Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सिद्धान्तसारः
(४. ६७
प्रधानं व्यक्तरूपाणां न हेतुर्महदादिनाम् । नित्यत्वात्तस्य सर्वत्र विकारानुपपत्तितः ॥ ६७ प्रमाणाभावतस्तस्याप्यभावो धीमता मतः । ततो वन्ध्यासुतस्याङ्गव्यावर्णनमिवाखिलम् ॥ ६८ प्रसादाद्यनुमानं यत्प्रसाधकमितीरितम् । तन्न सत्यं यतोऽनेन ह्यात्मा भवति साधितः ॥ ६९ यतो हर्षविषादाद्याः सर्वे ह्यात्मविवर्तकाः । सिद्धास्तदन्वयादेव' घटे चानुपलम्भतः ॥ ७० प्रधानं कर्म बध्नाति भोक्तात्मेति प्रजल्पतः । सांख्यस्य सत्यमायातं लोकवाक्यमिदं भुवि ॥७१ अप्रगो हरते भारं मुहुःस्वनति पृष्ठतः । भुक्तिक्रियां करोत्यन्यस्तृप्तिमन्योऽधिगच्छति ॥ ७२ ततोऽहिंसाव्रतं नास्ति कापिलानां मते क्वचित् । नित्यस्य व्यापिनस्तस्य प्रघातानुपपत्तितः॥७३
नित्य पदार्थ अपने एकरूपसे दुसरे स्वरूपमें आताही नहीं है । अतः प्रकृति कालत्रयमेंभी महदादिक तत्त्वोंकी जननी नहीं हो सकती । तथा सर्वथा नित्य प्रकृति तत्त्व सिद्धिके लिये कोईभी प्रमाण नहीं होनेसे बुद्धिमानोंने प्रकृतितत्त्वका अभाव माना है। इसलिये प्रकृति महदादिकोंकी जननी है इत्यादि सकल वर्णन वन्ध्यापुत्रके अंगवर्णनके समान है, ऐसा समझना चाहिये ।। ६६-६८ ॥
__ प्रसादादिक गुण देखकर प्रकृतिकी सत्ताका जो अनुमान कहा गया है, वहभी सत्य नहीं है। इस अनुमानसे प्रकृतिकी सिद्धि नहीं होती, प्रत्युत यह अनुमान आत्माको सिद्ध करता है। क्योंकि हर्षविषादादिक आत्मामें देखे जाते हैं, घटपटादिक अचेतन पदार्थों में नहीं और वे पर्याय जीवकेही हैं और क्रमसे उत्पन्न होते हैं। क्योंकि हर्ष और विषाद परस्पर विरुद्ध हैं। जो पर्यायें परस्पर विरुद्ध होती हैं, वे युगपत् एक पदार्थमें नहीं दिखती। अतः आत्मा हर्षविषादादि पर्यायोंसे परिणत होता है । जिनका जिनके साथ संबंध होता है वे उनको छोडकर अन्यत्र नहीं उपलब्ध होंगे । घटमें स्पर्शादिकोंका संबंध रहता है। अतः उसको छोडकर आत्मादिकमें वे नहीं रहते हैं। वैसेहि हर्षविषादादिक आत्माके धर्म हैं वे प्रकृतिमें नहीं रहेंगे ।। ६९-७० ॥
'प्रधानको तो कर्मबंध होता है, और उसका अनुभव-भोग आत्माको लेना पडता है,' ऐसा बोलनेवाले सांख्यका यह वचन यदि सत्य है, तो यह लोकवाक्यभी सत्य क्यों नहीं मानना चाहिये, कि “ आगेका पुरुष तो भार बहता है, और पीछेका मनुष्य उस भारसे चिल्लाता है। एक मनुष्य प्रियभोजन कर रहा है और दुसरे मनुष्यको उससे तृप्ति हो रही है " तात्पर्य यह, कि आत्माकोही बंध और मोक्ष मानना चाहिये । आत्माकोही सर्वज्ञता प्राप्त होती है । अचेतन प्रकृतिको सर्वज्ञता मानना अत्यंत मूर्खता है ॥ ७१-७२ ॥
इसलिये कापिलोंके मतसे आत्मा नित्य और व्यापी होनेसे अहिंसा व्रत उसे नहीं है क्योंकि आत्मा नित्य होनेसे हिंसाही नहीं होती है, तो व्रत कैसा होगा ? हिंसाका त्याग करनेसे अहिंसा व्रत होता है । त्याग और स्वीकार ये दो पर्यायें हैं । नित्य पदार्थमें परिणमन न होनेसे पूर्व पर्यायका त्याग और उत्तरका स्वीकार हो नहीं सकता जिससे कापिलमतकी सिद्धि नहीं होती है । ७३ ॥
१. आ. तदन्वयत्वेन
२. आ. वर्तमानस्य सर्वदा
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