Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पश्चान है मारिदत्त महाराज | पब वह मेरी (यणोधर की) माता (पन्द्रमप्ति) मेरे उक्त प्रकार के वचनों में निरुत्तर हुई और जब उसके द्वारा कोई दूसरा उपाय नहीं देखा गया तब उसने मेरे पैरों पर पड़कर मुझ से निम्नप्रकार प्रार्थना की-है पुत्र ! यदि तुम दुर्गति-गमन की आशम्मा से अमवा किसी दूसरे कारण से जीव-वध में प्रवृत्त नहीं होते तो मत प्रवृत्त होओ, किन्तु आटे के मुर्गे से कुल-देवता के निमित बन्ति समर्पण करके उससे बचे हुए आटे में मांस का संकल्प करके तुम्हें मेरे साथ अवश्य मक्षण करना चाहिए ।'
पुनः यशोधर महाराज की स्त्रियों के विषय में मानसिक नैतिक विचारधारा का, एवं मानसिक संकल्प से होने वाले दुष्परिणाम-आदि की विचारधारा का और तत्समर्थक दृष्टान्तमाला का निरूपण किया जाना
तत्पश्चात् यशोधर महाराज द्वारा माता के प्रति स्पष्ट कहा जाना-'हे मातर ! तेरी बुद्धि प्रयोग्य आचरण में दुराग्रह से विशेष मलिन किस प्रकार हुई ? अस्तु इस कार्य ( आटे के मुर्ग का मारण के उसको मांस समझ कर भसना रूप कार्य) में धाप ही प्रमाण हैं। हे माता तुम्ही शिल्पियों को बुलाकर मुर्गा बनाने की माजा दो एवं यशोमति कुमार के राज्याभिषेक करने की लग्न के पोधन के लिये तुम्ही ज्योतिषियों को आदेश दो।
इसके बाद कुलटा अमृतमति महादेवी द्वारा उक्त वृत्तान्त सुना जाफर कूटनीति का विचार किया जाना—'इस राजा के ऐसे कूट कपट का कारण निस्सन्देह मेरे द्वारा रात्रि में किये हुए दुविलास को छोड़कर दूसरा नहीं है। पश्चान भा की परालमा मात्र हो -- को अनुरत बनाना शनय नहीं । अतः यह राजा जब तक मेरे ऊपर क्रोध रूपी विष का क्षरण नहीं करता तब तक मैं ही दसके ऊपर बोषरूपी विष का क्षरा करती है। ८१
तत्पश्चात् अमृतमति महादेवी द्वारा 'गविष्टिर' नामक मंत्री का यशोधर महाराज के पास भेजा जाकर निम्नप्रकार संदेश भेजा जाना—'इरा समय मेरे प्राणनाथ मोक्ष-सुख को इच्छा से प्रथधा उपस्थित हुए दोषों का निराकरण न होने की बुद्धि से दीक्षा धारण कर रहे हैं और मैं पुत्र यशोमति कुमार की लक्ष्मी भागती हुई गृह में ही रहूँ यह बात अनुचित है' परन्तु अदि हम दोनों परिव-पालन में तत्पर हों तो इसमें कोई आगम से विरोध नहीं है। क्योंकि शास्त्रों में पतिव्रता स्त्रियों के दुष्टान्तों द्वारा पतिव्रत धर्म का निरूपण किया गया है। दीक्षा ग्रहण के दिन चन्द्रमति माता के साथ मेरे गृह पर आपको गणभोजन करना चाहिए।'
इसके अनन्तर यशोषर महाराज द्वारा गणभोजन की स्वीकारता देकर गयिष्टिर' मन्त्री को वापिस भेज कर विशेष पश्चाताप किया जाना"
'पतः इस चण्डिका देवी के मन्दिर में गमन करना आदि में देव ही शरण है' ऐसा विचार कर कुछ निद्रा-सुख को भोग कर यशोधर महाराज का जाग्रत होना।
पश्चात् 'वैकुण्ठमति' नाम के क्षेत्रपाल द्वारा यह विदित होने पर कि चन्द्रमति माता चण्डिका देवी की परण पूजा के लिए उसने मन्दिर में सपरिवार गई है मेरे द्वारा मो ऐरायण-परनी नामको हथिनी पर सवार होकर पण्डिका देवी के मन्दिर के प्रति प्रस्थान किया जाना इसी प्रसङ्ग में मनेक अपशकुन का होना...
पूनः 'हे चण्डिका देवी। समस्त प्राणियों के मार देने पर जो कुछ फल होता है. वह फल यहाँ पर मेरे लिए प्राप्त होवे ।' ऐसे अभिप्राय से यशोधर महाराज द्वारा चण्डिका देवी के सामने छुरी से उस मुर्गे का मस्तक काटा जाना, बस आर्ट के मुर्गेधारा जीवित मुर्गे की तरह शब्द किया जाना, उस मुर्गे के चूर्ण में 'मांग' ऐसा संकल्प करके रसोई घर में भेजा जाना । उस दिन से दूसरे दिन अमृतमति देवी द्वारा माता-सहित मेरे लिए भोजन बनाया जाना, परन्तु उस पापिनी कुलटा अमृतमति द्वारा माता-हित मेरे मोषनों में विष प्रवेश किया जाना, जिससे यशोधर व उसको मासा का काल-कवलित होना, पुनः अमृतमति द्वारा दिनाऊ सदन आदि किया जाना एवं कवि की कामना तथा महाकवि सोमवेत को छोड़कर दूसरे कवि उच्छिष्ट भोजी हैं, इसका वर्णन ।
इति चतुर्थ प्रश्वासः