Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-८. १४९)
सिद्धान्तसारः
(२०३
सुविहितचरणः शरणे जिनवरनाथस्य करणहतवृत्तिः ।
न सरति स कथं पटुतामटति भवाम्भोधिसन्तरणे' ॥ १४९ इति श्रीसिद्धान्तसारसंग्रहे पण्डिताचार्यश्रीनरेन्द्रसेनविरचिते गत्यनुवादद्वारे जीवतत्त्व
प्ररूपणं अष्टमोऽध्यायः॥
जिसने उत्तम चारित्रका पालन किया है, जो गणधरोंके स्वामी है ऐसे वीर प्रभूको जो शरण आया है, परन्तु इन्द्रियोंके वश होनेसे जिसका मन चरित्रभ्रष्ट हुआ है, वह पुरुष यदि पुन: चारित्रमार्ग में प्रवेश नहीं करेगा तो संसारसमुद्रके पार जानेमें कैसे समर्थ होगा? तात्पर्य-चारित्रसे रत्नत्रयपूर्ण होता है और उससे यदि जीव च्युत होगा तो वह संसारसमुद्र में डूबे विना नहीं रहेगा ॥ १४९ ॥
पंडिताचार्य श्रीनरेन्द्रसेन-विरचित सिद्धान्तसारसंग्रह शास्त्रमें गत्यनुवादद्वारसे
जीवतत्त्वका निरूपण करनेवाला आठवा अधिकार समाप्त हुआ।
१ आ. सत्तरणे
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