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पास सो वस्त्र के सिवाय कुछ न था आपा वस्त्र फाड़ के दिया ब्राह्मण ने शरम से दूसरा आधा मांगा नहीं, जब कांटे पर लगा कि उठा लिया वो देव दुष्य आखा मिलने से सवा लाख स्वर्ण मुद्रा का मालिक हुआ. दीक्षा से एक मास वाद आधा मिला और एक वर्ष पीछे फिरने से दूसरा आधा मिला. (आधा वस्त्र ही प्रभु ने प्रथम क्यों दिया उसके कारण आचार्य अनेक बताते हैं कि प्रभु ने ब्राह्मण कुक्षि में जन्म लिया वह कृपण वृत्ति सूचन की. कोई कहते हैं कि मेरी संतति (शिष्य समुदाय ) मेरे बाद कपड़े पर मूर्या रखने वाली होगी) वाद संतुष्ट होकर ब्राह्मण चला गया.
प्रभु के शुभ लक्षण पर इन्द्र की भक्ति. प्रभु जब विहार कर गंगा के किनारे पर आये वहां कोमल सुक्ष्म रेती में और कीचड़ में "प्रभु अमीन पर 'पैरों की श्रेणी में छत्र ध्वजा अंकुश वगैरह उत्तम लक्षण देखकर एक ज्योतिषी विचारने लगा कि यह चिन्ह वाला चक्रवर्ति होगा अभी कोई कारण से एक्रिला फिरता है उस की सेवा करने से लाभ होगा ऐसा विचार कर पीछे पीछे आया प्रभुको भिक्षुक अवस्था में देखकर अपना जोतिष जून मानकर शास्त्रो को उठाकर गंगामें डालने को चला ईन्द्रने वो बात जानकर एकदम आकर कहा कि तेरा ज्योतिष सच्चा है ये भिक्षुक नहीं है इंद्रों को भी पूज्य है थोड़े रोज में केवल ज्ञान पाकर तीन लोक में पूज्य होंगे आज भी उनका शरीर पसीना मल और रोग से मुक्त है श्वासो श्वास सुगंधि है रुधिर मांस सफेद है ऐसा कह कर इंद्रने पुष्प नामका ज्योतिषी को प्रसन्न करने को मणिकुंडल वगैरह धन देकर खुश किया ईद्र और पुष्प सामुद्रिक दोनों अपने स्थान को गये, प्रभुजी समभाव रखकर दूसरे स्थान को चलेगये.
समणे भगवे महावीरे संवच्छरं साहियं मासं जाव चीवरधारी होत्था. तेण परं अचेलए पाणिपडिग्गहिए ॥ समणे भगवं महावीरे साइरेगाई दुवालस वासाई निचं वोसट्टकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जति, तंजहा-दिब्बा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा,अणुलोमा वा पडिलोमा बा,.