Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सिद्धान्तसारः
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शुद्धाशुद्धविमिश्राणां तथानन्तानुबन्धिनाम् । चतुर्णां हि कषायाणां प्रशमात्प्रथमं भवेत् ॥ ५४ दुग्धातिनां क्षयाज्ज्ञेयं क्षायिकं क्षीणकल्मषैः । क्षायोपशमिकं तावदुभयेनोभयात्मकम् ॥ ५५ सप्तानां प्रकृतीनां च क्षयात्क्षायिकमुत्तमम् । साध्यं साधनभूतं तु पूर्वं द्वयमुदाहृतम् ॥ ५६
-१.५६)
अधिगमजमें अन्तरंग कारण दर्शनमोहादिकोंका उपशम, क्षय तथा क्षयोपशम होने से बाह्य कारणरूप गुरुका बारबार उपदेश होता है । संशयादिक - दोष-रहित जीवादि पदार्थ जानना प्रमाण है । तथा वस्तु नित्यत्वादि धर्मोमेंसे एकधर्मको जानना नय है । नय जिस धर्मको जानता है उसे मुख्यता और अन्यधर्मोंको गौणता प्राप्त होती है । प्रमाण पूर्ण वस्तुको जानता है अतः उसमें गुणमुख्यताका प्रश्नही नही ॥ ५३ ॥
( वचनभेद, नयवाद और परसमय ) जितने वचनभेद हैं उतने नयवाद हैं। जितने नयवाद हैं उतने परसमय हैं । ब्रह्मवाद, भेदवाद, नित्यवाद, अनित्यवाद आदिक परसमय हैं । ये परसमय वस्तुओंको सर्वथा नित्य, अनित्य, एक अनेकरूप मानते हैं इस लिये मिथ्या हैं । परंतु जब सर्वथा पक्ष छोडकर कथञ्चित्पक्षसे वस्तुको कथञ्चित् नित्यानित्यादि रूप मानेंगे तब उनमें सत्यता-प्रामाणिकता आती है । उनका मिथ्यापना नष्ट होता है ॥ १ ॥
( उपशम सम्यग्दर्शन ) सम्यक्त्व, मिथ्यात्व तथा मिश्र - सम्यक्मिथ्यात्व इन तीन दर्शनप्रकृतियोंका तथा अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोंका जब उपशम होता है तब जैसे कतक - द्रव्यसे मैला पानी निर्मल होता है वैसा सम्यग्दर्शनभी निर्मल होता है । उस पहले सम्यग्दर्शनको औपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
विशेषार्थ - मिथ्यादर्शन अनंत संसारका कारण है इसलिये उसे 'अनंत' कहते हैं । उसके संबंधी जो कषाय हैं उन्हें अनंतानुबंधी कहते हैं । मिथ्यात्व प्रकृति सम्यग्दर्शनको नष्ट करती है । सम्यङमिथ्यात्वप्रकृति जीवमें एक समयमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्व मिश्र परिणाम उत्पन्न करती है । तथा सम्यक्त्वप्रकृति जीवमें सम्यग्दर्शनको तो प्रकट करती है परंतु चलमलिनादिदोषोंको साथ जोड देती है । परंतु इन सातों प्रकृतियोंके पूर्ण उपशम से प्रगट हुए सम्यक्त्वमें ये दोष नहीं रहते हैं । ऐसे सम्यग्दर्शनको उपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसमें जीवादित्त्वोंका श्रद्धान निर्मल होता है ॥ ५४ ॥
( क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन ) सम्यग्दर्शन - घाती सातो प्रकृतियोंका पूर्ण नाश होनेसे प्रकट हुआ सम्यग्दर्शन सदा निर्मल रहता है । ऐसे सम्यग्दर्शनमें शंकादिक दोष नहीं रहते हैं । प्रक्षीण - पापवाले जिनदेव उसे क्षायिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । क्षय और उपशम होनेसे क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन उभयात्मक होता है । अनंतानुबंधी चार कषाय, मिथ्यात्व तथा सम्यङमिथ्यात्व इन छह प्रकृतियोंका उदयाभावी क्षय होनेसे तथा आगामि कालमें उदयमें आनेवाली इन प्रकृतियोंका उपशम होनेसे और सम्यक्त्व प्रकृतिके देशघातिस्पर्धकोंका उदय होनेसे जो तत्त्वार्थ में श्रद्धा उत्पन्न होती है उसे क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन या वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं ।। ५५-५६ ॥
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