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(१२२) रसाड बनवाई (१४) चंडाला नाम के पक्षियों की चांचों से दुःख दिया (१५) प्रचंड वायु से दुःख दिया, ( १६ ) पीछे बड़ा वायु से दुःख दिया (१७) हजार धारवाला चक्र प्रभु उपर जोर से 'टाका' जिससे प्रभु जमीन के भीतर घुटण तक चले गये तो भी प्रभु को स्थिर देखकर (१८) दिन करके बोला कि रात्री पूर्ण होगई आप चले जाओ, प्रभु ने उपयोग देकर रात्रि जानली.
(१९) देवना ने देवरूप प्रकट कर कहा कि इच्छा होवे सो मांगलो तो भी प्रभु मौन रहे तो (२०) देवागनाओं के हाव भाव से चलायमान करना चाहा तो भी स्थित रह. ऐसे एक रात्रि में २० भयंकरं उपसर्ग करके चलायमान करने की कोशीश की तो भी प्रभु ध्यान में मग्न रहे न क्रोध किया.
[कवि कहता है कि क्रोध करने योग्य संगम था ना भी प्रभुने क्रोध न किया जिससे क्रोध स्वयं गुस्मा (क्रोध ) कर भाग गया ].
देवता दिन उगने बाद भी जहां प्रभु गोचरी जावे वहां श्राहार को अशुद्ध कर देता था जिससे ये मास तक आहार शुद्ध न मिलने से प्रभु भूखे रहे परन्तु अशुद्ध आहार न लिया अंत में वज्र गांव में भी देवता ने अशुद्ध
आहार करदिया वहां से भी प्रभु पीछे लोटे और कायोत्सर्ग में स्थित रहे जिस से देवना थक गया और प्रभु को शुद्ध ध्यान में देखकर अवधि नाम से निश्चय कर प्रभु को वंदन कर पीछा सौधर्म देवलोक तरफ चला प्रभु भी पीछे वन भूमि में गोचरी गये जहां पर एक गांवालण ने खीर से पारणा कराया जहां पर यमुधारादि पांच दिव्य प्रकट हुए.
इन्द्र का पश्चाताप दुष्ट को दंड. इन्द्र ने जब प्रशंसा की और संगम दुःख देने को गया और प्रभु ने सत्र दुःख सहन किया वो दुःख मन दिवाया ऐसा मानकर इन्द्रने के मास तक सब वार्जित्रादि शोख बंध कराकर आप उदासीन पणे बैठा था जय प्रभु का दुःख दूर हुआ परीक्षा भी पूरी होगई और अपना श्याम बदन लेकर संगम देव आने लगा इन्द्रने, उसके दुष्ट कृत्यों को याद कर विमुख होकर दूसरे देवों के साथ कहलाया कि यहां से तूं निकल ना मैं तेरा मुख देखना नहीं चाहता. इन्द्र कहुकम