृति का जीव देवलोक मे पात्रनाय का गीच हुश्रा और चौदह स्वम माना न देखे क्रमठ का जीव ब्राह्मण का पुत्र हुआ. पास एणं अरहा पुरिसादापीए तिन्नाणोवगए प्रावि हुस्था, तंजहा-वहस्सामित्ति जाणह, चयमाणे न जाणइ, चुएमिनि जाणह, तेणं व अभिलावणं सुविणदसणविहा. रणणं सम्बं-जाव-निग्रगं गिहं अणुपविट्ठा, जाव मुहसुहेणं तं गम्भ परिवहह ।। १५.१ ॥ तणं कालेणं तणं समएणं पासे अरहा पुरिसादापाए जे से हेमंताणं दुच्च मास तच्चे पक्व पोसबहुले, तस्स एं पोसबहुलस्स दसमीपस्व एवं नवग्रहं मासाणं बहुपडिपुराणाणं अट्ठमाणं राइंदिग्राएं विक्वंताएं पुल्चरत्नावरत्तकालसमयसि विसाहाहिं नक्सत्तएं जोगमुवागएणं श्रारोग्गा प्रारोग्गं दारयं. पयाया ॥ १५ ॥ जं रयणि च णं पामे जाए, मा रयणी बहुहिं देवेहिं देवीहि य जाव उणिजलगभूया कहकहगभूया यावि हुत्या ।। १५३ ॥ सेसं तहेव, नवरं जम्मणं पासामिलावणं भाषियव्यं. जाव तं होड पं कुमार पासे नामपं ॥ १५ ॥ महावीर स्वामी की नन्ह पार्श्वनाथ का च्यवन ममय नीन बान का अधिकार बमों का और नान वान का अधिकार नानना, और माता ने अच्छी तरह से गर्म को वहन किया. पार्धनाय ने पाप बढी १० की मध्य गत्रि में जन्म लिया उस समय चन्द्र नक्षत्र विशाम्बा था और काया निगंग और सुन्दर थी और जन्म महोत्मत्र . Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४९) करने को क्षेत्र के आने जाने से गौघाट बहुत हुआ जन्माभिषेक महोत्सव पूर्व की तरह जानना और पार्श्वनाथ नाम रखा. उनका विशेष चरित्र | जब भगवान् युवाअवस्था में आये तब कुशस्थल के राजा प्रसेन जितकी म्लेच्छ लोगों ने घेर लिया था. और उसको अश्वसेन राजा मदद करने को जाते देखकर पार्श्वनाथ स्वयं तैयार हुए इंद्रने सारथी सहित रथ भेजा रथमें बैठकर पार्श्वनाथ आकाश में जोरसे चलाकर वहां पहुंचे म्लेच्छ भाग गये जिस से प्रसेनजित राजा की पुत्री प्रसन्न होकर पिताकी आज्ञा लेकर पार्श्वनाथ के साथ लग्न किया, घरको आकर पूर्व पुण्य के अनुसार सुख भोगने लगे. एक दिन पूर्व भवका संबंधी कमर जो ब्राह्मग हुआ था और निर्धनता कुरुप और दुर्भाग्य से तापस हुआ था, वो गंगानदी के किनारे पर पंचाग्नि तप कर रहाथा और बहुत से लोग उनके दर्शनार्थ जाते थे, झरुखा में बैठे हुए भगवान ने पूछा कि आज क्या है. और ये लोग कहां जाते है सेवक ने खुलासा किया पार्श्वनाथ भी देखने को गये अज्ञान कष्ट करने वाले तापस को प्रभुने कहा हैभद्र ! स्त्रपर को व्यर्थ कष्ट देनेवाला यह ज्ञान तप क्यों प्रारंभ किया है ! अधिक पूछने पर जीव दया प्रधान प्रभुंन अग्नि कुंडमें से जलता काष्ट मगा कर चिराया और उसका मरण समीप देख कर सेवक पास नवकार मंत्र सुनाया सर्पने कोमल भाव से सुना और शुभ ध्यान सेमर धरणेंद्र देव हुआ, लोग श्रावर्य देखकर मधुकी दया और ज्ञानकी प्रशंसा कर घरको गये कम तापस की निंदा होने से उसने अधिक तप कर मरके मेघमालि देव हुआ. पासे रहा पुरिसादाणीए दक्खे दक्खपने पडिरूवे थल्ली भद्दए विपीए, तीसं वासाई यगारवा समज्भे वसित्ता पुणरवि लोगतिएहिं जिकहिं देवेहिं ताहिं हट्ठाहिं जाव एवं वयासी ॥ १५५ ॥ "जय जय नंदा, जय जय भद्दा, भहं ते" जाव जयजयस पउंजंति ॥ १५६ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) पार्श्वनाथ दन, दक्ष मनिका वालं, मुन्दर, गुणवान सरल स्वभावी और विनयवान थे. पाश्रनाय प्रभुन एक दिन नेम और ग़जीमान का चित्र देखा वैराग्य आया और लोकांतिक देवन मधुर शब्द से प्रार्थना भी की और, जय जय नंदादि मन्दों की उद्यापणा की. पुबिपि णं पासस्स णं अरहयो पुरिमादापीयस्स माणुस्सगारो गिहत्यधम्मायो अणुत्तरे श्राभोडा तं चेव सर्व-जाव दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता जे से हेमंताणं दुच्चे मासे तच्च यक्व पोसबहुले, तस्म णं पामबहुलस्त इक्कारसीदिवसे णं पुबराहकालसमयमि विसालाए सिविधाए सदेवमणुप्रासुराए परिसाए, तं चव सन्चं, नवरं वाणारसि नगरिं मज्झमझणं निग्गच्छह निग्गच्छित्वा जेणेव आसमपए उज्जाणे, जेणेव असोगवरपायवे, तेणेव उवागच्छह, उवागच्छिचा असोगवरपायवस्स ग्रह सीयं ठावइ, ठावित्ता सीयायो पचोरुहई, पच्चोरुहिता सयमेव ग्राभरणमल्लालंकारं अोमुग्रह, प्रोमुहत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोग्रं करेइ, करित्ता अट्ठमेणं भत्तणं अयाणएणं विसाहाहि नक्खचणं जोगमुवागएणं एगं देवदूसमादाय तिहिं पुरिससरहिं सद्धिं मुंडे भविता अगारायो अणगारियं पब्वइए ॥ १५७ ।। पूर्वसे तीन ज्ञान और जान से दीक्षा का दिन भी जान लिया था जिस से वार्षिक दान दिया और भाईओं को बांटकर दिया. और पास बदी ११ के दिन पहली पारमी में विशाला शिविका में बैठ कर देव मनुष्यों की सभा साय वाणारसी नगरी से निकल कर आश्रम पद उद्यान में जाकर अशोक वृक्ष की नीचे पालकी रखी नब भगवान ने नीकल कर आभरण दुगकर अपने हाथ से Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) पंच मृठी लोच किया तेलेका तपमें और चंद्रनचत्र विशाखा में ३०० पुरुषों के साथ दीक्षा लेकर साधु हुए और देवों का दिया हुआ देव दुष्य वस्त्र लिया. ( महोत्सव का अधिकार वीरमभु की तरह जानना ) - पासे णं अरहा पुरिसादाणीए तेसीइं राइंदियाई निचं बोसट्टकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तंजहा दिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिक्खजोषिया वा गुलोमा वा, पडिलोमा वा, ते उप्पन्ने सम्मं सहइ खमड़ तितिक्खड़ प्राहिया सेइ ॥ १५८ ॥ पार्श्वनाथ ने ८३ दिन तक शरीर का मोह छोड़कर देव मनुष्य तीर्थच के जी उपसर्ग परिसह अनुकुल प्रतिकुल आये उनको सम्यक् प्रकार से सहन किये प्रभु दीक्षा लेकर पीछे विहार करते करते तापस के आश्रम में आकर सूर्यास्त के समय वड वृक्ष की नीचे कायोत्सर्ग किया, पूर्व के बैरी कमठ देवने विभंग ज्ञानसे जान कर प्रभु को रात्रि में बहुत दुःख दिया. धूली उडाई तो भी भगवान को निष्कंप देखकर मेघ बरसाया प्रभुके कंठ तक पानी का पूर चढा घर्णेद्र देव का आसन कंपने से प्रभु के पास आया और पद्मावती देवीने और इंन्द्रने सहाय की अवधिज्ञान से अकाल वृष्टिका कारण ढूंढ मेघमाली देवको जान शीघ्र उसको बुलाकर धमकाया कि रे अम ! क्यों प्रभु को सताता है ? मैं तेरा अपराध नहीं सहन करूंगा ! कंपता कमर मधुके चरण में पड़ा धरणेंद्र ने छोड दिया को शवों का वैर की क्षमा चाह कर चला गया धरणेंद्र भी चला गया. - कमठे, धरणेंद्रचं स्वोचितं कर्म कुर्वति, प्रभोस्तुल्य मनोवृत्तिः, पाश्वनाथः श्रियेऽस्तुत्रः ॥ कमर और धरणेंद्र ने उनकी इच्छानुसार कृत्य किये तो भी करने वाले पर रागद्वेष प्रभुने नहीं किया वह पार्श्वनाथ तुमारे कल्याण के लिये हो । , - तणं से पासे भगवं शणगारे जाए इरियासमिए भासासमिए - जाव अप्पाणं भावेमाणस्स तेसीइं राहंदियाई Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) विकताई, चउरासीइम राइदिए अंतरा वट्टमाणे जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तवहुले, तस्स णं चित्तबहुलस्म चउत्थीपक्खे णं पुवाहकालसमयसि धायइपायवस्स आहे छटेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहि नक्खत्तणं जोगमुंवागएणं झाणंतरिग्राए वट्टमाणस्स अणते अणुचरे निवाघाए निसवरणे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने, जाव जाणमारे पासमाणे विहरइ ।। १५६ ।। प्रभुने साधु का आचार उत्तम पाला जिससे ८४ वां दिन में चैत्र वदी ४ प्रभात में धातकी वृक्ष की नीचे चाविहार छठ की तपस्या में चन्द्र नक्षत्र विशा खा में भगवान को शुक्ल ध्यान के दूसरे भाग के अंत में उत्तम केवल ज्ञान हुआ और तीर्थ प्रकट किया. पासस्स एं अरहो पुरिसादाणीयस्स अट्ठ गणा भट्ट गणहरा हुस्था, तंजहा-सुभे य १ अजघोसे य २, वसिट्ठ ३ वंभयारि ये ४ । सोमे ५ सिरिहरे ६ चैव, वीरभद्दे ७ जसेविय ८।६ ॥ १६०॥ पार्श्वनाथ प्रभु के पाठ गणधर हुए शुभ, आर्य पोप, वशिष्ट, ब्रह्मचारी, सोम, श्रीधर वीर भद्र, यशस्वी. पासस्स णं अरहयो पुरिस्सादाणीयस्स अज्जदिण्णपामुक्खाओ सोलससमणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया हुत्था ।। १६१ ॥ . पासस्स णं अ० पुप्फबूलापामुक्खाओ अट्टत्तीसं अबिपासाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपया हुत्या ॥ १६२ ।।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३) पासस्स० सुव्वयपामुक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सीओ चउसहिं च सहस्सा उकोसिश्रा समणोवासगाणं संपयां हुत्था ।। १६३ ॥ • पासस्स. सुनंदापामुक्खाणं समोरासियाणं तिषिण सयसाहस्सीअो सत्तावीसं च सहस्सा उक्कोसिधा समगोवासियाणं संपया हत्था ।। १६ ।। पासस्स अट्ठसया चउद्दसपुब्बीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सबक्खर-जाव-चउद्दसपुब्बीणं संपया हुत्था ॥१६५६ पासस्स एं० चउद्दससया श्रोहिनाणीणं, दससया कंदलनाणीएं, इकारससया वेउब्बियाणं, छस्सया रिउमईणं, दससमसया सिद्धा, वीसं अज्जियासया सिद्धा, घट्टसया विउलमईणं, छसया वाईणं, बारससया भयुत्तरोववाइयाणं ॥ १६६ ॥ पार्श्वनाथ की और संपदा. आर्य दिन प्रमुख १६००० साधु, पुष्प चुला प्रमुख ३८००० साध्वी, सुखत प्रमुख १६४००० श्रावक, सुनंदा प्रमुख ३२७००० श्राविका, ३५० चौद पूर्वी, १४०० अवधि मानी, १००० केवल ज्ञानी, ११०० पक्रिय लब्धि पाले, ६०० जुमति मनपर्यव ज्ञानी, १०१० साधु मोक्ष में गए २००० साली गोक्ष में गई ८०० विपुल मति मन पर्यव बानी, ६०० वादी और १२०० अनुत्तर निमानवासी देव पुए. पासस्स णं अरहो पुरिसादाणीयस्स दुविहा ग्रंतग; डभूमी हुत्था, तंजहा-जुगंतगडभूमी, परियायंतगडभूमी य, जाव चउत्याो पुरिसजुगाओं जुमंतगडभूमी, निवासपरिपाए भंतमकासी ॥ १६७ ।। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) पार्श्वनाथ प्रभु की जुगत कृत भूमि में चार पट्ट तक मुक्ति कायम रही उन के तीर्थ से तीन वर्ष बाद कोई मुनि मोक्ष में गये. . तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे रहा पुरिसादाणीए तीस वासाई गावासमज्भे वसित्ता, तेसीइं राइंदिग्राइं उत्थपरिचय पाउपित्ता, देसूणाई सतरि वासाई केवलिपरित्राय पाउपिता, पडिपुराणाई सत्तरि वासाई सामरणपरियाय पाउलिता, एकं वासस्यं सव्वाउयं पालइत्ता खीणं वेयणिज्जाउयनामगुत्ते इमीसे प्रसपिणीए दूसमसुसमाए समाए बहुविकताए जे से वासाणं पढमे मासे दुच्च पक्खे सावणसुद्धे, तस्म णं सावणसुद्धस्स अट्ठमपक्खेणं उपि समे मेल सिहरंसि अपच उत्तीसहमे मासिएणं भत्ते अपाएरणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागणं पुव्वरहकालसमयंसि वग्घारियपाणी कालगए विइकंते जाव सव्वदुक्खपहणे ॥ १६८ ॥ पार्श्वनाथ के ३० वर्ष ग्रहस्थावास में गये ८३ दिन बद्मस्थ साधुपना में, ७० वर्ष में इतने दिन कम केवल ज्ञान का पर्याय, ७० वर्ष कुल दीक्षा पर्याय कुल १०० वर्ष का आयु पूर्ण कर चार अधाति कर्म क्षीण होने पर चोथे आरे का थोड़ा समय बाकी रहा तब श्रावण सुदी ८ के रोज विशाखा नक्षत्र में संमेत शिखर पर्वत उपर ३३ पुरुषों के साथ एक मास की संलेखना चौबिहार उपवास कर प्रभात में लंबे हाथ रखकर खड़े २ मोक्ष में गये सब दुःखों से मुक्त हुए ( उनका मोक्ष खड़े खड़े ही हुआ है । पासस्त णं रहयो जान सव्वदुक्खम्प्रहीणस्स दुवालस वाससयाई विकताई, तेरसमस् य अयं तीसइमे संवच्छरे काले गच्छ ॥ १६६ ॥ G Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) . कल्पसूत्र लिखाया उस समय पार्श्वनाथ के मोक्ष को १२३० वर्ष होगये थे अर्थात् महावीर और पार्श्वनाथ का निर्वाण का अंतर २५० वर्ष का है । रहा रिट्ठनेमी पंचचित्ते ते काले तेणं समए हुत्था, तंजहा - चिचाहिँ चुए चइत्ता गव्भं वकते, तहेव उक्खेवो - जाव चित्ताहिं परिनिव्व ॥ १७० ॥ ' नेमिनाथ का चरित्र. अरिष्टनेपि प्रभु के पांच कल्याणक चित्रा नक्षत्र में च्यवन' जन्म दीक्षा केवल ज्ञान और मोक्ष हुआ । तेलं कालेणं तेणं समए रहा रिट्ठनेमी जे से वामाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे कत्तिबहुले, तस्स एं कत्तियबहुलस्स वारसी पक्खे णं अपराजिया महाविमा - पात्रो बत्तीससागरोवमठिया यांतरं चयं चत्ता इहेब जंबुद्दीवे दीवे भार वासे सोरियपुरे नयरे समुद्द विजयस्स tout after fear देवीए पुव्वरत्तावर त्तकालसमयंसि जाव चित्ताहिं गव्भताए वक्ते, सव्वं तहेव सुमिदंसणदविपसंहरणाइयं इत्थ भणियव्वं ॥ १७९ ॥ कार्तिक वदी १२ के रोज अपराजित नामका महाविमान से ३२ सागरीपम की स्थिति पूर्णकर जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में सारीपुर नगर में समुद्र विजय राजा की शिवा देवी की कुक्षि में मध्य रात्रि में चित्रा नक्षत्र में आये राप्नो का अधिकार पूर्व की तरह जान लेना । तेणं कालेणं तेणं समएणं रहा रिट्ठनेमी जे सेवासाणं पढमे मासे दुचे पक्खे सावणसुद्धे, तस्स णं सावणसुस पंचमपक्से णं नवग्रहं मामाणं जाव चित्ताहिं नक्खने Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ( १५६ ) णं जांगसुवागणं जाव आरोग्गा या रोग्गं दारयं पयाया || जम्मणं समुद्रविजयाभिलावेगं नयव्वं, जावतं होउ णं कुमारे अरिट्ठनेमी नामेणं ॥ अरहा रिद्वनेमि दक्खे जान तिरियाबाससयाई कुमारे अगारवासमज्भे वसिता णं पुणरवि लोगतिहिं जियकणिएहिं देवेहिं तं चैव सव्वं भाणियव्वं, जाव दाणं दाइयाणं परिभाइचा ॥ १७२ ॥ नोमनाथ का जन्म श्रावण मुदी ५. के रोज चंद्र ननत्र चित्रा में हुआ, और कुमार का नाम समुद्र विजय राजाने अरिष्टनेमि रखा. विशेष अधिकार | माताने जब पुत्र गर्भ में था तब अरिष्ट रत्न की चक्र बारा देखी थी उस बात को जानकर पिताने उपर का नाम रखा, मञ्जु जब युवक हुए तब माता कहा कि योग्य कन्या शिवादेवी ने लग्न करने का पुत्र को कहा, नेमिनाथ ने मिलने पर लग्न करूंगा. मित्रों के साथ एक समय कृष्ण वासुदेव की आयुवशाला में गए मित्रों के श्राग्रह से चक्र को उठाकर आंगुली पर फिराया, कमल नाल की तरह गनुस्य को ठंडा किया. लकड़ी की तरह कौमुदकी गड़ा की चढाई. और पांचजन्य शंख को मुंह से बजाया उन मन्त्रों से इतना आवाज हुआ कि हाथी घोड़े चमक कर अपना स्थान छोड इयर उधर भाग. लोग घत्रगगये वासुदेव के विना और कोई ऐसा बलवान नहीं था कि वो ऐसा कार्य करे जिस से शत्रुभय से कृष्णजी भी देखने को आये दोनों के बीच में मैमया नो भी कृष्णजी को नेमिनाथ से भीति हुई की ऐसा बलवान मेरा राज्य क्यों नहीं लेगा ? बलभद्र पास जाकर कहा कि नेमिनाथ ने मेरेशन को उड़ाये और मेरेसाथ युद्ध परिक्षा में भी युजये अधिक तेजी बनाई दोनों चिनाएँ पड़े नत्र आकाश वाणी हुई कि भोकृष्ण नीकर ने कह रखा है कि नेपिनाय दीक्षा लेंगे वो परन्तु ब्रह्मचारी की अधिक शक्ति है इसलिंग जो उसकी चिंता में दुःखी होने से शक्ति नष्ट होगी ऐसा विचार कर इसलिये क्या करना ! ; भूलगया कि नमिनाय निःस्पृह है. तत्र शांति हुई स्यादी होवे तो घरकम्पनी ने अपनी Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्लीयों द्वारा नेमिनाथ को संसार में पड़ने की योजना की. सुंदरियों ने सुगंषि मलसे फुलोकी दृष्ठिसे श्रृंगार रस के वचनों से मोहित करना चाहा. किन्तु स.. त्यभामा रुक्मणी वगैरह अनेक रमणीयें मुग्ध हुई परन्तु नेमिनाथ को रोममें भी मोह नहीं हुआ किन्तु संसार में मोह कितना दुःख पाणीओं को देता है वोही विचार कर प्रभु शांत और मौन रहे. मौन देखकर सुंदरीयों ने कहा कि नेमिनाथ शरम से बोलते नहीं है. इच्छा भीतर में जरूर है. कृष्णजी ने शिवादेवी की रजा लेकर उग्रसेन राजा की पुत्री राजिमती जो योग्य अवस्था में थी उसके साथ लग्न की तैयारी की. क्राष्टिक नाम के निमित्तिक से अच्छा दिन पूछा तब वो पोला कि चौमासा में अच्छे कार्य नहीं करने उस से स्यादी भी नहीं करनी निमित्तिक को कहा कि देरका काम नहीं तव उसने श्रावण सुदी ६ का दिन बताया, विवार के दिन सब तैयारी कर परिवार के साथ नेमिनाथ भी चले. जब उग्रसेन के घर समीप आये तब बाड़ो में पशुओं का पुकार सुन कर नेमिनाथ को करुणा आई सारथी से पूछा कि ये सब क्यों पूरे हैं ? सारथी ने वात सुनाई के आपके लिये है. नेमिनाथ ने विचारा कि अहो ! सनुष्यों की क्या दुर्दशा है कि विचारे निर्दोष प्राणीयों को अपनी अल्प मानी हुई मौज (निव्हा स्वाद ) के खातिर उनकी अमूल्य जींदगी का नाश करते हैं ! मैं उसका निमित्त कारण क्यों होउ १ ऐसा विचार कर रथ पिछा लौटाया, सखीयों के साथ राजिमती हास्य करती थी और श्वसुर पन के अडवर को देख रही थी और मनमें सुख वैभव के तरंग उठारही थी उसी समय वात सुनी कि वर राजा का रथ पिछा लोटा है और पशुओं को मुक्त कराये है परके माता पिता और कन्या के माता पिता ने बहुत प्रार्थना नेमिनाथ को की कि जीव हिंसा नहीं होगी आप आने वाले स्वजनों की हासीं न करावे ! समझ कर स्यादी करलो ! किन्तु उपयोग देकर शान से अपनी दीचा का समय नजदीक जानकर और लोकांतिकं देवों की प्रार्थना से मुक्ति रमणी को चित्त में स्थापित कर सब रिस्तदारों को वोध देने लगे राजिमनी भी उदास होकर प्रार्थना करने लगी परंतु प्रभु के वचन से सबको शांति हुई और राजिमती रागदशा को छोड चोली नाथ ! हाय से नहीं मिला परन्तु दीक्षा समय शीर पर वो हाथ जरूर रहेगा (अर्थात् दीक्षा लेने के समय आपका हाथ का वामक्षेप मेरे मस्तक पर पडंगा) जेसे वासाएं पढमे मासे दुचे एक्वे सावणसुद्धे. तस्म Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६) णं सावणमुद्धस्स छट्ठीपक्खे णं पुबराहकालसमर्सि उत्तर'कुराए सीयाए सदेवमणु प्रामुराए परिमाए अणुगम्ममाणमग्गे जाव वारवईए नगरीए मझमझणं निग्गच्छड़, नि गच्छित्वा जेणेव रेवयए उजाणे, तणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेई, ठावित्ता सीयाश्रो. पचोरहइ, पचोरुहिता सयमेव ग्राभरणमल्लालंकारं ओमयड, सयमेव पंचमट्रियं लोयं करेड, करिता छद्रण भत्तणं अपाणएणं चित्तानक्खत्तेणं जोगमुवागरणं एगं देवदृममादाय एगणं पुरिससहस्सेणं सद्धिं मुंडे भवित्ता प्रागारात्री प्रणगारियं पबहए ।। १७३ ॥ दत्त अरिष्टनपि प्रभु न ३०० वर्ष ब्रह्म चर्यावस्था में निर्वाह किये, और वार्षिक दान देकर दीना श्रावण मुदीपको उत्तर कुरुशित्रिका में बैठकर द्वारिका नगरी से निकल कर गिरिनार पर्वन पर सहयाम्र वनमें जाकर अशोक वृक्ष नीचे पालखी से उतर श्राभूपण छोडकर चित्रा नक्षत्र में चंद्रयोग आनेपर देवस्य वन इंद्र पाम मे लेकर १००० पुरुषों के साथ छठ का चोविहार नपमें पंच मुष्टि लांच कर साधु हुए. ___ अरहा णं अरिट्ठनेमी चउपन्नं राइंदियाई निचं वोस?काए चियत्तदेहे, तं चेव सब्बं जाव पणपन्नगस्स राइंदियस्स अंतरा वट्ठमाणस्स जे से वासाणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे प्रासोयवहुले, तस्स णं आसोयवहुलस्स पन्नरसीपक्खे णं दिवसस्स पच्छिमे भाए उजितसेलसिहरे वेडसपायबस्स अहे छतुणं भत्तेणं अपाणएणं चित्तानक्खत्तेणं जोगमुवागएणं भापंतरियाए वट्टमाणस्स जार अणंते अणुत्तरे-जाव सब्बलोए सबजीवाएं भावे जाणमाणे पासमाण विहरई ।। १७४ ।। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५९) . ५४ दिन तक शरीर माह छोड़कर नमिनाथ ने उपसर्ग परिसह सहन किये और.५५ वां दिवस में आसोज वदी )) के रोज पिछले पहर में गिरिनार पर्वत पर बैतस वृक्ष की नीच तेले का चउविहार तप में चन्द्र नक्षत्र चित्रा में शुक्ल ध्यान के दूसरे भाग में केवल ज्ञान केवल दर्शन हुआ और सर्वज्ञ होकर विचरने लगे. ___ उद्यान रक्षक से कृष्ण वासुदेव को ज्ञात हुश्रा, प्रभु को वांदने को आये राजिमनी भी आई उस समय प्रभु के उदेपश सेवरदत्त वगैरह दो हजार राजाओं ने दीक्षा ली राजिमती का अधिक स्नेह देखकर कृष्ण वासुदेव ने प्रभुसे कारण पूछा. प्रभुने कहा कि नवभव से हमारा स्नेह चला आता है. - (१) धन नाम का मैं राजपुत्र था और वो मेरी भार्या धनवनी थी ( २ ) सौधर्म देवलोक में देव देवी थे, (३) मैं चित्रगति विद्याधर और वा रत्नवती नामकी भार्या थी (४) महेन्द्र देवलोक में दोनों देव हुए (५) अपराजित राजा और प्रियतमा भार्या हुई (६) पारण देवलोक में दोनों देव हुए (७) में शंखराजा और वो यशोमति रानी थी (८) अपराजित अनुत्तर विमान में दोनों देव हुए (8) में नेमिनाथ और वो राजिमती हुई इस लिय उसका प्रेम है. सब वंदनव र चले गये, दूसरी वक्त नेमिनाथ विहार कर सहसाम्र वन में आये तब उस वक्त बोध मुनकर राजिमती और नेमिनाथ के बंधु रहनेमि ने भी दीनाली. साधु साध्वी विहार कर गए एक समय रहनेमि गिरिनार की गुफा में ध्यान करने थे. और राजिमती नेमिनाथ को वंदन कर पिछी आती थीं वर्षा पाने से कपड़े सुखाने को मर्यादा से गुफा के भीतर गई अंधेरे में उसको कुछ न दीखा परन्तु रहनेमि ने देखा मुंदरता से मुग्ध होकर प्रार्थना करने लगा कि अपन यौवन वयका दोनों लाभ ले ! राजिमती स्थिर चित्त रखकर गुह्य भाग को गोदकर धैर्यता से पोलो अगंधन जातिका सर्प भी विषयमन कर फीर मुंहमें नहीं लेना तो अपन मनुष्य होकर कैसे भोगको त्यागकर ग्रहण करेंगे. रहनेमि समझ कर नेमिनाथ के पास जाकर मायश्चित लेकर तपकर केवल जान पाकर मुक्ति गये. राजिमनी भी केवल ज्ञान पाकर मुक्ति गये. अरहयो णं अरिहनेमिस्स अट्ठारस गणा अद्यारस गएहरा हुत्था ॥ ११५ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) हो समयसाहस्सी मिस्स वरदत्तपासुक्खाओ अट्ठारम उकासिया समणसंपया हुत्था ॥ १७६ ॥ अरहो अरिनेमिस्स अज्जजक्खिपिपासुक्खाओ चत्तालीसं यज्जियामाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंगया हुत्था. रहणं चरिनेमिस्स नंदपामुक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सी उत्तरं च सहस्मा उक्कोसिया समणोवास गाणं संपया हुत्था ॥ १७८ ॥ रो रिट्ठ० महासुब्वयापामुक्खाणं समणोवासिगाणं निरिण सय साहस्ती छत्तीसं च सहस्सा उक्कोसिया समोवासियाणं संपया ॥ १७६ ॥ अरहयो णं रिट्ठनेमिस्त्र चत्तारि सया चउदसपुब्बीणं अजिणाएं जिसका साणं सव्वक्खर जाव हुत्था ॥ १८० ॥ पनरससयां योहिनाणीणं, पन्नरसस्या केवलनाणी, पन्नरससया उब्वियाणं, दससया विउलमईं, अट्ठसया वाईणं, सोलससया अणुत्तरोववाहश्राणं, पन्नरस समणसया सिद्धा, तीसं अज्जियासयाई सिद्धाई || १८१ ॥ नेमिनाथ का परिवार 8 नेमिनाथ के १८ गणवर, १८ गण ये, १८००० साधु ये जिसमें वरदत्त बड़े थे, और ४०००० साध्वी में आर्य यक्षिणी बड़ी थी, नंद वगैरह १६६००० श्रावक थे श्राविका ३३६००० में महा सुत्रना बड़ी थी, ४०० चौदह पूर्वी थे, १५०० अवधि ज्ञानी १५०० केवल ज्ञानी, १५०० वैक्रिय लग्यि वाले, १००० चिल मति मन पर्यत्र ज्ञानी, ८०० बादी १६०० अनुत्तर मानवासी, १५०० सानु मोच में गये ३००० साध्वी मोच में गई. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अरहोणं अरिद्वनेमिस्स दुविहा अंतगडभूमी हुत्था, तंजहा-जुगंतगडभूमी परियायंतगडभूमी य-जाव अट्ठमात्रो पुरिसजुगाओ जुगतगडभूमी, दुवासपरिमाए अंतमकासी ॥ १८२ ॥ नेमिनाथ प्रभु के आठ पट्ट तक मुक्ति रही, तीर्थ से १२ वर्ष बाद मुक्ति शरु हुई. तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिहनेमी, तिरिण वाससयाई कुमारवासमझे वसित्ता चउपन्नं राइंदियाई छउमत्थपरिवायं पाउणित्ता देसूणाई सत्त वाससयाई केवलिपरियाय पाउणित्ता परिपुरणाई सत्तवाससयाइं सामण्णपरिश्रायं पाउणित्ताएगं वाससहस्सं सम्याउग्रं पालइत्ता खीणे वेयणिज्जाउयनामगुत्ते इमीसे प्रोसप्पिणीए दूसमसुसमाए समाए वहविइकंताए जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्टमे परखे थासाढसुद्धे तस्स एं श्रासाढसुद्धस्स अट्ठमीपवखे णं उप्पिं उउज्जितसेलसिहरसि पंचहिं छत्तीसहिं अणगारसएहि सद्धिं मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं चित्तानक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पुबरत्तावरत्तकालसमयसि नेसज्जिए कालगए (अं. ८००) जाव सव्वदुक्खप्पहीणे ॥ १८३ ॥ नेमिनाथ ३०० वर्ष ब्रह्मचारी, ५४ दिन छद्मरथ दीक्षा, ७०० वर्ष में ५४ दिन बाद केवली पर्याय ७०० वर्ष का पूरा साधुपना पालकर १००० वर्ष का पूरा आयु पाल चार अघाति कर्म दर होने से असाड मुढी ८ को चित्रा चन्द्र नक्षत्र में गिरिनार पर्वत उपर ३३६ साधुओं के साथ एक मास का अनशन फर मध्य रात्रि में मुक्ति गये. भरहयो णं अरिट्टनेमिस्स कालगयस्स जाव सब्बदु Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) क्खप्पहीणस्स चउरासीइं वाससहस्साइं विकताई, पंचासी इमस्स वाससहस्तस्स नव वाससयाई विकताई, दसमस्स वाससगस्स अयं असीइमे संवच्चरेकाले गच्छ ॥ १८४ ॥ २२॥ नेमिनाथ मोच गये उसको कल्पसूत्र लिखने के समय ८४६८० वर्ष हो गये थे (नेमिनाथ और महावीर दोनों का निर्वाण का अंतर ८४००० वर्ष का है) नमिस्स णं अरहयो कालगयस्स जाव सव्वदुक्खप्पही - ; यस्स पंच वाससय सहस्साइं चउरासी च वाससहस्साइं नव य वाससयाई विकताई, दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे मच्छरे काले गच्छन् || १८५ || २१ || नेमिनाथ से लेकर अजितनाथ प्रभु तक का अंतर बनाया है नेमिनाथ को कल्पसूत्र लिखने के समय ५८४६७० वर्ष हुए. मुणिसुव्वयस्स णं रहयो कालगयस्स इक्कारस वाससरसहस्साई चउरासीनं च वाससहस्साइं नव वाससयाई वि इकताई, दसमस्स य वासस्यस्स अयं असीमे संवच्चरे काले गच्छड़ ॥ ९८६ ॥ २० ॥ मल्लिस णं रह जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स पन्नट्ठि वाससयस हस्लाई चउरासीडं च वाससहस्साई नव वासलयाइं विकताई, दसमस्त यं सीहमे संवच्छरे काले ग च्छइ ॥ १८७ ॥ १६ ॥ रस्स णं अरहयो जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स ऐगे वामकोडसहस्मे विते, सेसं जहा मल्लिस्स - तं च एवं पंचसहिं लक्खा चउरासीइं सहस्सा विज्ञकंता, तंमि समए महावीरो निव्वु, तो परं नव वाससया विज्ञकंता दसमम्स य Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६३) वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छड्। एवं अग्गओ जाव सेयंसा ताव दठ्ठवं ॥ १८८ ॥ १८॥ मुनिसुव्रत से ११८४६८० वर्ष हुए. मल्लिनाथ से ६५८४६८० अरनाथ से १००० क्रोड ६५८४९८० वर्ष कल्पसूत्र लिखने के समय. कुंथुस्स णं अरहो जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्म एगे चउभागपलिअोवमे विइकते, पंचसहि वाससयसहस्सा, सेसं जहा मल्लिस्स ॥ १८९ ॥ १७ ॥ . कुंथुनाथ से पल्योपम और अरनाथ का अंतर गिनलेना. संतिस्स णं अरहो जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स एगे चउभागूणे पलिवमे विइकते पनहि च, सेसं जहा मल्लिस्स ॥ १६० ॥ १६ ॥ · धम्मस्स णं अरहो जाव सम्बदुक्खप्पहीणस्स तिरिण सागरोवमाई विइकंताई, पन्नहि च, सेसं जहा मल्लि स्स ॥ १६१ ॥ १५ ॥ __अणंतस्स णं अरहो जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स सत्त सागरोवमाइं विइक्ताई पन्नहि च, सेसं जहा मल्लि स्स ।। १६२ ॥ १४॥ विमलस्स णं अरहो जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स सोलस सागरोवमाइं विइकताई, पन्नलिं च, सेस जहा मल्लि स्स ॥ १६३ ॥ १३ ॥ वासुपुज्जस्स णं अरहो जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स छायालीसं सागरावमाइं विइकंताई पन्नटिं, सेसं जहा मलिप्त ॥ १६४ ॥ १२ ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) सिज़्ज़ंसस्स णं घरही जाव सव्वदुक्खप्पहीएस्स एंगे सागरोवमसए विंकंते पन्नदृद्धिं च सेसं जहा मल्लि - " स्स ।। १६५ ॥। ११ ॥ शांतिनाथ से III ( 3 ) पल्योपम ६५८४६८० वर्ष. धर्मनाथ से ३ सागगंप और मल्लिनाथ की अंतर अनंतनाथ से ७ सागरांपम और मल्लिनाथ का अंतर विमलनाथ से १६ सागरोपम वासु पूज्य से ४६ सागरोपम श्रेयांसनाथ से १०० सागरोपम और मल्लिनाथ का अंतर, सीमलस्स अहो जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स एगा सागरोवमकोडी तिवासञ्चद्धनवमासाहियवायालीसवाससस्सेहिं ऊपिया विकता, एयंमि समए वीरे निव्वुचो, तोविय णं परं नव वाससयाई विक्कताई, दसमस्त य वाससयस् अयं असीमे संवच्छरे काले गच्छइ ॥ १६६ ॥ १० ॥ सुविहिस्स रहो पुप्फदंतस्स जाव सव्वदुक्खप्पहस्स दस सागरोवमकोडीयो विइक्कतायो, सेसं जहा सीलस्स, तंच इमं - तिवासश्रद्धनसवमाहियवायालीसवासमहस्सेहिं ऊणि विइक्कंता इच्चाई || १६७ ॥ ६ ॥ दहस्त णं रह जाव - प्पहीणस्स एगं सागरोवमकोडिसयं विइक्कंते, सेसं जहा सीलस्स, तंच इमं -तिवासच्चद्धनवमासाहियवायालीससहस्सेहिं ऊणगमिच्चाइ ॥ १६८ ॥ ८ ॥ रहयो जाव-पहीणस्स एगे सागरोवमकोडिसहस्स विकते, सेसं जहा सीलस्स, तंच इमं-तिवासग्रद्धनवमासाहियवायालीससहस्सेहिं ऊणिया इच्चाई || सुपासत १६६ ॥ ७ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५) एउमप्पहस्स णं अरहो जावप्पहीणस्स दस सागरोवमकोडिसहस्सा विकता, तिवासनद्धनयमाचाहियवायाली. ससहस्सेहिं इचाइयं, सेसं जहा सीअलस्म ॥. २०० ॥ ६॥ . सुमइस्स णं अरहो जाव० प्पहीणस्स एगे सागरोवमकोडिसयसहस्से विड़कंते, सेतुं जहा सीअलस्त, तिवासनवमासाहियबायाली ससहस्सहिं इन्चाइयं ॥ २०१ ॥ ५॥ अभिनंदणस्स.णं अरहो.जाव० प्पहीणस्स दस सागरोवमोडिसयसहस्सा विक्रता, सेसं जहासीअलसतंच इमं तिवासद्धनवमासाहियवायालीसवाससहस्सेहिं इन्चाइयं ॥ २०२ ।। ४॥ शीतलनाथ और महावीर का माक्ष समय अंतर १ कोड सागरोपम में । ४२०८३ वर्ष ८॥ मास कम है उसके ६८० वर्ष बाद कल्पमूत्र लिखा गया है सुविधिनाथ से १० क्रोड़ सागरोपम और शीतलनाथ की तरह जानना. चन्द्र प्रभु से १०० कोड़ सुपार्श्वनाथ से १००० क्रोड़ पद्मप्रभु से १०००० कोड़ मुमतिनाथ से ह लाख कोड़ अभिनंदन से १ लाख कोड़ , संभवस्स णं अरनो जाव० प्पहीणस्स वीसं सागरोवमकोडिरायसहस्सा विइता, सेम जहा सीअलस्स, तिवासअद्धनवमासाहियवायालीसवाससहस्सेहिं इन्चाइयं ॥२०॥३॥ अजियस्स णं अरहयो जावप्पहीणस्स पन्नासं सागरोवः मकोडिसयसहस्सा विइकता, सेसं जहा सीअलस्स, तिवासभद्धनवमासाहियवायालीसवाससहस्सोहिंडचाइयं ॥ २०४॥२॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) तेणं कालेणं तेयं समएणं उसमे णं अरहा कोसलिए चउत्तरासाढे अभी पंचमे हुत्था, तंजहा - उत्तरासढाहिं चुए चइता गव्र्भ वकते जाव अभीहणा परिविव्व ॥ २०५ ॥ संभवनाथ से २० लाख क्रोड़ सागरोपम और शेष शीतलनाथ की तरह. अजितनाथ से ५० लाख क्रोड सागरोपम और शेष शीतलनाथ की तरह. ऋषभदेव प्रभु का चरित्र कहते हैं तेरह भव पहिले सम्यक्त्व पाया उन सेरह भवों का वर्णनः - ( १ ) धनासार्थवाह ने मुनि को घी का दान दिया वहां सम्यक्त्व पाया (२) उत्तर कुरुक्षेत्र में युगलिक ( ३ ) सौधर्म देवलोक में देव (४) जंबूद्वीप के पश्चिम महाविदेह मे गंधिलावती विजय में महावल राजा ( ५ ) ईशान देव लोक में ललितांग देव (६) जंबूद्वीप के पूर्व महाविदेह में पुष्कलावती विजय में लोहार्गलनगर में वज्र जंघ राजा, (७) उत्तर कुरुक्षेत्र में युगलिक, (८) प्रथम देवलोक में देव, (६) जंबूद्वीप महाविदेह क्षिति प्रतिष्ठित नगर में सुवि वैद्य, (१०) मित्रों के साथ चारमा देवलोक में देव, (११) जंबूद्वीप के महाविदेह में पुष्कलावती विजय में पुंडरीकिणी नगरी में पूर्व मित्रों के साथ भाई हुए वैद्य का जीव वज्रनाभ चक्रवर्त्ती हुए है भाई के साथ दीक्षा ली चक्रवर्त्ती ने २० स्थानक पद आराधी तीर्थंकर पद बांधा, (१२) छे भाई सर्वार्थ सिद्ध विमान में देव हुए, (१३) ऋषभदेव तीर्थंकर हुए. ऋषभदेव के ४ कल्याणक उत्तराषाढा और मोक्ष अभिजित नक्षत्र में हुए. च्यवन, जन्म दीक्षा केवल ये चार उत्तराषाढा में और मोक्ष अभिजित नक्षत्र में हुआ. कुलकरों की उत्पत्ति | ऋषभदेव इस अवसर्पिणी के तीसरे आरे के अंत में हुए हैं उनके पूर्वज कुलकर कहलाते थे पल्योपम का आठवा भाग (2) बाकी रहा तत्र युगलिकों मैं विमल वाहन युगलिक मनुष्य हुवा उसका पूर्व भव का मित्र कपट कर 'हाथी' हुआ था वो स्नेह से अपने पर बैठाकर चलता था कल्पवृक्ष का रसकम देखकर ममत्व बढा और न्याय करने को सबने मिलकर जाति स्मरण ज्ञान Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) वाले विमल वाहन को कुलकर (मुखिया) बनाया त्रिमल वाहन ने उन युगलिकों के हितार्थ गुनहगार को दंड "हकार" शब्द रखा उसकी भार्या का नाम चंद्रयश था और दोनों नवसो धनुष्य ऊंचे थे. ( २ ) उनका पुत्र चक्षुष्मान हुआ, (३) यशः स्वान ( ४ ) अभिचंद्र ( ५ ) प्रसेनजित ( ६ ) मरुदेव ( ७ ) नाभि कुलकर थे उनकी भार्या मरुदेवा थी इसके कुल में ऋषभदेव हुए. दो के समय में हाकार दो के समय में माकार, दो के समय में धिक्कार और सातवे कुलकर के समय में तीनों ही थे ते काले तेणं समए उसमे रहा कोसलिए जे से गिम्हाणं उत्थे मासे सत्तमे पक्खे आसाढवहुले तस्स णं श्रासाढत्र हुलस्स चउत्थी पक्खे णं सव्वट्टसिद्धाओ महाविमाणाश्रो तिचीससागरोवम द्वित्रायो श्रणंतरं चयं चहत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहेवासे इक्खागभूमीए नाभिस्स कुलगरस्समरुदेवीए भारिया पुत्ररत्तावरत्तकालसमयसि श्राहारवकंतीए जाव गव्भत्ताए वक्कते ॥ २०६ ॥ उस समय ऋषभदेव तीर्थकर आपाढ़ नदी ४ के रोज सवार्थ सिद्ध विमान से ३३ सागरोपम प्रायुपूर्ण कर एकदम इस भरत क्षेत्र में इच्वाकु भूमी में कौशल ( अयोध्या ) देश में ( कौशल देश में उत्पन्न होने से ) कौशलक मरुदेवी की कुक्षि में मध्य रात्रि में आये. उसमे रहा कोसलिए तिन्नाणोत्रगण श्राविहुत्था, तं हा चहस्सामित्ति जापड़- जाव- सुमिणे पाड़, तंजड़ा-गयगाहा । सव्वं तहेव-नवरं पढ़मं उसभं सुहेणं तं पासइ-ससायो गयं । नाभिकुलगरस्स साहइ, सुविणपाढगा नत्थि, नाभिकुलगरो सयमेव वागरेह ॥ २०७ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ( १६८ ) भगवान् को तीन ज्ञान होने से भूत भविष्य का हाल जाने पण च्यवन का वर्तमान समय न जाने चोद स्वम का अधिकार में भेद यह है कि माना प्रथम वृषभ देखें बाकी सब पूर्व माफिक जानना स्वम पाटक न होने से नाभि कुल करने स्वयं अपनी बुद्धि अनुसार कहा था. ते कालेणं तेणं समरणं उसमे णं रहा कोसलिए जे से गिम्हाणं पढमे पक्वे चित्तवहुले तस्स णं चित्तत्वहुलस्म चट्टमीपखे णं नवग्रहं मासाएं बहुपडिपुराणं यद्धद्रुमाणं राईदियाणं जाव यासाढाहिं नक्खत्तेणं जोगसुवागएणं जाव आरोग्गा आरोग्गं दारयं ययाया ॥ २०८ ॥ तं चैव सव्वं जाव देवा देवीयो य वसुहारवासं वार्सिंसु, तव चार सोहणं माणुम्मा एवड्ढणं- उस्क्कसुमाइयट्टिवडियजूयवज्रं सव्वं भाणिद्यव्वं ॥ २०६ ॥ P ऋषभदेव का जन्म चैत्र वदी ८ के रोज हुआ बाकी सर्व पूर्व की तरह है, मरुदेवी माता ने निरोगी सुंदर पुत्र को जन्म दिया. देव देवियों का आना गोंगाट डोना, द्रव्य वृष्टि करना पिता का दश दिनों का महोत्सव पूर्व की तरह जान लेना. ऋषभदेव प्रभु सुन्दर रूप वाले देव और युगलिक मनुष्यों से घेरे हुए फिरते थे बाल्यावस्था में अमृत पान करते थे और बड़े होने बाद दीक्षा समय तक कल्पवृक्ष के फल ग्वांते थे अमृत को अंगूठे में देवता ने रखा था और उत्तरकुरु से कल्पवृच के फल भी लादिये थे. प्रभु के वंश की स्थापनार्थ इन्द्र इभु लेकर आया एक वर्ष की उम्र में प्रभु ये तो भी ज्ञान से इन्द्र का अभिप्राय जानकर लंबा हायकर इक्षु (सेठा, गन्ना ) लिया इन्द्र ने उससे उनके कुल का नाम इच्चाकू रखा गांव का नाम काश्यप रखा. एक युगलिक (श्री पुरुष ) का जोड़ा फिरता था छोटी उम्र में पुरुष को ताल वृक्ष का फल लगने से प्रथम अकाल मृत्यु हुआ छोटी लड़की का कोई रक्षक न रहने से नाभि कुलकर को दी उनके साथ वो फिरनी थी बड़ी हुई Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६९) सब नाभि कुलकर ने उस सुन्दरी जिसका नाम सुनन्दा था और सुमंगला जो साथ जन्मी थी उन दो कन्याओं के साथ ऋपदेव की यादी की लन्न विधि का मब अधिकार प्रथम तीर्थंकर का इन्द्र को करने का है इसलिये इन्द्र इन्द्राणी ने आकर लग्नविधि पनाई. ( जैन लग्न विधि की उस दिन से शरुवात हुई है). पत्रोउत्पत्ति छ लाख पूर्व (८४००००० वर्प का पूर्वाग होता है ८४००००० पूर्वाग का पूर्व होता है ) तक संसारवास में अपभदेव प्रभु को सुमंगला से भरत, ब्राह्मी, पुत्र पुत्री हुए ( दोनों साथ जन्मने वाले को युगलिक कहते हैं ) और सुनंदा को पाहुवल सुंदरी पुत्र पुत्री हुए उसके पाद ६८ पुत्र सुमंगला को ४६ मोड़ के से हुए. सब मिलके दो रानी के १०० पुत्र और २ पुत्री हुई. ___ उसमे णं अरहा कोसलिए कासवगुत्ते णं, तस्स एवं पंच नामधिज्जा एवमाहिज्जति, तंजहा- उसमे इ वा, पढमराया इवा, पढमभिक्खायरे इ वा, पढमजिण इ वा, पढमतित्थयरे इ वा ॥ २१०॥ ऋषभदेव के नाम. ऋषभदेव के ओर नाम प्रथम राजा, प्रथम साधु, प्रथम जिन, प्रथम तीर्यकर सब मिल के पांच नाम हैं. कल्पक्ष का रस कम होने से ममत्व यहा परस्पर युगलिक लड़ने लंगहा, मा, धिक ऐसी नीति से मानने नहीं थे प्रामंदर के पास सघन जाकर वह बात सुनाई प्रभुने कहा अब तुमारे को एक राना मुकरर करना कि यो गुनहगारको दंड देवे उन्होंने वह मंजर लिया गौर नाभिकुलकर फो गजा के लिये मार्थना की प्रषभदेव को योग्य देखकर नाभिागकरने उन युगलिकों द्वारा राजा बनाने को राज्याभिषेक के लिये कमल पत्रों में जल लाने को कहा लावें उस पहिले इन्द्र ने अवधि ज्ञान द्वारा जान कर स्वयं भाकर मन को योग्य रीति मे राज्याभिषेक की सब विधि की युगलिक याग नर पमंदर Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७०) शां विभूपित देखकर इन्द्र का विनय रखने को उसकी पूजन में भेद न पड़े इस लिये प्रभु के चरणों में जल डाला इन्द्रने प्रसन्न होकर कुबेर द्वारा ऋपभदेव के लिय जो सब समृद्धि से भरपूर नगरी बनाई. जो १२ योजन लंबी है योजन चौडी थी उसका नाम "विनीना" रखा और शत्रु के योधा से अजिन थी इमलिय दूसरा नाम अयोध्या हुआ। उपभोग राजन्य क्षत्रिय एस चार कुलों की स्थापना की। · कल्पवृक्ष की बेटी से युगलिकों को खाने की मुकली हुई उससे जो फल फुल मिले वो खान लगे परंतु पाचन नहीं होने से ऋषभदेव ने खाने की विधि वताई पहिले छिलके उतारना बताया (२) पानी में भिगो कर खाना बताया, (३) बगल में अनाज रख गरम कर खाना बताया अंत में अग्नि वृक्षों के घर्षण से उत्पन्न हुआ देवकर युगलिक गभराय लेने लगे जलकर भागे, प्रभु का फर्याद की प्रभु ने मट्टी के बरतन बना कर उनको पहिले बताया कि ऐसे वरतन बनाकर उसको पका कर उसमें अनाज पका कर खाओ कुंभार कला के बाद प्रभु ने लोहार, चिनारा, कपडा बुनना, और हजाम की ऐसी पांच मुख्य कला और प्रत्येक के २० भेद होने से कुल १०० मंद शीखाय । उसमे णं अरहा कोसलिए दक्खे दक्खपणे पडिलवे अल्लाणे भहए विणीए वीसं पुबसयसहस्साई कुमारवासमज्झे वसइ, वसित्ता तेवहि पुवसयसहस्साई रज्जवासमझे वसइ, तेवडिं च पुब्बसयसहस्साई रज्जवासमज्झे वसमाण लहाइयायो गणियप्पहाणायो सउणरुपपज्जवसापाओ वावरि कलायो, चउपसहि महिलागुणे, सिप्पसयं च कम्नाणं, तिनिवि पयाहियाए उवदिसइ, उदिसित्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचह, अभिसिचित्ता पुणरवि लोअतिपहिं जिअकप्पिपहिं देवेहिं ताहिं इट्टाहिं जाव वग्गूहि, सेसं तं चेव सव्वं भाणिग्रव्य, जाव दाणं दाइमाणं परिभाइत्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले, तस्स णं चित्तबहुलस्स Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७१) अट्ठमीपवखे णं दिवसस्स पच्छिमे भागे सुदंसणाए सीयाए सदेवमणासुराए परिसाए समणुगम्ममाणसग्गे जाव वि. णीयं रायहाणिं मझमज्झणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव सिद्धत्थवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायचे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स जाव सयमेव चउमुहिनं लोगं करेइ, करित्ता छटेणं भत्तणं अपाणएणं प्रासाढाहिं नक्खत्तणं जोगसुवागएणं उग्गाणं भोग्गाणं राइण्णाणं खत्तियाणं च चरहिं पुरिससहस्सेहिं सद्धिं एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता प्रागाराप्रो अणगारियं पाइए ।। २११ ॥ ऋपभदेव प्रभु मय उत्तम गुणों से भूपित थे २० लाग्य पूर्व कुमार रहे ६३ लाख पूर्व राज्याधीश रहे उस समय पर लेखन वगैरह गणिन प्रधान पनी का अवाज जानना तक पुरुप की ७२ कलाएं सीखाई स्त्री की ६४ कलाए शिल्प सो जाति का ये तीन बातें प्रजा के हितार्थ सीखाई और १०० पुत्रों को राज्याभिषेक किया। पुरुप की ७२ कलाएं। लेखन, गणित. गीत, नृत्य, वाद्य, पठन, शिक्षा, ज्योतिप. इंद्र, अलंकार, व्याकरण, निरुक्ती, काव्य, कात्यायन, निघंटु, गजारोहण. अश्या रोहण उन दोनों की शिक्षा, शास्त्राभ्याम, रस, मंत्र, यंत्र. विप, खन्य, गंधवाद, प्राकृत. मग्न. पैशाचिक अपभ्रंश, स्मृति, पुराण, विधि, मिद्धांत. तर्फ, बैठक बंद आगम संहिता इतिहास, सामुद्रिक विज्ञान, आचार्य कविद्या, रसायन. कपट, विशनुवाद, दर्शन, संस्कार, धूर्त. संवलक. मणिकम. नरु चिकिमा, बर्ग कला. अमरी कला. इंद्रजाल, पानाम सिद्धि. पंचक. ग्सबनी, मयं करणी प्रामाद लक्षण, पण. चित्रोपल, लेप, चपं कम पत्र छद. नग्य छेद. पत्र परीक्षा. नीकरण, काष्ट घटन, देश भाषा. गान्ड, गोगांग धातुकर्म कवन विधि शान गन । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७२) स्त्री की ६४ कलाएं। . . नृत्य, औचित्य. चित्र वाजिंत्र, मंत्र, मंत्र, धन वृष्टि, कलाकृष्टि. संस्कृत चाणी, क्रिया कल्प, ज्ञान, विज्ञान, दभ, जल स्थय गीत. ताल, श्राकृति गोपन श्राराम रोपण, काव्य शक्ति, वक्रोक्ति, नर लक्षण, गन परीक्षा, अश्व परीक्षा वास्तु शुद्धि लघु वृद्धि, शकुन विचार धर्माचार, अंजन योग, चूर्ण योग, गृही धर्म, मुप्रसादन कर्म. सोना सिद्धि. वर्णिका वृद्धि, वाक पाटव, कर लाघक. ललिन चरण, तैलमुरभिकरण, मृत्योपचार, गेहाचार, व्याकरण, पर निराकरण, विणानाद वितंडाबाह, अंकस्थिनि, जनाचार, कुंभक्रम, सारिश्रम, रत्न मरिभेद, लिपि परिच्छेद, वैद्य क्रिया, कामा विष्करण, रसाई, के शवध,शालि खंडन, युख मंडन, कथा कयन, कुसुम ग्रंथन, वरवंश सर्व भाषा विशेप, वाणिज्य. मोज्य, अभिधान परिबान, यथा स्थान प्राभूपण धारण, त्याचरिका और प्रहलिका. अठाहर लिपि । इंस, भूस, यन, राचस, उडि, यावनी, तुम्की, कीरी, द्राविडी, संघवी, मालवी, वडी, नागरी, भाटी, फारसी, अनिमित्ति, चाणाकी मूल देवी । एक से लेकर दश दश गुणी संग्च्या पराध तक संख्या वताई। ऋषभदेव ने ब्राह्मी कुमारी को जमणे हाथ से अठारह लिपि सिखाई मुन्दरी को गणित सिखाया भरन को काट कम और बाहुबली को पुरुष कलण सिखाये. ___ऋषभदेव के सापुत्र । भरत, बाहुबलि, शंम्ब, विश्वकर्मा, विमल, मुलतण, अमल. चित्रांग, ध्यान कीर्चि, वरदच, सागर, यगांधर, अमर, स्थवर, कायदेव, ध्रुव, वत्सनंद, मुर, मुबंद, कुरू, अंग, बंग, कौगल, वीर, कलिंग, मागध, विदेह, संगम, दशाण, गंभीर, यसुवर्मा, मुवमा, राष्ट्र, साराष्ट्र, बुद्धिकर, विविधिकर, सुयशा यशः कीर्ति, यगस्कर, कीर्तिकर, सुरण, ब्रह्मसन, विक्रांन, नरोत्तम, पुरुपोसम, चंद्रसेन, महासन, नभमेन, भानु, सुकांत, पुष्पयुत, श्रीधर, दुर्दश, सुसुगार, दुर्जय, अजयमान, मुधर्मा, धर्मसन, आनंदन, आनंद, नंद, अपराजित, विश्वसेन, हरियण, जय, विजय, विजयंत, प्रभाकर अरिदमन, मान, महावाहु, Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७३) दीवाह, मंघ, सुघोप, विश्व, वराह, सुसेन. सेनापति, कुंजरवल, जयदेव, नागदत्त, काश्यप, बल, वार, शुभमति सुमति, पद्मनाभ, सिंह, सुजाति, संजय, सुनाम मरुदेव चित्तहर, सरवर. द्रढरथ, प्रभंजन. देशों के थोडेनाम। अंग, वंग, कलिंग, गोड, चौर, करणाट, लाट, सौराष्ट्र . काश्मीर, मी पौर, आभर, चीन, महाचीन, गुर्जर, बंगाल, श्रीमाल, नेपाल, जहाल, कौशल, मालव, सिंहल, मरुस्थल. __ इस तरह सो पुत्रों को राज्य दिया तब लोकांतिक देवों ने विज्ञप्ति की कि आप धर्म तीर्थ मवर्नावे । प्रभुने पहिले से ही अपना दीक्षा काल अवधि ज्ञान से जान लिया था इसलिये धन वगैरह उत्तम वस्तुओं का सम्बंध छोड़कर पुत्र पौत्रों को हिस्से बांट दिये और वार्पिक दान देना शरु किया और चैत्र वदीके रोज दिन के तीसरे पहर में सुदंसणा पालखी में बैठकर विनीता नगरी से वहार आकर सिद्धार्थ वन में अशोक वर पादप के नीचे पालखी से उतर कर सब अलंकार छोड़कर चउविहार छठ की तपस्या में चंद्र नक्षत्र पूर्वापाढा में उग्र भोग राजन्य क्षत्रियों के ४००० पुरुपों के साथ एक देव दृप्य वन ग्रहण मुंड होकर साधु हुए. (चार मुठी लोच होने याद थोड़े बाल याकी रहगये वो इन्द्र ने सुशोभित देखकर विज्ञप्ति की कि आप रखे प्रभु ने उसकी विज्ञप्ति सुनकर उन घालों को रहने दिये) प्रभु ने दीक्षा ली परन्तु भिक्षा लेने को गये तब कोई भी भिक्षा देना नहीं जानता था और हाथी घोड़ा कन्या धन भेट करे वो प्रभु लवे नहीं न उत्तर देते थे जिससे ४००० दीक्षितों ने भूख के दुःख का निवारण प्रभु से पृद्धा उत्तर न मिलने से घर जाने को अच्छा न समझा तब गंगा के किनारे फल फूल खाने वाले तापस बने परन्तु अन्तराय कर्म को हटाने को प्रभु नो सपर्य होकर विचरते ही रहे. ___ कल गहा कद्र के नमि विनमि पुत्रों को ऋपभंटव ने पुत्र मान थे वे दोनों राज्य बांटने के वक्त निदेश गये थे जिससे जब आये नर प्रभु को नहीं देखकर उनके पीछे पीछे फिरे और प्रभु को साधु अवस्था में मॉन दैग्नकर सेवा करने Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) रहे, एक दिन धरणेन्द्र ने प्रभु की भक्ति में दोनों को रक्त जान कर संतुष्ट होकर बैनाड्य पर्वत पर दोनों को राज्य दिया और विद्याये दी उन दोनों का परिवार भी साथ गया दक्षिण श्रेणि में नमि और उत्तर श्रेणि में विनमि रहा उस दिन से विद्याधरों का वंश चला भरत महाराजा दोनों का दादा था उसको पूछ कर दोनों ने इंद्र की सहाय से दक्षिण में ५० और उत्तर में ६० नगर बसाये । प्रभु का प्रथम पारणा । प्रभु विनीता से दीक्षा लेकर फिरते २ हस्तिनापुर गये वहां पर बाहुबालिका पुत्र सोम प्रभा राज्य करता था उसका पुत्र श्रेयांस कुमार ने ऋषभदेव की माधुप में देखे और जाति स्मरण ज्ञान शुभ भाव से हो जाने से पूर्व भव का संबंध देख कर साधु को कैसा आहार देना वो जान कर वैशाख मुद ३ अक्षय तृतीया के दिन इक्षु (शेरडी) के रस के बडे जो कोई भेंट कर गया था उसका दान प्रभु को दिया प्रभु ने भी हाथ में रस लेकर पान किया उस दिन से माधु को कैसा आहार देना वो लोगों ने श्रेयांस कुमार से पूछ लिया और प्रभु को सर्वत्र शुद्धाहार दान मिलने लगा (श्रेयांस कुमार को लोगों ने पूछा कि आपने कैसे यह बात जानी तत्र श्रेयांसकुमार ने लोगों को कहा कि आठ भव का हमारे सम्बन्ध है ( १ ) ललिनांग नाम के ईशान देव लोग में प्रभु देव थे मैं निर्नाभिका नामकी स्वयं प्रभा उनकी देवी थी. ( २ ) पूर्व महा विदेह में बञ्च जंच गजा थे मैं श्रीमनी नामकी रानी थी ( ३ ) उत्तर कुरु में युगल युगली हुए ( ४ ) सौधर्म देवलोक में दोनों मित्र देव हुए ( ५ ) अपर विदेह में वैद्यपुत्र और में उनका मित्र जीर्ण शेठ का पुत्र केशव था ( ६ ) मथु पुंडरीकिणी नगरी में वज्रनाभ और मैं उनका सारथी था (७) सर्वार्थ सिद्ध विमान में दोनों देव ( ८ ) प्रभु ऋषभदेव और में उनका प्रपौत्र हुआ किन्तु मुझे जानि स्मरण उनका साधु वेप देखने से हुआ तब मैं ने पूर्व में साधुपणा लेकर गोचरी ली थी वो याद आने से और प्रभु को पिछानने से उत्तम सुपात्र जानकर निर्दोष आहार दिया ). प्रभुंने पूर्व भव में बारह पहर तक बैल का मुंह बंधवायाया उस पाप से इतने दिन शुद्धाहार न मिला. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७५) उसमें पं अरहा कोसलिए एगं वाससंहस्सं निचं वोस. ढकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा जाव० अप्पाणं भावमाणम इक्कं वाससहस्सं विक्कं नं, तो णं जे से हेमंताणं चउत्थे मासे सत्तम पक्खे फग्गुण बहुले, तस्स णं फग्गुणवहुलस्स इक्कारसीपक्खणं पुव्वण्हकालसमयंसि पुरिमतालस्त नयरस्त बहिश्रा सगडमुहसि उज्जाणंसि नग्गोहवरपायवस्म अहे अट्ठमेणं भत्तणं अपाणएणं प्रासादाहिं नकबत्तेणं जोंगमुवागएणं झाणंतरित्राए नट्टमाणस्स अणते जाव० जाणमाणे पासमाणे विहरइ ॥ २१२ ५ एक हजार वर्ष तक प्रभुजी छद्मस्थ अवस्था में रहे और साधुपना योग्य पालने से १००० वर्ष बाट फागण बढी ११ के रोज पहले पहर में पुग्मितालनगर के शकट मुख उद्यान में वड़ वृक्ष के नीचे तले के चउ विहार तप में पूर्वाषाढा नक्षत्र में चन्द्र गोग आने पर शुक्ल ध्यान के दूसरे पाया में प्रभु को केवल ज्ञान हुआ सर्वज्ञ होकर सबको प्रत्यक्ष देखते विचरने लगे. विनितानगरी के पुरिमताल नाम के पुरा में प्रभुको केवल ज्ञान हुआ उग समय भरत महाराज की आयुधशाला में देवताधिष्ठित चक्ररत्न हुआ ना भी धर्म रक्त भरत महाराजा ने प्रभु का महिगा पहला किया मरुदेवा माता जो पुत्र वियोग से रोती थी उसको हाथी पर बैठा कर लेचले रास्ते में पुत्र के भय की बात सुनकर हर्ष के आंसु आने से अखि सुलगई और दूर से ऋद्धि देग्य कर विचारने लगे कि मैने पुत्र के लिये इतना दुःख भोगा परन्तु ऐमी प्रद्धि वाला पुत्र मुझे कहलाता भी नहीं था इसलिये सब म्बार्थी हैं! अपना प्रान्मा ही राग द्वेष से व्यर्थ कर्म बन्ध करना है। ऐसा विचार में फेवल ज्ञान हुआ और आयु भी पूर्ण हुई थी जिसमे मुक्ति में गये देवान मरुदेवा का अंनिग महोत्सव किया पीछे प्रभु के पास गये प्रभुन देशना दी भग्न के ५०० पुत्र ... प्रपुत्र ने दीना ली ऋपभसेन आदि ४ गणधर स्थापन मिय. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७६) - ब्राझी न दीक्षाली श्रावक धर्ग भरत ने स्वीकृन किया, मुन्दरी का भरन । महागज दीक्षा नहीं लेने दी जिससे वो श्राविका हुई कच्छ महा कच्छ वगैरह . ने नापम दीक्षा को छोड़ फिर दीवाली. ___भरत यहागज चक्ररत्न से ६०००० वर्ष कत फिर करछखंड सायकर आये इनन समय नक सुन्दरी ने नपकर काया को सूखादी अयोध्या में भरतजी आने पर वैराग्य में दृढ सुन्दरी ने समझा कर दीचाली. . प्रभु के पास ९८ भाई न जाकर पूछा कि भरत राजा हमें कहना है कि आप हमारे वश में रहा नो हमें क्या करना चाहिय ! प्रभु ने उनको वतालिय' अध्ययन से संसार नृष्णा को बहनी बनाकर कहा कि तृष्णा का छेद करो! अर्थात् दीक्षा विना मुक्ति नहीं होती तब सब ने उमी वक्त दीक्षाली. बाहुबली को भी भग्न ने कहलाया कि मेरे वश में रहो, नव वाहुवली ने उसके साथ युद्ध किया बड़ा युद्ध हुआ इन्द्र ने आकर कहा कि बहुत मनुष्य मरगये अब दोनों भाई दृष्टि युद्ध वचन युद्ध बाङयुद्ध मुष्टियुद्ध दंडयुद्ध स्वयं करा सब में भग्न हारा तब उसने चक्र मारा वाहुबली एक गोत्र का होने से चक्र लगा नहीं तव भरन ने मुक्की मारी बाहुबल को क्रोध चडा उसने मुक्की मारने को उठाई परन्तु बड़ा भाई का नाश करना बुरा समझ कर वो ही मुट्ठी से अपने बालों का लोच कर साधु होगया, भरत को बड़ा खद हुआ चरणों में पड़ा क्योंकि गज्य लाभ और मान से ६६ भाई का अपमान किया था परंतु निराकांनी बाहुबली ने उसको बांध देकर संतुष्ट किया तब तक्षशिला का राज्य उसके पुत्र को दिया और भरत अयोध्या लौट आये. बाहुबलि ने दीक्षा लेकर विचारा कि: ९८ भाई छोटे होने पर भी दीक्षा लेन से बड़े ये उन को मैं उम्र में बड़े होने से कस वंदन करूं ? इमलिये केवल ज्ञान पाप्त करने को एक वर्ष तक वा कार्यान्सग में रहे अपमंदव प्रभुने ब्राह्मी सुंदरी साध्वी द्वारा बोध कराकर अपने पास बुलाये राहुबली ने मान को दूरकर साधुओं को वंदनाथ जाने को पैर उठाया कि शीघ्र कंवल ज्ञान हुआ. .. भरत महाराजा ने एक दिन विचारा कि सब भाई साधु हुये ना मैं उनकी भक्ति करं! जिमाने के लिये ५०० गाड़ी भाकर मिठाई ले भाये -प्रभुने साधु Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७७) ओं का आचार समझाकर रानपिंड और साधु निमित्त बनाया भार मामने लाया इत्यादि दोप युक्त आहार न लेने दिया तब भरत महाराणा ने पूछा कि मैं उस का क्या करूं ? इन्द्र ने कहा आपसे अधिक गुणियों की भक्ति कगं तब से साधु नहीं पर साधु जैसी निस्पृही वृत्ति रखने वाले बारह व्रतधारी प्रत्मचर्य को प्रधान मानने वाले माहन बोलने वाले वन तत्वविद ब्राह्मणों को भोजन जिमाया उनको पिछानने के लिये सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्र तीन रत्न प्रधान मानने वाले यह है इसलिये उनके कंगणी रत्न से तीन रंखायें की पीछे वे ही रेखायें यज्ञोपवित के रूप में परिवर्तन हुई प्रजा के मुखार्थ लोक नीनि प्रधान अपभदेव की स्तुति रूप चार वेद भरतजी ने बनाय उन द्वारा ब्रामण ज्ञान देने लगे। (हिंसक यज्ञ की प्रवृत्ति होने से और ब्राह्मणों ने निःस्पृहना छोड्दी जिससे जनधर्म स धीरे धीरे ब्रामण अलग हुये और बंद की गाणता होगः जैनों ने दया प्रधान धर्म स्याद्वाद नाम से प्रचलिन किया ) ___ऋषभदेव प्रभु जब आते थे तब भरत महागना उद्यान में वांदने को जाने वैराग्य से भरी हुई वाणी सुनकर लीन होना था एक दिन महल में आरिसा (आयना ) भवन में वस्त्रालंकार पहरते समय एक अंगूठी निकल पड़ी नब शोमा कम देखकर सब भूपण उतारे तो जान लिया कि शोभा पर पुद्गल (जड पदार्थ ) से है ! उसमें कौन भन्यात्मा मोह करंगा ! श्रान्म भावना में दृढता हुई और शुद्ध भाव से केवल ज्ञान प्राप्त किया, देवता ने मुनि वेश दिया वो पहरकर १०००० दस हजार दीक्षित गजाओं के साथ माधुपंन में फिकर मांच में गये भरत का पुत्र आदि यशः उम का पुत्र महायश, अभिवल, पलभद्र, बलवीर्य, कीर्तिवीर्य, जलवीर्य, दंडवीर्य एस आठ वंश परम्पग याग्गिा भवन में केवली होकर मोच गये. ___उसमस्स णं अरहयो कोसलिग्रस्म चउरामाई गणा, चउरासीई गणहरा हुत्था ।। २१३ ।। ___ उमभस्म ० उसमसेणपामुक्खाणं चउरामीइयो ममणसाहस्सीयो उफोसिया समणमंपया हत्था ॥ २१.४ ।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) उमभम्स एं० बंभिमुदरिपामुक्खाणं अज्जियाणं तिरिण सयसाहस्सीयो उन्कोसिया अज्जियासंपया हुत्या ॥ २१५ ।। ___उसमस्म ० सिजममपामुक्वाणं समणावामगाणं तिरिण सयमास्मीयोपंचमहस्सा उक्कानिया समणोबासगसंपया हुत्या ।। २१६ ॥ उसभस्म एं० मुभद्दापामुक्वाणं समणोवासियाणं पंचसयसाहसीनो चउपरणं च सहसा उकामिया ममणोवामियाएं मंपया हुत्या ।। २१७ ॥ उसभस्म एं० वत्तारि महरमा मुत्तसया पण्णासा चउद्द सयुवीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं जाव उकोमिया चळहमयुब्बिसपया हुत्या ॥ २१८ ।। उमभस्त णं नव महस्मायोहिनाणीणं उन्कोमिया० ॥२१॥ उसमम्म णं वीससहस्सा केवलनाणीणं उक्कासिया ॥२२०॥ उसभस्म एं० वीसहस्मा छच्च सया वेडब्बियाणं० उक्कोमिया० ॥ २२१ ॥ उसभस्म एं० वारस सहस्सा इन्च सया पगणामा विउलमईणं अड्वाइन्जमु दीवममुद्देसु मन्नीणं पंचिदियाणं पज्जतगाणं मणोगए भावे जाणमाणाणं पासमाणाणं उक्कोसिया विउलमइमपया हुत्या ।। २२२ ॥ उमभस्म एं• वारस नहस्सा छब सया परणासा वा. ईण० ॥ २२३ ॥ उमभस्म एं० वीसं अंतवासिमहस्सा सिद्धा, बत्तालीसं अज्जियामाहस्सीयो सिद्धायों ।। २२४ ॥ • Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७६) उसमस एं० अरहयो वावीससहस्सा नवसया अणुत्तरीबवाइयाणं गइकल्लाणाणं जाव भदाणं उक्कालिया ।। २२५ ।। ऋपभदेव का परिवार. ८. 'गणधर, ८४ गण, ऋपभेसन प्रमुख, ८४ हजार माधु, ब्रामी मुंदरी वगेरह ३ लाख साध्वी श्रेयांस वगेरह ३०५००० श्रावक, सुभद्रा वगैरह ५५४००० श्राविका, ४७५० चौट पूर्वीश्रुत केवली, नव हजार अवधि ज्ञानी, २०००० कंवल ज्ञानी, २०६०० वैक्रिय लब्धि वाले, १२६५० वि.पुलमनि पर्यव ज्ञानी १२६५० वादी थे, २०००० साधु चालीस हजार साध्वी माक्ष में गई २२६०० साधु अनुत्तर विमान में गये. उसमस्त एं० अरहयो दुविहा अंतगडभृमी हुत्था, तंजहा-जुगंतगडभूमी य परियायंतगडभूमी य, जाव असंखिज्जायो पुरिसजुगायो जुगंतगडभूमी, अंतोमहत्तपरिधाए अंतमकासी ॥ २२६ ॥ दो प्रकार की अंनछन भूमि थी जुगांनकृत भूमि में अमंग्यान पाट मान में गये, पर्याय अंतकृत भूमि में अंन मुहूर्त में मरुदेवी मोक्ष में गई. तेणं कालेणं तेणं समएणं उसमें परहा कोसलिए वीसं पुधसयसहस्साई कुमारवासमझे वसित्ता णं तेवढेि पुब्बसय सहस्साई रज्जवासमझे वसित्ता णं तसीई पुव्यसयसहस्माई अगारबासमज्जे वसित्ता एं एगं वाससहस्सं छउमत्यपरियायं पाउणिना एगं पुब्यसयसहस्सं वाससहस्साणं केवलिपरिसायं पाउणित्ता पडिपुराणं पुखसयसहस्सं मामगएपरियागं पाउणित्ता चउरासीई पुब्बसयसहस्साई सब्बाउयं पालहना खाण वेयणिज्जाउयनामगुत्ते इमीसे योगप्पिणीए मुसगदुसमाए ममाए बहुविकांनाए निहिं वामेहिं अदनवमेहि य मामहिं ममहिंजे Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) से हेमंताणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे माहबहुले, तस्स एणं माहवहुलस्स (ग्रं० ६०० ) तेरसीपक्ख णं उपिं अट्ठावयसेलसिहरंसि दसहि अणगारसहस्सेहिं सद्धिं चोइसमे भत्तणं - पाणएणं अभीइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पुव्वरहकालसमयंसि संपलियंक निसरणे कालगए विक्कते जाव व्नवदुक्खपहीऐ ॥ २२७ ॥ २० लाख पूर्व कुमार वास, ६३ लाख पूर्व राज्य वास १००० छद्मस्थ दीक्षा १००० वर्ष कम एकलाख पूर्व केवलि पर्याय पालकर ८४ लाख वर्ष का आयुपूर्ण पालकर महा माम की कृष्ण तृयोदगी के रोज अष्टापद पर्वत उपर दस हजार साधुओं के साथ छे चौविहार उपवास में चन्द्र नचत्र अभिजित आने पर प्रभात के प्रहर मे पत्येक आसन में बैठे हुए ऋषभदेव प्रभु सर्व दुःखों का क्षय कर मुक्ति में गये. स्नान आसन कंपने से सौधर्म इन्द्र आया इस तरह ६४ इन्द्र मिले बाद तीन चिताए कराई एक में प्रभु को दूसरे में गणधरों को तीसरे में सामान्य साधुओं कां कराके गोशीर्ष चन्दन का लेप कर हंस लक्षण व ढांककर उत्तम चन्दन की लकड़िये और सुगन्धी पदार्थों से जलाये सब देवों ने यथोचित निर्वाण महोत्सव की भक्ति की पीछे अग्नि बुझाकर बाकी जो हड्डियै रही थी वो कल्पानुसार सौधर्म इन्द्र ने दाहिणी उपर की दाढा ली ईशान इन्द्र ने उपर की डांबी दाढाली चमरेंद्र बलींद्र ने नीचे की ली दूसरे देवों ने और हड्डी ली इन्द्र ने तीन चिताएं उपर तीन स्तुप बनवाये पिछे नंदीश्वर द्वीप में नाकर अढाइ महोत्सव कर अपने स्थानक को गये इन्द्रों ने जो दाढाएं ली थी उनकी पूजा देवलोक में करते हैं. उसभस्स णं अरह कोसलियम्स कालगयस्स जाव सव्वक्खप्पीस्स तिरिण वासा श्रद्धनवमा य मासा विड़कंकता, तोवि परं एगा सागरोदमकोडाकोडी तिवासश्रद्ध - नवमासाहियवायालीसाए वाससहस्मेहिं ऊलिया विड़क्कंसा, Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) नववाससया विइक्कंता, दसमस्सय वामसयस अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ ॥ २२८ ॥ तीसरा आरा के जब ३ वर्ष ८॥ मास वाकी रह नव उनका मांस हुआ अर्थात् ऋषभदेव और महावीर के बीच मे १ कोडा कोडी सागरोपम में ४२००० वर्ष कम इतना अंतर है और ६८० वर्ष बाद कल्पमत्र लिखा गया है. ॥सातवां व्याख्यान समाप्त होता है । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवनो महावीरस्स नव गणा, इक्कारस गणहरा हुत्था ॥१॥ से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-समणस्स भगवयो महावीरस्त नव गणा, इक्कारस गणहरा हुत्था ॥२॥ समणस्त भगवत्रो महावीरस्स जि? इंदभूई अणगारे गोयमगुत्ते णं पंच समणसयाई वाएइ, मज्झिमगए अग्गिभूई अणगारे गोयमगुत्ते णं पंचसमणसयाई वाएइ, कणीअसे यणगारे वाउभूई गोयमगुत्तेणं पंच समणमयाई बाएइ, थेर श्रजिवियत्ते भारदाए गुत्तेणं पंच समसयाई वाएइ, थेरे श्रज्जसुहम्मे अग्गिवेसायणे गुत्तेणं पंच समसयाई वाएइ, थेरे मंडितपुते वासिटे गुत्तेणं अडट्ठाई समणसयाई वाण्ड, थेरे मोरिअपुत्ते कासवे गुत्तेणं अट्ठाई समणसयाई वाएइ. थेरे अकपिए गोयमे गुत्तेणं-घेरे अयलभाया हारिग्रायणे गुत्तणं पत्तेयं एते दुरिणवि थेरा तिरिण तिगिण समणसयाई वाएंति, थेरे अज्जभेइज्जे-धेरै पभसे-एए दुरिणवि थेरा कोडिन्ना गुतेणं तिगिण तिगिण समणयाई वाएंति। से तणद्वेणं भज्जा! Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८२) एवं बुच्चइ-समणस्म भगवो महावीरस्स नव गणा, इक्कारम गणहरा हुत्या ॥३॥ स्थिविरावलि । वीर प्रभु के नवगण और ११ गणधर थे शिष्य का प्रश्न है कि ऐसा क्यों हुआ मरे तीर्थकगें में जिनने गण इनने गणधर है. प्राचार्य उत्तर देते हैं:(१ ) इन्द्रभूति गौतम गोत्र ५०० साधु को वाचना देने थे. ( २ ) अग्निभूनि ॥ (३ ) वायुभूति , ( ४ ) आर्यव्यक्त भारद्वाज गोत्र ( ५ ) सौधर्म स्वामी अग्निवेश्यायन,, (६ ) मंडित पुत्र वाशिष्ठ (७) मौर्य पुत्र काश्यप (८) अकंपित गौतम ३०० एक (६ ) अचलभ्राता हारितायन ., ३०० वाचना. (१०) मेतार्य काडिन्न गोत्र ३०० एक (११) प्रभास ३०० वाचना. ४४०० इस बात से यह मुचन किया कि ८-6 और १-११ एक एक वाचनां देते थें उनका समुदाय साथ बैठकर पढते थे इससे नव समुदाय हुए और गणधर ११ हुए. सब्वेवि णं एते समणस्स भगवो महावीरस्स एक्कारसवि गणहरा दुवालसंगिणो चउदसपुग्विणो समत्तगणिपिडगधारगा रायगिहे नगरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं काल गया जाव सम्बदुक्खप्पहीणा । थेरे इंदभूई, थेरे अज्जमुंहम्मे य मिद्धिगए महावीरे पच्छा दुरिणविथेरापरिनिव्वुया ॥ ३५० Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८३) जे हमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरति, एए णं मले अज्जसुहम्मस्स प्रणगारस्स आवञ्चिज्जा, अवसेसा गणहरा निरवच्चा युच्छिन्ना ॥४॥ महावीर प्रभु के ११ गणधर १२ अंग के ज्ञाता, १४ पूर्व के जानने वाले समस्त सिद्धांत धारक, थे और राजग्रहनगर में एक मास के चौविटार उपवास से माक्ष में गये हैं नवगणधर वीर प्रभु के समय में मोक्ष गये दोनों रहे थे इन्द्र भूति गौतम, और सुधर्मा स्वामी वे पीछे मोक्ष में गये. सबने अपना परिवार सुधर्मा स्वामी को दिया जिससे आज जितने साधु विचग्ने हैं वे सब मुधर्मा स्वामी का ही परिवार माना जाना है. समणे भगवं महावीरे कासवगुत्ते णं । समणस्म णं भगवो महावीरस्स कासवगुत्तस्स अज्जसुहस्मे थेरे अंतेवासी अगिवेसायणगुत्त १, थेरस्स एं प्रज्जसुहम्मस्स अग्गिवेसा. यणगुत्तस्स अज्जजंघुनामे थेरे अंतेवासी कासवगुत्तेणं २, थेरस्मण अज्जवुणामस्स कासवगुत्तस्स अज्जप्पभव थर अंतवासी कच्चायणमगुत्ते ३, थेरस्स एं अज्जपभवस्त कच्चायणसगुत्तस्स अज्जसिज्जभवे थेरे अंतवासी मणगप्पिया वच्छसगुत्त ४, थेरस्स णं अज्जसिज्जभवस्म मणगपिउणो वच्छसगुत्तस्ल अज्जजसभद्दे थेरे अंतेवासीतुंगियायणसगुत्ता। मुधर्मा सामि का शिष्य आर्य नं स्वामि काश्यप गोत्र के थे. जं स्वामी ने सुधर्मा स्वामी की देशना मुनकर गग्य आने में वामन वन धारण कर घरको आकर मातपिता की आज्ञा चाही परन्तु उन्होंने भाग्रह कर ८ कन्याओं के माय म्यादी की गति को प्राट कन्याओं ने मंसार निलास से मुख करना चाहा, परन्तु जंब स्वामी ने गंमार की अमारना यनाफर बराग्य वाली बनादी रान को ५०० चौर नांग करने को आये थे ये बीमगार की बात सुनकर ममझ गये कि जिम धनकी भारांक्षा मे हम यहां पर भाकर चोरी करने का इगहा ग्यत । उम धन में उनना दाब रिवर संदकर Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) मी जान है तो हमें भी उसको छोड़ना चाहिये उन में मभवाजी बड़े ध ५०० चौर या स्त्री और जंबू स्वामी और नव के माता पिता कूल ५२७ नं एक साथ दीक्षा की जय स्वामी तक केवल ज्ञान था अतिम केवली मोक्ष में जाने वाले मंत्र स्वामी हैं. जंबू स्वामी के शिष्य मथवा स्वामी हुए उनका कात्यायन गोत्र था प्रभवा स्वामी के शिष्य श्रभवमृरि हुए उनका दूसरा नाम मनकपिता था उनका वच्छस गोत्र था. शय्यंभवजी ब्राह्मण थे एक समय वो यज्ञ करते थे उस समय दो साधुओंन कहा कि यज्ञ का वो इतना कष्ट उठाना है परन्तु तच को जानता नहीं है जिसमे साधुओं के पिछे जाकर उनके गुरु प्रभवा स्वामी से पूछा कि तच्च क्या है ? गुरु ने कहा कि तुझे नंग यज्ञ कराने वाला बनावेगा जिसमें पिया आकर पूछा तो यज्ञ के नीचे गुप्त रखी हुई शांतिनाथ की प्रतिमा का दर्शन कराया जाति स्मरण ज्ञान मकट हुआ जिससे संसार की असारता नजर थाई और सब को छोड़ साधु हुआ और सिद्धांत पढकर आचार्य हुए जो भार्या को छोड़कर आए थे उनको उसी समय पूछा कि तुझे कुछ गर्भ है ! उसने कहा कि मनाक ( थोड़ा दिन का ) पीछे पुत्र हुआ उसका नाम मनाक् ( मनक ) रहगया माता द्वारा सत्य बान जानकर छोटी उम्र में मनक् बालक अपने बाप के पास जाकर साधु हुआ उसकी घोड़ी उम्र (मास) देखकर सिद्धांतों का सार रूप दर्शकालिक सूत्र की रचना कर पढाया आज भी वो सूत्र दरेक साधु की प्रथम पढाया जाता है, अय्यंभवजी के शिष्य तुंगिकायन गोत्र के यशोभद्र शिष्य हुए. भद्रजी के दो शिष्य हुए संभूति विजय माहर गोत्र के थे, प्राचीन गोत्र के भद्रबाहु स्वामी ये संभूति विजय के शिष्य आर्य स्थूली भद्रजी गौतम गोत्र वाले हुए. स्थूली भट्टजी नंदराजा के मंत्री शकडाल के बड़े पुत्र थे कला श्रीखने की एक कोड्या नाम की रूपवती गुणिका के घर को १२ वर्ष रहे थे राज्य खट पट से उस मंत्री की मृत्यु हुई और छोटे भाई श्रीयक की प्रेरणा से प्रधान पद देने को राजा ने बुलाये परन्तु रास्ते में संभूति विजय का उपदेश और प्रत्यक्ष वाप की मृत्यु का विचार से साधु होकर छोटे भाई को पदवी दिलाई उनकी मान भगीनिओं ने भी दीक्षा ली गुरुने योग्यता देखकर वोधी कोव्या के घर की स्थूली Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्दे को भेज चार मास तक वेश्या ने उनकी मुग्ध करना चाहा परन्तु मुनिराज ने उसको प्रतियोध कर श्रावककृत धारण कराकर परम श्राविका बनाई. पेश्या रागवती होने पर भी उसके घर में रहकर ग्रनचर्य पालना दुप्फर होने से स्थूलीभद्र का गहिमा अधिक माना जाना है प्रभवा स्वायी, शय्यंभव स्वामी, यशोभद्र, संयूतिविजय, भद्रवाट यह पांच पूर्ण चौट पूर्वधारी हुए परन्तु सात साध्वीएं बांदन को गई उस समय स्थूलीभगनी ने अपनी विद्या का प्रभाव बताने को सिंह रूप किया यह बात जानकर भद्रबाहु जो स्कूलीभद्र को पढ़ाने चाले ये उन्हान १० पूर्व अर्थ साथ पढाये परन्तु संघ के थाग्रह से ४ पूर्व मूल पत्र दिये अर्थ नहीं दिया. ___ स्थूलीभद्रजी के दो शिष्य हुए ऐलापत्य गोत्र के आर्य महागिरि और पाशिष्ठ गोत्र के आय मुइस्ति स्वामी हुए. आर्य महागिरि क्रियापान जिन कल्प विच्छेद होने पर भी उसकी तुलना करते थे आर्य सुहस्ति के हाथ से एक रंक ने दीक्षा पाकर एकही दिन में अमीर्ण रोग से मरने के समय उत्तम भाव रखने से उज्जएिनी नगरी में संपनि नामका राजा हुआ और वो ही गुरु को रथयात्रा में देग्यकर जाति म्मरण शान पाकर पूर्वोपकारी गुरु का महल से नीचे उगर कर नमस्कार किया गुरु को स्मृति देने से श्रुतवल से गुरु ने उसको पिछान कर साधु होने को कार परन्तु राजा ने यो अशक्य ववाकर श्रावक व्रत लिये और जैनधर्म की महिमा बढाई २१ लाख मंदिर सवा कोट मतिया बनवाई जनम बढाने के उपाय -निये अशोक राजा का वंशज संमनि राजा हुआ है। संखिचवायलाए अज्जजसमदायो अग्गयो एवं धरावली भणिया, तंजहा-थेरस्स णं अज्जजमभदस्स तुगियायणसगुत्तस्स धंतेवासी दुवे थेरा-थेरे अज्जसंभूविजए माढरसगुत्ते, थेरे अज्जमबबाह पाईणसगुत्ते, थेरम्म एं श्र. ज्जसंभूयविजयस्स माढरसगुत्तस्स अंतेवासी धेरै अज्जथलभद्दे गोयमसगुत्ते, धेरस्म णं अज्जथूलभदा गोयममगुताय यतेवासी दुवे थेरा-धेरे अज्नमहागिरी गालावरमगुत्ने, थेरे Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६) अज्जमुहत्यी वामिट्टसगुत्त, थेरम्स णं अज्जमुहत्थिस्स वासिट्ठसगुत्तस्म अंतेवामी दुवे थेरा लुट्ठियसुपडिबुद्धा कोडियका. कंदगा वग्याचसगुता, थेराणं मूटिगप्पडियद्वाणं कोडियकाकंदगाणं वग्यावसाताम् अन्तवासी थेरे अजहंदादिन्ने कोसियगुत्ते, घरस्त एं अजमददिन्नन्स कोमियगुत्तरम अते. वाली थरे अज्जदिने नोयमसगुने, धेरस्म णं अज्जदिन्नस्त गोयमसगुत्तस्म शतेवामी धेरै अन्जसाहगिरी जाइस्सर को. सियगुने, थरस्म णं अजसाहगिरिस्म जाइस्मरस्स कोसिबगुत्तम्स अंतवासी घरे अज्जवर गोयममगुते, रस्म एं अजब रस्म गोयनगगुन्तस्स अंतवासी थेर अज्जबहरमणे उकोमियगुत्ते, थेरस्म णं अजबइरसेणस्सं उक्कोसिअगुत्तस्स अंतेनासी चत्वारि थरा-थेर अज्जनाइले १ थेरे अन्जपोमिले २ थो अजजयंते ३थेरे अज्जतावसे ४ थेरानो अज्जनाइन्सानो अज्जनाइला साहा निगया, थेरानो अजपामिलामो अज्जपोमिला साहानिरगया,थेरायोअज्ज जयंताओं अजजयंती साहा निगया, थेरानो अज्जतावसायो अज्जतावनी साहा निग्गया १ इति ॥६॥ आर्य मुद्दस्ति के मुस्थिन और सुप्रति बद्ध नामक दो शिष्य हुए जिनके गोत्र कोटिक काकंदग व्याघ्रापत्य था इनका शिष्य इन्द्र दिन कौशिक गोत्र फा या उनका शिष्य आर्यदिन्न मुनि गौतम गोत्र के थे, उनके अंते वासी (अ. निमिय शिष्य ) आर्य मिंहगिरि कोशिक गोत्र के थे, उनके शिष्य जानिस्मरण झाट वाले प्रायवद्र स्वामी भागम गोत्र के थे, आर्यवत स्वामी। थे मामकी वयमें किसी के पाय घर अस्मे पिना धनगिरि की दीचा सु Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) मकर वजस्वामी को शुष भावना से जातिस्पग्ण ज्ञान हुआ दीक्षा लेने का भाव कर माता को खेद लाने को रोना शुरु किया माने उसी गुगत्र खेद लाकर उसके वापको दिया वो बोले कि गुरु थाना से लेजाना { पतु अर लेकर तुझे पिछा नहीं मिलेगा ऐसा सुनकर भी माताने पुत्र का प्रेम छोड़ दि. या गुरुने उसका बोझा देखकर वज्रनाम रखा बड़े होने से टीचा दी और उन्होंने शेटी उम्र में ही सब सूत्र दुसरों के मुह से नुनकर सीग लिरे थे और अधिक ज्ञान होने से आचार्य पदवी वज़स्वामी को दी मिली एक सेठ पुत्रो ने उनके गुणों को सुनकर उनसे पाणना चाहा मिलने पुत्री और धन दोनों उनके पास लेजा कर दिये परन्तु निराकांति मुनि ने वैराग्य स्वरूप समझा कर फ. न्या रुकमणी को दीक्षा दीलवाई और धन दीक्षा नहात्मय गं खरवाना. वो बख्त देवोंने परीक्षा कर निस्पृही अप्रमादि मुनिको दो मियां दी उनसे प्रा. त्युत्तम गुणों का कथन उनके चरित्र से ही जान लेगा नापूसरी शुनि कहां तक हे आर्यवन स्वामी के शिष्य आविनसेन उत्कांशिक गोलके थे. . थार्य वनसेन के चार शिष्य हुए। - भार्य नागिल, पामिल, जयंत, सापस उन चारों से नागिला. पोपिला, जयंति, तापसी शाखा निकली है. वित्थरवायणाए पुण अजजसभहायो पुरो थेरावली एवं पलोइज्जड़, तंजहा-थरस्त णं अज्जजसभइरस तुंगियागणसमुत्तस्स इमे दो थेरा प्रतवासी ग्रहायचा भिण्णाया हुत्था, तंजहा-धेरे अज्जमदयाहू पाईणसगुत, थेरे अज्जमं. भूयविजए मादरमगुत्ते, रस्म णं अज्जमवाहुस्स पाईरामगुत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अतेवामी श्रटायचा अभिराणाया हुत्था, तंजहा-धेरे गोदासे १, थेरे अग्गिदत्त २, थेरे जगणदत्ते ३, थेरे सोमदत्ने ४ कासवगुत्तेण, धेरैहितो गोदासहिनो कासवगुत्तेहिंतो इसणं गोदामगणे नामं गणे निग्गए. नस्ल शं इमामो बत्तारि साहाओ एवमाहिजति तंजहां-ताप Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१८) लित्तिया १, कोडीवरिसिया २, पंडवद्धणिया ३दासीखब्बढिया ४, थेरस्स णं अज्जसंभूयविजयस्स माढरसगुत्तस्त इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावचा अभिएणाया हुत्था. तंजहा-नंदणभह १॥ उवनंदण-भद्दे २ तह तीसभह ३ जसभद्दे ४। थेरे य सुमणभद्दे ५, मणिभद्दे ६ पुण्णभद्दे ७ य ॥ १ ॥ थेरे अ थुलभद्दे ८, उज्जुमई ६ जवुनामधिज्जे १० य । थेरे अ दीहभद्दे ११ थेरे तह पंडुभद्दे १२ य ॥२॥ . . . उपर छोटी वाचना ( संक्षा से ) कही बडी (विस्तार से ) वाचना अत्र कहते हैं. ,, आर्य यशोभद्र से इस मुजब है:____ यशोभद्र के संभूतिविजय, भद्रबाहु शिष्य थे भगवाहु के चार शिष्य स्थविर गोदास, अग्निदत्त यज्ञदत्त, सोमदत्त काश्यप गोत्र के थे. गोदास से गोदास-गण निकला. उसकी चार शाखायें निकली तामलिप्सिका, कोटि वर्षि का, घुड़े वर्धनिका, दासी खर्वटिका. . -- थेरस्स णं अज्जसंभूत्रविजयस्स माढरसगुत्तस्स इमारो सत्त अंतेवासिणीश्रो प्रहावच्चा अभिएणाया हुत्था, तंजहाजक्खा १ य जक्खदिण्णा २, भूया ३ तह चेव भूयदिण्णा य ४। सेणा. ५. वेणा ६ रेणा ७, भगिणीनो थूलभद्दस्त ॥ १॥ • संभूतिविजय को १२ शिष्यः पुत्र समान थे नंद्रभद्र, उपनंदभद्र, तिष्यभद्र, यशोभद्र, सुमनोभत्र मणिभद्र, पूणभद्र, स्थूलीभद्र, रुजुमति, जंबूनामधेय, दीर्घभद्र, पांडुभद्र संभूतिविजय की सात साध्वी जो स्मूलीभद्र की भगिनिये थी वेजक्षा, जनदिन्ना, भूता, भूतदिन्ना, सेनावेणारेणा मुख्य साध्वी थीं। . . थेरस्स एं अज्जथूलभहस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी आहावञ्चा अभिण्णाया हुत्था, तंजहा-थेरे अज्जः Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) महागिरी एलाव बसत १, थेरे ग्रज्जसुहत्थी वासिद्धसगुत्ते २. थेस्स्स अज्जमहागिरिस्स एलावच्चसगुत्तस्स इमे अट्ट थेरा तेवासी यहावचा श्रभिरणाया हुत्था, तंजहा थेरे उत्तरे १, थेरे वलिस्सs २, थेरे धगड्डे ३, थेरे सिरिड्ढे ४, धेरे कोडिने ५, थेरे नागे ६, थेरे नागमिते ७, थेरे छलूए रोहगुत्ते कोसियगुणं, थेरेहिंतो णं बलूए हिंतो रोहगुतेहिंतो कोसियगुत्तहिंतो तत्थ णं तेरासिया निग्गया । थेरेहिंतो पं उत्तरवलिसहिंतो तत्थ णं उत्तरवलिस्संह नाम गणे निम्गए-त. स णं इमात्र चारि साहायो एवमाहिज्जंति, तंजहा-कोसंविया १, सोइतिया २, कोडवाणी ३, चंदनागरी ४, रस्स अज्जहत्थिस्स वासिमगुत्तस्स इमे दुवाल थेरा येतेवासी ग्रहावचा श्रभिरणाया हुत्था, तंजहान्धेरे ग्रज्ज - रोहण १, जसभद्दे २ मेहगणी ३ य कामिड्ढी ४ । सुट्ठिय ५ सुडबुद्धे ६, रक्खिय ७ तह रोहगुत्ते = ॥ १ ॥ इसिगुत्ते & सिरिगुत्ते १०, गणी वंभ ११ गणी य तह सोमे १२ | दस दो गणहरा खलु, एए मीसा मुहत्विस्य ॥२॥ आये स्थूलभद्र के आये महागिरि और आर्यमुहस्ती मुख्य शिष्य थे. श्री आर्य महागिरि के मुख्य शिष्य थे. उत्तर, वलिम्पृह, धनाढ्य, भद्र, कौडिन्य नाग, नागमित्र, पलक नेहगुप्त पडुलकरगुम से जीव अजीव नाजीव नामकी तीन राशि वाला पंथ की उत्पति हुई जो वर्तमान में वैशेषिक मन कहा जाता है. अन्य दर्शनी के साथ एक वक्त चनी में गया वहां पर याद में और चमत्कारी विद्या में गुप्त गुरु के मताप में जीना तव राज्य सभा में अन्य द नी ने जैन का पत्र स्वीकृत कर जीव और अजीव ऐसी दो गति स्थापन की वह बात झूठी कर अपनी जमाने की, नजीर (जैसे Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (9203) छिपकली की कटी हुई पूंछ उछलती है) ऐसे तीन राशि स्थापन कर तीन लोक fire a score at शिव राज्य सभा में जीनगया गुरु को सब बात सुनाई गुरुन कहा अस बोलकर जीनना बहुत बुरा है फिर जाकर माफी मांगी ( मिथ्या दुष्कृत ढो) वो बोला कि ऐसा नहीं होता चाहे आप भी मेरे से चर्चा करना तब राज्य सभा में गुरु शिष्य का बाद हुआ निकाल नहीं हुआ तब देवी अभिष्टिन दुकान जहां सब वस्तु मिलती थी वहां से तीन वस्तु मंगाई सिर्फ जीव अजीव दो मिले गुरुने राज्य सभा में उसको निकाल दिया. उत्तर और बलिं स्यूह में उत्तर बहि गच्छ निकला है, उसकी चार शाखाएं कोशांबिका, मौरितिका, कोडवाणी, चन्द्र नागरी हुई. श्रार्य मुहस्ति के १२ शिष्य मुख्य थे. आर्यरोहण, भद्रवशा, मेघगणिकामर्द्धि, सुस्थित सुप्रतिवद्ध, रचिन, गेहगुप्त, कृषिगुप्त, श्रीगुप्त, ब्रह्मा सोन array गोत्री आयेगेहरा से उदेह गोत्र निकला. उसकी चार शाखा थी: : थेरेहिंतो णं अज्जरोहणेहिंताणं कासवगुचेर्हितो णं तत्थ णं उद्देहगणे नामं गणे निग्गए, तस्मिमाद्य चत्तारि साहा - श्रो निग्गयायो, छच कुलाई एवमाहिज्जेति । से किं तं साहाथो ? साहाय एवमाहिज्जंति, तंजहा - उदुंबरिज्जिया १ मासपूरिया २, महपत्तिया ३, पुराणपत्तिया ४, से तं साहाय, से किं तं कुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जंति, तंजहा - पढमं च नागभूयं, विइयं पुण सोमभूइयं होड़ | यह उल्लगच्छ तइ ३ चउत्थयं हृत्य लिज्जं तु ॥ १ ॥ उदंबरिका, मामपूरिका, मनिपत्रिका, पूर्णपत्रिका और हे कुल. नागसून सांमभूतिक, उल्लगच्छ, हस्तलिप्त, नंदित्य, पारिहासक हुए. पंचमगं नंदिज्जं ५, छटुं पुरा पारिहासयं ६ होड़। उद्देइगणस्से च कुला हुंति नायव्वा ॥ २ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६१) हरितम गोत्र वाले श्रीगुप्त मुनि से चारण गच्छ निकला उसकी चार शाखाएं:-हाग्नि मालाकारी, संकाशिका गवत, वजनागरी हुई. सात कुल-वत्सलिप्त, प्रीति धर्मिक, हालित्य, पुष्पमित्र, मालित्य, थार्य चेटक, कृष्ण सख हुए. थेरेहिंतो एं मिरिगुत्तेहितो हारियमगुत्तेहिनो इत्य एं चारणगणे नामं गणे निग्गए. तस्ल एं इमायो चचारि सा. हानी, सत्त य कुलाई एवमाहिति में किं तं साहायो! सादायो एवनाहिज्जति, तंजहा-हारियमालागारी ?, संका. सीया २, गवेधुया ३, बज्जनागरी ४ । से तं माहायो, से किं तं कुलाई ! कुलाई एवमाहिन्नति, तजहा-पटमित्थ व. स्थलिज्ज १ वीयं पुण पीइधम्मिग्रं २ होइ । तइग्रं पुण हा. लिज्जं ३ चउत्थयं पूममित्तिज्ज ।। १ ।। पंचमगं मालिज्ज ५ छ8 पुण अज्जवेडयं ६ होइ । म. त्तमयं कण्हासह ७ सत्त कुला चारणगणस्स ॥२॥ थेरेहिंतो भदजसेहितो भारदुदायमगतीहंतो इत्य एं उड्डवाडियगणे नामं गणे निगए, तर ण इमानो चत्तारि साहायो तिरिण कुलाई एवमाहिति में कितं मातायो ! *साहायो एवमाहिज्जति जहा-बपिजिया १ भदिजियार कादिया ३ महालजिया। से तं साहायो से किंत कुलाई! फुलाई एवमाहिज्जति जहा-भद्दमियं १ तह भदगुत्तियं २ तइयं च होई जमभदं ३ । एवाई उडवाडिय-गणस्म तिरणेव य कुलाई ॥ १ ॥ भारद्वायम्र गोत्री भद्रयश मुनि में उद्याटिगगन निकला उसी सम्य, Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंपिज्जिका, भद्राजिका, काफैदिका, मैग्वलाजिका हुई नीलकुल भट्टयशिक, भद्रगुप्तिक, यशोभत्र हुए. थेरेहितो ण कोमिड्ढिहिना कोडालसगुत्तेहिंतो इत्थ णं वेसवाडियगणे नामं गणे निग्गए तस्म णं इमानो चत्तारि कुलाई एवमाहिज्जति । से किं तं साहायो ! सा तंजहा:सावत्थिया १ रज्जमालिया २, अंतरिजिया ३, समलिज्जिया ४ । से तं साहायो, से कि तं कलाई ! कलाई एव. माहिन्नंति, तंजहा,-गणियं १ मेहिय २ कामड्डिनं ३ च तह होइ इंदपुरंग ४ च । एयाई वेसवाडिय-गणम चत्तारि उ कुलाई ॥ १॥ कुंडलत गात्री कामाई से वेपत्राडिय गच्छ निकला उसकी चार शाखाए श्रावस्तिका, राज्यपालिका, अंतगनिका नलन्जिका, हुई चार कुल गणित, माहिल. कामार्ड, इंडपुरक. थेरेहितो णं इसिगुत्तेहितो काकंदरहितो वासिमगुत्तेहिंतो इत्य णं माणवगणे नामं गणे निरगए, तस्ल एं इमाप्रो चचारि साहायो, तिगिण य कुलाई एवमाहिज्जति, से किं तं साहायो ? साहात्रो एवमाहिन्मंति, तंजहा,-कासवः ज्जिया १, गोयमज्जिया २, वासिट्ठिया ३, सोरठ्ठिया ४ से तं साहायो, से किं तं कुलाई ? कुलाई एवमाहिन्जति, तेजहा, इसिगुत्ति इत्य पढमं १, वीयं इसिदत्तिनं मुणेयचं २ तइयं व अभिजयंतं ३, तिरिण कुला माणवगणस्स ॥१॥ - वाशिष्ट गोत्री ऋषिगुप्त सकाटिक काकंदिस माणवक गच्छनिकला उसकी चार शाखाए कासवर्निका, गाँतमार्जिा, वाशिष्टिका, सारष्किा, तीनकुल, ऋषिगुप्त, रुपिदत्त, अभिजयंत, आर्य मुस्थिन-मुनिबद्धं कोटिक कादि व्या Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३) घापत्य गांववाल से काटिक गच्छ निकला उसकी चार शाखा. उचानागरी, विद्याधरी, वजी. मध्यमा, चारकुल ग्रह्मलित, वत्सलिप्स, वाणिज्य, प्रश्नवाहन हुए उनमें पांचस्थविर आर्यइंदिन मियग्रन्थ, काश्यपगोत्री विद्याधर गोपाल ऋषिदत्त, अईहत्त, हुए मियग्रन्थ से मध्यमा शाखा निकली है. थेरेहितो सुट्टिय-सुप्पडिबुद्धहितो कोडिय-काकंदएहितो वग्धावच्चसगुत्तेहिंतो इत्थ णं कोडियगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमारो चत्तारि साहायो, चत्तारि कुलाई एवमाहिजंति । से कि तं साहामो ? साहायो एवमाहिज्जंति, तंजहा-उच्चानागरि १ विज्जाहरी य २ वहरी य ३ मज्झिमिल्ला ४ य । कोडियगणस्स एया, हवंति चत्तारि साहायो॥१॥ से तं साहायो । से किं तं कुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जंति, तंजहा-पढमित्थ वंभलिज्जं १, विइयं नामण वत्थलिज्जं तु २ । तइयं पुण वाणिज्जं ३, चउत्थयं पण्हवाणयं ४॥१॥ ___ थेराणं सुट्टियसुप्पडिबुद्धाणं कोडियकाकंदयाणं वग्याववसगुत्ताणं इमं पंच थेरा अंतेवासी अहावना श्रभिएणाया हुत्था, तंजहा-धरे धज्जइंददिन्ने १ थेरे पियगंधे २ थेरे विज्जाहरगोवाले कासवगुत्ते णं ३ थेरे इसिदिन्ने ४, धेरे अरिहदत्ते ५ । थेरेहिंतो एं पियगंथेहिंतो एत्य एं मज्झिमा माहा निग्गया, थेरेहिंतो एं विज्जाहरगोबालेहितो कासवगुत्तेहितो कासवगुत्तेहिंतो एत्य णं विज्जाहरी साहा निग्गया । थेरम्म. एं प्रज्जइंददिन्नस्स कासगुत्तस्त प्रज्जदिन्न थरे अंतेवामी गोयमसगुत्ते । धेरस्स एं अजदिन्नस्स गोयमसगुनम्र इमे दो घेरा अंतेवासी अहावना अभिगणाया हुत्या, तं०-धेरे Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) अजसंतिसेणिए माढरसगुत्ते १, थेरे अजसीहगिरी जाइ. स्सरे कोसियगुत्ते २। थेरेहिंता एं अज़्जसंतिसेणिएहितो माढरसगुत्तेहिंतो एस्थ एं उच्चानागरीसाहा निग्गया । थेरस्स णं अज्जतिसेणियस्व माढरसगुत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावचा अभिण्णाया हुत्था, तंजहा-(ग्रं० १०००) थेरे अजसेणिए, थेरे अजकुबेरे, थेरे अज्जइसिपालिए । थेरेहिंतो णं अज्जसेणिएहितो एत्थ णं अज्जसेणिया साहा निग्गया, थेरेहितो णं अज्जतावसेहिंतो एत्य णं अज्जतावसहिंतो एत्य णं अज्जतावसी साहा निग्गया, थेरेहिंतो णं अज्जकुरोहितों एस्थ णं अज्जकुरा साहा निग्गया, । थेरेहिंतो णं अज्जइसिपालिएहिंतो एत्थ णं अज्जइसिपालिया साहा निग्गया । थेररस णं अज्जसीहगिरिस्स जाइस्सरस्स कोसियगुत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतवामी अहावच्चा अभिराणाया हुत्था, तंजहा-धेरे घणगिरीथेरे अज्जवइरे, थेरे अज्जसमिए, थेरे अरिदिन्ने । थेरेहिंतो णं अज्जसमिएहितो गोयमसगुत्तेहिंतो इत्य एवं वंभ दीविया साहानिरगया, थेरेहितो अज्जवहितो गोयमसमुत्तेहिंतो इत्थ णं अज्जबइरी साहा निग्गया । थेरस्स णं अज्जवहरस्त गोयमसगुत्तस्स इमे तिरिण थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हुत्था, तंजहा थेरे अज्जवइरसेणे, थेरे अज्जपउमे, थेरे अज्जरहे।थेरेइिंतो णं अज्जवइरसेणेहिंतो इत्थ णं अज्जनाइली साहा निग्गया, थेरेहितो णं अज्जपउमेहिंतो इत्थ णं अज्पउमा साहा: निग्गया, थेरेहितो णं अज्जरहेहिंतो इत्थ णं अज्जजयंती Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६५) साहा निग्गया। थेरस्म णं अज्जरहस्स बच्छमगुत्तस्स अ. जपूसगिरी थेरे अंतवासी कोसियगुत्ते । थेरस्स णं अजपूसगिरिस्स कोसियगुत्तस्स अज्जफरगुगित्ते थेरै अंतेवामी गोयमसगुत्ते । थेरस्स णं अजफग्गुमित्तस्स गोयममुगुत्तस्स अज्जधणगिरी थेरे अंतेवासी वालिट्ठसगुत्ते । थेरस्त णं अज्जघणगिरिस्स वासिद्धसगुत्तस्म अज्जसिवभूई थेरे अंतेवासी कुच्छसगुत्ते । थेरस्स एं अजसिवइस्स कुच्छसगुत्तस्य अजभद्दे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते। औरस्स एं अज्जभद्दसस कासवगुत्तस्स अजनक्खत्ते थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते । थेरस्स णं अजनस्खत्तस्स कासवगुत्तस्स अजरक्स थरे अंतेवासी कासवगुत्ते । थेरस्सणं अज्जरक्खस्स कासवगुस्तस्स अज्जनागे थेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते । थेरस्स एवं अज्जनागस्स गोश्रमसगुत्तस्म अज्जजेहिले थेरे अंतवासी वासिट्ठसगुत्ते । थेरस्स एं अज्जजेहिलस्स वासिट्ठसगुत्तस्स प्रज्जविण्ह थेरे अंतवासी माढरसगुत्ते । थेरस्त एं अज्जविराहुस्स माढरसगुत्तस्स अज्जकालए थेरे अंतेवासी गोयममगुत्ते । थेरस्स एणं अज्जकालयस्स गोयमसगुत्ता इमे दो थेरा भंतेवासी गोयमसगुत्ता-धेरे अज्जमंपलिए १, थेरे अ. जगद्दे २ । एएसिणं दुराहवि थेराणं गायमसगुनाणं अज्जबुड्ढे थेरे अंतवासी गोयमसगुत्ते । घरस्स एं अजयुइटम्म गायमसगुत्तस्स अज्जसंघपालिए थेरे अंतेवामी गोयममगने । थेरस पं अज्जसंघपालिभस्म गोयममगुत्तम प्राजयी थर अंतेवासी कासवगुत्ते । घरस्म ऐ अजहन्धिान कानवगुत्तस्म अज़जधम्म थेरे अंतनामी मावयगले । म एं Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) अज्जधम्मस्स सावयगुत्तस्स अज्जसिंह थरे अंतेवासी का - सवगुत्ते । थेरस्स णं अज्जसिंहस्स कासवगुत्तस्स अज्जधम्मे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते । थेरस्स णं अज्जधम्मस कासवगुत्तस अज्जसंडिल्ले थेरे अंतेवासी ॥ वंदामि फग्गुमि - स्तं च गोयमं घणगिरिं च वासिटुं । कुच्छं विभूइंपिय कौसिय दुज्जंतकर हे च ॥ १ ॥ विद्याधर गोपाल से विद्याधरी शाखा आर्यइंद्रदिन को गौतमगोत्र वाले आर्यदिन शिष्य थे, - आर्यदिन के दो शिष्य थे आर्य शांतिसेन माढर गोत्र आर्यसिंह गिरि जाति स्मरण ज्ञान वाले कौशिक गोत्रवाले थे. आर्यगांतिसेन से उच्चानगरी शाखा निकली है उनमें चार स्थविर हुए आर्य श्रेणिक, आर्य तापस, आर्यकुबेर, आर्य ऋषिपाल, आर्यश्रेणिक से श्रेणिक शाखा निकली, आर्य तापस से तापसी, शाखा निकली आर्यकुर से कुवेरी शाखा निकली, आर्य ऋषिपाल से ऋषिपालिक शाखा निकली. आर्य सिंहगिरि के चार बड़े साधु स्थविर थे ( १ ) घनगिरि, वज्रस्वामी आर्यसमिति, आर्य दिन आर्य समित से ब्रह्म दीपिका शाखा निकली. वज्र स्वामी से अज्जवरी ( आर्य वज़ी) शाखा निकली. वज्रस्वामी के तीन स्थविर प्रसिद्ध हुए, आर्य वजूसेन, आर्य पद्म, आर्य रथ. आर्य वज्र से आर्य नाइली ( आर्य नागिली ) शाखा निकली, आर्य पद्म से पद्मा शाखा, और आर्य रथ से आर्य जयंती शाखा निकली हैं. आर्य रथ बहस गोत्र के थे उनके शिष्य कौशिक गोत्र वाले आर्य पुष्प गिरि हुए. उनका शिष्य आर्य फल्गुमित्र गोतम गोत्र वाले थे उनका शिष्य धनगिरि वाशिष्ठ गोत्र के थे उनका शिष्य आर्य शिवभूति कोछस गोत्र के थे उन का शिष्य आर्यभद्र काश्यप गोत्र के थे उनका शिष्य वांही गोत्र के आर्य नक्षत्र शिष्य हुए उनका शिष्य आर्य रक्ष मुनि हुए. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७) आर्य रक्ष के शिष्य गानम गोत्री भार्य नाग थे उनके शिष्य आर्य जटिल पाशिष्ठ गोत्र के थे, उनके शिष्य माहर गोत्र के आर्य विष्णु (विश्नु ) हुए. उनके शिष्य आर्य कालिक गौतम गोत्र के थे कालिकाचार्य के दो शिष्य आ. र्य संपलिक और यशोभद्र मुनि वोही गोत्र के थे. __उन दोनों का शिष्य आर्य वृद्ध स्थविर गौत्तम गोत्र के थे. विक्रम गजा जो उज्जयिनी में हुआ उसके समय में कुमुदचंद्र अपरनाम सिद्धसेन दिवाकर जिनों ने अनेक ग्रन्थ गद्य पद्य बनाये है संपनि तर्क और कल्याण मंदिर प्रसिद है. उनके गुरु येही है. ऐसा ज्ञात होता है ] भार्यवृद्ध के शिष्य गौतम गोत्रवाले आर्य संघपालिक हुए उनके शिष्य आर्य धर्म सुव्रत गोत्रके थे. उनके शिष्य आर्यसिंह काश्यप गोत्री थे. उनके शिष्य मार्य धर्म काश्यप गोत्री थे उनके शिष्य आर्य संडिल थे. उन सब स्थविरों के गाथा लिखते है। ते वंदिऊण सिरसा, भदं वंदामि कासवसगुत्तं । नक्खं कासवगुत्तं, राखंपिय कासवं वंदे ॥ २॥ वंदामि अज्जनागं, च गोयमं जहिलं च वासिढे । विण्हु माढरगुत्तं, कालगमवि गोयमं वंदे ॥ ३ ॥ गोयमगुत्तकुमारं, संपलियं तहय भद्दयं वंदे । थेरं च अज्जवुड्ढं, गोयमगुत्तं नमसामि ॥४॥ तं वंदिऊण सिरसा, थिरसत्तचरित्तनाणसंपन्नं । धेरै च संघवालिय, गोयमगुत्तं पणिवयामि ॥ ५ ॥ वंदामि अज्जहत्थि, च कासवं खंतिसागरं धीरं । गिम्हाण पढममासे । कालगयं चेव सुद्धस्स ॥६॥ वंदामि भज्जधम्म, च सुवयं सीललदिसंपन्न । जस्म निक्खमणे देवी, छत्तं वरमुत्तमं वहद ।। ७॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९८) हत्थि कासवगुत्तं, थम्मं सिवसाहगं पणिवयामि । मीहं कासवगुत्तं, धम्मंपिय कासवं वंदे ॥ ८॥ तं वंदिऊण सिरसा, थिरसत्तचरित्तनाणसंपन्नं । थेरं च प्रज्जवु, गोयमगुत्तं नमसामि ॥ ६॥ मिउमदवसंपन्न, उवउत्त नाणदंसणचरित्ते । थेरं च नंदियंपिय, कासवगुत्तं पणिवयामि ॥ १०॥ तत्तो य थिरचरितं, उत्तमसम्मत्तसनसंजुतं । देवष्टिगणिखमासमणं, माढरगुत्तं नमंसामि ।। ११ ॥ तत्तो अणुयोधरं, धीरं महसागरं महासत्तं । थिरगुत्तखमासमण, वच्छसगुत्तं पणिनयामि ॥ १२ ॥ तत्तो य नाणदंसण-चरित्ततवसुट्ठियं गुणमहंतं । थेरं कुमारधम्म, वंदामि गणिं गुणोवेयं ॥ १३ ॥ सुत्स्थरयणभरिए, खमदममद्द्वगुणेहिं संपन्ने । देवि. ड्ढिखमासमणे, कासवगुत्ते पणिवयामि ॥ १४ ॥ (स्थविरावली सम्पूर्णा) मैं वंदन करता हूं, फलगुमित्र गौतम गोत्रवाले और धनगिरि वासिष्ठ गोत्रवाले. कुचिक गोत्रवाल गिवभूति और दुज्जत गोत्रवाल कृष्णमुनि को (१) काश्यप गोत्री भद्रमुनि. नक्षत्र और रक्षक मुनिको बंदन करता हूं (२) गाँतम गोत्र वाले आर्यनाग वाशिष्ट गोत्र वाले जहिल, माढर गोत्रबाले विश्नु और गीतग गोत्री कालकाचार्य का वंदन करता हूं. (३) गौतम गोत्री गुप्तकुमार, संपलिक मुनि, भद्रमुनि और आर्यद्ध मुनिका नमस्कार करता हूं.४ स्थिर धर्य चारित्र और जान संपन्न काश्यप गोत्री संघपालक मुनि को वंदन करता हूं. ५ काश्यप गोत्री क्षमा सागर धीर आर्य हस्ती महाराज को बढन करता हूं जा चत्र मुदी में स्वर्गवासी हुए हैं. ६ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६) उत्तम व्रतवाले शील लब्धियुक्त आर्य धर्म मुनि को वंदन करता हूं जिनक दीक्षा समय में देवता उत्तम छत्र धरके चला था. १ [पूर्व भवका कोई मित्र देवता हुआ था उसने भक्ति पूर्वक छत्र धगया ] काश्यप गोत्री हस्तमुनि और मोक्ष माधन धर्ममुनि को में चंदन करता हूं. और सिंहमुनि और ( दुसरे ) धर्म मुनिका वंदन करता है. उनके बाद में आर्य जंबू जोतीन रत्नों में उत्तम थे उनको वंदन करना हूं. ९ कोमल, सरल, तीन रत्न युक्त काश्यप गोत्री नंदिनी पिना युनिको नमस्कार करता हूं. ___ उनके बाद स्थिर चारित्र वाले सम्यक्त्वधारक माहर गोत्री देवद्धि क्षमा श्रमण को वंदन करता हूं. अनुयोग धारण करने वाले धैर्यवन्त बुद्धि के समुद्र महासत्व वाले बलम गोत्री स्थिर गुप्त मुनि को वंदन करता हूं. ज्ञान दर्शन चारित्र तप संयुक्त गुणोंस भरे हुए कुमार धर्म को वंदन करना है. उसके बाद देवा क्षमा श्रमण जो मृत्रार्थ रन्न से भर , माथ गुणों में युक्त काश्यप गोत्री है उनकी चंदन करता हूं (जिनों के समय में मृत्र लिग्ये है उनका कोई शिष्य ने गुरुमुखं में स्थविरावली सुनकर लिग्बी है भद्रयाहु विरचितकल्प सूत्र आदीवर चरित्र नकई ऐमा ज्ञान होता है. पाठवां व्याख्यान समाप्त. ॥ तेणं कालेणं तेणं समाएं समषं भगवं महावीरे बा. साणं सीसहराए मासे विइझते वासावास पन्जानवड़ ॥१॥ से केपट्टणं भंते ! एवं बुजड़ 'समणे भगवं महावीरे वा. साणं सबीसहराए मासं विडत वामावानं पज्जालबेह? जी णं पाएणं अगारीणं अगाराई कडियाई उपियाई गन्नाई लित्ताई गुत्ताई घट्ठाई मट्ठाई संपधृमियाउं म्यामोदगाई न्यायनिगमगाइं अपणो श्रद्वारा कडाई परिभुत्ताई परिणामियाई भवंति. से तेणवणं एवं यन्त्रह 'ममणे भगवं महावीर वाना. एं सवीमहराण मा विवंत वामावरान पन्नोनयइ ।।२॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००) जहा णं समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसहराए मासं विइकते वासावासं पज्जोसवेइ, तहा एं गणहरावि वासाणं सवीसइराए मासे विइकंते वासावासं पज्जोसर्विति॥६॥ ____ जहा णं गणहरा वासाणं सवीसइराए जाव पज्जोसविति, तहा णं गणहरसीसावि वासाणं जाव पज्जोसविति॥४॥ ____ जहा णं गणहरसीसा वासाणं जाव पज्जोसर्विति, तहा णं थेरावि वासावासं पज्जोसर्विति ॥ ५॥ ____ जहा णं थेरा वासाणं जाव पज्जज्जोसविंति, तहा णं जे इमे अज्जताए समणा निग्गथा विहरंति, तेवित्र णं वासाप जाव पज्जासावात ॥६॥ जहा पंजे हमे अजजत्ताए समणा निग्गंथा वासाएं सवीसइराए मासे विइंकते वासावास पज्जोसर्विति, तहा एं अम्हंपिायरिया उवज्झाया वासाणं जाव पज्जोसर्विति॥७॥ जहा णं अम्हपि पायरिया उवझाया वासाणं जाव पज्जोसर्विति, तहा णं अम्हेवि वासाणं सवीसइराए मासे. विकंते वासावासं पज्जोसवेमो, अंतरावि य से कप्पइ, नो से कप्पड़ तं रयणि उवाइणावित्तए ॥८॥ * नवम व्याख्यान-समाचारी चौमासा सम्बन्धी है , . भगवान महावीर के साधु एक मास २० दिन होने वाद पर्युषणा करते हैं शिष्य ने पूछा कि पर्युपणा क्यों करनी ? उसका आचार्य समाधान करते हैं. साधु ग्रहस्यों के घरों में उतरते हैं वे अपने कार्य के लिये छत उपर सादरी ( ) से ढांके, चूना से सफेद करे, घास से ढाके, गोबर से लीपे, . . गुपन करे, जमीन बरोबर करे, पापाण से घसे, सुगंधी धूप करे, पानी की पान करते हैं. ना से सफेद अपने कार्य के Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०१) नाली बनाव, मारी बनावे, व सब ( साध के लिय न करें ) अपन लिय को बाद साधु उसमें निवास करे. (ज्ञान की मंदता से जैन ज्योतिष के अभाव में चौमामा में भी अधिक मास याजाने मे किननक इस भूत्रानुसार ५० दिन में पर्युपणा करते हैं किननक अधिक मास का नहीं गिनकर भादग्वा मास में ही अर्थात् ८० दिन में करते हैं उनके बारे में समभाव छोड़ कलुपिन वचनों से आचप कर आत्मदिन के बदल संसार बढ़ाने का रास्ता लेते है इसलिये मुमुक्षु (मांचाभिलापी) भी से प्रार्थना है कि तत्व केवलिगम्य रखकर ५० या ८० दिन में पर्युपणा इन्छानुसार कर पर्युषण में कहाहुभा यात्म सहतिरूप धर्म अच्छी नम्ह पागधन करना जिसका आत्मा शुद्धभाव से दोनों दिन में कोई भी दिन में करेगा उगम का कल्याण होगा. क्लेश से कलुपित अनान्मार्थी क्लंग बढाकर बयं होगा अथवा इवाएगा उनके फंदों में फंसफर अपना हिन का नाश नहीं करना चाहिंग. सुन पुरुषों का अधिक क्या कहना अर्थान् दंन कला और अपने सानायानुसार प्रवृत्ति करना चाहिय और माध्यम्य भाव रखना चाहिये ). ___महावीर प्रशु की तरह गणधग ने और गणया गियों ने भी पगणा पत्र किये हैं इसी तरह स्थविगें ने भी पर्युपणापर्व किया है. इसी तरह आज र. साधु निग्रंथों को भी पर्युगणा का पर्व करना चाहिये और ये करने पही में आचार्य उपाध्याय और साथ (इम ग्रन्थ लिखने वाले. ) को भी परगा पर करना चाहिय. जैसे आचार्य उपाध्याय पपण करने , ग म ५० दिन में पपणा करते हैं उमक भीतर करना कल्ले फिन्तु एक गत्रि भी अधिक ना पहानी चाहिये, (यहां पर ८० दिन में करने वाले को ५० दिन बाद कहने फि... दिन में नहीं करना किन्तु अधिक नहीं गिनने मे ५. पानां? नर भगियों को पर्याणा का अर्थ या कि.पा. जगा अंटार नामाग में धर्म ध्यान करना किंतु वानरात में फिग्न में नपरको पीटा नरीदनी भर गोपागा जन टीपणा के अनुमा नार माग का दिन प्रथम पारी पमान कि सारे फिनु पिले ७० दिन नो टागना ही नारिंग इसमें भी बार माग र निरा रिना पागधर नी गरिंग पणा पानि Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३ ) बैठना किंतु अब तो आचायों ने चांमासा असा मुदी १४ बैठाया वो कार्त्तिक सुदी १४ तक पूरा होना है और बीच मे कोई भी आत्मार्थी साधु फिरता नहीं हैं इसलिये ५०-८० दिन का झगड़ा करना व्यर्थ है और संवकरी प्रतिक्रमण वगैरह खूब भाव से अंतरंग शुद्धि से करना द्वेष घटाना जो पूर्णिमा को चोमासा बेटावे व पंचमी की संवछरी करे उनको कटु वचन नहीं कहना चाहिये कोई उदय तिथि कोई संध्या की तिथि लंबे नो भी कोमल भाव रखकर मध्यस्थता से प्रतिक्रमण शुद्ध भाव से करेंगे उनकी ज्ञान पूर्वक क्रिया सफल है. वीतराग प्रभु के सूत्रों में जिन्हों का सच्चा भाव है उन सबको मिलकर क्लेश राग द्वेष की परिणति घटानी चाहिये उसमें भी महामंगलीक पर्व में अमारिपट बजाना तो फिर अनेक गुणों से विभूपिन जैन श्रावक साधु को तो कैसे कटु वचन कहुंबे ! यह बात हमारे बहुत से भाई भूलकर लड़ते हैं उनसे हमारी नम्र प्राना है कि आत्म तत्व में ही रमगता कर बाह्य क्रिया करो कि परपीडक कटु वचन आपके शांत बदन में से न निकले. वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पड़ निम्गंथाण वा निग्गंश्रीण वा सव्वच समंता सकोस जोयां उग्गहं योगिरिहत्ता णं चिट्ठि ग्रहालंदमवि उग्गहे ॥ ६ ॥ वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सव्वग्रो समता सक्कोसं जोयण भिक्खायरियाए गंतुं पडिनियत्त ॥ १० ॥ चोमासा में रहे हुए साधु साध्वीओं को पांच कोस तक चारों दिशा में जाना कल्पे. उपाश्रय से २|| २ || कांस प्रत्येक दिशा में जावे चोमासा चार मास का होवे परन्तु अधिक मास आजावे तो पांच मास भी रहते है अथवा विना अधिक वर्षा ऋतु पहिले वा पीछे बढे यानि जो पानी ज्यादा गिरं कीचड़ जादा होतो छ मास भी रह्सक्ते हैं. अधिक विचार के लिये बड़ी टीकाएं देखनी. गांचरी जाने के लिये भी चोमामा में २|| कांस तक जाना और पीछा आना चाहिये । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०३) जत्थ नई निचोयगानिचमंदणा, नो ने कप्पड़ सध्ययो समंतासकोसं जोयणं भिक्खायरियाए गंतु पडिनियत्ता ।।१।। __एरावई कुणालाए जत्थ चक्रिया लिया, पगं पायं थले किचा, एवं चकिया एवं णं कप्पड़ सवयो ममता सकोसं जोयणं गंतुं पडिनियत्ता ॥ १२ ॥ एवं च नो चकिया. एवं से नो कप्पड़ सन्चयो समता सकोसं जोयणं गंतुं पडिनियत्तए ॥ १३ ॥ ___ जो नदी निरंतर बीच में बहनी हो ना पग रम्न २॥ कोस जाना न करे किन्तु परावती नदी कुणाला में है अथवा गमी नदी जहां हो यहां निग्न्ना न पहनी हो और वहां थोड़ा पानी हो जमीन हो यहां रंनी पर पग ग्ग्य कर जाना फल्पे अर्थात् छोटे नाले वर्षा में चले पाट बंद होवे वहां पर जान में रग्ज नहीं किन्तु जो पानी में पग रखकर जाना पड़े और पानी के जीवों को दाग्य होना हो तो ऐसी जगह गोचरी जाना न कल्प (मिर्फ यह अधिक गार्ग निर्ग हे स्थंडिल के लिये जरूा पड़ धीर दमग रस्ता न होना वहां में भी भागता. वासावासं पजजोमवियाणं अत्यगइयाणं एवं बुलपुलं भवह-दावे भंते ! एवं मे कपड़ दापित्तए, नो से कपड़प. डिगाहित्तए ।। १४ ॥ वासावासं पजामवियाणं अस्थडगाणं एवं बुन्तपुर भवइपडिगाहहि भंते ! एवं से कपड़ पडिगाहिला. ना गं कापड दाविता ॥ १५ ॥ वासावासं० दावे भने ! पडिगाहे भंत : एवं मे कापड़ दावित्तपवि पडिगाहितावि ॥ १६ ॥ गुरु महागनने का श्रावने गोली लान राल वो माया ननु पीमार विमा पार लगा रीमा पानी. ना पीपानी Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४) चाहिय अपन का खानी नहीं चाहिय, किन्तु गुरुन वा श्रावकन अपने वास्त कहा होतो वीमार को नहीं देना यदि दानों के वास्त कहा हाती दोनों को कल्प. वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निगंधीण वा हट्ठाणं तुट्ठाणं ग्रारोगाणं वलियसरीराणं इमा श्रो नव रमविगइयोअभिक्रएं २ग्राहारित्तए, तंजहा-खीरं १ दहिं २, नवणीयं ३, सप्पिं ४, तिल्लं ५, गुडं ६, महुँ ७, मज्ज ८, मसंह ॥ १७ ॥ ____ चौमासा में रहे हुए साधुओं को शरीर निरागी हो और शक्ति अच्छी होता नवविकृति विकार करने वाली वस्तु उपयोग में वारंवार लेनी न कल्प विकृति विगई नव है उन के दो विभाग हैं. दुध, दही, घी, तेल, गुड (साकर वगैरह ) यह वस्तु भक्ष्य है मक्खन, मधु ( गद) पद्य (शराव ) मांस, यह चार अमन्य है. भक्ष्य वस्तु खाने में काम लगती है अभक्ष्य वस्तु दवा में शरीर पर लगाने में काम लगती है किंतु इन नव विकृतिओं को वारंवार उपयोग में चौमासा में नहीं लेना चाहिय. उसमें भी मदिरा और मांस का तो प्राणांत कष्ट आवे तो भी उसका वाद्य उपयोग करना नहीं चाहिये किन्तु प्राण न निकल आध्यान होवे घर को जा न सके छोटी उम्र हो असाध्य रोग हो दुसरे साधुओं को पीड़ा होनी ही पढ्न पाठन में विघ्न होता होनी कृपासागर आचार्यों ने ऐसे जीवों के समाधि के लिये बाह्य उपयोगार्थ कारणवशात् यह दो शब्द रकाले और उसका भी अच्छे होने वाद महान् प्रायश्चित है वह मायश्चिन अधिकार गुरु गम्य है इत्यादि विचार बड़े पुरुषों से जान लेना क्योंकि मांस मदिरा का स्त्रम में भी भागने का विचार माधु न कर ऐसा मृयगडांग मूत्र में कहा है: द्वितीय श्रुतस्कंध में छ? अध्ययन में ३५ वी गाथा से ४० गाथा तक वही अधिकार है. ( प्रसंगोपात् यहां पर लिखते हैं कि वालजीच भ्रम में न पड़े. जीवाशुभाग मुत्रिनियंता, आहारिया अन्न विहाय साहि । न त्रियागंर छन्न पऑपनीची, एमाणुधम्मो इह संजयाणं ॥ ३५ ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०५) मिणायगाणं तुद्वं सहस्प, न भायण निहग भिरघुयाणं । असंजए लोहिय पाणि संऊ, नियन्छत गरिहं मिहवलांग ।। ३६ ।। जीवों की दया चितवन कर अन्न शुद्धि देखकर आहार लेकर खाये किंतु पात्रा में मांस पढा भी दोष के लिये नहीं है ऐमा न को किन्तु निष्कपटी होकर संजम धर्म पाल एसा जैन माधु का आचार है ( यह वचन बौद्धों को शिक्षा के लिये कहा है ) फिर कहा है कि आप याद साधु ना गया जट करने हो कि साधुओं को मांस से भी दो हजार वर्ष भोजन ना ये आपको दुनि धूल उरम्भं इहमारियाणं, उदिट्ट भत्तं च पग्गप्पाना । नंलोण तेलेण उवावडेता, सपिप्पलीयं परंती मांग ॥ ३७ ।। नं नमाणा पिसिनपभूतं, ण उबलिप्पापो वयं रएग। इचेच माहंगु अणज धन्, अथारिया वाल समुगिद्धा ॥ ३८ ॥ जो वाल अनार्य है व रसगर होकर जीवों को मारकर उसकी नल लग से स्वादिष्ट कर खाने हैं और कहने हैं कि हम ना पाप में लिप्त नहीं होने. आर्द्रकुमार फिर भी करने है कि:-- जेयावि भुनंनि नहपगार, सेवंतित पाचग जाणपाणा । मगन एवं कुसला कर्गत, वायापि एमात्रुदयाउ मिन्छा ।। ३६ ।। जो पाप को नहीं जानन व परभव का दर निमको न या नाम नी मानते ही एमा पूर्व कथित मांग का आहार यान है परन्तु जनार्म पत्ता मंधावी कुगल पुरुप मनमें भी माम ग्वान की धचिनापा न करे न गंगा प्रकार वचन बॉल कि मांस खान से पाप नहीं है. फिर भी माधु का प्राचार करने हैं: सम्वमि जीनाग दहयाए, गारन्जदाम पग्विनगंना, नमारिणी समिती नायपुत्ता उदिहं भगंगग्विनयंनि ॥ १० ॥ सब जीवों की दगा के लिंग पाप हिंसा को भगान मfriers माधु रदिट्ट भोजन अवान् मायरिय बनायामा मन भी न लाना हावित यह मेरे लिंग बनाया। नोभी न लंग. श्रीर गला पगारपादने Ti भनय किया वह जैन धमनीमारने बाद मांगनायामा पान Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६) के समय मांम का स्वाद आने लगा वह वात प्राचार्य हेमचन्द्र को सुनाई गुरु महाराज ने कहा कि घबर भी नहीं खाना कि ऐसी दुष्ट भावना भी न हो. कुमारपाल ने वह छोड़ दिया परन्तु उस दुष्ट वासना का दंड मंगा गुरु महाराजने कहा कि ३२ दांत गिरा देना चाहिये. उसने मंजूर किया लुहार को बुलाया कुमारपाल की धैर्यता देख दांत रखवाकर ३२ जिन मंदिर बनाने का फरमाया. इसलिये भव्यात्मा साधु वा श्रावक मांस मदिरा से निरन्तर दूर रहवं. वासावासं पज्जोसवियाणं अत्यंगाणं एवं वृत्तपुवं भवइ, अट्ठो भंते ! गिलाणस्स, से य पुच्छियब्बे-केवहएणं अहो ? सेवएज्जा, एव इएणं अट्ठो गिलाणस्स, जं से पमाणं वयइ से य पमाणोधिततब्बे, से यविनविज्जा, सेय विनवे माणे लभिज्जा, से य पमाणपत्ते होउ अलाहि-इय वत्तव्यं सिया? से किमाहु भंते ! ?, एवइएणं अट्ठोगिलाणस्स, सिया एं एवं वयंत परो वइज्जा-पडिगाहेह अज्जो ! पच्छा तुमं भोक्खसि वा पाहिसिवा, एवं से कप्पड़ पडिगाहित्तए, नो से कप्पड़ गिलाणनीसाए पडिगाहित्तए ॥ १८ ॥ __ कोई बीमार साधु के लिय गुरुने दूसरे साधु को कहा हो कि बीमार को विकृति य वगैरह लादेना तो बीमार को पूछकर जितना वह कहे वह गुरु को कहकर ग्रहस्थ के घर से लाब किन्तु बीमार को जितना चाहिये इतना मिलने पर ज्यादा न लेवे परन्तु ग्रहस्थ कहवे कि आपको अधिक चाहिये तो लो वचे वह आप खाना वा दूसरों को देना ऐसा कहने पर साधु लेकर आये और बीपार को देकर बचे बह आप खासके किन्तु बीमार की निश्रा से विना कारण आप विकृनि खान की इच्छा न करे वचं वह वांटकर खावे. वासावास पज्जो० अत्यि णं थेराणे तहप्पगाराई कुलाई कडाइं पत्तिाई थिज्जाई वेसासियाई संमयाई बहुमयाई अणुमयाई भवंनि, जत्थ से नो कपइ अदक्खु वइत्तए . Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०७) स्थिते बाउसो ! इमं वा २" से किमाहु भंते ! ? सड्डी गिही गिरहइ वा तेणियंति कुज्जा ॥ १६ ॥ चौमासा में रहे हुए साधुओं को भक्त घरों में भी विना देखी वस्तु न मांगनी देखे वही मांगे क्योंकि वह भक्त होने से साधु को देने के लिये ग्रहस्थी चोरी वा जुल्म करे वा दोषित वस्तु लाकर देगा इसलिये शिष्य की गुरुने रामझाया कि बिना देखी वस्तु भक्त के घर की न मांगे. कृपण वा अभक्त घरों में अदेखी वस्तु भी जरूर हो तो मांगनी क्योंकि वह होगी तो देगा न होगी तो न देगा भक्ति में अन्धा होकर अनाचार नहीं करेगा. वासावासं पज्जोसवियस्स निच्च भक्तियस्स भिक्खुस्स कप्पइ एगं गोचरकालं गाहाबद्दकुलं भत्ताए ना पाणाए वा निक्खमित्त पविसित्तए वा नन्नत्थाय रिक्वेयावत्रेण वा एवं उवज्झायवे॰ तवस्सिवे० गिलावे० खुड्डा वा खुट्टयाए वा अवजजाय वा ॥ २० ॥ चौमासा में स्थित साधुओं को नित्य भोजन करने वालों को गांव के लिये एक ही वक्त ग्रहस्थी के घरको जाना आना पे किन्तु आचार्य उपाध्याय तपस्वी घीमार छोटा साधु, जिसके दादी मृद न हो ऐसे साधुयों की वा उनकी वैयावन्य ( सेवा ) करने वालों को दो वक्त भी जाना अन इन्द्रियों पुष्ट करने को आहारादि न लेवे ). 1 वासावासं पज्जीसवियम्स चत्यभनियम्म भिक्खुम्प अयं एवइए विसेसे-जं मे पाय निक्खम्म पुव्वामेव वियडगं भुचा पिना पडिग्गहगं संलिहिय संपमजिय से य संथरिज्जा. कप्पड़ से तद्दिवसं तेणेव भत्तद्वेणं पज्जीसवित्त-मेय नो संयरिज्जा, एवं से कपड़ दुपि गाहा वडकुलं भन्नाए वा पाणाए वा निक्खमित्तम् वा पत्रिमित्तम् वा ॥ २१ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८ ) किन्तु एकांतरीय उपवास करने वालों को पारणा के दिन एक वक्त खाने से न चले तो दूसरी वक्त भी गोचरी के लिये जाना कल्पे ( जो क्षुधा वेदनी शांत न होवे तो दूसरी वक्त जावे ). वासावासं पज्जोसवियस्स भक्तियस्स भिक्खुस्स कपति दो गोरकाला गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्ख० परिसि० || २२ ॥ वासावासं पज्जोसवियस्म श्रट्टमभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति तो गोचरकाला गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्aमि० पविस० ॥ २३ ॥ वासावासं पज्जोसवियस्स विगिट्ठभत्तिग्रस्त भिक्खुस्स कप्पंति सव्वेवि गोचरकाला गाहा० भ० पा० निक्खमि० पविसि० ॥ २४ ॥ बेले का तप करे और तीसरे दिन खावे उनको दो वक्त गोचरी लाकर खाना कल्पे, तीन उपवास करे चोथे दिन खाये उसकी तीन वक्त गोचरी लाकर खाना कल्पे चार उपवास से लेकर अधिक तप करने वाले को चांह उस वक्त ग्रहस्थी के घरको दिन में जाकर लाकर दिन में ही खाना कल्प ( चोमासा में रहने वालों के लिंग यह नियम अधिक प्रचलित हैं ज्यादह खाकर अजीर्ण का रोग न बढावे न पढ़ने में प्रमाद होवे किन्तु पढ़ने वालों के लिये गुरु आङ्गा पर हैं एक वक्त खावे चाहे दो वक्त खावे ). वासावासं पज्जोसवियस्स निचभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति सव्वाई पाएगाई पडिगाहित्तए । वासावासं पज्जोसवियस्स चउत्थभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति तयो पाएगाई पडिग्राहित्तए, जहा - प्रोसेइमं, संसेइमं, चाउलोदगं । वासावासं पज्जोसवियस्स छ भत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति तत्रो U Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६) पाणगाई पडिगाहित्तए, तंजहा-तिलोदगं वा, तुसोदगं वा, जबोदगं वा । वासावासं पज्जोसवियस्त अट्ठमभत्तियस्म भिक्खुस्स कप्पंति तो पाणगाइं पडिगाहिला तंजहा-यायामे वा, सोवीरे वा, सुद्धवियडे वा । वासावास पन्जोयवि. यस्स विगिट्ठभत्तियस्स भिक्खस्म कप्पड़ गगे उसिणवियडे पडिगाहित्तए, सेविय णं असित्थे नोविय णं सामित्थे । वासावासं पज्जोसवियस्स भत्तपडियाइक्खियस्त भिक्खुस्म कप्प. इ एगे उसिपवियडे पडिगाहित्तए, सेविय णं अमित्थे नो चेव णं ससित्थे, सेविय णं परिपूए नो चेव णं अपरिपृए. सेविय णं परिमिए नो चेव णं अपरिमिए, सेवित्र णं बहुसंपन्ने नो चेव णं अबहुसंपन्ने ॥ २५ ॥ नित्य खाने वाले को मर जाति के फासु पानी पान को काम नग एकान रीय उपवासी को तीन जाति के पानी को (१) भाटा मे ग्वग्दा इभा पानी (२) पत्ते वगेरह से उकाला पानी, (३) चावल का पोवन कन्ये दो उपनाम नाले के लिये तीन पानी तिल का धावन, तुग का धोवन जगों का धावन फाप लगे, तीन उपवास वाले को सागन का पानी, कांजी का पानी, नगा (जग) पानी उससे भधिक तप करने वाले को सिर्फ उष्ण पानी ही काम लगे और कम पानी में कोई भी जाति का अन्न का अंग नहीं होना चाहिये. अनशन जिसने किया हो और पानी की लूट रखी होगी उपरी गिफ जण जलदी पीने को काम लगे वो पानी अन्न के संश शिना का होना चाहिये भार यो भी दान के पानी लेना चाहिये और वो भी गाम निनना ही पीना अधिक नहीं पीना. वासावासं पज्जोसवियस्स मंखादनियम भिखम्म का प्पति पंच दत्तीयो भांग्रएस्स पडिगाहित्ता पंच पाणगम्म, महवा चत्वारि भोयणस्स पंच पाणगम, श्रया पंन भाय. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१.) एस्स चत्तारि पाणगस्स । तत्थ णं एगा दत्ती लोणासायणमित्तमवि पडिगाहिया मियाकप्पद से तदिवसं तेणेव भत्तटेणं पज्जोसवित्तए, नो से कप्पइ दुचंपि गाहावडकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्वमित्तए वा पविसित्तए वा ॥ २६ ॥ साधुओं को पांच दत्ती चामासा में निग्नर लेनी क्ले, पांच भांजन की और पांच पानी की अथवा ४ भोजन की ५ पानी की अथवा पांच भोजन की ४ पानी की लेनी किंतु दत्ता में जो अनाज में नमक समान अर्थात् थोड़ी वस्तु भी आजावं ना उस दिन इतना ही खाना चाहिये किन्तु दुसरी वक्त नहीं जाना चाहिय. ___ एक वक्त में जितना ग्रहम्पी देव वा दत्ती गिनी जाती है ( उसका प्रयोजन यह है कि स्वाद के लिय वा विना श्रम ग्रहन्धिों का माल खाकर साधु प्रमाद कर दुर्गति में न जात्र) वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पड निरगंथाण वा निगंधीण वा जाव उवस्सयानो सत्तघरंतरं संस्खडि संनियट्टचारिस्स इत्तए, एगे पुण एवमाहंयु-नो कप्पड़ जाव उवस्सयायो परेण सत्तघरंतरं संखडिं संनियट्टचारिस्स इत्तए, एगे पुण एवमाहंसु-नो कप्पड़ जाव उपस्सयारो परंपरणं संखडि संनियट्टचारिस्स इत्तए ॥ २७ ॥ साधु साध्वी को चौमासे में उपाश्रय स ७ घर नजदीक में हो उस में जिमण हो तो वहां गोचरी जाना न कल्प, काई आचार्य कहते हैं कि उपाश्रय को अलग मान सात घर छोड़ना चाहिये कोई कहते है कि उपाश्रय से परंपरा - के घरों में जिमनवार में गोचरी नहीं जाना (जिमन में साधु को गोचरी जाना मना है परन्तु उपाश्रय के निकट घरों में तो अवश्य नहीं जाना ) वासावासं पज्जोसवियस्स नो कप्पड़ पाणिपडिग्गहियस्स. भिक्खुस्स कणगफुसियमित्तमवि वुट्टिकायसि निवयमाणंसि Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२११) निवयमाणंसि जाव गाहावइकुलं भ० पा० निक्ख पविसित्तए वा ॥ २८ ॥ ___ जब दृष्टि थोड़ी भी होती हो ऐसे समय पर जिन कल्पी साधु गोचरी न जावे ( जिन कल्पी साधु जम्बू स्वामी के वाद नहीं होते हैं वो कल्प विच्छेद होगया है) वासावासं पज्जोसवियस्स पाणिपडिग्गहियस्स भिक्ख. स्स नो कप्पइ अगिहसि पिंडवायं पडिगाहित्ता पज्जोसवित्तए, पज्जोसवेमाणस्स सहसा बुट्टिकाए निवइज्जा देसं भुचा देसमादाय से पाणिणापाणिं परिपिहिता उरांसि वा एं निलिजिजज्जा, कक्खसि वाणं समाहडिज्जा, अहाछन्नाणि वा लेणाणिं वा उवागच्छिज्जा, रुक्खमूलाणि वा उबागच्छिज्जा, जहा से तत्थ पाणिसि दए वा दगरए वा दगफुसियावा नो परिभावज्जइ ॥ २६ ॥ जिन कल्पी साधुको उपर से न ढका हो ऐसी जगह में गोचरी करनी न कल्पे कदाचित् वैठ गये और वृष्टि आजावे तो जितना वचा हो वो लेकर दूसरे हाथ से वा छाती से कांख में ढककर ढके हुए मकान में जाकर गोचरी करे घर न मिले तो पेड़ के नीचे चला जावे कि जिससे पानी के विंदुओं से संघटन होकर वे पानी के जीवों को पीडा न होवे. वासावासं पज्जोस वियस्त पाणिपडिग्गहियस्स भिक्खुस्स जं किंचि कणगफुसियमित्तंपि निवडति, नो से कप्पड़ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसि. त्तए वा ॥ ३०॥ सूत्र २९ में बताया कि जीवों को पीडा न हो इसलिये सूत्र ३० में बताया • कि प्रथम से जिन कल्पि उपयोग देकर जानकर रास्ते में पानी आने का मालुम Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१२) हो तो गांचरी न जाने चाई थोड़े बिंदु भी क्यों न वर तो भी जिन कल्पी गोचरी न जावे. वासावासं पज्जोसवियस्स पडिग्गधारिस्स भिक्खुस्म नो कप्पड वग्धारियवृहिकायसि गाहावाकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, कप्पइ से अप्पबुट्टिकायसि संतरुत्तरंसि गाहावइकुलं भत्ताए चा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥ ३१॥ जिन कल्पि विना जो स्थविर कल्पि साधु हो तो उनका अखंडित मंघ की धास वर्षे तब गोचरी नहीं जाना परन्तु अल्प वृष्टि होनो कारणवश से गोचरी जाना कल्प उस वक्त मृत्र के कपड़े पर कम्बल ओढकर जासक्ते हैं (यहां बताया है कि कोई देश में वृष्टि होने वाद भी थोड़ी दृष्टि सारा दिन भी रहती है और छोटे वा क्षुधा पीडित साधुओं को असमाधि होचे तो वारीक वृष्टि में भी कम्बली आहकर गोचरी जासक्तं है ). (अं० ११००) वासावासं पजोसविपस्स निग्गंथस्स निग्गंथीए वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठस्स निगिझिय २ वुष्टिकाए निवइज्जा, कप्पड़ से अहे अारामंसि वा, अहे उवस्मयंसि वा अहे वियडगिहसि वा अहे रुक्खमूलंमि वा उवागच्छित्तए ॥ ३२ ॥ ___ गोचरी जात रास्ते में वृष्टि ज्यादा होवे तो ज्यान में वा उपाश्रय नीचे, वा जादिर मकान नीच अथवा वृक्ष (पड़ ) की नीचे खड़े रहसक्त है. ___ तत्थ से पुवागमणेणं पुवाउत्ते चाउलादणे पच्छाउत्ते भिलिंगसूवे, कप्पड़ से चाउलोदणे पडिगाहित्तए, नो से कप्पड भिलिंगसूबे पडिगाहित्तर ॥ ३३ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१३) " तत्थ से पुवागमणेणं पुब्वाउत्ते भिलिंगसूवे पच्छाउत्ते चाउलोदणे, कप्पइ से मिलिंगसूवे पडिगाहित्तए, नो से कपइ चाउलोदणे पडिगाहित्तए ॥ ३४ ॥ गृहस्थी के घरमें खड़े रहे हों और वहां पर पहिले चावल तयार होते हों पीछे दाल बनाई हो तो साधु को पहिले चावल चढ़े हों वही काम लगे परन्तु साधु खड़ा रहे उस बाद दाल चढ़ाई होतो वह दाल न कल्पे किन्तु पहिले दाल चढाई होवो दाल कल्पे चावल पीछे चढ़ाये होंतो चावल काम न लगे. ___ और यदि पहले दोनों चढाए होतो दोनों काम लगे दोनों पिछे चहे होतो दोनो काम नलगे. तस्थ से पुब्बागमणेणं दोवि पुव्वांउत्ताई कप्पंति से दोवि पडिगाहित्तए । तत्थ से पुवागमणेणं दोवि पच्छाउत्ताई, एवं नो से कपंति दोवि पडिगाहित्तए, जे से तत्थ पुवागमणेणं पुबाउत्ते, से कप्पइ पडिगाहित्सए, जे से तत्थ पुवागमणेणं पच्छाउत्ते, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ ३५ ॥ __ कहना तात्पर्य यह है कि साधु खड़े रहे वाद जो चीज तैयार करे वह न कल्पे पहले चूले चढी हो वही चीज साधु लेसक्ते हैं. वासावासं पज्जोसवियस्स निग्गंथस्स निग्गथीए वा गाहावाकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठस्स निगिन्मिय २ बुटिकाए निवइज्जा, कप्पड़ से अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अहे वियडगगिहसि वा अहे रुक्खमूलसि वा उचागच्छित्तए, नो से कप्पड पुत्वगहिएणं भत्तपाणेणं लं उवायपावित्तए, कप्पड से पुवामेव वियडगं भुच्चा पडिग्गहगं संलिहिय २संपमज्जियर एगाययं ( एगो) भंडगंकटु Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) सावनेम सूरे जेणेव उवस्सए तेणव उवागच्छित्तए, नो से कृप्पड़ तं रयणिं तत्थेव उवायणावित्तर || ३६ || साधु की गोचरी जाने बाद वर्षा हो तो प्रथम कहे हुए स्थान में खड़ा रहुवे परन्तु गोचरी थोड़ी आगई हो तो थोड़ी देर राहा देखकर एक स्थान में टकर गोची करने और पीछे पात्र साफ कर उपाश्रय में चला जांव. चाहे वर्षा होती होना भी सूर्यास्त पहले उपाश्रय में जाना चाहिये किन्तु रास्ते में वा गृहस्ती के घर में साधु को रहना नहीं चाहिये ( यहां पर वृष्टि के पानी में जीवों की विराधना का जो दोष है, उससे अधिक दोष साधु अकेला ग्रहस्य के घरमै वा उद्यान में रहे तो लगता है क्योंकि शील रक्षण उपाश्रय में ही अच्छी तरह रहयुक्ता हैं. वासावासं पज्जोसवियरस निग्गंथस्स निग्गंथीए वा गाहावsकुलं पिंडवायपडियाए गुपविट्ठस्स निगिज्जिय २ बुट्टिकाए निवइज्जा, कप्पड़ से यहे यारामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा उवागच्छित्तए ॥ ३७ ॥ साबु साध्वी गोचरी जांव रास्ते में वृष्टि के कारण खड़ा रहना पड़े तो एक साधु एक साध्वी साथ खड़ा रहना न कल्प. एक साधु दो साध्वी को साथ रहना न कल्प दो साधु दो साध्वी को भी साथ रहना न कल्पे किन्तु एक छोटी साधी वा साधु होतो खड़े रहसकते हैं. अथवा तो जहां जाने आने वाले सबकी दृष्टि पड़नी होतो वहां खंड़ रहसकते हैं. तत्य नो कपड़ एगस्स निग्गंधस्स एगाए य निग्गंधीए एगयो चिट्टित्तए १, तत्थ नो कप्पड़ एगस्स निग्गंथस्स दुरहं निग्गंथीय एगयद्यां चिट्ठित्तएर, तत्थ नो कप्पड़ दुरहं निग्गंथापं एगाए निग्गंथीए य एगयच्यो चिट्ठित्तए ३ । तत्थ नो कप्पड़ दुरहं निग्गंथाणं दुग्रहं निग्गंथी य एगयो चिट्ठित्तए ४ | Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (२१५) अस्थिय इत्थ के पंचम खड्डए वा खुड्डिया इ वा अन्नेसिं वा संलोए सपड दुवारे एव रहं कप्पइ एगयत्रो चिठ्ठित्तए ॥ ३८ ॥ इस तरह साधु साध्वीश्रों ग्रहस्थ वा ग्रहस्थिणी के साथ उपर की तरह अकेले वा दो खड़े न रहने अर्थात् एक साधु एक ग्रहस्थिणी के साथ अथवा एक साध्वी एक ग्रहस्थी के साथ उपर मुजब खड़े न रहवे क्योंकि ब्रह्मचर्य व्रत के भंग की लोगों को शंका होवे अथवा मनमें दुर्ध्यान होवे इस तरह दो साधु एक ग्रहस्थिणी अथवा दो साधु दो ग्रहस्थिणी अथवा दो साध्वी दो ग्रहस्थों के साथ खड़ा रहना न कल्पे. किन्तु जाने आने वाले देखे ऐसे खड़े रहने में हरजा नहीं अथवा छोटा बच्चा साथहो. वासावासं पज्जोसवियस्त निग्गंथस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए उवागच्छित्तए, तत्थ नो कप्पइ एगस्त निग्गंथएस एगाए य अगारीए एगयत्रो चिट्टित्तए, एवं चउभंगी । for i इत्थ as पंचमयर थेरे वा थेरिया वा अन्नेसिं वा संलोए सपडदुवारे, एवं कप्पर एगो चिट्ठित्तए । एवं चैव निग्गंथी आगा रस्स य भाषियव्वं ॥ ३६ ॥ इस तरह ग्रहस्थी के घरमें गोचरी' साधु साध्वी जावे तो भी उपरकी तरह साधु साध्वी समझ कर खड़े रहवे. वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्मइ निग्गंथाण वा निग्गंथी वा अपरिणाएवं अपरिणयस्स अट्ठा असणं वा १ पाणं वा २ खाइमं वा ३ साइमंवा ४ जाच पडिगाहित्तए ॥ ४०॥ परिणए भुंजिज्जा, से किमाहु भंते ? इच्छा परो इच्छा परो न भुजिज्जा ॥ ४१ ॥ साधू को साध्वी को चोमासे में दूसरे साधू साध्वियों को बिना पूछे Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६) उनकी गोचरी न लाना क्योंकि उनकी इच्छा हो तो खाये नहीं तो नहीं खावं वी . पटना पडे. वासावामं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंधाण वा निगंथीण वा उदउल्लण वा ससिणिद्धेण वा काएणं असणं वा १ पा० २ खा०३ सा०४ पाहारित्तए ॥ ४२ ॥ से किमाहु भंते ? सत्त सिहाययणा पण्णत्ता, तंजहा पाणी १, पाणिलेहा २, नहा ३, नहसिहा १, भमुहा ५, अहरोठ्ठा ६, उत्तरोट्ठा ७ । अह पुण एवं जाणिज्जा-विगयोदगे मे काए छिन्नसिणेहे, एवं से कप्पड असणं वा १ पा० २ खा० ३ सा०४ ग्राहारित्तए ।। ४३ ।। साधु साध्वी के शरीर उपर पानी टपकता हो तो उस समय खाना न कल्पे क्योंकि दो हाय, दो हाथ की रेखायें नख, नख शिखा, भ्रकुटी, डाही, मृछ, वो वर्षा के पानी से भीगत रहते हैं वे मूख जान की प्रनीति होवे तब गोचरी कर जिसस सचित पानी के जीवों की विराधना न होवे. वामावासं पज्जोसवियाणं इह खलु निग्गंथीण वा निग्गंधीण वा इमाई अट्ठ-सुहुमाइं, जाई छउमत्येणं निग्गौण वा निग्गंथीए वा अभिक्खणं २ जाणियबाई पासिब्बाइ • पडिलेहियबाई भवंति, तंजहा-पाणसुहुमं १, पणगसुहुमं २, बीअसुहुमं ३, हरियसुहुमं ४, पुप्फसुहुमं ५, अंडसुहुमं ६. लेएसुहुमं ७, सिणेहसुहुमं ८ ॥४४॥ . चौमासा में रहे हुए आट मुक्षयों को अच्छी तरह समझना और वारंवार उनकी रचा करने का उद्यम करना. १ मुन्म जीव, २ मूक्ष्म काई ३ वीज ४ वनस्पति ५ पुष्प ६ अंडे ७ बिल ८ अपकाय उन सब की रक्षा करनी. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) · से किं तं पाप सुहुमे? पाणसुहुमे पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा -किरहे १. नीले २, लोहिए ३, हालिदे ४, सुकिल्ले ५ । अस्थि कुंथु अशुद्ध नामं, जा ठिया अचलमाणा उमत्थाणं निग्गंथाण वा निग्गंथी वानो चक्खफासं हव्वमागच्छह, जा अट्ठिया चलमाणा छउमत्थाएं निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चक्खुफासहव्वमागच्छह, जा छउमत्थेणं निग्गंथेण वा निग्गंथीए वा भिक्खणं २ जाणियव्वा पासियन्वा पडिले हियव्वा हवइ, से तं पासहुमे ९ ॥ से किं तं पणगसुहुमे ? पणगस हुमे पंचविहे पत्ते, तंजहा, -किरहे, नीले, लोहिए, हालिदे, सुकिल्ले । श्रत्थि पण सुहुमे तद्दव्वसमाणवरणे नामं पण्णत्ते, जे मत्थे निग्थे वा निग्गंथीए वा जाव पडिलेहिश्रव्वे भवइ । से तं पण सहुमे २ || से किं तंबीहुमे ( २ ) पंचविहे पण्णत्ते, तजहा -किरहे जाव सुकिल्ले । प्रत्थि बीच सहुमे करिणयासमाणवरणए नामं पन्नत्ते, जे छउमत्थेणं निग्गंथेण वा निग्गंथी वा जाव पडिले हियव्वे भवइ । से तंबी सुहुमे ३ ॥ से किं तं हरियसुहुमे ? हरियसुहुमे पंचविहे परणते, तं जहा - कि हे जाव सुकिल्ले । अस्थि हरि सहुमं, पुढवीसमाणवरण नामं पण्णत्ते, जे निग्गंथेण वा निग्गंथीए वा - भिक्खणं २ जाणियव्वे पासियन्वे पडिलेहियव्वे भवइ । से तं हरियसुहुमे ४ ॥ से किं तं पुप्फसुहुमे ? पुप्फसुहुमे पंचविहे फ गणते, तंजहा -किरहे जाव सुकिल्ले । श्रत्थि पुप्फसुहुमेरुक्खमाणवरणे नामं पण्णत्ते, जे छउमत्थेणं निग्गंथेण वा निग्गंथीए वा जाणियव्वे जाव पडिलेहियव्वे भवः । से तं पु २८. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१= ) फसुहु ५ ॥ से तं सुहुमे ? हुमे पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा - उद्दंडे, उक्कलियंडे, पिपीलिथंड, हलिश्रंड, हल्लोहलिअंडे, जे निग्गंथेण वा निग्गंथीए वा जाव पडिले हियव्वे भवइ । से तं अॅडसुहुमे ६॥ से किं तं लेणसुहुमे ? लेपसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते, संजहा- उत्तिंगलेणे, भिंगुले, उज्जुए, तालमूलए, संयुक्कावट्टे नामं पंचमे, जे निग्गथेण वा निग्गंथीए वा जाणियब्वे जाव पडिलेहियव्वे भवइ । से तं लेण सुहुमे ७ ॥ से किं तं सिहसुहुने ? सिंह सुहुमे पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा उस्सा, हिमए महिया, करए हरतपुए । जे छउमत्थेयं निग्गंथेण वा निग्गथीए वा अभिक्खणं २ जाव पडिलेहियव्वे भवइ । से तं सिणेहसुडुमे ८ ॥ ४५ ॥ पांच रंग के कंथुएं होते हैं वे चलने से ही जीव मालूम होते हैं नहीं तो काले हरे लाल पीले धोले रंग के दीखे तो भी उनमें जीव का ज्ञान नहीं हो सक्ता इसलिये वरतन वस्तु पूंजकर देखकर उपयोग में लेवे जिससे उन जीवों की विराधना न होवे, साधु साध्वी मस्त है इसलिये उनको निरन्तर उपयोग रखकर चारित्र का निर्वाह करना. गुजरात में जिसको नीलण फुलण बोलते हैं वो जहां पर हवा शरद रहवे वहां पर चोमासा में पांचों वर्ग की पनक ( काई ) होजाती है इसलिये ऐसी जगह पर बहुत यतना से प्रति लेखना प्रर्भाजन कर उन जीवों की साधु साध्वी रक्षा करे क्योंकि जैसे रंग की वस्तु हो वैसीही वो पनक होजाती हैं उसी तरह पांच रंग के बीजे, वनस्पति और पुष्प भी जानने पांच जाति के अंडे माखी वा खटमल के अंडे, मकड़ी के कीड़ी के, छिपकली, किरला ( किरकांडिया ) के अंडे उनकी अच्छी तरह यतना करनी. पांच प्रकार के वील उत्तिंग ( ) के, पानी सूखने से तालाब के बील, मामूली बील, ताडमूल ( उपर से बड़े भीतर से छोटे ) बील, भंवरे के बील उन में जीव होते हैं उनकी यतना करनी. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) आकाश का पानी, बरफ का पानी, घूमर ( ओस ) का पानी, ओला, तृण वा हरिपर पडा पानी उनकी यतना करना साधु साध्वी का कर्त्तव्य है. वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा गाहावइकुलं भत्ता वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, नो से कप्पर अापुच्छित्ता आायरियं वा उवज्झायं वा थेरं पवित्ति गणिं गणहरं गणावच्छेअयं जं वा पुरओ काउं विहरह, कप्पर से पुच्छिउं प्रायरियं वा जाव जं वा पुरो काउं विहरइ - 'इच्छामि णं भंते तुम्भेहिं श्रन्भरणाए समाणे गाहावइकुलं भत्ता वा पाणाए वा निक्खमि० पविसि० ते य से वियरिज्जा, एवं से कप्पर गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमितएवा जाव पविसित्तए, ते य से नो वियरिज्जा, एवंसे नो कपs गाहाइकुलं भत्ता वा पाणाए वा निक्खमिं० पविसि०| सेकिमाहु भंते ! ? आयरिया पञ्चवायं जाणंति ॥ ४६ ॥ चौमासे में साधु साध्विओं को अपने बडे को पूछकर उनकी आज्ञानुसार गोचरी पानी के लिये गृहस्थिओं के घर को जाना आना कल्पे क्योंकि बड़े पुरुष आचार्य उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्त्तक, गणि गणधर गणावच्छेदक अथवा जिसको वडा बनाया हो वे साधु साध्वी को परिसह उपसर्ग आवे तो रक्षा करने में वे समर्थ है और उसका ज्ञान उन महान् पुरुषों को है. एवं विहारभूमिं वा त्रियारभूमिं वा अन्नं वा जंकिंचि पणं, एवं गामा गामं दूइज्जित्तए ॥ ४७ ॥ मंदिर जाना हो, अथवा और कोई कार्य हो तो वो ही बडे पुरुष को पूछकर करना पुरुष है. इसी तरह स्थंडिल जाना हो करना हो जाना हो दूसरे गांव जाना जाना क्योंकि वे ज्ञाता और समर्थ वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा अरणयरिं Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२०) विगई श्राहारित्तए, नो से कप्पड़ से अणापुच्छित्ता पायरियं वा जाव गणावच्छेययं वा जं वा पुरयो कडु विहरड़, कप्पड़ से प्रापुच्छित्ता पायरियं जात्र श्राहारित्तए-'इच्छामि एं भंते ! तुम्भेहिं अभयुशणाए समाणे ग्रन्नरिं विगई पाहारित्तएतं एवड्यं वा एवइग्बुत्तो वा, ते य से वियरिजा, एवं से कप्पइ अण्णयरि विगई प्राहारितए, ते य से नो वियरिज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णयार विगई अाहारित्तए, से किमाहु भंते ! ? अायरिया पचवायं जाणंति ॥ १८ ॥ __साधु को कोई भी जानि की भन्य विकृति दुध दही वगरह वापग्नी हो तो बड़ों को पूछना जो यात्रा देव नो लाने को जाना और लाके वापरे परन्तु आज्ञा न देव तो नहीं लाना क्योंकि विकृति से क्या लाभ हानि होगी वह पहिले से गुरु महाराज जानत है. वासावाम पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा ग्रगणयरिं तेइच्छिय (तगिच्छं) ग्राउट्टित्तर, तंचव सब्बं भाणियब४ि६॥ कोई साधु साध्वी दवा कगने की इच्छा को तो भी बड़ों को पूछकर करे. वासावासं पज्जोसविए भिक्ख इच्छिज्जाअरण्यरंगोरालं कल्लाणं मिवं घराणं मंगल्लं सस्सिरीयं महाणुभावं तबोकम्म उपसंपज्जिना एं विहारित्तए, तं चेव सव्वं भाणियलं ॥५॥ माधु का उदार कल्याण शिव धन्य मंगल सश्रीक महानुभाव तप को करना हो तोभी पूछकर करे. वामावासं पज्जासविए भिक्खू इच्छिज्जा अपच्छिममारणतियसंलहणाजूमणाजुमिए भत्तयाणपडियाइक्खिए पायो वगए कालं अणवखमाणे विहरित्तए वा निक्वमित्तार वा. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२१) पविसित्तए वा, असणं वा १ पा० २ खा० ३ सा० वा ४ श्राहारित्तएवा, उच्चारंवा पासवणं वा परिठ्ठावित्तए, वा सज्झायं चा करित्तए, धम्मजागरियं वा जागरित्तए । नो से कप्पई. प्रणापुच्छित्ता तं चेव सव्वं ॥ ५१ ॥ इस तरह संलखना अनसन कर अन्तकाल करना हो वा भात पानी का पच्चखाण करने वाला हो, पादोपगमन अनसण करना हो, अथवा बहार जाना आना स्थंडिल मात्रा करना हो पढना हो रातभर जागना हो तो बड़े को पूछकर करे. ' वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अण्णायरिं वा उवहिं पायावित्तए वा पयावित्तए वा । नो से कप्पइ एगं वा अणेगं वा अपडिएणवित्ता गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमि० पविसि० असणं १ पा० २ खा० २ सा० ४ आहारित्तए, बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा सज्झायं व करित्तए, काउस्सगं वा ठाणं वा ठाइत्तए । अस्थि य इत्थ केइ अभिसमरणागए अहासरिणहिए एगे वा अणेगे वा, कप्पड़ से एवं वइत्तए-'इमं ता अज्जो ! तुमं मुहुत्तगं जाणेहि जाव ताव अहं गाहावइकुलं जाव काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तर' से य से पडिसुणिज्जा , एवं से कप्पइ गाहावइ० तं चैव'! से य से नो पडिसुणिज्जा, एवं से नो कप्पइ गाहावइकुलं,जाव काउस्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए ॥ ५२ ॥ वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपोंछन, अथवा और कोई उपाधि ( वस्तु ) को धूप में तपानी हो एकवार वा वारंवार सुखानी होतो एक वा ज्यादह साधु को कहकर केही जाना, बाहर गोचरी पानी लाने को जाना हो, अथवा गोचरी करने Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) बैठना हो, अथवा मंदिर में जाना हो, अथवा स्थंडिल जाना हो, पढने को चैठना हो, अथवा काउसग करना हो तो उनको पूंछना वह मंजूर करे और सुखाई वस्तु की रक्षा वह करे तो वाहर जासके और जो दूसरा साधु मंजूर न करे तो कुछ भी कार्य उस समय नहीं करना (क्योंकि वर्षा आजावे तो वस्तु विगड़ जावे). वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा अणभिग्गहियसिज्जासणियाणं हुत्तए, आयाणमेयं, अणभिग्गहियसिज्जासणियस्स अणुचाकूइयस्स अणट्ठावंधियस्स अमियासणियस्स प्रणातावियस्स असमियस्स अभिक्खणं २ अपडिलेहणासीलस्स अपमज्जणासीलस्स तहा तहा संजमे दुराराहए भवइ ॥ ५३॥ चोमासा में साधूओं को पाट तखता चौकी विना सोना बैठना न कल्पे, जो न रखे, या पाट तखते को स्थिर न कर हिलते रखे, दूसरे जीवों को पीड़ा करने को ज्यादह रखे, धूप में न सुखावे, इर्या समिति न रखे, प्रति लेखना वारंवार न करे, ऐसे प्रमादी साधूओं को संयम कठिन होता है अर्थात् ज्यादह दोप लगाकर अशुभ कर्म वांधते हैं. अणादाणमेयं, अभिंग्गहियसिज्जासणियस्स उच्चाकूइयस्स अट्ठावंधिस्स मियासणियस्स प्रायावियस्स समियस्स अभिक्खणं २ पडिलेहणासीलस्स पमज्जणासीलस्स तहा २ संजमे सुधाराहए भवइ ॥ ५४॥ . किन्तु पाट चौकी वापरने वाले प्रमार्जन पहिलेहण करने वाले अप्रमादी साधु संयम सुख से अच्छी तरह पाल सकेगा अर्थात् जीव रक्षा अच्छी तरह कर सकेगा और सद्गति मिला सकेगा. वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गथाण वा निग्गथीण वा तो उच्चारपासवणभूमीनो पडिलेहित्तए, न तहा Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२३ ) हेमंतगिम्हासु जहा णं वासासु, से किमाहु मंते ! ? वासासु णं उस्सरणं पाणा य तथा य बीया य पणगा य हरियाणि य भवंति ॥ ५५ ॥ चौमासा मे साधू को साध्वी को स्थंडिल मात्रा को भूमि को तीन वक्त अच्छी तरह देखनी चाहिये आठ मास सिवाय चार में वनस्पति और सूक्ष्म जन्तु ज्यादा होते हैं उनकी यतना के लिये चौमासा का आचार अलग बताया है. वासावासं पज़्जोसवियाणं कप्पर निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तत्र मत्तगाई गिरिहत्तए, तंजहा - उच्चारमत्तए पासवमत्तए, खेलमत्त ॥ ५६ ॥ चोमासा में साधु साध्वी को मल परठवने के लिये तीन मात्रक (मट्टी के पात्र वा काष्ट पात्र ) रखने, कि स्थंडिल, मात्रा और श्लेष्म वगैरह के लिये काम लगे. वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथी वा परं पज्जोसवणाओ गोलोमम्ममाण मित्तेवि केसे तं रयणि उवायणावित्तए । अज्जेणं खरमुंडेण वा लुकसिरए वा होइयव्वं सिया । पक्खिया रोवणा, मासिए खुरमुंडे, मासिए कत्तरिमुडे, छम्मासिर लोए, संवच्चरिए वा थेरकप्पे ॥ ५७ ॥ वर्षाऋतु में पर्युपणा (संवच्छरी ) से आगे सिर पर के लोग जितने भी बाल नहीं रहना चाहिये अथवा रोगादि कारण बालकतरावे वा मुंडन कराना किन्तु प्रति पन्दरह दिन में कतराना, प्रतिमास मुंडन कराना युवान को छे छे मास में लोच कराना, और वृद्ध की आंख की कसर हो वा बाल थोड़े हो तो एक वर्ष में कराना. वासावासं पज्जोसविप्राणं नो कप्पड़ निग्गंथाण वा नि Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२४) ग्गथीण वा परं पज्जोसवण यो अहिंगणं वइत्तए, जे णं नि गंगथी वा निग्गंथो वा परं पज्जोसवणाओ अहिगरणं वयइ, से णं 'अकप्पेणं अज्जो ! वयसीति" वत्तब्वे सिया, जेणं निग्गंथो वा निग्गंथीवा परंपज्जोसवणाप्रो अहिगरणं वयइसे एं निजहियब्बे ॥ ५८ ॥ ___ साधु साध्वी को पर्युपणा पर्व से ज्यादह आपस में मलीन भाव न रखना चाहिये. कोई क्रोधादि करे तो दुसरं साधु शांति रखने को कहवे किन्तु कहने पर भी क्लेश करे तो उसका अलग रखना कि दूसरे साधूओं को असमाधि न होवे. वासावासं पज्जोसवियाएं इह खलु निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा अज्जेव कक्खडे कडुए बुग्गहे समुप्पज्जिज्जा, सेहे राइणियं खामिज्जा, राइणिएवि सेहं खामिज्जा (प्र. १२०० ) खमियव्यं खमावियव उवसमियब्वं उवसमाविगव्वं संमुँइसंपुच्छणावहुलणं होयचं । जो उसमइ तस्स अस्थि राहणा, जो न उवसमइ तस्स नत्थि अाराहणा, तम्हा अप्पणा चेव उपसमियव्यं, से किमाहु भैते ! ! उवसमसार खु सामप्पं ॥ ५ ॥ चौमास में स्थित साधु साध्वी को कटु शब्द आक्रोश का शब्द लड़ाई का शब्द उत्पन्न होगया हो तो छोटा साधु बड़े को खमावं. वड़ा भी उसको खमाले। क्योंकि खमाना क्षमा करना शांति रखना शांति उत्पन्न कराना परस्पर पवित्र भाव से अच्छी बुद्धि से सुखशाता पूछकर परस्पर एकता करनी क्योंकि जो खमावे उसको आराधना है न खमारे उसको आराधना नहीं है। वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पड़ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा तो उवस्सया गिप्हित्तए, त०वेउब्बिया पडिलेहा साइज्जिया-पमज्जपा ॥ ६० Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२५) साधू साध्वी को चोमासे में तीन उपाश्रय होना चाहिये उसमें एकमें जो वारंवार उपयोग होता होवे उसकी वारंवार अर्थात् दिन में तीन वक्त प्रमार्जना करनी और आंखों से देखते रहना दो उपाश्रयों को दृष्टि से रोज देखना तीसरे दिन उसका काजा लेना. वासावासं पज्जोसवियाणं निग्गंथाण वा निग्गयीण वा कप्पइ अप्णयरिं दिसिंवा अणुदिसिं वाअवगिझिय भत्तपाणं गर्वसित्तए । से किमाहु भंते ! ! उस्सरणं समणो भगवंतो वासासु तवसंपउत्ता भवंति, तवरसी दुब्बले किलते मुच्छिज्ज वा पविडज्ज वा, तमेव दिस वा अणुदिसं वा समणा भगवंते पडिजागरंति ॥ ६१ ॥ कोई साधू साध्वी चोमासे में गोचरी जावे तो दूसरे साधू को कहकर जावे कि मैं उस दिशा में गोचरी जाता हूं क्योंकि तपस्वी साधू दुर्वल हो और रास्ते में थकजावे तो उसकी खबर लेने को दूसरा जावे. , वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा गिलाणहेउं जाव चत्तारि पंच जोयणाई गंतुं पडिनियत्तए, अंतरावि से कप्पड वत्थए, नो से कप्पइ तं रयपि तत्थेव उवायणावित्तए, ।। ६२॥ , चोमासे में रहे हुए साधू को चोमासे में औपध का कारण पडने पर चार पांच जोजन (चार कोस का जोजन होता है ) जाना कल्पे परन्तु पीछा लोटना वहां रात न रहना रास्ते में रात्रि होवे तो गस्ते में रहसक्ता है. । इच्चेयं संवच्छरिअं थेरकप्पं अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं अहातचं सम्मं कारण फासित्ता पालित्ता सोभित्ता तीरित्ता किंट्टित्ता प्राराहित्ता प्राणाए अणुपालित्ता अत्थेगइश्रा तेणेव भवग्गहणेणं सिझति मुचंति परिनिव्वाइंति सव्वदुक्खाणमंतं करिति, अत्थेगइमा दुच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झति जाव. सव्वदुक्खाणमंतं करिति, अत्थेगइया तच्चेणं भ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वग्गणेणंजाव अतंकरिंति, सत्तट्ठभवग्गहणाई नाइक्कमति दशा उपर कहा हुआ साधू का चोमासा का प्राचार जैसा मूत्र में बताया ऐसा योग्य मार्ग को समझकर सच्चा और अच्छी तरह मनवचन काया से सेवन, पालन, कर शोभा कर जीवित पर्यंत आराध कर दूसरों को समझाकर स्वयं पाल कर जिनेश्वर की आज्ञा पालन कर उत्तम निग्रन्थ उसी भवमें केवलज्ञान पाकर सिद्धिपद को पाकर कर्म बन्धन से मुक्त होते हैं शांति पाते हैं सब दुःखो से हटते हैं कितनेक दूसरे भव में वही पद पात है. कोई तीसरे भव में मोच पाते हैं किन्तु सात आठ से ज्यादह भव नहीं होते अर्थात् मोक्ष देने वाला यह कल्प सूत्र है इसलिये उसकी सम्यक् प्रकार आराधना करनी. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहें नगरे गुणसिलए चेइए वहूर्ण समणाणं वहणं समणणि वणं सावयाणं बहणं साविणाणं वहुएं देवाणं वहूणं देवीणं मझगए चेव एवमाइक्खह, एवं भासइ, एवं पण्णवेह, एवं परूवेइ, पज्जोसवणाकप्पो नाम अजयणं सअटुं सहेउग्रं सकारणं समुत्तं सअटुं सउभयं सवागरणं भुजो भुज्जो उवदंसेइ ति वेमि ॥ ६४ ॥ पज्जोसवणाकप्पो नाम दसासुअक्खंधस्स अट्ठमज्झयणंसंमत्तं ॥ (०१२१५.) . उस काल समय पर श्रमण भगवान महावीर ने राजग्रही नगरी गुण शैल चैत्य में बहुत साधू, साध्वी श्रावक श्राविका देव देवी की सभा में ऐसा कहा है ऐसा अर्थ समजाया है ऐसा विवेचन किया है ऐसा निरूपण किया है यह पर्युषणा ऋल्प नाम का अध्ययन हेतु प्रयोजन विषय वारम्बार शिष्यों के हिनार्थ कहा ऐसा अंत में श्रीभद्रबाहु स्वामी कहते हैं, कल्प सूत्र नाम का दशाश्रुत स्कंध का अध्ययन समाप्त । वीरोवीर शिरोमणि हदिरतः पापौघ विध्वंसकः । श्रेष्ठो मोह हरोनु मोहन मुनिः पन्यास हर्षस्तथा ॥ देवी दिव्य विमा सुधारस तनुः कंटे च वाणी स्थिता। तेषां पूर्ण कपा ममोपरियतो ग्रंथो मया ग्रंथितः ॥ १.!! 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