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(१५०) पार्श्वनाथ दन, दक्ष मनिका वालं, मुन्दर, गुणवान सरल स्वभावी और विनयवान थे.
पाश्रनाय प्रभुन एक दिन नेम और ग़जीमान का चित्र देखा वैराग्य आया और लोकांतिक देवन मधुर शब्द से प्रार्थना भी की और, जय जय नंदादि मन्दों की उद्यापणा की.
पुबिपि णं पासस्स णं अरहयो पुरिमादापीयस्स माणुस्सगारो गिहत्यधम्मायो अणुत्तरे श्राभोडा तं चेव सर्व-जाव दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता जे से हेमंताणं दुच्चे मासे तच्च यक्व पोसबहुले, तस्म णं पामबहुलस्त इक्कारसीदिवसे णं पुबराहकालसमयमि विसालाए सिविधाए सदेवमणुप्रासुराए परिसाए, तं चव सन्चं, नवरं वाणारसि नगरिं मज्झमझणं निग्गच्छह निग्गच्छित्वा जेणेव आसमपए उज्जाणे, जेणेव असोगवरपायवे, तेणेव उवागच्छह, उवागच्छिचा असोगवरपायवस्स ग्रह सीयं ठावइ, ठावित्ता सीयायो पचोरुहई, पच्चोरुहिता सयमेव ग्राभरणमल्लालंकारं अोमुग्रह, प्रोमुहत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोग्रं करेइ, करित्ता अट्ठमेणं भत्तणं अयाणएणं विसाहाहि नक्खचणं जोगमुवागएणं एगं देवदूसमादाय तिहिं पुरिससरहिं सद्धिं मुंडे भविता अगारायो अणगारियं पब्वइए ॥ १५७ ।।
पूर्वसे तीन ज्ञान और जान से दीक्षा का दिन भी जान लिया था जिस से वार्षिक दान दिया और भाईओं को बांटकर दिया. और पास बदी ११ के दिन पहली पारमी में विशाला शिविका में बैठ कर देव मनुष्यों की सभा साय वाणारसी नगरी से निकल कर आश्रम पद उद्यान में जाकर अशोक वृक्ष की नीचे पालकी रखी नब भगवान ने नीकल कर आभरण दुगकर अपने हाथ से