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(१४) परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए धाराहयनीवसुरभिकुसुमचंचुमालइयऊससियरोमकूवे विकसियारकमलनयणे पयलियवरकडगतुडियकेऊरमउडकुंडलहारविरायंतवच्छे पालंवपलंबमाणघोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरिअं चवलं सुरिंदे सीहासणाो अभुट्टेइ, अन्भुष्ठित्ता पायपीढायो पञ्चोरुहइ, पच्चोरुहिता वेरुलियवरिद्वेरिएंजणनिउणोवि(वचि)अमिसिमिसिं• तमणिरयणमंडिअायो पाउयात्रो प्रोमुत्रह, प्रोमुहत्ता एग
साडिनं उत्तरासंगं करेड, करिता अंजलिमउलिअग्गहत्थे तित्थयराभिमुहे सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ, सत्तट्टपयाई अणुगच्छिता वामं जाणुं अंचइ, अंचित्ता दाहिणं जाणुं धरणि अलंसि साह१ तिक्खुत्तो मुद्दाणं धरणियलंसि निवेसेड़, निवेसित्ता ईसिं पच्चुन्नमइ, पच्चुराणमित्ता कडगतुडिअथंभिप्रा
श्रो भुनाओ साहरेइ, साहरित्ता करयलपरिग्गहिनं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिंक्छ एवं क्यासी ॥ १४ ॥ ___ ऊपर लिखे अनुसार इन्द्र महाराज देवताओं की सभा में बैठे हुए अपने विपुल अवधि ज्ञान द्वारा जंबू द्वीप में देवानंदा की कुंख में श्रमण भगवंत श्रीमन महावीर स्वामी को देखकर अर्थात् अपने इच्छित पूज्य जिनेश्वर देव के दर्शन से मन में अति आनंदित हुए हृदय में बहुत हपायमान हुए उनके रोम २ कदंब के फूल के समान विकस्वर हुवे कमल के समान नेत्र और बदन को प्रफुल्लता प्राप्त हुई. भगवान के दर्शन से जिनको ऐसा इर्प हुवा है कि जिस के द्वारा उसके कंकण, वाहु रक्षक ( कडा ) वाजु वंध, मुकुट, कुंडल, हार इत्यादि हिलने लगगये है. ऐसा इन्द्र तुरंत सिंहासन से खड़ा होकर मणि रत्नों से जड़े हुवे बाजोट पर से नीचे उतर कर बंडुर्य श्रेष्ठ अंजन रत्नों से जडित् अति मनोहर मणि रत्नों से शोभित पावड़ियों को त्याग कर अर्थात् पगों में से निकाल कर एक अखंड निर्मल अमूल्य वन का उतरासन कर मस्तक में दोनों हाय की अंगुली रखकर अर्थान् दोनों हाथ जोड़ कर नीर्थंकर प्रभु के सन्मुख सान