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(१३१) "विज्ञान घन जीव-' पांच भूत ( पृथ्वी पाणी अग्नि वायु आकाश ) से उत्पम होकर उसी में प्रवेश होता है पीछे कुछ नहीं है अर्थात् पांचभूत मिलने से जीव उत्पन होता दीखता है और वे अलग होने से जीव भी उस में नाश होजाता है किंतु जीव ऐसा भिन्न पदार्थ कोई नहीं है जैसे कि पाणी में बुदबुदे होते हैं और फिर शांत होते हैं ऐसेही जीव नहीं है और परलोक में भी गमन आगमन नहीं करता जिससे पुण्य पाप का फल भोक्ता भी नहीं है प्रभु ने फिर कहा हे गौतम इंद्रभूति ! तेरे अर्थ में स्याद्वाद रहस्य तूं समज कि "विज्ञान धन" का अर्थ शान स्वरूप आत्मा भी होता है और पांचइंद्री और छठा मन से जो पांच भूत द्वारा ज्ञान पर्याय होते हैं वे ज्ञान पर्यायों को भी "विज्ञान घन" कहते हैं अब वेद पदों से "विज्ञान धन" का अर्थ ज्ञान पर्याय लेना चाहिये और ये विज्ञान धन पांच भूत देखकर आदमी को होते हैं और पांचभूत के अभाव में को ज्ञान पर्याय भी नष्ट होता है अर्थात् जिस पदार्थ को सामने लाए उसका भान होगा और वो उसके चले जाने पर उसका ज्ञान भी चला जावेगा इसलिये विज्ञान घन को पीछे मेत्य संज्ञा नहीं है उससे 'जीव" का नाश कोई भी रीति से नहीं होता जैसे कि श्रायना में कोई भी वस्तु जो सामने रहती है उसका चित्र पड़ता हैं और वस्तु दूर होने से वो चित्र भी नष्ट होजाता है किन्तु चित्र जाने से आयना का नाश नहीं मानते ऐसेही ज्ञान पर्याय (विज्ञान घन ) नाश होने से चा बदलने से आत्मा का नाश नहीं होता.
जैनरीति से अधिक समाधान । आत्मा चेतन है जीव भी चेतन है परंतु जीव कर्म सहित होता है वो संसार भ्रमण करता है और चार घाति कर्म- और चार अघाति कर्म से ही 'जीव' शरीर बंधन में पड़ा है शरीर भी दो जाति के हैं एक स्थूल है वो छोड़कर जीव दूसरी गतिमें जाता है परन्तु सूक्ष्म शरीर (तेजसफार्मण) साथ जाकर नया स्थूल शरीर मिला देता है और मोहनीय कर्म से और ज्ञान आवरणीय कर्म से जीव स्वस्वरूप को भूल पर स्वरूप में कुछ अंश में एकसा होजाता है उससे ही पूर्व पदार्थ विस्मृत होता है नये पदार्थ में शान लगता है इससे पूर्व 'संज्ञा' नहीं रहती उस मे भ्रम में नहीं पड़ना कि जीव नहीं है जो बोधमतानुयायी क्षण भंगुर पदार्थ मानते हैं उसमें भी पदार्थ का रुगान्तर घण भंगुर है पदार्थ का मूल द्रव्य क्षण भंगुर