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(१२६) __ वा परपरिवाए वा अरहरई वा मायामोसे वा मिच्छादसणसल्ले
वा ग्रं० ६०० ) तस्त पं भगवंतस्स नो एवं भवइ ॥ ११७ ॥ .. से णं भगवं वासावासवज्जंअहगिम्हहेमंतिए मासे गामे एगराइए नगरे पंचराइए वासीचंदणसमाणकप्प समतिणमणिलेडुकंचणे समदुक्खसुहे इहलोगपरलोगअप्पडिवद्धे जीवि. यमरणे अनिरवकंखे संसारपारगामी कम्ममत्तुनिग्घायणट्ठाए अभुट्टिए एवं च णं विहरड् ॥ ११८ ॥
भगवान के चारित्र में निर्मल गुण । महावीर प्रभु के साधु पणे में इयर्या समिति (देखकर पगधरना) भापासमिति ( विचार पूर्वक बोलना ) एषणा समिति (शुद्ध निर्दोष गोचरी करना) अपनी वस्तुएं देखकर लेना छोड़ना और शरीर मल को निर्दोष निर्जीव स्थान पर छोड़ना ये पांच समिति युक्त थे दूसरों को पीड़ा नहीं करते थे मन वचन काया की समिति गुप्ति पालते थे अर्थात् अशुभ वर्तन को छोड़ शुभ और शुद्ध वर्तने ग्रहण करते थे गुप्त, गुप्त इंद्रिय गुप्त ब्रह्मचारी अर्थात् पाप से बचते थे पापों से इंद्रियों को छुड़ाते थे, ब्रह्मचर्य की रक्षा करते थे क्रोध मान माया लोभ ये चार दोप से रहित थे शांत प्रशांत उपशांत अर्थात् भीतर से मुख मुद्रा से वाह्य चेष्टाओं से भी क्रोधादि रहित थे ( उन्मत्तता छोड़ सुशीलता धारण की थी) परिनिवृत्त (संताप रहित ) आश्रव (तृष्णा) रहित थे ममता छोड़ दी थी कुछ भी द्रव्य नहीं रखा था, भीतर वहार की गांठ छोड़ दी थी निर्लेप कर्म लेप से दूर थे ( नया कर्म नहीं होने देते थे ) कांसी के पात्र में पानी का लेप नहीं होता ऐसे प्रभु निःस्नेह थे, शंख की तरह अंजन (मेल ) रहित निर्मल निरंजन थे जीव जैसे दूसरी गति में बिना रुकावट जाता है ऐसे. वो भी बिना विघ्न ममत्व विहार करते थे जैसे आकाश विना आधार है ऐसे प्रभु किसी का आधार नहीं लेते थे वायु माफक अबंधन थे अर्थात् वायु सर्वत्र जाना है ऐसे वो भी सर्वत्र विहार करते थे शरद ऋतु के पानी समान निर्मल