Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-११. ३१)
सिद्धान्तसारः
(२६७
संवेगो जायते यस्मान्मोहध्वान्तविनाशकः । मोहादपगतानां हि क्व संसारः क्व तत्फलम् ॥ २४ स्वाध्यायेन समं किञ्चिन्न फर्मक्षपणक्षमं । यस्य संयोगमात्रेण नरो'मुच्येत कर्मणा ॥ २५ बह्वीभिर्भवकोटीभिः व्रताद्यत्कर्म नश्यति । प्राणिनस्तत्क्षणादेव स्वाध्यायात्कथितं बुधैः ॥ २६ पदार्थानस्थूलसूक्ष्मांश्च यन्न जानाति मानवः । तज्ज्ञानावृतिमाहात्म्यं नात्मभावो हि तादृशः॥२७ आजन्म मृत्युपर्यन्तं तपः कुर्वन्तु साधवः । नैकस्यापि पदस्यह ज्ञानावृतिपरिक्षयः॥ २८ सर्वशास्त्रविदो धीरान्गुरूनाश्रित्य कुर्वतः । स्वाध्यायं तत्क्षणाच्छुद्धः पदार्थानवगच्छति ॥ २९ तपोवृद्धिफरश्चासौ स्वाध्यायः शुद्धमानसः । कथ्यतेऽनेकधा तावदतीचारविशुद्धितः ॥ ३० चित्तमर्थनिलीनं स्याच्चक्षुरक्षरपङक्तिषु । पत्रेऽस्य संयमः साधोः स स्वाध्यायः किमुच्यते ॥ ३१
इस स्वाध्यायसे संवेग-संसारसे भय उत्पन्न होता है जिससे मोहरूप अंधकारका नाश होता है। और जो मोहसे दूर भाग गये हैं अर्थात् जिनका मोह नष्ट हुआ है उनका संसार कहांसे रहेगा और उसका फलभी कैसे प्राप्त होगा?
( स्वाध्याय कर्मनाशक है। )- स्वाध्यायके समान कोईभी अन्य तप कर्मक्षय करनेके लिये समर्थ नहीं है। इस स्वाध्यायके संयोगमात्रसे मनुष्य कर्मसे मुक्त होता है ॥ २५ ॥
( व्रत और स्वाध्यायमें महान् अन्तर है। )- जो कर्म खिपानेके लिये कोटयवधि भव तक मनुष्यको व्रत धारण करने पडते है वह प्राणीका कर्म स्वाध्यायसे तत्काल नष्ट होता है ऐसा बुद्धिमतोंने कहा है ॥ २६ ॥
- जब कि मनुष्य स्थूल और सूक्ष्म पदार्थोंको नहीं जानता है वह सब ज्ञानावरणकाही माहात्म्य है। ज्ञानके बिना स्वपरपदार्थोंका विचार करनेवाला दूसरा आत्मभाव नहीं है। अर्थात शक्ति आदिक आत्मगुणोंमें यह विचार नहीं है। जन्मसे मरणतक साधु तपश्चरण करें परंतु किसीभी तपसे एक पदकेभी ज्ञानावरण कर्मका क्षय नहीं होता ।। २७-२८ ।।
संपूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता ऐसे धीर गुरुका आश्रय लेकर स्वाध्याय करनेवाला मनुष्य तत्काल शुद्ध पदार्थोंको जानता है ॥ २९ ॥
यह स्वाध्यायतप तपोंमें वृद्धि करनेवाला है। इससे व्रतोंके अतिचार शुद्ध होते हैं अर्थात् नष्ट होते हैं । शुद्धचित्तवाले विद्वानोंने इस स्वाध्यायके अनेक भेद कहे हैं ॥ ३० ॥
( स्वाध्यायमें सब इंद्रिया तत्पर होती हैं। )- साधुका चित्त अर्थमें एकाग्र होता है और ग्रंथके पत्रमें जो अक्षरोंकी पंक्तिया होती हैं उनमें उसकी आखें लगती हैं। इसलिये स्वाध्यायसे चित्त और नेत्रको संयम प्राप्त होता है ऐसे स्वाध्यायका हम कैसे वर्णन कर सकेंगे ?
१ नरो मुञ्चति कर्मणः
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