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तर ते कोडं विपुरिसा सिद्धत्थेषं रण्णा एवं युता समाणा हट्ठतुट्ठ जाव हियया करयल जाव अंजलिं कट्टु एवं सामिति प्राणाए विणणं वयणं पडिसुति, पडिणित्ता सिद्धस्थस्स खत्तिग्रस्त अंतिया यो पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरियो उट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता खियामेव सविसेसं बाहिरियं उबट्ठायसालं गंधोदगसितं जाव - सीहासणं रयाविंति रयावित्ता जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थर अंजलि कहु सिद्धत्थस्स खत्तिस्स तमापत्ति पचपिति ॥ ५६ ॥
इस प्रकार की सिद्धार्थ राजा की आज्ञा सुनकर और उससे सन्मान पाकर हर्पित प्रसन्न हृदय वाले होकर हाथ जोड़ कहने लगे कि हे नाथ ! आपकी आज्ञानुसार ही होगा राजाज्ञा को नम्रता से बरोबर सुनकर राजा के कहने का अभिप्राय समझकर कार्य करने को राजा के पास से रवाना हुवे और बाहिर के सभा मंडप में आकर शीघ्रता से सभा मंडप में सर्वत्र गंधोदक का वि कर पवित्र बनाकर राजा की आज्ञानुसार सर्वत्र सजाकर और सिंहासन स्थापित करके सिद्धार्थ राजा के पास आकर के विनय पूर्वक मस्तक में अंजली लगाकर अर्थात् हाथ जोड़कर जैमा किया था वो सर्व राजा को कहकर संतुष्ट किया.
तणं सिद्धत्थे खनिए कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पल कमल कोमलुम्मीलियम ग्रहापंडुरे पभाए, रचासोगपगास किंमुसुमुहगुंजद्धरागबंधु जीवगपारावयचलनय परहुत्र सुरत्तलो जासुग्रण कुसुम रासि हिंगुल निरातिरेश्ररेहंत मरिसे कमलायर संडवोहए उट्ठमि सूरे सहम्सरस्सिमि दि पयरे तेसा जलते, तस्स य करपहरापरर्द्धमि धयारे
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