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(१३७) अर्थ बताने से समाधान होगया ३०० शिष्य के साथ दीक्षा ली मोक्षका संदेह ११ वा गणधर प्रभासजी को था जरामर्यं थदग्नि होत्रं. __' अर्थात् अग्निहोत्र मुक्ति के लिये नहीं है मुक्ति वांछक को अग्निहोत्रकी आ: वश्यकता नहीं अग्निहोत्र छोड मुक्ति का हेतु रूप अनुष्ठान को करो उनका समाधान होने से ३०० के साथ दक्षिा ली पांच के साथ २५०० दो के साथ ५०० चार के साथ १२०० कुल ४४०० शिष्य हुए और ११ उनके गणधर स्थापन किये.
तीर्थ स्थापना। इंद्र महाराज ने रत्नों से जड़ा हुआ सोने के थाल में सुगंधी चूर्ण ( वास क्षेप ) लाकर प्रभु को दीया प्रभुने खड़े होकर वास क्षेप की मुठी भरी अग्यारह गणधरों ने शिर प्रभु के चरणों में नवाये देवों ने हर्प नाद के वाजिंत्र वजाए पीछे इंद्रने वाजिंत्र बंद कराये गौतम इंद्रभूति बडे होने से द्रव्यगुण पर्याय से तीर्थ की माझा दी और मस्तक पर प्रभु ने वासनेप डाला देवों ने हर्पनाद किया पुष्प वृष्टि की. गच्छ परंपरा की आज्ञा सुधर्मस्वामी पंयम गणधर को दी.
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणं भगवं महावीरे अट्टियगामं निस्साए पढमं अंतरावासं वासावासं उवागए, चां चपिट्टचंपंच निस्साए तो अंतरावासे वासावासं उवागए, वेसालिं नगरिं वाणियगामं च नीसाए दुवालस अंतरावासे वासावासं उवागए, रायागहं नगरं नालंदं च बाहिरियं नीसाए चउद्दस अंतरावासे वासावासं उवागए, छ मिहिलाए दो भद्दिश्राए एगं
आलंभियाए एगं सावत्थीए पर्णिभूमीए एगं पावाए मज्झिमाए हस्थिवालस्त. रगणो रज्जुगसभाए अपच्छिमं अंतरावासं वासावासं उवागए ॥ १२१ ।।
प्रभुके चौमासा का वर्णन । अस्ति प्राम ( वर्धमान ) में पहिला चोमासा चंपा और प्रष्ट चंपा में तीन