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(२०४) चाहिय अपन का खानी नहीं चाहिय, किन्तु गुरुन वा श्रावकन अपने वास्त कहा होतो वीमार को नहीं देना यदि दानों के वास्त कहा हाती दोनों को कल्प.
वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निगंधीण वा हट्ठाणं तुट्ठाणं ग्रारोगाणं वलियसरीराणं इमा श्रो नव रमविगइयोअभिक्रएं २ग्राहारित्तए, तंजहा-खीरं १ दहिं २, नवणीयं ३, सप्पिं ४, तिल्लं ५, गुडं ६, महुँ ७, मज्ज ८, मसंह ॥ १७ ॥ ____ चौमासा में रहे हुए साधुओं को शरीर निरागी हो और शक्ति अच्छी होता नवविकृति विकार करने वाली वस्तु उपयोग में वारंवार लेनी न कल्प विकृति विगई नव है उन के दो विभाग हैं. दुध, दही, घी, तेल, गुड (साकर वगैरह ) यह वस्तु भक्ष्य है मक्खन, मधु ( गद) पद्य (शराव ) मांस, यह चार अमन्य है. भक्ष्य वस्तु खाने में काम लगती है अभक्ष्य वस्तु दवा में शरीर पर लगाने में काम लगती है किंतु इन नव विकृतिओं को वारंवार उपयोग में चौमासा में नहीं लेना चाहिय. उसमें भी मदिरा और मांस का तो प्राणांत कष्ट आवे तो भी उसका वाद्य उपयोग करना नहीं चाहिये किन्तु प्राण न निकल आध्यान होवे घर को जा न सके छोटी उम्र हो असाध्य रोग हो दुसरे साधुओं को पीड़ा होनी ही पढ्न पाठन में विघ्न होता होनी कृपासागर आचार्यों ने ऐसे जीवों के समाधि के लिये बाह्य उपयोगार्थ कारणवशात् यह दो शब्द रकाले और उसका भी अच्छे होने वाद महान् प्रायश्चित है वह मायश्चिन अधिकार गुरु गम्य है इत्यादि विचार बड़े पुरुषों से जान लेना क्योंकि मांस मदिरा का स्त्रम में भी भागने का विचार माधु न कर ऐसा मृयगडांग मूत्र में कहा है:
द्वितीय श्रुतस्कंध में छ? अध्ययन में ३५ वी गाथा से ४० गाथा तक वही अधिकार है. ( प्रसंगोपात् यहां पर लिखते हैं कि वालजीच भ्रम में न पड़े.
जीवाशुभाग मुत्रिनियंता, आहारिया अन्न विहाय साहि । न त्रियागंर छन्न पऑपनीची, एमाणुधम्मो इह संजयाणं ॥ ३५ ॥