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त्रिपदी का वर्णन । प्रभुने शिष्यपद देकर त्रिपदी सुनाई उपइया,विगमे इवा धुवेइवा । पदार्थ उत्पन्न होता है, नाश होता है और कायम रहता है क्योंकि दूध का दही हुआ तब दूध की उपयोग दही में से नहीं होगा और दही का उपयोग दही के लिये होगा किन्तु द्ध वा दही में स्नेहत्व (चीकट) है वो तो कायम है- संसार का स्वरूप इस तरह है ( उसको जैनेतर ब्रह्मा शिव विष्णु की कृति मानते हैं ) कोई पदार्थ का रूपांतर होना वो उत्पत्ति है इससे पूर्व पर्याय का नाश होता है किन्तु मूल द्रव्य तो कायम है और रूपांतर भी कृत्रिम और स्वाभाविक दो तरह होता है जैसे कि हिमालय पर स्वभाविक वरफ होता है और बड़े शहरों में उष्ण ऋतु में लाखों मण कृत्रिम बनाते हैं और जड़ चेतन का सम्बन्ध अनादि होने से सुख दुःख ममता मूळ का अनुभव होता है सिद्ध ( मुक्त ) जीवों को कर्म सम्बन्ध नहीं है. इन्द्रभूति महाराज ने त्रिपदी सुनकर पुण्य प्रवलता से लब्धि द्वारा द्वादशांगी(सत्र सिद्धांत)का ज्ञान प्राप्त कर शिष्यों के हितार्थ सूत्र रचना करी प्रभुने चतुर्विध संघ की स्थापना की.
साधु साध्वी श्रावक श्राविका साधुओं में प्रथम गौतम इन्द्रभूति हुए। उनको गणधर पद दिया अर्थात् उनके ५०० शिष्यों के अधिष्ठाता उनको वनाए.
अग्नि भूति का शंका समाधान. इन्द्रभूतिजी का जीव सम्बन्धी समाधान सुनकर अग्निभूतिजी अपने भाई को पीला लेजाने को आये किन्तु प्रभुजीने उसको कहा हे महाभाग ! तेरे को कर्म की शंका है किन्तु कर्म की सिद्धि वेद पदों से ही होजाती है.
पुरुष एव इदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यं । उस का अर्थ तूं यह लेता है कि आगे होगया भविष्य में होगा वो सव आत्मा ही है किन्तु देवता तिर्यच वगैरह दीखता है वो भी आत्मा है आत्मा अरूपी होने से कर्म उसको कुछ भी नहीं करसक्ता जैसे चंदन का लेप वा खड्ग ( तलवार ) से घा आकाश को होता नहीं ऐसे कर्म का उपघात वा अनुग्रह (हानि लाभ ) आत्मा को नहीं होता इसलिये "कर्म" का भ्रम तेरे को हुआ