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(११०) ते उप्पन्न सम्म महइ खमइ तितिक्खइ अहियासह ।। ११५ ।।
श्रमण भगवान महावीर का दीक्षा का छमस्त काल ।
महावीर प्रभु माडा बारह वरस से कुछ अधिक छद्मस्त अवस्था में रहे उम समय में निरन्तर गरीर की मुश्रुपा ममत्व भाव छोड़कर देवना मनुष्य नियंच पशु ( वगैरह ) की नरफ मे जो उपसर्ग (पीडा ) होता था वो मब उन्होंने मम्यक् प्रकार से महन किया.
(जैनधर्म में ऐसी मान्यता है कि जीवन जीपूर्वकाल में कृत्य किये उसका फल वर्तमान काल में भोगना है भोगने के समय में चाहे अनुकूल उपमर्ग चंदन का लेप कोई करे अथवा प्रतिकूल चाहे भरीर में कांटा भोके तो भी हर्ष शोक नहीं करना समभाव रखने से ही केवलनान और मुक्ति होती है.)
महावीर प्रभु ने अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग कस सहन किये हैं वो लिखते हैं.
(१) प्रभु का पहिला चौमासा मांगक सन्निवत्र से निकलकर शुल पाणी मन के चत्व में हुआ.
शुलपाणी की उत्पत्ति ।। धनदेव नामका कोई व्यापारी ५०० गाड़ी के साथ नदी उतरना था मत्र गाडीएं कीचड़ और रती में से नहीं निकल सकी और बैलों में नाकन नहीं होने में एक बैल जो बड़ा तंजदार उत्साही या उसने मालिक की कनन्नता हृदय में रखकर पांच सौ गाडीएं एक रकर वहार निकाली मालिक की कार्य सिद्धि हुई । परन्तु वल की हड्डीप टूटगई उसको वहां ही छोड़ना पड़ा किन्तु पोपण रचण के लिंय नजदीक में वर्धमान (बर्दवान वंगाल में है ) गांव के नेताओं को बुलाकर बैल और धन अर्पण किया नेताओं ने खबर नहीं ली बैल भूख से मरा परन्तु शुभ ध्यान से देव हुआ वो व्यंतरदेव ने पूर्वभव का हाल देखकर क्रोधायमान होकर वर्षमान गांव में मरकी का रोग फैलाकर बहुत से आदमी
ओं को मारे मुर्दे उठाने वाले नहीं मिलने से (हड्डी) अस्थियों का ढेर हुआ गांव का नाम भी अस्थिक होगया लोगों ने डरकर देव को प्रसन्न कर पूछा उसने अपना मंदिर बनाने को कहा और लोग भी अपनी रचा के लिये पूजन