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( ५ ) ® चौबीस तीर्थंकरों की माताओं के स्वप्नों का भेद * ___ प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव स्वामी की माता ने प्रथम स्वम में बृषभ (बैल) देखा और अंतिम तीर्थकर श्री महावीर प्रभु की माता ने प्रथम स्वप्न में सिंह देखा और जो तीर्थकर स्वर्ग में से आते हैं उनकी माता १२ वें स्वम में विमान देखती है और जो नरक में से आते हैं उनकी माता भुवन देखती है,
सूत्र (५) तएणं सा देवाणंदा माहणी इमे एयारूवे उराले कल्लाणे सिव धणे मंगल्ले सस्सिरीय चउद्दम महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा समाणी, हद्वतुट्ठचित्तमाणंदिया पीप्रमणा परमसोमणसिधा हरिसवसविसप्पमाणहियया धाराहयकलबुगं पिव समुस्ससिअरोमकूवा सुमिणुग्गहं करेइ, सुमिणुग्गहं करिता सयणिजात्रोअब्भुढेइ, अट्टित्ता अतुरिअमचवलमसंभंताए अविलंबित्राए रायहंससरिसाए गईए, जेणेव उसमदत्ते माहणे, तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता उसमदत्तं माहणं जगणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावित्ता सुहासणवरगया धासत्था वीसस्था करयेलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी ॥५॥ ___ महावीर प्रभु की माता ऊपर लिखे चवंदह स्वम देख कर जागृत हुई. स्वप्नों से संतुष्ट मन में आनन्द प्राप्त करती हुई परम आल्हाद से प्रफुल्लित हृदय वाली (जैसे मेघ धारा से कदंव वृक्ष के फूल खिलते हैं ऐसे ही वो देवानंदा भी दिव्य स्वरूप धारण कर रोमांच से प्रफुल्लित होकर जिसके रोम २ हर्षाय मान होरहे हैं ) अपने श्रेष्ठ स्वमों को याद करती हुई अपनी शय्या से उठकर एक सरखी राजहंसी समान चाल से चलती हुई अपने स्वामी ऋषभदत्त ब्राह्मण के शयनगृह ( सोने की जगह ) में गई और जय विजय शब्द से संतुष्ट
१-२ भदासण १-२ सुहासणवरगया क.