________________
ही इस्लाम धर्म की जगह दीन-इ-इलाही नाम का नया धर्म चलाना चाहा । उसी विचार से वह हिन्दुओं, पारसियों, ईसाइयों और जैनों आदि के धार्मिक सिद्धान्तों को जानने के लिये उन धर्मों के ज्ञाता उत्तमोत्तम विद्वानों को अपने दरबार में सम्मान पूर्वक बुलाकर उनके सिद्धान्तों को सुनता और उन पर विवाद करता । बादशाह का यह उद्योग अपने विचारे हुए नये धर्म के सिद्धान्तों को स्थिर करने के लिये ही था। जैनधर्म के सिद्धान्तों को सुनने के लिये हीरविजयसूरि, शान्तिचंद्र उपाध्याय, भानुचंद्र उपाध्याय और विनयसेनसूरि आदि जैन तत्वज्ञों को समय समय पर अपने दरबार में बुलाया, इनमें हीरविनयसूरि मुख्य थे। बादशाह अकबरने जैन धर्म के सिद्धान्तों को सुनकर धर्मरक्षा, जीवदया आदि लोकहित के अनेक कार्य किये और इन्हीं धर्मगुरुओं के प्रभाव से वर्ष भर में ६ महीनों तक अलग अलग समय पर अपने राज्यभर में जीवहिंसा को रोक दिया, जिसके लिये कुछ मुसलमान इतिहासलेखकों ने उसको भला बुरा भी सुनाया है। ऐसे ही जैनतीर्थों के संबंध के कई फरमान भी दिये थे जिनमें से कुछ पहले भी प्रसिद्ध हुए और ६ इस पुस्तक के परिशिष्ट में अनुवाद सहित छपे हैं जिनसे अकबर की धर्मनी ते का परिचय मिलता है । अकबर के समय से जैन धर्माचार्यों का बादशाही दरबार में सम्मान होता रहा और जहाँगीर को भी उनपर बड़ी श्रद्धा थी ( देखो नागरीप्रचारिणी पत्रिका, भाग २, पृ. २४७ )।
हीरविजयसूरिजी अपने समय में ही अपनी विद्वत्ता, तपस्या और सद्गुणों से बहुत ही लोकप्रिय हो गये थे और उनका चरित्र देवविमलरचित 'हीरसौमाग्य काव्य ' पद्मसागर रचित 'जगद्गुरु काव्य ' आदि संस्कृत ग्रन्थो में तथा श्रावक ऋषभदास रचित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org