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( ३५ ) समणं भगवं महावीरं० गिरिहता जेणेव खत्तिभकुंडग्गामे नयरे, जेणेव सिद्धत्थस्स खत्तिस्स गिहे, जेणेव तिसला खत्तियाणी, तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता तिसलाए
खत्तिापीए सपरिजणाए भोसोअणिं दलइ, ओसोप्रणिं - दलित्ता असुभे पुग्गले अवहरइ, अवहरित्ता सुभे पुग्गले
अवहरइ, अवहरित्ता सुभे पुग्गले पक्खिवेइ, पक्खिवित्ता समर्ण भगवं महावीरं अव्वाबाहं अव्वाबाहेणं तिसलाए खत्तिआणीए कुच्छिसि गम्भत्ताए साहरई, जेविअणं से तिसलाए खत्तिश्राणीए गम्भे तंपिअणं देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिसि गम्भत्ताए साहरइ, साहरित्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए ॥ २८ ॥ "और उत्कृष्ट, त्वरित, चंचल, चंडा, जयणा, इत्यादि अधिकाधिक शीघ्र दिव्य देव गति द्वारा चलकर तिर्यग् दिशा में असंख्याता द्वीप समुद्र को पार कर जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के कुंड ग्राम में अर्थात् जहां देवानंदा की कूख में महावीर प्रभु विराजमान हैं वहां आया और भगवान के दर्शन कर नमस्कार किया देवानंदा ब्राह्मणी को अवसर्पिणी नामकी अंचत निद्रा में लीन कर अशुभ पुद्गलदूर कर शुभ पुद्गल रख कर तथा भगवान से आज्ञा मांगता हुवा हरिण गमेपी देवता ने भगवान को किंचित्मात्र भी वाधा न होवे इस तरह के दिव्य प्रभाव से करतल संपुट में गर्भ को लेकर अर्थात् भगवान महावीर को लेकर क्षत्रिय कुंड में त्रिशला क्षत्रियाणी के राज्य महल में गया वहां भी सर्व परिवार को तथा त्रिशला रानी को अवसर्पिणी निद्रा देकर शुभ पुद्गलों को रखता हुवा अशुभ पुद्गलों को दूर करता हुवा त्रिशला के गर्भ को निकालकर उसके स्थान में महावीर प्रभु को स्थापन किये सर्व को सचेत करता हुवा अर्थात् जो विद्या द्वारा निद्रा आगई थी उसको हरता हुवा त्रिशला के गर्भ को लेजाकर देवानंदा की कूख में रक्खा इस प्रकार से सर्व कार्य यथोचित पूरा कर हरिणगमपी देव अपने स्थान को पीछा गया.