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(२०५) मिणायगाणं तुद्वं सहस्प, न भायण निहग भिरघुयाणं । असंजए लोहिय पाणि संऊ, नियन्छत गरिहं मिहवलांग ।। ३६ ।।
जीवों की दया चितवन कर अन्न शुद्धि देखकर आहार लेकर खाये किंतु पात्रा में मांस पढा भी दोष के लिये नहीं है ऐमा न को किन्तु निष्कपटी होकर संजम धर्म पाल एसा जैन माधु का आचार है ( यह वचन बौद्धों को शिक्षा के लिये कहा है ) फिर कहा है कि आप याद साधु ना गया जट करने हो कि साधुओं को मांस से भी दो हजार वर्ष भोजन ना ये आपको दुनि
धूल उरम्भं इहमारियाणं, उदिट्ट भत्तं च पग्गप्पाना । नंलोण तेलेण उवावडेता, सपिप्पलीयं परंती मांग ॥ ३७ ।। नं नमाणा पिसिनपभूतं, ण उबलिप्पापो वयं रएग। इचेच माहंगु अणज धन्, अथारिया वाल समुगिद्धा ॥ ३८ ॥
जो वाल अनार्य है व रसगर होकर जीवों को मारकर उसकी नल लग से स्वादिष्ट कर खाने हैं और कहने हैं कि हम ना पाप में लिप्त नहीं होने.
आर्द्रकुमार फिर भी करने है कि:-- जेयावि भुनंनि नहपगार, सेवंतित पाचग जाणपाणा । मगन एवं कुसला कर्गत, वायापि एमात्रुदयाउ मिन्छा ।। ३६ ।।
जो पाप को नहीं जानन व परभव का दर निमको न या नाम नी मानते ही एमा पूर्व कथित मांग का आहार यान है परन्तु जनार्म पत्ता मंधावी कुगल पुरुप मनमें भी माम ग्वान की धचिनापा न करे न गंगा प्रकार वचन बॉल कि मांस खान से पाप नहीं है.
फिर भी माधु का प्राचार करने हैं:
सम्वमि जीनाग दहयाए, गारन्जदाम पग्विनगंना, नमारिणी समिती नायपुत्ता उदिहं भगंगग्विनयंनि ॥ १० ॥
सब जीवों की दगा के लिंग पाप हिंसा को भगान मfriers माधु रदिट्ट भोजन अवान् मायरिय बनायामा मन भी न लाना हावित यह मेरे लिंग बनाया। नोभी न लंग. श्रीर गला पगारपादने Ti भनय किया वह जैन धमनीमारने बाद मांगनायामा
पान