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(१७) तो पाठकों को मूल ग्रंथ के पठन से ही होगा परन्तु यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि इतिहास के ग्रंथ बहुधा नीरस होते हैं, परन्तु यह ग्रंथ पढ़ने वाले को सरस ही प्रतीत होता है और धर्मसंबंधी पक्षपात से भी बहुधा रिक्त है। ऐतिहासिक ग्रंथों के लेखकों को मुनिराज के इस ग्रंथ का अनुकरण करना चाहिये और यदि इसी शैली से सप्रमाण ग्रंथ लिखे जावे तो वे बड़े ही उपयोगी और महत्त्वपूर्ण होंगे। मुनिराज से मेरी यह प्रार्थना है कि वे ऐसे ही और ग्रंथ लिखकर इतिहास की त्रुटि पूर्ण करने में अन्य विद्वानों का हाथ बटावें । हिन्दीसाहित्य में भी यह ग्रंथ बड़े महत्त्व का है अतएव उसके कर्ता और प्रकाशक हिंदी सेवियों के धन्यवाद के पात्र है।
अजमेर।
... १७-१२-२३ ।
गौरीशंकर हीराचंद ओझा।
गौरीशंकर हीराचंद ओझा।
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ANISA
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