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परिमाडित्ता अहासुहुमे पुग्गले परित्रादियइ ॥ २७ ॥
एसी इन्द्र महाराज की आजा सुनकर और सर्व वार्ता से जानकार होकर आनन्द संतोष से प्रफुल्लित हृदय वाला सेनाधिपति हाथ जोड़ कहने लगा कि ऐसा ही होगा अर्थात् आपने जैसा कहा है वैसेही करूंगा इस प्रकार कहकर
और इन्द्र की आज्ञा शिर चढ़ाकर ईशान कोन में जाकर वैक्रिय समुद्घात से अपने शरीर को बड़ा बनाकर (समुद्घात की व्याख्याः -जीव के प्रदेशों को फैलाकर एक संख्याता जोजन का दंड बनावे और उस दंड को उत्तम जाति के रत्न जैस कर्कनन, बार्यनील, बज्र, लोहितात, मसारगल, हंसगर्भ पुलक, सौगंधिक, ज्योतिःसार, अंजनरत्न, अंजनपुलक, जातरूप, सुभग, अंक, स्फटिक, अरिष्ट इस प्रकार के सोलह जाति के रत्न उनके मूक्ष्म पुद्गल अर्थात् उत्तम पुद्गलों को लेकर मुशोभित कर और वादर पुद्गलों को धूलि की समान छोड़ देवे वैक्रिय समुद्यात कर कर ) उत्तर समुयात किया.
परियाइत्ता दुचंपि वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणइ, समो. हणित्ता उत्तरवेउब्बियरूवं विउबइ, विउवित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए जहणाए उडयाए सिग्धोए दिवाए देवगईए बीईवयमाणे २ तिरिअमसंखिज्जाणं दीवसमुदाणं मन्झमझणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे, जेणेव भारहे वासे, जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे, जेणेव उसभदत्तस्स माहणस्स गिहे, जेणेव देवाणंदा माहणी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता
आलोए समणस्य भगवनो महावीरस्त पणामं करेड़, करित्ता देवाणंदाए माहणीए सपरिजणाए बोसोवणिं दलई अोसोवाणिं दलित्ता असुभे पुग्गले अवहरह, अवहरित्ता सुभे पुग्गले पक्खिवइ, पक्खिवित्ता अणुजाणउ मे भयवंतिकटु समणं भगवं महावीरं अब्बावाहं अव्वाबाहेणं दिवेणं पहाब्बेणं करयलसंपुडेणं गिइ,