________________
( ५२ )
ध्यविलवियाए रायहंसस रिसीए गईए जेणेव सयपिज्जे जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता सिद्धत्थं खतिथं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणोरमाहिं उरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं हिययगमणिज्जाहिं हियय पल्हायणिन्जाहिं मिउमहुरमंजुलाहिं गिराहिं संलवमाणी २ पडिवोहे ॥ ४८ ॥
ऐसे चौदह स्वप्न देखकर त्रिशला राणी जागृत होकर संतुष्ट होकर हृदय से कदंब वृक्ष के फूल मेघ के पाणी से जैसे विकस्वर होते हैं वैसे ही विकस्वर होकर स्वप्नों की अच्छी तरह विचार कर भैय्या से उठकर निःसरणी पर पैर रख कर अत्वरित, अचपल, असंभ्रात अविलंविन, स्थिरता से राज हंस सरखी गति से चलकर जहां पर सिद्धार्थ राजा सोये हुए हैं वहां आई. और सिद्धार्थ राजा को, इष्ट, कांत प्रिय, मनोज, मनोरम, उदार, कल्याणकारी, शिव-धन मंगल शोभा देनेवाले हृदय प्रसन्न करने वाले वचनों द्वारा जागृत करती है.
तरणं सा तिसला खत्तित्राणी सिद्धत्थेणं ररणा अभ गुणाया समाणी नाणामणि कणगस्य ण भत्तिचित्तंसि भद्दा - सरांसि निसीयड़ निसीइत्ता आसत्था सुहासणवरगया सिद्धत्थं खत्तियं ताहिं इट्ठाहिं जाव संलवमाणी २ एवं व्यासी ॥ ४६ ॥
एवं खलु अहं सामी ? अज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि नरणओ जाव पडिबुद्धा, तंजहा - गयउसभ० गाहा । तं एएसिं सामी ! उरालाएं चउदसरहं महासुमिणा के मन्ने कलणे फलवितिविसेसे भविस्सह ? || ५० ॥
सिहार्थ राजा का जागृत होना ।
सिद्धार्थ राजा ने जागृत होकर त्रिशला देवी को बैठने को कहा उससे मन्मान की हुई विचित्र मुव का बना हुवा, रत्नों से जुड़ा हुवा भट्टामन