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(१५२) विकताई, चउरासीइम राइदिए अंतरा वट्टमाणे जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तवहुले, तस्स णं चित्तबहुलस्म चउत्थीपक्खे णं पुवाहकालसमयसि धायइपायवस्स आहे छटेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहि नक्खत्तणं जोगमुंवागएणं झाणंतरिग्राए वट्टमाणस्स अणते अणुचरे निवाघाए निसवरणे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने, जाव जाणमारे पासमाणे विहरइ ।। १५६ ।।
प्रभुने साधु का आचार उत्तम पाला जिससे ८४ वां दिन में चैत्र वदी ४ प्रभात में धातकी वृक्ष की नीचे चाविहार छठ की तपस्या में चन्द्र नक्षत्र विशा खा में भगवान को शुक्ल ध्यान के दूसरे भाग के अंत में उत्तम केवल ज्ञान हुआ और तीर्थ प्रकट किया.
पासस्स एं अरहो पुरिसादाणीयस्स अट्ठ गणा भट्ट गणहरा हुस्था, तंजहा-सुभे य १ अजघोसे य २, वसिट्ठ ३ वंभयारि ये ४ । सोमे ५ सिरिहरे ६ चैव, वीरभद्दे ७ जसेविय ८।६ ॥ १६०॥
पार्श्वनाथ प्रभु के पाठ गणधर हुए शुभ, आर्य पोप, वशिष्ट, ब्रह्मचारी, सोम, श्रीधर वीर भद्र, यशस्वी.
पासस्स णं अरहयो पुरिस्सादाणीयस्स अज्जदिण्णपामुक्खाओ सोलससमणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया हुत्था ।। १६१ ॥ . पासस्स णं अ० पुप्फबूलापामुक्खाओ अट्टत्तीसं अबिपासाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपया हुत्या ॥ १६२ ।।।