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की भांति से मुनि को मारे थे वे मरने के समय अवधि ज्ञान को शुभ भाव से पाकर स्वर्ग में गये प्रभु वहां से कुपिल सन्निवेश को गये. भारक्षक, (कोटबाल ) ने चोर की बुद्धि से प्रभु को पकड़े परन्तु पार्थनाय की साध्वियें जो पावी बनगई थी उन विजया प्रगलभा ने पिछानकर समझाकर छुड़ा दिये ऐसा देखकर गोशाला प्रभु से अलग होगया किन्तु अशुभ कर्म से रास्ते में ५०० चोरों ने उसको बहुत कष्ट दिया.
जिससे फिर प्रभु के पास ही रहने का विचार कर प्रभु को ढूंढने लगा परन्तु मह तो वैशाली नगरी में जाकर लुहार की जगह में ध्यान में खड़े रहे थे, लुहार पहले बीमार था और दूसरी जगह गया था वहां से अच्छा होकर आया तब प्रभु को देखकर अपशकुन की शंका से क्रोधायमान होकर बेगुनाह प्रभु को मारने को घण लेकर आया इन्द्र को ज्ञात होजाने से उसी समय आकर लुहार को रोक कर दंड दिया वहां से प्रभु ग्रामाक सनिवेश में गए वहां पर विभेलक यच ने प्रभु का महिमा किया पीछे प्रभुजी शालिशीर्ष गांव के उद्यान में माय मास में कार्योत्सर्ग में रहे थे वहां पर त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में एक अपमान की हुई रानी मर के भ्रमण करती हुई व्यंतरी हुई थी उसने पूर्व भव का वैर याद करके प्रभु को दुःख देने को तापसी का वेश लेकर जटा में शीतल जल भर कर प्रभु उपर छांटा जाड़े की ठंडी में ठंडा पाणी वज प्रहार समान होता है जो दूसरा सहन नहीं कर सका और प्रभु ने समभाव से सहन किये जिससे वैर छोड़कर व्यंतरी स्तुति करने लगी प्रभु ने कष्ट के समय भी दो उपवास का नियम नछोड़ा जिससे निर्मल भाव से लोकावधि ज्ञान (जिससे रूपी द्रव्य जो लोक में है वो सब देखे ) उत्पन हुआ.
प्रमु वहां से विहार कर भद्रिका नगरी में आकर छठा चोमासा में चार मास का तप वगैरह विविध अभिग्रहों से दुष्ट कर्मों को दूर किये. .. छे मास बाद गौशाला फिर मिला गांव बहार पारणा कर आठ मास तक मगध देश में विना उपसर्ग विहार किया वहां से प्रभु ने विहार कर सातवा योमासा आलंभिका नगरी में चतुर्मासी तप से पूर्ण किया गांव पहार मभु ने पारणा कर प्रभु कुंडग सप्रिवेश में गए और वासुदेव के मंदिर में कार्योत्सर्ग