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( ६३ ) संमाणित सकारिता संमाणित्ता तस्सेव मित्तनाइ नियय सयणसंबंविपरियणस्स नायाणं खत्तित्राण य पुरत्रो एवं क्यासी ॥ १०३ ॥
जिमन हो जाने बाद सब आसन पर बैठे. और स्वच्छ पानी से मुंह स्वच्छ कर महावीर प्रभु के माता पिता ने मित्र नाति निजक स्त्रजन परिवार ज्ञात जाति के क्षत्रियों को बहुत से फूल फल गंध माला वस्त्र आभूषण वगैर से सत्कार और सन्मान किया, और उन सत्र के सामने अपना हार्दिकभाव जो पूर्व में निश्चित किया था इस प्रकार प्रकट किया.
पुव्विपि णं देवापिया ! अम्हं एयंसि दारगंसि गब्र्भ वक्तंसि समासि इमेयारूवे अन्मतिथए चिंतिए जाव स. मुप्पज्जित्था - जप्यभिदं च णं म्हं एस दारए कुच्छिसि गभत्ताए वक्कंते, तप्पभिहं च णं अम्हे हिरणं बड्ढा मो सुवर येणं धणेणं जाव सावइज्जेणं पीइसक्कारेण श्रईव २ अभिवड्ढामो, सामंतरायाणो वसमागया य, तं जया एं - म्हं एस दारए जाए भविस्सह, तया णं अम्हे एयस्स दारगस्स इमं एाणुरूवं गुण्णं गुण निष्पन्नं नामधिज्जं करिस्सामो वद्धमाणुति ॥ १०४ ॥
हे हमारे रिस्तेदार स्वजन जाति वर्ग ! जिस समय से यह बालक गर्भ में या उसी समय से हमें हिरण्य सुवर्ण, धन धान्य राज्यादि सव उत्तमोत्तम वस्तुओं की और प्रीति सत्करार की अधिक वृद्धि होती रही है और सामंत राजा हमारे वंश में आगये.
ता अज्ज म्ह मणोरहसंपत्ती जाया, तं होउ णं म्हं कुमारे वद्धमाणे नामेणं ॥ १०५ ॥
उससे हमारे मनमें ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि जब हमारे यह लड़के का