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हीरविजयसूरि रास' आदि
कितने ही पुरानी गुजराती भाषाके ग्रंथों में भी अंकित किया गया है । उनकी लोकप्रियता का एक उदाहरण यह भी है कि उनके स्वर्गवास के दूसरे ही वर्ष स्तंमतीर्थ ( खंभात ) के रहने वाले श्रावक पउमा और उसकी स्त्री पाँची ने उनकी पाषाण की मूर्ति भी बनवाई थी जिसकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १६५३ और अकबर के नये चलाये हुए इलाही सन् ४१ में तपागच्छ के विजयसेनसूरि ने की थी ऐसा उस मूर्ति पर के लेखसे पाया जाता है । यह मूर्ति अब काठियावाड के महुवा नामक ग्राम में 1 विद्यमान है ।
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मुनिराज विद्याविजयजी बड़े भाग्यशाली हैं कि उनको ऐसे प्रसिद्ध आचार्य का जीवनचरित्र लिखने के लिये जैनसाहित्य से बहुत बड़ी सामग्री मिल गई जिसके आधार पर एवं अन्य भाषाओं की अनेक पुस्तकों से इस ग्रंथरत्न को निर्माण किया । इस ग्रंथ कं. सर्वाग सुन्दर बनाने के लिये हीरविजयसूरिजी की उपर्युक्त मूर्तिका, स्वर्गस्थ शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरिजी का, जिनको यह ग्रंथ समर्पित किया गया है, बादशाह अकबर का, शेख अबुल फ़ज़ल का तथा ६ फारसी फरमानों के छायाचित्र ( फोटो ) और सूरिजी के गन्धार गाँव (गुजरात में ) से लगाकर फतहपुरसीकरी में बादशाह के दरबार में उपस्थित होने तक के मार्ग का सुन्दर मानचित्र भी दिया है । इस ग्रंथ में केवल हीर विजयसूरिजी का ही वृत्तान्त नहीं है किन्तु बादशाह अकबर तथा हीरविजयसूरिजी के शिष्यसमुदाय संबंधी इसमें अनेक ज्ञातव्य बातों पर बहुत कुछ नया प्रकाश डाला गया है । इस ग्रंथ की रचना में यह एक बड़े महत्त्व की बात है कि इसमें जिन जिन स्थानों या पुरुषों के नाम आये हैं उसका पूरा पता लगाकर टिप्पणों में उनका बहुत कुछ विवरण दिया है । इस ग्रंथरत्न के विषय का विवेचन
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