Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 296
________________ -११. ४४) सिद्धान्तसारः (२६९ वातपित्तादिसंभूतविकाराणां समागमे । तस्यापायविकल्पो यस्तृतीयं समुदाहृतम् ॥ ३९ अनागतपदार्थस्य प्राप्त्यर्थ चित्तकल्पनम् । निदानाख्यं तुरीयं स्यादार्ता' यान्ति भवं भुवि ॥४० चतुर्विधमिदं तावदार्तध्यानं प्रजायते । प्रमत्तसंयतान्तानां जीवानामतिदुःखदम् ॥ ४१ वधे बन्धे च सर्वस्वहृतौ दुष्टमिमं कदा । मारयामीति' संकल्पो हिसारौद्रं निगद्यते ॥ ४२ अनेनानृतवाक्येन वधं बन्धं गमिष्यति । दुष्टात्मेति मनोरोधो रौद्रं चासत्यसंभवम् ॥ ४३ परकीयस्य वित्तस्य ग्रहायोपधिचिन्तनम् । स्तेयरौद्रं मतं दक्षैर्दुर्गतेः कारणं परम् ॥४४ वियोगज आर्तध्यान कहते हैं । प्रिय वस्तुओंको- मित्रादिकोंको मनोज्ञ कहते हैं । उनका वियोग होनेसे जो संक्लेश मनमें पैदा होकर मित्रादिकोंकी, धनधान्यादिकोंकी कब प्राप्ति होगी ऐसा चिन्तन होता है ।। ३८ ॥ ( वेदनाजात आर्तध्यान।)- वातपित्तादिकोंसे जो शरीरमें रोग और बाधायें उत्पन्न होती हैं उनसे मुझे कब मुक्ति मिलेगी ऐसा जो चिन्तन होता है वह वेदनासंयोगज आर्तध्यान है ॥ ३९॥ ( निदाननामक आर्तध्यान । )- अनागत पदार्थ- भावी राज्यादिक, स्वर्ग आदिक सुखोंकी प्राप्तिकी आशा करना निदान है । भोगोंकी इच्छा करनेवाला मनुष्य उसकी प्राप्तिके लिये मनकी एकाग्रता सतत करता है । ऐसे ध्यानका नाम निदान है। यह चौथा ध्यान है । ऐसे चार ध्यानोंसे इस लोकमें भ्रमण करना पडता है ॥ ४० ॥ इस प्रकारसे चार आर्तध्यानोंका वर्णन किया है। यह मिथ्यात्व, सासादन. मिश्र. अविरत- सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत ऐसे छह गुणस्थानवाले जीवोंको होता है । यह ध्यान अतिशय दुःखदायक है ॥ ४१ ॥ विशेषता- पांच गुणस्थानोंतक असंयम परिणाम होनेसे ये चार आर्तध्यान होते हैं परंतु प्रमत्त गुणस्थानमें निदानको छोडकर तीन आर्तध्यान कदाचित प्रमादके उदयसे होते हैं। ( हिंसानन्द नामक रौद्रध्यान । )- इस दुष्टने वध, बंध, सर्वस्वहरण किया हैं अतः इस दुष्टको मै कब मारूंगा ऐसा जो संतत चिन्तन होता है वह हिंसानंद नामक रौद्रध्यान है ॥ ४२ ॥ ( अनृतानंद रौद्रध्यान । )- यह दुष्टात्मा हमेशा असत्य बोलकर मेरा नाश करता है। इसलिये असत्य भाषणसे यह दुष्टात्मा वधबंधको प्राप्त होगा तो अच्छा होगा ऐसा मनमें विचार करना अनृतानंद रौद्रध्यान है ।। ४३ ।। ( चौर्यानंद रौद्रध्यान । )- परकीयोंका धन किस उपायसे ग्रहण किया जा सकता है इसका जो बार बार चिन्तन करना उसे चौर्यानंद रौद्रध्यान कहते हैं । यह दुर्गतिका मुख्य कारण है ॥ ४४ ॥ १ आर्तमातिभवं भवि २ आ. योजयामीति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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