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(२७) साधू निर्विघ्नतया नगर में पहुंचे वो सम्यकत्व से धर्म में रक्क होकर आयु विताई मरते समय पंच परमेष्टी मंत्र स्परण करने से वो पहला भव पुरा कर दूसरे भव में सौधर्म देवलोक में एक पल्योपम की आयु वाला देव हुवा तीसरे भव में मरिची नाम का भग्त महाराज का पुत्र हुवा प्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेव स्वामी के उपदेश सुनने से त्रैराग्य उत्पन्न हुवा जिससे उसने दीक्षा ली परन्तु एक समय गर्मी की मोमीप में रात्री की जलकी अत्यन्त प्यास लगी परन्तु चारित्र धर्म के अनुसार रानको जल नहीं पी सका इससे पिहित होकर घर जाने की मन में ठानी पर लज्जावश घर नहीं जासका। और स्व इच्छानुसार साधू भेप को त्याग कर नया भेष (वाना ) पहन लिया साधु तीन दंड से रहित हैं पर में तीन दंड सहित हूं इसलिये त्रिदंडि साधु अर्थात् मेरे पास ३ दंड का चिन्ह हो, साधू एप भाव से लाच करं पर में ऐसा नहीं कर सका इसलिये शिखा रखेंगा और बाकी सिर मुडवाऊंगा साधू सब प्राणी की रक्षा करते हैं पर में अशक्त होने से देश विरती हूं साधू शीलवत पालन करने से सुगन्धित है पर में एसा नहीं इसलिये वावना चंदन इत्यादि का लेपन करूंगा साधू सर्वधा मोह रहित हैं पर में एमा नहीं इमलिये मुझे छत्र और पग में पावडी हो, साधू क्रोधादि कपाय रहित है।
और में क्रोधादि कपाय सहित हुं इसलिये मुझे गैरु रंग का वस्त्र हो साधू निर्वध है पर मैं एमा नहीं इसलिय स्नान इत्यादि करूंगा इस प्रकार से लोगों में अपने स्त्ररूप प्रकट करता हुवा ग्रामानुग्राम विचरने लगा, भोले लोग आकर धर्म पूछते तो उन्हें सत्य धर्म का स्वरूप बनाता और अपना असमर्थ पन प्रगट करता, वंगग्य जिन को उपदेश सुनने से होता तो उन्हें उत्तम साधूयों के पास दीक्षा लन को भेज देना कितनेक राजपुत्रों को उपदेश देकर उत्तम साधूयों के पास भेनदिये अर्थात् अपनी निन्दा करता हुवा सत्य धर्म प्रगट करता फिरता एक समय स्वयं भी ऋषभदेव स्वामी के साथ २ अयोध्या पहुंचा भरत महाराज ने प्रभू को नमस्कार कर विनय पूर्वक पूछा कि हे भगवान ! इस समग आपकी सभा में कोई ऐमा भी जीव है जो इस वर्तमान चोवीसी में तीर्थकर होने वाला हो, तब भगवान ने कहा कि हे भरत ! तेरा मरीचि नाम का पुत्र जो त्रिदंडी भेष धारण फिय बाहिर बैठा है वो इस वर्तमान चोवीसी का अन्तिम तीर्थकर होगा वीच के काल में महाविदेह में मुका नगरी में प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती राजा होगा और भरत क्षेत्र में त्रिपृष्ट नाम पोनन नगरी का अधिपत्ति